(आज 'फादर्स डे' पर जगदीश्वर चतुर्वेदी के आह्वान पर पिता की मृत्यु (3 जुलाई 2011) के बाद उनकी श्रद्धांजलि सभा में पढ़ा गया अपना एक संस्मरण लगा रहा हूं :)
— अरुण माहेश्वरी
बात सन् 62 की है। लोकसभा के लिये आम चुनावों के साथ ही पश्चिम बंगाल की विधान सभा के चुनाव थे। कोलकाता उत्तर-पश्चिम सीट से कांग्रेस के अशोक सेन के खिलाफ सीपीआई के स्नेहांशुकांत आचार्य तथा बड़ाबाजार विधानसभा क्षेत्र से कांग्रेस के दक्काक उम्मीदवार ईश्वरदास जालान के खिलाफ सीपीआई के किशन लाल माखरिया मैदान में उतारे गये थे। तब मेरी उम्र बमुश्किल 11 वर्ष थी। हम बड़ाबाजार क्षेत्र में ही पाटनी हाउस में रहते थे। पांच मंजिलों का दो चौक वाला विशाल मकान था। शाम का वक्त था। हमेशा की तरह हम मकान की छत पर खेल रहे थे कि अचानक नीचे सड़क पर लाल झंडों का एक चुनावी जुलूस निकला। मेरे एक मित्र ने चिल्ला कर कहा, अरे, लल्लू के बाबू जुलूस में जा रहे है। झांक कर जब नीचे देखा तो पाया कि हां, तेजी से गुजरते उस जुलूस में कुहनी तक लपेटी हुई पूरी बाह की सफेद कमीज और काली पैंट पहने हाथ के अखबार को लहराते हुए मेरे पिता जुलूस के बिल्कुल आगे अपनी बुलंद आवाज में जोर-जोर से नारे देते हुए जा रहे थे। और, तभी पता चला कि मेरे पिता कम्युनिस्ट है।
सन् ‘62 का जमाना। वैसे ही हवा में कम्युनिस्टों के प्रति नफरत का धुआं फैला हुआ था। ऊपर से बड़ाबाजार की एक बड़ी बाड़ी का खास माहौल, जहां कम्युनिस्ट होना तो दूर की बात, किसी भी राजनीतिक जुलूस में शामिल होना तक अनुचित माना जाता था। ऐसे में बाबू को कम्युनिस्टों की कतार में देख कर हमारे जैसे बच्चे अचंभित और शर्मसार होने के अलावा और कुछ महसूस नहीं कर सकते थे। तभी से मन के गहरे कोने में जुलूस में शामिल अखबार लहराते बाबू का दृश्य हमेशा के लिये अंकित होकर रह गया।
आज भी बाबू के व्यक्तित्व पर सोचते वक्त उनकी वहीं छवि सबसे पहले मस्तिष्क में उबर कर आती है। उसके बाद तो एक लंबे अर्से तक पूरी तरह मूक रह कर घर में बाबू की गतिविधियों, उनकी मित्र मंडलियों, साहित्यिक गोष्ठियों और राजनीतिक बहस-मुबाहिसों को तकता रहा, और पता नहीं कब खुद माक्र्स, एंगेल्स, माओ से लेकर राहुल, मुक्तिबोध की किताबों को टटोलने लगा कि अभी उच्च माध्यमिक परीक्षा भी पास नहीं किया था, लेकिन माओ का गोरिल्ला युद्ध मेरी दिमागी चर्चा का हिस्सा बन गया था। जाहिर है कि एक समय में सड़क के जिस औचक दृश्य ने बड़ाबाजार की बाड़ियों के साधारण परिवेश में अचकचा दिया था, वही दृश्य घर के परिवेश से अभिन्न होकर आगे हमारे संस्कारों में रचने-बसने लगा।
हम नहीं जानते थे कि बाबू ने क्या पढ़ाई की थी, लेकिन इतना जरूर जानते थे कि वे मकान के अन्य लोगों की तुलना में कुछ अलग, परिष्कृत और प्रांजल हिंदी बोला करते थे। उनके मित्र भी कुछ वैसे ही थे। सबसे करीबी थे शंकर माहेश्वरी। दुबले-पतले, नाजुक मिजाज आपाद-मस्तक कवि, प्रसादजी के परम भक्त और छायावाद के उपासक। झूम-झूम कर सुरीले गले से अपने गीत गाया करते थे। निराला जी किस ओज के साथ काव्यपाठ किया करते थे, ‘कामायनी’ के एक-एक सर्ग से कैसे गहरे दार्शनिक संकेत मिलते हैं, ‘कामायनी’ के बारे में मुक्तिबोध की शंकाओं में कितना दम है और दिनकर की ‘उवर्शी’ पर तब चली बहस की गूंज-अनुगूंज बाबू की मित्र मंडली की गोष्ठी में तभी सुनने को मिली थी। लगभग हर रविवार को वे हमारे यहां जुटा करते थे। इसी मित्र-मंडली के एक अंशीदार थे जमनालाल दम्माणी, आनंदबाजार पत्रिका के परम भक्त और एक कट्टर नास्तिक। बाबू की भारी और बुलंद आवाज भी बहस-मुबाहिसे में जमनालाल जी की आवाज को नहीं दबा सकती थी। दास वृत्ति उन्हें कत्तई स्वीकार्य नहीं थी, इसीलिये सचेत रूप में उन्होंने अपना नाम जमनादास नहीं, जमना लाल किया था। एक और, कुछ अपनी ही पीनक में रहने वाले कवि मित्र थे एस नारायण। इनके अतिरिक्त यदा-कदा उपस्थित होने वाले हिंदी के एक प्रोफेसर प्रकाश शंकर चतुर्वेदी थे। इनके अलावा कुछ रईस तबियत के दिखने वाले, हमेशा पान से होठों को लाल किये मृदु भाषी आशाराम जी, और जब कलकत्ते में होते तो हरीशजी भी इन गोष्ठियों में रहा करते थे। बाबू, शंकर माहेश्वरी, जमनालाल दम्माणी, एस नारायण और आशारामजी डागा - ये सभी छोटे-मोटे व्यवसाय से जुड़े हुए लोग थे, लेकिन हमने अपने घर में इन्हें कभी व्यवसाय की बातें करते नहीं देखा था। इन मित्रों ने आपस में मिल कर भी कभी कोई व्यवसाय नहीं किया। साथ मिल कर यदि कोई काम किया तो वह ‘जुही कुंज’ के नाम से एक प्रकाशन संस्थान खोला जो शंकर माहेश्वरी के कविता संकलन ‘कणिका’, प्रकाश शंकर चतुर्वेदी के उपन्यास ‘उड़ते पत्ते’ और हरीश भादानी की कविताओं के संकलन ‘सपन की गली’ के प्रकाशन के बाद ही बंद होगया। एस नारायण जी के कविता संकलन ‘कटाक्ष की उड़न किश्त’ के प्रकाशन का ऐलान जरूर किया गया था, लेकिन शायद वह कभी प्रकाशित नहीं होसका। बाबू की इस मित्र-मंडली के साथ ही एक और नाम को जोड़ना चाहूंगा - देवकिशन बिन्नानी का। एक प्रसिद्ध प्रैस के मालिक देवकिशन जी ही बाबू की मित्र-मंडली में तब सबसे सफल व्यवसायी हुआ करते थे। ये ही वे लोग थे जिन्हें हमने बाबू के सबसे प्रारंभिक मित्रों के रूप में देखा था।
हमारे देखते ही देखते, बाबू अपने इन मित्रों की तुलना में राजनीति की ओर तेजी से प्रवृत्त होगये और बाबू के साथ जिन चंद नये चेहरों को देखा जाने लगा उनमें थे धनराज दफ्तरी, पन्नालाल नाहटा, रामलाल दूगड़। ये सभी कम्युनिस्ट थे। मृदुभाषी धनराज दफ्तरी, विदेशी किताबों के व्यवसायी, पढ़े-लिखे मार्क्सवादी बुद्धिजीवी थे। पन्नालाल नाहटा भी छोटे व्यवसायी ही थे लेकिन असाधारण वक्ता और कवि थे। इनमें रामलाल दूगड़ लंबे-चौड़े डीलडौल वाले अलमस्त, थोड़े अक्खड़, बड़ाबाजार की एक प्रसिद्ध कोठी, पारख कोठी के मैनेजर थे। इन तीनों कामरेडों के साथ ही जुड़ा हुआ एक और नाम था अतुल दत्ता, किसी समय कोलकाता के थोक व्यापार के केंद्र बागड़ी मार्केट में अंग्रेजी दवाओं की एक थोक दुकान के मालिक, लेकिन तब मार्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी की बड़ाबाजार लोकल कमेटी के पूरावक्ती सचिव। यह सन् 64-65 का जमाना रहा होगा। थोड़े अर्से पहले ही बनी मार्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी को भारी सरकारी दमन का सामना करना पड़ रहा था। ‘चीन के दलाल’ का लेबल अभी उतरा ही नहीं था कि ‘65 में उसे पाकिस्तान का दलाल भी घोषित कर दिया गया। देश में तब आपातकाल चल रहा था और मार्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी के सभी नेताओं की धर-पकड़ की जा रही थी। एक समय ऐसा आया जब पार्टी की प्रांतीय कमेटी का पूरा नेतृत्व ही जेल की सींखचों के पीछे था। उस समय पार्टी के नेतृत्व में चलाया जा रहा खाद्य आंदोलन अपने शिखर पर था। तभी पार्टी के प्रांतीय नेतृत्व की दूसरी पंक्ति के पियूष दाशगुप्ता और गणेश घोष सरीखे नेताओं ने एक वैकल्पिक प्रांतीय कमेटी का गठन करके आंदोलन की कमान संभाली और उन तूफानी दिनों में पाटनी हाउस का हमारा घर ही इन नेताओं की गोपनीय गतिविधियों का एक प्रमुख आ हुआ करता था। उसी ऐतिहासिक खाद्य आंदोलन की पृष्ठभूमि में सन् 67 का चुनाव हुआ और पहली बार कांग्रेस की पराजय तथा संयुक्त मोर्चा सरकारों के गठन के साथ ही कृषि और औद्योगिक, दोनों क्षेत्रों में जन-आंदोलनों का एक बिल्कुल नया ज्वार दिखाई दिया। लगभग इसी समय से राजनीति हमारी नसों में भी पूरी तरह बसने लगी थी। हम खुद स्वयंसेवकों के उन जत्थों में शामिल थे, जिनके बारे में नारा दिया गया था कि ‘आजकेर स्वेच्छासेवकई होबे कालकेर मुक्तिवाहिनी’। हमारी दुकान पर भी अब अक्सर अतुल दत्ता और बड़ाबाजार के सुकुमार सेन की तरह के नेता दिखाई देने लगे थे। बाबू के समूचे साहित्यिक, सांस्कृतिक सोच के केंद्र में राजनीति ने अपना प्रमुख स्थान बना लिया। बाबू डीक्लास तो कभी नहीं हो पाये, लेकिन विचारों और व्यवहार में उत्कट नास्तिकता के साथ ही ‘वर्गीय घृणा’ के लक्षणों के संकेत देने लगे। बाबू के नये साहित्यिक मित्रों में इसराइल, विमल वर्मा और श्री हर्ष शामिल होगये। हरीश जी तो सदा से थे ही। नामवर सिंह को भी तब हमने अपने घर में देखा था।
बाबू दुकान भी जाते थे और अन्य तमाम प्रकार की गतिविधियों में भी शामिल रहते थे। बिना कोई औपचारिक शिक्षा पाए एक कपड़े के व्यापारी के सांस्कृतिक रूपांतरण की यह प्रक्रिया आज भी हमारे लिये भारी कौतुहल का विषय है। उनकी गतिविधियों में नया संयोजन बांग्ला नाट्यमंडली ‘गंधर्व’ के साथ उनका जुड़ाव था। ‘गंधर्व’ ने एक पत्रिका भी प्रकाशित की जिसके संपादक थे नृपेन साहा। बाद में वे ही ‘ग्रुप थियेटर’ पत्रिका के संस्थापक संपादक बने और आज तक बांग्ला नाट्य जगत के यशस्वी व्यक्तित्व हैं। किसी भी पत्रिका के प्रस्तुतीकरण, अर्थात मेकअप, गेटअप के मामले में सचमुच नृपेन साहा अतुलनीय हैं। ‘गंधर्व’ नाट्यमंडली के निदेशक थे देवकुमार भट्टाचार्य। उनके पहले श्यामल चटर्जी निदेशक हुआ करते थे, लेकिन हमने श्यामल बाबू को बहुत कम देखा था। रंगमंच पर अनूठी दखल रखने वाले तीक्ष्ण बुद्धि के देबू भट्टाचार्य द्वारा निदेशित कई नाटकों को हमने दक्षिण कोलकाता के ‘मुक्तांगन’ रंगमंच पर देखा था और तभी से ‘मुक्तांगन’ भी हमारी स्मृतियों में हमेशा के लिये बसा हुआ है। देबू भट्टाचार्य एक प्रतिभाशाली निदेशक थे, जिनकी कुछ प्रस्तुतियों ने शंभु मित्रा, उत्पल दत्त, अजितेश बंदोपाध्याय की तरह के बांग्ला रंगमंच के सबसे उज्जवल सितारों से भरे परिवेश में भी अपनी किंचित पहचान बनायी थी। लेकिन परवर्ती दिनों में वे कहां लुप्त होगये, पता नहीं चला। अत्यधिक राजनीति-केंद्रित हो चुके बांग्ला रंगमंच से उनके सूत्र नहीं जुड़ पायें।
सन् ‘71 के बाद बंगाल की राजनीति ने एक नया मोड़ लिया। इसके पहले ही नक्सलबाड़ी आंदोलन को केंद्र में रख कर भारत के कम्युनिस्ट आंदोलन में एक और विभाजन हो चुका था और सीपीआई(एम-एल) का गठन हुआ। बाबू के राजनीतिक मित्रों. धनराज दफ्तरी, पन्नालाल नाहटा और रामलाल दूगड़ पर भी नक्सलवादी आंदोलन का असर पड़ा और वे सीपीआई(एम) से अलग होकर चारू मजुमदार, कानू सान्याल की सीपीआई(एम-एल) से जुड़ गये। ‘71 के चुनाव में 280 सीटों की विधानसभा में 113 सीटों के साथ सीपीआई(एम) ही विधानसभा की सबसे बड़ी पार्टी के रूप में उभरी थी, फिर भी उसे सरकार बनाने का मौका नहीं दिया गया। पार्टी के खिलाफ लगातार खूनी षड़यंत्र किये जाने लगे, कार्यकर्ताओं की खुले आम हत्याएं की जाने लगी और राज्य में एक प्रकार से अर्द्ध-फासिस्ट आतंक का शासन कायम होगया। इसी माहौल में सन् 72 के चुनाव का प्रहसन हुआ जब बंदूक की नोक पर सरे आम चुनावों को लूट लिया गया था। पार्टी के 1100 कार्यकर्ताओं की हत्या कर दी गयी, हजारों को उनके घरों से उजाड़ दिया गया। ऐसे समय में ही जोड़ाबगान के मंडल स्ट्रीट स्थित अपने घर से उजाड़ दिये गये हरेकृष्ण घोष महीनों पाटनी हाउस के हमारे घर पर रहे थे। जोड़ाबागान के उस क्षेत्र से लेकर उत्तर में बारानगर तक तब नक्सलवादियों का मुक्तांचल था। नक्सली तत्व अपने क्षेत्र के विस्तार के लिये काठगोला-जोड़ाबागान के इलाके पर अक्सर हमले किया करते थे। मंडल स्ट्रीट काठगोला के पास ही था।
सन् ‘72 से ‘77 के जमाने को पश्चिम बंगाल में सीपीआई(एम) के इतिहास का सबसे कठिन जमाना कहा जा सकता है। याद पड़ता है इसी दौर में वियतनाम युद्ध भी अपने शिखर पर था। वियतनाम युद्ध में मुक्ति सेना की एक के बाद एक जीतों से उस कठिन दौर में बंगाल के कम्युनिस्टों को भारी प्रेरणा मिलती थी। उन्हीं दिनों बिहार में भ्रष्टाचार के खिलाफ जयप्रकाश नारायण के नेतृत्व में जोरदार आंदोलन शुरू हुआ, गुजरात में कांग्रेस पराजित हुई और जनता पार्टी के नाम से संयुक्त सरकार का गठन किया गया। जयप्रकाश का ‘संपूर्ण क्रांति’ का नारा पूरे देश के नौजवानों को इंदिरा गांधी की एकदलीय तानाशाही के खिलाफ उद्वेलित कर रहा था। तभी 12 जून 1975 के दिन इलाहाबाद हाईकोर्ट के एक फैसले ने तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी के चुनाव को खारिज कर दिया और इसकी प्रतिक्रिया में इंदिरा गांधी ने 25 जून को आंतरिक आपातकाल की घोषणा करके भारत में संसदीय जनतंत्र का पूरी तरह से गला घोंट देने की कोशिश की।
कहना न होगा कि आजाद भारत के राजनीतिक इतिहास में इंदिरा गांधी द्वारा घोषित आंतरिक आपातकाल और उसके खिलाफ भारत की जनता का वीरतापूर्ण संघर्ष तत्कालीन सभी राजनीतिक पार्टियों और राजनीतिक कार्यकर्ताओं के जीवन की सबसे महत्वपूर्ण घटना थी। इसने वामपंथी राजनीति के भी समूचे दृश्यपट को बदल दिया था। जो सीपीआई(एम) कल तक सशस्त्र संघर्ष और वियतनाम युद्ध से प्रेरणा लेकर गुरिल्ला युद्ध की रणनीतियों पर अपने को केंद्रित कर रही थी, क्रांति के सीमाई और लगुआ क्षेत्रों की सिनाख्त की तरह के काम किये जा रहे थे, उसीने यकबयक सन् 72 से पश्चिम बंगाल में चले आरहे अर्द्ध-फासिस्ट आतंक और ‘75 के आंतरिक आपातकाल की घोषणा के बाद भारत में संसदीय जनतंत्र की रक्षा की लड़ाई के असीम महत्व को गहराई से आत्मसात किया। गौर करने लायक बात यह है कि पार्टी की नीतियों में आए इस भारी परिवर्तन का शायद प्रथम साक्षी हमारा घर ही बना था। आंतरिक आपातकाल की घोषणा के बाद ही सभी पार्टियों के नेताओं की व्यापक गिरफ्तारियां की जाने लगी थी। सीपीआई(एम) के भी ज्योतिर्मय बोस और ए. के. गोपालन को बंदी बना लिया गया था। बाकी के सभी नेता अंडरग्राउंड चले गये। ऐसे में देश के कोने-कोने से, कामरेड पी. सुंदरैय्या, ईएमएस, बीटीआर, पी राममूर्ति, एम वसवपुनैय्या, और हरकिशन सिंह सुरजीत छिप-छिप कर कोलकाता आए थे और सभी को हमारे पार्क स्ट्रीट स्थित घर में रखा गया था। पांच कमरों के उस फ्लैट के दो कमरों में ये सभी नेता रह रहे थे और ज्योति बसु तथा प्रमोद दाशगुप्त सिर्फ बैठक के समय कोलकाता के अपने गुप्त स्थान से आ जाया करते थे। आंतरिक आपातकाल की घोषणा के बाद पोलिट ब्यूरो की पहली बैठक हमारे घर 48एम, पार्क स्ट्रीट पर हुई, जिसमें कामरेड सुंदरैय्या ने पार्टी के महासचिव पद से इस्तीफा दिया था। इस बैठक के बाद काफी दिनों तक कामरेड रणदिवे हमारे घर पर ही रह गये। उनसे मिलने ज्योति बसु, प्रमोद दाशगुप्त अक्सर वहां आया करते थे। कामरेड रणदिवे का वह प्रेरणादायी सान्निध्य हमेशा हमारे जीवन का पाथेय बना रहेगा, इसमें कोई शक नहीं है। उस महान प्रतिभाशाली नेता, अध्येता, चिंतक और विचारक की सीखों ने हमें अपने अंतर से कितना समृद्ध और उदात्त बनाया है, इसका हम शब्दों में वर्णन नहीं कर सकते। कामरेड बीटीआर बाद में भी अपनी यात्राओं के पड़ाव के तौर पर कोलकाता आने पर अनेक बार हमारे साल्ट लेक स्थित घर पर भी रुकते रहे हैं।
मेरी शादी सन् 74 में उस वक्त हुई थी जब ऐतिहासिक रेल हड़ताल चल रही थी। सरला से मेरा संपर्क काफी पहले ही हो गया था। ‘74 आते-आते जब मैंने सरला से शादी करने का निर्णय लिया तो मेरा परिवार मेरे इस फैसले को स्वीकारने के लिये कत्तई तैयार नहीं था। यह एक अन्तर्जातीय विवाह था। लेकिन अपने परिवार के प्रगतिशील परिवेश, और खास तौर पर बाबू के विद्रोही तेवर को देखते हुए मेरी शादी के प्रति परिवार का रुख मेरे लिये कुछ न समझ में आने वाला अप्रत्याशित रुख था। उसी समय बाबू से मेरे कुछ अजीबो-गरीब पत्राचार भी हुए। तथापि मोहब्बत के जुनून के सामने आज तक कौन टिक पाया है! शादी करके कोलकाता लौटने पर बाबू ने धीरे से कान में कहा, तुमने अच्छा किया। बाद में पार्क स्ट्रीट के घर पर एक अच्छी सी दावत हुई जिसमें ज्योति बाबू, प्रमोद दा आदि सबने हिस्सा लिया था।
जहां तक परिवार में बाबू की भूमिका का सवाल है, जब तक हम दोनों भाइयों ने वयस्क होकर काम-काज को नहीं सम्हाला था, बाबू ही एक पूर्ण जिम्मेदार व्यक्ति की तरह वस्तुत: हमारे परिवार की धुरी थे। वे जीविका के लिये जीवन भर व्यवसाय से जुड़े रहे, लेकिन एक जिद की तरह उन्होंने साहित्य और राजनीति के संस्कारों को अपनाने की जैसी कोशिश की उसे व्यवसाय और बनियागिरी के संस्कारों से एक प्रकार का संपूर्ण विद्रोह कहा जा सकता है। व्यवसाय नहीं छोड़ेंगे लेकिन व्यवसाय के संस्कार छोड़ेंगे। जिनसे दोस्ती होगी या मन मिलेगा, वे व्यवसाय के लोग नहीं होंगे, उसके बाहर के होंगे। ऐसे एक मुखिया के परिवार के भीतर की कशमकश और उससे मिलने वाले स्वाभाविक संस्कारों के बारे में कोई भी आसानी से अनुमान लगा सकता है। यह तमाम प्रकार के परंपरागत मूल्यों के संपूर्ण निषेघ का उत्कट विद्रोही संस्कार था।
पाब्लो नेरूदा की एक पंक्ति है : मैं अपनी जड़ों से टूट कर अलग हुआ/मेरा देश अपने आकार में बड़ा हुआ।
सामाजिक रूढि़यों और परंपराओं से मुक्त बाबू के विचरण के लिये भी पूरी दुनिया खुली थी। एक शिक्षित आधुनिक जीवन के प्रति उनमें गहरा आकर्षण था। उन्होंने अपनी सामर्थ्य भर एक लंबी छलांग लगायी, अपनी औपचारिक शिक्षा के अभाव को किताबों से विशेष लगाव पैदा करके अनौपचारिक शिक्षा के जरिये दूर करने की यथासंभव कोशिश की, बच्चों के लिये उच्च शिक्षा के रास्ते खोले और हमारे परिवार को भारत के कम्युनिस्ट आंदोलन का एक स्वाभाविक हिस्सा बना दिया। कुटुंब, परिवार, समाज और देश की सीमाओं से भी आगे, कम्युनिस्ट आंदोलन का वैश्विक विस्तार उनकी संभावनाओं का क्षेत्र हो सकता था। उन्होंने इसे सीपीआई(एम) के संगठन का एक निष्ठावान सिपाही बन कर चरितार्थ किया। पार्टी अखबारों के हर शब्द को किसी वेद वाक्य की तरह पवित्र माना और नेताओं के सभी निर्देशों को सेनापति का अनुलंघनीय आदेश। वे जीवन की आखिरी घड़ी तक जिस निष्ठा और लगन के साथ ‘ग्रुप थियेटर’ पत्रिका के प्रकाशन में लगे रहे और ‘स्वाधीनता’ सहित पार्टी के अन्य कामों को भी जिस आस्था के साथ करने की इच्छा रखते थे, वह सचमुच गौर करने लायक था।
बाबू के दिये साहित्यिक-राजनीतिक परिवेश ने हममें लिखने-पढ़ने की दुनिया में और आगे छलांग लगाने का जो माद्दा उत्पन्न किया, उसके लिये हम हमेशा उनके प्रति श्रद्धावनत रहेंगे। उनका दृढ़, निष्ठावान राजनीतिक व्यक्तित्व हम सबके लिये हमेशा प्रेरणादायी बना रहेगा।
आज वे हमारे बीच नहीं रहे। उनका तना हुआ समझौताहीन व्यक्तित्व हमें यही संदेश देता है कि सचाई और न्याय के पथ पर अडिग रहो, हर प्रकार की रूढ़ि के प्रति तीक्ष्ण आलोचनात्मक विवेक बनाये रखो, प्रगतिशील और वैज्ञानिक मूल्यों, आधुनिक भाव-बोध को अपनाने के रास्ते की बाधाओं को निर्ममता से अस्वीकारों और जीवन को अपनी शर्तों पर जीओ। बाबू के दिखाए इसी रास्ते पर यथासंभव कायम रहने की प्रतिज्ञा के साथ हम उनकी स्मृतियों के प्रति आंतरिक श्रद्धांजलि अर्पित करते हैं।
— अरुण माहेश्वरी
बात सन् 62 की है। लोकसभा के लिये आम चुनावों के साथ ही पश्चिम बंगाल की विधान सभा के चुनाव थे। कोलकाता उत्तर-पश्चिम सीट से कांग्रेस के अशोक सेन के खिलाफ सीपीआई के स्नेहांशुकांत आचार्य तथा बड़ाबाजार विधानसभा क्षेत्र से कांग्रेस के दक्काक उम्मीदवार ईश्वरदास जालान के खिलाफ सीपीआई के किशन लाल माखरिया मैदान में उतारे गये थे। तब मेरी उम्र बमुश्किल 11 वर्ष थी। हम बड़ाबाजार क्षेत्र में ही पाटनी हाउस में रहते थे। पांच मंजिलों का दो चौक वाला विशाल मकान था। शाम का वक्त था। हमेशा की तरह हम मकान की छत पर खेल रहे थे कि अचानक नीचे सड़क पर लाल झंडों का एक चुनावी जुलूस निकला। मेरे एक मित्र ने चिल्ला कर कहा, अरे, लल्लू के बाबू जुलूस में जा रहे है। झांक कर जब नीचे देखा तो पाया कि हां, तेजी से गुजरते उस जुलूस में कुहनी तक लपेटी हुई पूरी बाह की सफेद कमीज और काली पैंट पहने हाथ के अखबार को लहराते हुए मेरे पिता जुलूस के बिल्कुल आगे अपनी बुलंद आवाज में जोर-जोर से नारे देते हुए जा रहे थे। और, तभी पता चला कि मेरे पिता कम्युनिस्ट है।
सन् ‘62 का जमाना। वैसे ही हवा में कम्युनिस्टों के प्रति नफरत का धुआं फैला हुआ था। ऊपर से बड़ाबाजार की एक बड़ी बाड़ी का खास माहौल, जहां कम्युनिस्ट होना तो दूर की बात, किसी भी राजनीतिक जुलूस में शामिल होना तक अनुचित माना जाता था। ऐसे में बाबू को कम्युनिस्टों की कतार में देख कर हमारे जैसे बच्चे अचंभित और शर्मसार होने के अलावा और कुछ महसूस नहीं कर सकते थे। तभी से मन के गहरे कोने में जुलूस में शामिल अखबार लहराते बाबू का दृश्य हमेशा के लिये अंकित होकर रह गया।
आज भी बाबू के व्यक्तित्व पर सोचते वक्त उनकी वहीं छवि सबसे पहले मस्तिष्क में उबर कर आती है। उसके बाद तो एक लंबे अर्से तक पूरी तरह मूक रह कर घर में बाबू की गतिविधियों, उनकी मित्र मंडलियों, साहित्यिक गोष्ठियों और राजनीतिक बहस-मुबाहिसों को तकता रहा, और पता नहीं कब खुद माक्र्स, एंगेल्स, माओ से लेकर राहुल, मुक्तिबोध की किताबों को टटोलने लगा कि अभी उच्च माध्यमिक परीक्षा भी पास नहीं किया था, लेकिन माओ का गोरिल्ला युद्ध मेरी दिमागी चर्चा का हिस्सा बन गया था। जाहिर है कि एक समय में सड़क के जिस औचक दृश्य ने बड़ाबाजार की बाड़ियों के साधारण परिवेश में अचकचा दिया था, वही दृश्य घर के परिवेश से अभिन्न होकर आगे हमारे संस्कारों में रचने-बसने लगा।
हम नहीं जानते थे कि बाबू ने क्या पढ़ाई की थी, लेकिन इतना जरूर जानते थे कि वे मकान के अन्य लोगों की तुलना में कुछ अलग, परिष्कृत और प्रांजल हिंदी बोला करते थे। उनके मित्र भी कुछ वैसे ही थे। सबसे करीबी थे शंकर माहेश्वरी। दुबले-पतले, नाजुक मिजाज आपाद-मस्तक कवि, प्रसादजी के परम भक्त और छायावाद के उपासक। झूम-झूम कर सुरीले गले से अपने गीत गाया करते थे। निराला जी किस ओज के साथ काव्यपाठ किया करते थे, ‘कामायनी’ के एक-एक सर्ग से कैसे गहरे दार्शनिक संकेत मिलते हैं, ‘कामायनी’ के बारे में मुक्तिबोध की शंकाओं में कितना दम है और दिनकर की ‘उवर्शी’ पर तब चली बहस की गूंज-अनुगूंज बाबू की मित्र मंडली की गोष्ठी में तभी सुनने को मिली थी। लगभग हर रविवार को वे हमारे यहां जुटा करते थे। इसी मित्र-मंडली के एक अंशीदार थे जमनालाल दम्माणी, आनंदबाजार पत्रिका के परम भक्त और एक कट्टर नास्तिक। बाबू की भारी और बुलंद आवाज भी बहस-मुबाहिसे में जमनालाल जी की आवाज को नहीं दबा सकती थी। दास वृत्ति उन्हें कत्तई स्वीकार्य नहीं थी, इसीलिये सचेत रूप में उन्होंने अपना नाम जमनादास नहीं, जमना लाल किया था। एक और, कुछ अपनी ही पीनक में रहने वाले कवि मित्र थे एस नारायण। इनके अतिरिक्त यदा-कदा उपस्थित होने वाले हिंदी के एक प्रोफेसर प्रकाश शंकर चतुर्वेदी थे। इनके अलावा कुछ रईस तबियत के दिखने वाले, हमेशा पान से होठों को लाल किये मृदु भाषी आशाराम जी, और जब कलकत्ते में होते तो हरीशजी भी इन गोष्ठियों में रहा करते थे। बाबू, शंकर माहेश्वरी, जमनालाल दम्माणी, एस नारायण और आशारामजी डागा - ये सभी छोटे-मोटे व्यवसाय से जुड़े हुए लोग थे, लेकिन हमने अपने घर में इन्हें कभी व्यवसाय की बातें करते नहीं देखा था। इन मित्रों ने आपस में मिल कर भी कभी कोई व्यवसाय नहीं किया। साथ मिल कर यदि कोई काम किया तो वह ‘जुही कुंज’ के नाम से एक प्रकाशन संस्थान खोला जो शंकर माहेश्वरी के कविता संकलन ‘कणिका’, प्रकाश शंकर चतुर्वेदी के उपन्यास ‘उड़ते पत्ते’ और हरीश भादानी की कविताओं के संकलन ‘सपन की गली’ के प्रकाशन के बाद ही बंद होगया। एस नारायण जी के कविता संकलन ‘कटाक्ष की उड़न किश्त’ के प्रकाशन का ऐलान जरूर किया गया था, लेकिन शायद वह कभी प्रकाशित नहीं होसका। बाबू की इस मित्र-मंडली के साथ ही एक और नाम को जोड़ना चाहूंगा - देवकिशन बिन्नानी का। एक प्रसिद्ध प्रैस के मालिक देवकिशन जी ही बाबू की मित्र-मंडली में तब सबसे सफल व्यवसायी हुआ करते थे। ये ही वे लोग थे जिन्हें हमने बाबू के सबसे प्रारंभिक मित्रों के रूप में देखा था।
हमारे देखते ही देखते, बाबू अपने इन मित्रों की तुलना में राजनीति की ओर तेजी से प्रवृत्त होगये और बाबू के साथ जिन चंद नये चेहरों को देखा जाने लगा उनमें थे धनराज दफ्तरी, पन्नालाल नाहटा, रामलाल दूगड़। ये सभी कम्युनिस्ट थे। मृदुभाषी धनराज दफ्तरी, विदेशी किताबों के व्यवसायी, पढ़े-लिखे मार्क्सवादी बुद्धिजीवी थे। पन्नालाल नाहटा भी छोटे व्यवसायी ही थे लेकिन असाधारण वक्ता और कवि थे। इनमें रामलाल दूगड़ लंबे-चौड़े डीलडौल वाले अलमस्त, थोड़े अक्खड़, बड़ाबाजार की एक प्रसिद्ध कोठी, पारख कोठी के मैनेजर थे। इन तीनों कामरेडों के साथ ही जुड़ा हुआ एक और नाम था अतुल दत्ता, किसी समय कोलकाता के थोक व्यापार के केंद्र बागड़ी मार्केट में अंग्रेजी दवाओं की एक थोक दुकान के मालिक, लेकिन तब मार्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी की बड़ाबाजार लोकल कमेटी के पूरावक्ती सचिव। यह सन् 64-65 का जमाना रहा होगा। थोड़े अर्से पहले ही बनी मार्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी को भारी सरकारी दमन का सामना करना पड़ रहा था। ‘चीन के दलाल’ का लेबल अभी उतरा ही नहीं था कि ‘65 में उसे पाकिस्तान का दलाल भी घोषित कर दिया गया। देश में तब आपातकाल चल रहा था और मार्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी के सभी नेताओं की धर-पकड़ की जा रही थी। एक समय ऐसा आया जब पार्टी की प्रांतीय कमेटी का पूरा नेतृत्व ही जेल की सींखचों के पीछे था। उस समय पार्टी के नेतृत्व में चलाया जा रहा खाद्य आंदोलन अपने शिखर पर था। तभी पार्टी के प्रांतीय नेतृत्व की दूसरी पंक्ति के पियूष दाशगुप्ता और गणेश घोष सरीखे नेताओं ने एक वैकल्पिक प्रांतीय कमेटी का गठन करके आंदोलन की कमान संभाली और उन तूफानी दिनों में पाटनी हाउस का हमारा घर ही इन नेताओं की गोपनीय गतिविधियों का एक प्रमुख आ हुआ करता था। उसी ऐतिहासिक खाद्य आंदोलन की पृष्ठभूमि में सन् 67 का चुनाव हुआ और पहली बार कांग्रेस की पराजय तथा संयुक्त मोर्चा सरकारों के गठन के साथ ही कृषि और औद्योगिक, दोनों क्षेत्रों में जन-आंदोलनों का एक बिल्कुल नया ज्वार दिखाई दिया। लगभग इसी समय से राजनीति हमारी नसों में भी पूरी तरह बसने लगी थी। हम खुद स्वयंसेवकों के उन जत्थों में शामिल थे, जिनके बारे में नारा दिया गया था कि ‘आजकेर स्वेच्छासेवकई होबे कालकेर मुक्तिवाहिनी’। हमारी दुकान पर भी अब अक्सर अतुल दत्ता और बड़ाबाजार के सुकुमार सेन की तरह के नेता दिखाई देने लगे थे। बाबू के समूचे साहित्यिक, सांस्कृतिक सोच के केंद्र में राजनीति ने अपना प्रमुख स्थान बना लिया। बाबू डीक्लास तो कभी नहीं हो पाये, लेकिन विचारों और व्यवहार में उत्कट नास्तिकता के साथ ही ‘वर्गीय घृणा’ के लक्षणों के संकेत देने लगे। बाबू के नये साहित्यिक मित्रों में इसराइल, विमल वर्मा और श्री हर्ष शामिल होगये। हरीश जी तो सदा से थे ही। नामवर सिंह को भी तब हमने अपने घर में देखा था।
बाबू दुकान भी जाते थे और अन्य तमाम प्रकार की गतिविधियों में भी शामिल रहते थे। बिना कोई औपचारिक शिक्षा पाए एक कपड़े के व्यापारी के सांस्कृतिक रूपांतरण की यह प्रक्रिया आज भी हमारे लिये भारी कौतुहल का विषय है। उनकी गतिविधियों में नया संयोजन बांग्ला नाट्यमंडली ‘गंधर्व’ के साथ उनका जुड़ाव था। ‘गंधर्व’ ने एक पत्रिका भी प्रकाशित की जिसके संपादक थे नृपेन साहा। बाद में वे ही ‘ग्रुप थियेटर’ पत्रिका के संस्थापक संपादक बने और आज तक बांग्ला नाट्य जगत के यशस्वी व्यक्तित्व हैं। किसी भी पत्रिका के प्रस्तुतीकरण, अर्थात मेकअप, गेटअप के मामले में सचमुच नृपेन साहा अतुलनीय हैं। ‘गंधर्व’ नाट्यमंडली के निदेशक थे देवकुमार भट्टाचार्य। उनके पहले श्यामल चटर्जी निदेशक हुआ करते थे, लेकिन हमने श्यामल बाबू को बहुत कम देखा था। रंगमंच पर अनूठी दखल रखने वाले तीक्ष्ण बुद्धि के देबू भट्टाचार्य द्वारा निदेशित कई नाटकों को हमने दक्षिण कोलकाता के ‘मुक्तांगन’ रंगमंच पर देखा था और तभी से ‘मुक्तांगन’ भी हमारी स्मृतियों में हमेशा के लिये बसा हुआ है। देबू भट्टाचार्य एक प्रतिभाशाली निदेशक थे, जिनकी कुछ प्रस्तुतियों ने शंभु मित्रा, उत्पल दत्त, अजितेश बंदोपाध्याय की तरह के बांग्ला रंगमंच के सबसे उज्जवल सितारों से भरे परिवेश में भी अपनी किंचित पहचान बनायी थी। लेकिन परवर्ती दिनों में वे कहां लुप्त होगये, पता नहीं चला। अत्यधिक राजनीति-केंद्रित हो चुके बांग्ला रंगमंच से उनके सूत्र नहीं जुड़ पायें।
सन् ‘71 के बाद बंगाल की राजनीति ने एक नया मोड़ लिया। इसके पहले ही नक्सलबाड़ी आंदोलन को केंद्र में रख कर भारत के कम्युनिस्ट आंदोलन में एक और विभाजन हो चुका था और सीपीआई(एम-एल) का गठन हुआ। बाबू के राजनीतिक मित्रों. धनराज दफ्तरी, पन्नालाल नाहटा और रामलाल दूगड़ पर भी नक्सलवादी आंदोलन का असर पड़ा और वे सीपीआई(एम) से अलग होकर चारू मजुमदार, कानू सान्याल की सीपीआई(एम-एल) से जुड़ गये। ‘71 के चुनाव में 280 सीटों की विधानसभा में 113 सीटों के साथ सीपीआई(एम) ही विधानसभा की सबसे बड़ी पार्टी के रूप में उभरी थी, फिर भी उसे सरकार बनाने का मौका नहीं दिया गया। पार्टी के खिलाफ लगातार खूनी षड़यंत्र किये जाने लगे, कार्यकर्ताओं की खुले आम हत्याएं की जाने लगी और राज्य में एक प्रकार से अर्द्ध-फासिस्ट आतंक का शासन कायम होगया। इसी माहौल में सन् 72 के चुनाव का प्रहसन हुआ जब बंदूक की नोक पर सरे आम चुनावों को लूट लिया गया था। पार्टी के 1100 कार्यकर्ताओं की हत्या कर दी गयी, हजारों को उनके घरों से उजाड़ दिया गया। ऐसे समय में ही जोड़ाबगान के मंडल स्ट्रीट स्थित अपने घर से उजाड़ दिये गये हरेकृष्ण घोष महीनों पाटनी हाउस के हमारे घर पर रहे थे। जोड़ाबागान के उस क्षेत्र से लेकर उत्तर में बारानगर तक तब नक्सलवादियों का मुक्तांचल था। नक्सली तत्व अपने क्षेत्र के विस्तार के लिये काठगोला-जोड़ाबागान के इलाके पर अक्सर हमले किया करते थे। मंडल स्ट्रीट काठगोला के पास ही था।
सन् ‘72 से ‘77 के जमाने को पश्चिम बंगाल में सीपीआई(एम) के इतिहास का सबसे कठिन जमाना कहा जा सकता है। याद पड़ता है इसी दौर में वियतनाम युद्ध भी अपने शिखर पर था। वियतनाम युद्ध में मुक्ति सेना की एक के बाद एक जीतों से उस कठिन दौर में बंगाल के कम्युनिस्टों को भारी प्रेरणा मिलती थी। उन्हीं दिनों बिहार में भ्रष्टाचार के खिलाफ जयप्रकाश नारायण के नेतृत्व में जोरदार आंदोलन शुरू हुआ, गुजरात में कांग्रेस पराजित हुई और जनता पार्टी के नाम से संयुक्त सरकार का गठन किया गया। जयप्रकाश का ‘संपूर्ण क्रांति’ का नारा पूरे देश के नौजवानों को इंदिरा गांधी की एकदलीय तानाशाही के खिलाफ उद्वेलित कर रहा था। तभी 12 जून 1975 के दिन इलाहाबाद हाईकोर्ट के एक फैसले ने तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी के चुनाव को खारिज कर दिया और इसकी प्रतिक्रिया में इंदिरा गांधी ने 25 जून को आंतरिक आपातकाल की घोषणा करके भारत में संसदीय जनतंत्र का पूरी तरह से गला घोंट देने की कोशिश की।
कहना न होगा कि आजाद भारत के राजनीतिक इतिहास में इंदिरा गांधी द्वारा घोषित आंतरिक आपातकाल और उसके खिलाफ भारत की जनता का वीरतापूर्ण संघर्ष तत्कालीन सभी राजनीतिक पार्टियों और राजनीतिक कार्यकर्ताओं के जीवन की सबसे महत्वपूर्ण घटना थी। इसने वामपंथी राजनीति के भी समूचे दृश्यपट को बदल दिया था। जो सीपीआई(एम) कल तक सशस्त्र संघर्ष और वियतनाम युद्ध से प्रेरणा लेकर गुरिल्ला युद्ध की रणनीतियों पर अपने को केंद्रित कर रही थी, क्रांति के सीमाई और लगुआ क्षेत्रों की सिनाख्त की तरह के काम किये जा रहे थे, उसीने यकबयक सन् 72 से पश्चिम बंगाल में चले आरहे अर्द्ध-फासिस्ट आतंक और ‘75 के आंतरिक आपातकाल की घोषणा के बाद भारत में संसदीय जनतंत्र की रक्षा की लड़ाई के असीम महत्व को गहराई से आत्मसात किया। गौर करने लायक बात यह है कि पार्टी की नीतियों में आए इस भारी परिवर्तन का शायद प्रथम साक्षी हमारा घर ही बना था। आंतरिक आपातकाल की घोषणा के बाद ही सभी पार्टियों के नेताओं की व्यापक गिरफ्तारियां की जाने लगी थी। सीपीआई(एम) के भी ज्योतिर्मय बोस और ए. के. गोपालन को बंदी बना लिया गया था। बाकी के सभी नेता अंडरग्राउंड चले गये। ऐसे में देश के कोने-कोने से, कामरेड पी. सुंदरैय्या, ईएमएस, बीटीआर, पी राममूर्ति, एम वसवपुनैय्या, और हरकिशन सिंह सुरजीत छिप-छिप कर कोलकाता आए थे और सभी को हमारे पार्क स्ट्रीट स्थित घर में रखा गया था। पांच कमरों के उस फ्लैट के दो कमरों में ये सभी नेता रह रहे थे और ज्योति बसु तथा प्रमोद दाशगुप्त सिर्फ बैठक के समय कोलकाता के अपने गुप्त स्थान से आ जाया करते थे। आंतरिक आपातकाल की घोषणा के बाद पोलिट ब्यूरो की पहली बैठक हमारे घर 48एम, पार्क स्ट्रीट पर हुई, जिसमें कामरेड सुंदरैय्या ने पार्टी के महासचिव पद से इस्तीफा दिया था। इस बैठक के बाद काफी दिनों तक कामरेड रणदिवे हमारे घर पर ही रह गये। उनसे मिलने ज्योति बसु, प्रमोद दाशगुप्त अक्सर वहां आया करते थे। कामरेड रणदिवे का वह प्रेरणादायी सान्निध्य हमेशा हमारे जीवन का पाथेय बना रहेगा, इसमें कोई शक नहीं है। उस महान प्रतिभाशाली नेता, अध्येता, चिंतक और विचारक की सीखों ने हमें अपने अंतर से कितना समृद्ध और उदात्त बनाया है, इसका हम शब्दों में वर्णन नहीं कर सकते। कामरेड बीटीआर बाद में भी अपनी यात्राओं के पड़ाव के तौर पर कोलकाता आने पर अनेक बार हमारे साल्ट लेक स्थित घर पर भी रुकते रहे हैं।
मेरी शादी सन् 74 में उस वक्त हुई थी जब ऐतिहासिक रेल हड़ताल चल रही थी। सरला से मेरा संपर्क काफी पहले ही हो गया था। ‘74 आते-आते जब मैंने सरला से शादी करने का निर्णय लिया तो मेरा परिवार मेरे इस फैसले को स्वीकारने के लिये कत्तई तैयार नहीं था। यह एक अन्तर्जातीय विवाह था। लेकिन अपने परिवार के प्रगतिशील परिवेश, और खास तौर पर बाबू के विद्रोही तेवर को देखते हुए मेरी शादी के प्रति परिवार का रुख मेरे लिये कुछ न समझ में आने वाला अप्रत्याशित रुख था। उसी समय बाबू से मेरे कुछ अजीबो-गरीब पत्राचार भी हुए। तथापि मोहब्बत के जुनून के सामने आज तक कौन टिक पाया है! शादी करके कोलकाता लौटने पर बाबू ने धीरे से कान में कहा, तुमने अच्छा किया। बाद में पार्क स्ट्रीट के घर पर एक अच्छी सी दावत हुई जिसमें ज्योति बाबू, प्रमोद दा आदि सबने हिस्सा लिया था।
जहां तक परिवार में बाबू की भूमिका का सवाल है, जब तक हम दोनों भाइयों ने वयस्क होकर काम-काज को नहीं सम्हाला था, बाबू ही एक पूर्ण जिम्मेदार व्यक्ति की तरह वस्तुत: हमारे परिवार की धुरी थे। वे जीविका के लिये जीवन भर व्यवसाय से जुड़े रहे, लेकिन एक जिद की तरह उन्होंने साहित्य और राजनीति के संस्कारों को अपनाने की जैसी कोशिश की उसे व्यवसाय और बनियागिरी के संस्कारों से एक प्रकार का संपूर्ण विद्रोह कहा जा सकता है। व्यवसाय नहीं छोड़ेंगे लेकिन व्यवसाय के संस्कार छोड़ेंगे। जिनसे दोस्ती होगी या मन मिलेगा, वे व्यवसाय के लोग नहीं होंगे, उसके बाहर के होंगे। ऐसे एक मुखिया के परिवार के भीतर की कशमकश और उससे मिलने वाले स्वाभाविक संस्कारों के बारे में कोई भी आसानी से अनुमान लगा सकता है। यह तमाम प्रकार के परंपरागत मूल्यों के संपूर्ण निषेघ का उत्कट विद्रोही संस्कार था।
पाब्लो नेरूदा की एक पंक्ति है : मैं अपनी जड़ों से टूट कर अलग हुआ/मेरा देश अपने आकार में बड़ा हुआ।
सामाजिक रूढि़यों और परंपराओं से मुक्त बाबू के विचरण के लिये भी पूरी दुनिया खुली थी। एक शिक्षित आधुनिक जीवन के प्रति उनमें गहरा आकर्षण था। उन्होंने अपनी सामर्थ्य भर एक लंबी छलांग लगायी, अपनी औपचारिक शिक्षा के अभाव को किताबों से विशेष लगाव पैदा करके अनौपचारिक शिक्षा के जरिये दूर करने की यथासंभव कोशिश की, बच्चों के लिये उच्च शिक्षा के रास्ते खोले और हमारे परिवार को भारत के कम्युनिस्ट आंदोलन का एक स्वाभाविक हिस्सा बना दिया। कुटुंब, परिवार, समाज और देश की सीमाओं से भी आगे, कम्युनिस्ट आंदोलन का वैश्विक विस्तार उनकी संभावनाओं का क्षेत्र हो सकता था। उन्होंने इसे सीपीआई(एम) के संगठन का एक निष्ठावान सिपाही बन कर चरितार्थ किया। पार्टी अखबारों के हर शब्द को किसी वेद वाक्य की तरह पवित्र माना और नेताओं के सभी निर्देशों को सेनापति का अनुलंघनीय आदेश। वे जीवन की आखिरी घड़ी तक जिस निष्ठा और लगन के साथ ‘ग्रुप थियेटर’ पत्रिका के प्रकाशन में लगे रहे और ‘स्वाधीनता’ सहित पार्टी के अन्य कामों को भी जिस आस्था के साथ करने की इच्छा रखते थे, वह सचमुच गौर करने लायक था।
बाबू के दिये साहित्यिक-राजनीतिक परिवेश ने हममें लिखने-पढ़ने की दुनिया में और आगे छलांग लगाने का जो माद्दा उत्पन्न किया, उसके लिये हम हमेशा उनके प्रति श्रद्धावनत रहेंगे। उनका दृढ़, निष्ठावान राजनीतिक व्यक्तित्व हम सबके लिये हमेशा प्रेरणादायी बना रहेगा।
आज वे हमारे बीच नहीं रहे। उनका तना हुआ समझौताहीन व्यक्तित्व हमें यही संदेश देता है कि सचाई और न्याय के पथ पर अडिग रहो, हर प्रकार की रूढ़ि के प्रति तीक्ष्ण आलोचनात्मक विवेक बनाये रखो, प्रगतिशील और वैज्ञानिक मूल्यों, आधुनिक भाव-बोध को अपनाने के रास्ते की बाधाओं को निर्ममता से अस्वीकारों और जीवन को अपनी शर्तों पर जीओ। बाबू के दिखाए इसी रास्ते पर यथासंभव कायम रहने की प्रतिज्ञा के साथ हम उनकी स्मृतियों के प्रति आंतरिक श्रद्धांजलि अर्पित करते हैं।
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