मंगलवार, 19 जून 2018

'लुप्त होती अस्मिताओं' के अवलोपीकरण का लेखकीय जादू

—अरुण माहेश्वरी


हमारे सामने कोलकाता के वयोवृद्ध आलोचक और संपादक विमल वर्मा का चंद महीनों पहले प्रकाशित लेखों का इकलौता संकलन है — 'लुप्त होते लोगों की अस्मिता' । लगभग पचास साल से कुछ अधिक ही हो गये होंगे, विमल वर्मा उन थोड़े से लोगों में है जो हमारे निजी वृहत्तर परिवेश के एक खास प्रांतर में किसी न किसी रूप में स्थायी रूप से शामिल रहे हैं । कभी पिता के साहित्यिक मित्र के रूप में, तो कभी एक संपादक के रूप में जिनकी पत्रिका 'सामयिक' में करीब 45 साल पहले हमारी लिखी पहली समीक्षा प्रकाशित हुई थी, तो कभी साहित्य-आंदोलन और राजनीति के सह-कर्मी के रूप में, तो लंबे अर्से से सामूहिक साहित्य-विमर्शों में एक सहभागी के रूप में ।

विमल जी ने विभिन्न साहित्यिक विषयों पर काफी लिखा है, अपनी पत्रिकाओं के अलावा देश भर की अनेक पत्रिकाओं में । लेकिन आज जब वे पचासी साल से भी ऊपर के हो रहे हैं, तब उनके लेखों का यह पहला संकलन आया है, उनके दिल्ली-स्थित मित्र आनंद प्रकाश के द्वारा चयनित लेखों का संकलन, जिसमें आनंद प्रकाश ने एक भूमिका भी लिखी है ।

आनंद प्रकाश ने इस संकलन के लेखों के आधार पर ही इसे 'लुप्त होते लोगों की अस्मिता' शीर्षक दिया है । अस्तित्ववादी दार्शनिक मार्टिन हाइडेगर की सबसे प्रमुख किताब है — प्राणी सत्ता और काल (Being and Time) । इसका एक प्रमुख अध्याय है — Dasein and Temporality जिसे मैं हिंदी में 'भासमान अस्तित्व और सामयिकता' कहना चाहूंगा । Dasein अर्थात भासमान अस्तित्व, प्राणी की प्रत्यक्ष सत्ता — हाइडेगर के पूरे चिंतन में यह एक केंद्रीय महत्व का पद है । वह जीव की प्राणी सत्ता पर विचार के क्रम को कभी भी उसके प्रत्यक्ष रूप से अलग करके नहीं देखता । इसी प्रकार, उनके यहां काल के साथ सामयिकता का, time के साथ temporality का संबंध भी आता है । अस्तित्व के साथ जुड़ी भासमानता और सामयिकता की ये वे अनिवार्य श्रेणियां हैं, जो हाइडेगर की दार्शनिक तत्वमीमांसा में मनन की प्रक्रिया के बीच से क्रमशः लुप्त होती जाती है । हाइडेगर का दर्शनशास्त्र प्रत्यक्ष और सामयिकता के इसी लोप की परिघटना का दिग्दर्शन कराता है । हर प्राणी सत्ता का यह जो लुप्त होता हुआ सत्य है, उसीमें हाइडेगर उसकी तात्विक सत्ता को पाने की संभावना (potentiality for being) और उसकी मृत्यु  दोनों को निहित देखता है ।

कहना न होगा, विमल जी के इस संकलन के शीर्षक 'लुप्त होते लोगों की अस्मिता' को देख कर ही हमारे मन में कुछ ऐसी ही प्राणीसत्ताओं के भासमान अस्तित्व की सामयिकता के लोप की प्रक्रिया का एक चित्र सा उभरने लगता है । भासमानता की सत्तात्मक संभावनाओँ के बजाय उसके अंत की तरह का दृश्य ।

जैसा कि हमने पहले ही कहा है, विमल वर्मा खुद हिंदी के उन आलोचकों, संपादकों में रहे हैं, साहित्य जगत में सालों तक जिनकी एक भासमानता रही है । पिछली सदी का साठ और सत्तर का उत्तेजनापूर्ण साहित्यिक माहौल और उसमें 'सामयिक', 'सामयिक परिदृश्य', 'धूमकेतु' आदि पत्रिकाओं की एक दीर्घ श्रृंखला का संपादन, अनेक विषयों पर आलोचनात्मक और समीक्षामूलक लेखन से अपनी प्रत्यक्ष उपस्थिति का लगातार भान देने वाले विमल जी शायद हिंदी के उन आलोचकों में से एक रहे हैं, जिन्हें अब तक भी सबसे कम जाना-समझा गया है । यह वही being and time के संदर्भ में dasein and temporality का, संभावनापूर्णता और असंभवता की तरह का ही मसला है । जो प्रत्यक्ष, या सामने हैं, लेकिन क्या है और क्या नहीं है, इसकी किसी तात्विकता की पहचान के न बन पाने, एक अस्तित्व का अपनी परिणति को हासिल न कर पाने का मसला है । हो कर भी न हो पाने की यही विडंबना शायद इस तथ्य से भी जाहिर हो रही है कि साठ साल तक साहित्य के जगत में रहने के बाद किसी तरह से 24 लेखों का उनका यह संकलन प्रकाशित हुआ है — उनकी दृष्टि में 'लुप्त होते लोगों की अस्मिता' को रूपायित करने की एक संगतिपूर्ण कोशिश ।

इस संकलन के लेखों में विमल जी ने इसराइल, नीलकांत, विजयकांत, अनय, छेदीलाल गुप्त, नीरज सिंह, अवधनारायण सिंह, कामतानाथ, अस्मिता सिंह, मार्कण्डेय सिंह, सिद्धेश, शरण बंधु, सुरेश कांटक, रमेश उपाध्याय, क्षमा शर्मा, अरुण प्रकाश की अपनी चुनी हुई कहानियों को विचार का विषय बनाया है । और इन कहानियों के विश्लेषण में उन्होंने विश्व की जिन महान हस्तियों के उद्धरणों और नामों का जम कर प्रयोग किया है उनमें मार्क्स, चार्ल्स मौरिस, नीत्शे, आक्टोवियो पॉज, दोस्तोवस्की, काफ्का, रिचर्ड हागर्ट, ब्रेख्त, सिन्दिया ओजेक, हाउत्जर, लेवी स्त्रास, टेरी ईगलटन, रोय्बग्रिये, हेमिंग्वे, हर्बर्ट रीड आदि आदि के अलावा हिंदी के भी मुक्तिबोध, रामविलास शर्मा, नामवर सिंह, निर्मल वर्मा, अज्ञेय, कमलेश्वर, लक्ष्मीनारायण लाल, शिवप्रसाद सिंह, सुरेन्द्र चौधरी, कर्ण सिंह चौहान, जगदीश्वर चतुर्वेदी आदि शामिल हैं ।

इन सभी लेखों की अपनी एक खास संरचना है । और शायद उसी की पहचान करना हमारी इस समीक्षा का एक मूलभूत उद्देश्य है ताकि विमल वर्मा के बारे में हमारी जो अवधारणा है कि वे उन तमाम लोगों में शामिल है जिन्हें उनकी लगातार प्रत्यक्ष मौजूदगी के बावजूद सबसे कम जाना-समझा गया है, उसके मूल तक जा सके । अर्थात लोग नाम से जरूर परिचित है, काम से नहीं ।

विमल वर्मा के इन सभी लेखों को पढ़ कर भी आपको इनमें विवेचित रचनाओं के रचनाकार की कोई समझ नहीं मिलेगी । कहानियों के काफी उद्धरण मिलेंगे और मिलेगी उन सभी उद्धरणों पर लगभग लदी हुई सी अन्य अनेक प्रसिद्ध लेखकों की भारी-भरकम उद्धृतियां । पाठक कहानियों के चरित्रों या उनके भीतर से व्यक्त यथार्थ के प्रवाह को पकड़े या उद्धृत विद्वानों के लगभग पहेलीनुमा कथन की गुत्थियों को सुलझाये ! पाठक को इस प्रकार की एक अजीब सी उहा-पोह में स्थिति में छोड़ कर  टिप्पणी शेष हो जाती है । अंत तक भी जिस लुप्तमान अस्मिता को प्रकाश में लाने की कोशिश के तहत टिप्पणी लिखी गई, वह लुप्त ही रह जाती है, शायद ज्ञान की चकाचौंध करने वाली रोशनी से पैदा हुई अंधता में लुप्त !

विचार या लेखन की इस खास शैली या संरचना को और गहराई से समझने के लिये हम यहां फिर एक बार हाइडेगर की ही एक और महत्वपूर्ण पदावली का प्रयोग करेंगे । वह है — Being-just-present-at-hand-and-no-more । प्राणीसत्ता उतनी ही जो बस आपके हाथ में हैं । आपके हाथ में का उतनी भर जो आपकी मुट्ठी में समा सके । यह एक प्राणीसत्ता की भासमानता भी नहीं है । हाइडेगर लिखते है कि यहां तक की एक लाश का ठोस अस्तित्व भी शरीर रचना विज्ञान के छात्र के लिये संभावनापूर्ण सत्ता के रूप में रहता है जिसके जरिये वह जीवन के कई पहलुओं को समझ सकता है । इसीलिये उसका अस्तित्व जो हाथ में है, उतना भर नहीं होता । वह एक बेजान चीज है जिसमें प्राणों का स्पंदन नहीं है, लेकिन फिर भी कुछ संभावनाएं लिये हुए है । उससे भासमान अस्तित्व से जुड़ी परिघटनामूलक खोजों की संभावनाएं खत्म नहीं होती है । लेकिन जब आप किसी भी मृत या जीवित ठोस अस्तित्व को ही किसी जादू से लुप्त कर दे, उसकी भासमानता ही न बची रहे, बस उतना भर बचा रह जाए जो आपकी मुट्ठी में है, तो जाहिर है कि आपने जिसे लुप्तमान समझ कर उसकी अस्मिता को सामने लाने का बीड़ा उठाया है, इस उपक्रम में आप उसकी लुप्तमान या प्रकाशित या मृत हर प्रकार की संभावनापूर्ण अस्मिता, बल्कि अस्तित्व का ही लोप कर देते हैं । जब समीक्षक के वैचारिक सूत्र ही आलोचना का मूल विषय हो जाए तो रचना का सच तो आलोचना से गायब हो ही जायेगा ! सोचने पर लगता है कि क्यों न हमें विवेचित रचना का पाठ ही बिना किसी की मध्यस्थता के मिल जाता ! हम उसके प्रत्यक्ष को, और उसकी संभावनाओं को भी शायद अधिक अच्छी तरह से देख पाते !

विमल वर्मा के इन सारे लेखों को देख कर हमें कुछ ऐसा ही लगा और इससे यह भी पता चला कि कैसे अक्सर कई आलोचक-विचारक अपने चारों ओर एक प्रकार की विद्वता का धुंधलका तैयार करके अपनी अस्मिता की हर संभावना तक के लोप का कारण बना करते हैं । आनंद प्रकाश ने इस संकलन की अपनी छोटी सी भूमिका में मूलतः साहित्य और आलोचना के बारे में अपनी कुछ सामान्य प्रकार की बातों को ही रखा है और थोड़े में ही सही, विमल जी से अपने परिचय के नाते उनके इन लेखों को एक ऐतिहासिकता प्रदान करने की कोशिश की है, कि जो भी है, वह कुछ ठोस रूप ले सके । सचमुच शब्द-ब्रह्म की यह अनोखी माया है जिसने अनेकों को जिंदगी भर के लिये बावला बना रखा है !

('लुप्त होते लोगों की अस्मिता' ; लेखक – विमल वर्मा ; लोकमित्र प्रकाशन, दिल्ली, मूल्य : 495 रुपये ; पृष्ठ संख्या : 200) 

   

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