(सीबीआई मामले में सुप्रीम कोर्ट के फैसले का संदेश)
—अरुण माहेश्वरी
सीबीआई मामले में सुप्रीम कोर्ट के कल के फैसले के बाद अरुण जेटली ने 'सरकार की जीत हुई' के अपने स्थायी भाव में यह कह दिया कि अब दूध का दूध पानी का पानी हो जायेगा । सुप्रीम कोर्ट के जज की निगरानी में एक निश्चित समय सीमा के अंदर आलोक वर्मा पर लगाये गये अभियोगों की जांच से अब इस मामले में प्रकृत न्याय होगा । लेकिन जेटली को यह नहीं दिखाई दिया कि अदालत में खड़े होकर उनकी सरकार के वकील वेणुगोपाल ने क्या मांग की थी ? वहां उन्होंने साफ कहा था कि इतने कम समय में इन सब अभियोगों की जांच संभव नहीं है । वे सिर्फ तीन हफ्ते की नहीं, एक प्रकार से अनिश्चित काल तक इस जांच को चलाने का अधिकार मांग रहे थे !
बहरहाल, जेटली कुछ भी कहे, अब बहुत जल्द ही उनकी दक्षिणपंथी सोच के लोग इस प्रकार की दलीलों के साथ बाजार में उतरने लगे हैं कि यह पूरा मामला महज प्रशासन से जुड़ा हुआ मामला था । इस प्रकार के मामलों में प्रथमत: तो सुप्रीम कोर्ट को दखल ही नहीं देना चाहिए था और अगर दिया भी है तो सोचना चाहिए था कि इतने कम समय में सारे गवाहों के साक्ष्यों को जुटा कर कैसे इन गंभीर अभियोगों पर आखिरी राय तक पहुंचा जा सकेगा ? वे यह भी दलीलें दे रहे हैं कि इससे तो किसी भी सरकार का काम करना ही असंभव हो जायेगा ।
इसप्रकार, इन दलीलों में बड़ी चालाकी से इस सच्चाई को छिपा लिया जा रहा है कि यह पूरा मामला किसी साधारण सरकारी कर्मचारी का मामला नहीं है । यह एक ऐसे पद से जुड़ा हुआ मामला है जिसकी स्वायत्तता को देश में कानून का शासन बने रहने देने के लिये जरूरी माना गया है और इसीलिये उस पर नियुक्ति के लिये अलग से एक संवैधानिक कॉलेजियम होता है और उसके कार्यकाल आदि विषयों को अलग से कानूनी प्राविधानों से सुरक्षित किया गया है ।
जो लोग सरकारी कर्मचारी को महज सरकार का वेतनभोगी व्यक्ति मानते है वे जनतंत्र में संवैधानिक संस्थाओं की हैसियत के महत्व को तो कभी नहीं समझ सकते हैं । जनतंत्र का दूसरा औपचारिक, तात्विक मायने होता है 'कानून का शासन' । जनता के चुने हुए प्रतिनिधि ही कानून बनाते हैं लेकिन वे उन कानूनों को अपनी मन-मर्जी से तोड़ने-मरोड़ने के लिये स्वतंत्र नहीं होते हैं । शासकों के स्वेच्छाचार का जनतंत्र में कोई स्थान नहीं होता है, बल्कि यह शासकों के स्वेच्छाचार का ही प्रत्युत प्रत्युत्तर है । कार्यपालिका के स्वेच्छाचार पर रोक लगाने का काम जहां न्यायपालिका करती है, तो वहीं दूसरी संवैधानिक संस्थाएं भी अलग-अलग क्षेत्रों में वह काम करती है । उनके गठन का उद्देश्य ही यही होता है कि जिन संवेदनशील क्षेत्रों में किसी भी सत्ताधारी के मनमाने हस्तक्षेप से कानून का शासन व्याहत हो सकता है, जनतंत्र की आत्मा को नुकसान पहुंच सकता है, उन खास क्षेत्रों को इन आशंकाओं से बचाने के लिये उन्हें रक्षा कवच मुहैय्या कराया जाए ।
इसीलिये हर संवैधानिक संस्था या पद एक प्रकार से जनतंत्र में न्यायपालिका के हाथों का ही विस्तार हुआ करती है । इन संस्थाओं का विकास जनतांत्रिक क्रियाशीलता के लगातार अनुभवों के बीच से पैदा होने वाली जरूरतों से होता है । मसलन् सन् '75 के आंतरिक आपातकाल के बाद संविधान के 42वें संशोधन के जरिये नागरिक अधिकारों और मूलभूत अधिकारों की तुलना में संविधान के निदेशक सिद्धांतों को वरीयता देने के नाम पर जो हमले किये गये थे, उन्हें परवर्ती दिनों में खारिज करके संसद के द्वारा पारित कानूनों की संवैधानिकता को तय करने के मानदंडों के तौर पर उन अधिकारों को स्थापित किया गया । संसद के द्वारा पारित कानूनों को भी संविधान-सम्मत, खास तौर पर नागरिकों के मूलभूत अधिकारों से सम्मत होना पड़ेगा ।
इसीप्रकार, लोकपाल, सूचना का अधिकार आदि की तरह ही सीबीआई का मसला भी एक गंभीर मसला है जिसके भारी दुरुपयोग ने भारतीय राजनीति में शासक दल के स्वेच्छाचार को बेहिसाब बल पहुंचाया है । इसी अनुभव के आधार पर लोकपाल कानून की रोशनी में 2013 में सीबीआई प्रमुख की नियुक्ति और उसके कार्यकाल और उसे हटाये जाने के सारे विषयों को आम कर्मचारी की नियुक्तियों से अलग करके प्रधानमंत्री, नेता विपक्ष और मुख्य न्यायाधीश के कॉलेजियम के अधीन लाया गया और निदेशक के इस पद को कानूनी स्वायत्तता प्रदान की गई । इसका मूल मकसद ही यह था कि सीबीआई की जांच संबंधी क्रियाशीलता में सरकार का बेजा हस्तक्षेप न होने पाए ।
कहने का तात्पर्य सिर्फ इतना है कि विधायिका, कार्यपालिका और न्यायपालिका की तरह ही दूसरी तमाम स्वायत्त संवैधानिक संस्थाएं मिल कर जनतंत्र को एक प्रकार का सांस्थानिक रूप प्रदान करते हैं । इस संस्थान के संचालन के नियमों से इसके सारे घटक अपने-अपने स्तर पर बंधे होते हैं, यह जनतंत्र का अपना शील होता है । इसीलिये हैरोल्ड लास्की ने जनतांत्रिक व्यवस्था में प्रशासन को एक बहुत विशेषज्ञता का काम कहा था जिसमें शासन को उस जनता के हितों की रक्षा का दायित्व दिया जाता है जो अपने अधिकारों और हितों के बारे में पूरी तरह से जागरूक नहीं है ।
जनतंत्र में हमेशा यह संभव है कि जनता किसी भी सामयिक प्रभाव में हिटलर और मुसोलिनी को चुन कर सत्ता पर बैठा दे, जो अतीत में हो चुका है । यही जनतंत्र का अपना एक संकट भी है, जिसके पीछे सामाजिक-आर्थिक कारण मुख्य तौर पर काम करते हैं । अर्थात्, जनतांत्रिक प्रक्रिया से ही जनतंत्र के अंत की कहानी लिखी जा सकती है । इस प्रकार के अघटन को रोकने के लिये ही जनतंत्र का यह सांस्थानिक ढांचा सबसे अधिक महत्वपूर्ण माना जाता है । जनतंत्र की आंतरिक संरचना इन सभी अन्य स्वायत्त संस्थाओं से निर्मित होती है और उसे वह मजबूती प्रदान करती है ताकि वह अपने अंदर से ही किसी भी हिटलर या मुसोलिनी के प्रतिरोध कर सके । इतिहास के अनुभवों को आत्मसात करते हुए इन संस्थाओँ के विकास के जरिये ही जनतंत्र का अपना आत्म-विस्तार होता है ।
जो लोग जनतंत्र की आत्मा के इन तत्वों के महत्व को नहीं समझते हैं और सरकारी प्रशासन को ही सबसे अहम मानते हैं, वे कभी भी सुप्रीम कोर्ट के सीबीआई के मामले में लिये जा रहे निर्णय का मर्म नहीं समझ पायेंगे । सुप्रीम कोर्ट के चार जजों ने पिछले दिनों जब अपने ही मुख्य न्यायाधीश से लगभग विद्रोह करते हुए यह चेतावनी दी थी कि जनतंत्र खतरे में है, उस चेतावनी के महत्व को भी ये लोग कभी नहीं समझ पायेंगे क्योंकि उनके लिये हर संस्था को प्रशासन के महज एक मूक-बधिर अंग की भूमिका अदा करना चाहिए । अब भी वे राजशाही और जनतंत्र के बीच के मूलभूत अंतर को आत्मसात नहीं कर पाए हैं । इसीलिये वे यह कहते हुए पाये जाते हैं कि 'इस प्रकार तो कोई सरकार काम ही नहीं कर सकेगी' ।
यह बिल्कुल सही है कि जनतंत्र के ढांचे में ऐसी कोई सरकार काम नहीं कर सकती है जो मूलत: तानाशाही को थोपना चाहती है, राजशाही की तर्ज पर फासीवाद को लाना चाहती है । जनतंत्र का मर्म ही यही है कि ऐसी सरकार देश में न चलने पाए । सीबीआई के निदेशक को जबरन छुट्टी पर भेजने के सरकार के स्वेच्छाचार पर अंकुश की दिशा में सुप्रीम कोर्ट का निर्णय जनतंत्र की आत्म का निर्णय है ।
—अरुण माहेश्वरी
सीबीआई मामले में सुप्रीम कोर्ट के कल के फैसले के बाद अरुण जेटली ने 'सरकार की जीत हुई' के अपने स्थायी भाव में यह कह दिया कि अब दूध का दूध पानी का पानी हो जायेगा । सुप्रीम कोर्ट के जज की निगरानी में एक निश्चित समय सीमा के अंदर आलोक वर्मा पर लगाये गये अभियोगों की जांच से अब इस मामले में प्रकृत न्याय होगा । लेकिन जेटली को यह नहीं दिखाई दिया कि अदालत में खड़े होकर उनकी सरकार के वकील वेणुगोपाल ने क्या मांग की थी ? वहां उन्होंने साफ कहा था कि इतने कम समय में इन सब अभियोगों की जांच संभव नहीं है । वे सिर्फ तीन हफ्ते की नहीं, एक प्रकार से अनिश्चित काल तक इस जांच को चलाने का अधिकार मांग रहे थे !
बहरहाल, जेटली कुछ भी कहे, अब बहुत जल्द ही उनकी दक्षिणपंथी सोच के लोग इस प्रकार की दलीलों के साथ बाजार में उतरने लगे हैं कि यह पूरा मामला महज प्रशासन से जुड़ा हुआ मामला था । इस प्रकार के मामलों में प्रथमत: तो सुप्रीम कोर्ट को दखल ही नहीं देना चाहिए था और अगर दिया भी है तो सोचना चाहिए था कि इतने कम समय में सारे गवाहों के साक्ष्यों को जुटा कर कैसे इन गंभीर अभियोगों पर आखिरी राय तक पहुंचा जा सकेगा ? वे यह भी दलीलें दे रहे हैं कि इससे तो किसी भी सरकार का काम करना ही असंभव हो जायेगा ।
इसप्रकार, इन दलीलों में बड़ी चालाकी से इस सच्चाई को छिपा लिया जा रहा है कि यह पूरा मामला किसी साधारण सरकारी कर्मचारी का मामला नहीं है । यह एक ऐसे पद से जुड़ा हुआ मामला है जिसकी स्वायत्तता को देश में कानून का शासन बने रहने देने के लिये जरूरी माना गया है और इसीलिये उस पर नियुक्ति के लिये अलग से एक संवैधानिक कॉलेजियम होता है और उसके कार्यकाल आदि विषयों को अलग से कानूनी प्राविधानों से सुरक्षित किया गया है ।
जो लोग सरकारी कर्मचारी को महज सरकार का वेतनभोगी व्यक्ति मानते है वे जनतंत्र में संवैधानिक संस्थाओं की हैसियत के महत्व को तो कभी नहीं समझ सकते हैं । जनतंत्र का दूसरा औपचारिक, तात्विक मायने होता है 'कानून का शासन' । जनता के चुने हुए प्रतिनिधि ही कानून बनाते हैं लेकिन वे उन कानूनों को अपनी मन-मर्जी से तोड़ने-मरोड़ने के लिये स्वतंत्र नहीं होते हैं । शासकों के स्वेच्छाचार का जनतंत्र में कोई स्थान नहीं होता है, बल्कि यह शासकों के स्वेच्छाचार का ही प्रत्युत प्रत्युत्तर है । कार्यपालिका के स्वेच्छाचार पर रोक लगाने का काम जहां न्यायपालिका करती है, तो वहीं दूसरी संवैधानिक संस्थाएं भी अलग-अलग क्षेत्रों में वह काम करती है । उनके गठन का उद्देश्य ही यही होता है कि जिन संवेदनशील क्षेत्रों में किसी भी सत्ताधारी के मनमाने हस्तक्षेप से कानून का शासन व्याहत हो सकता है, जनतंत्र की आत्मा को नुकसान पहुंच सकता है, उन खास क्षेत्रों को इन आशंकाओं से बचाने के लिये उन्हें रक्षा कवच मुहैय्या कराया जाए ।
इसीलिये हर संवैधानिक संस्था या पद एक प्रकार से जनतंत्र में न्यायपालिका के हाथों का ही विस्तार हुआ करती है । इन संस्थाओं का विकास जनतांत्रिक क्रियाशीलता के लगातार अनुभवों के बीच से पैदा होने वाली जरूरतों से होता है । मसलन् सन् '75 के आंतरिक आपातकाल के बाद संविधान के 42वें संशोधन के जरिये नागरिक अधिकारों और मूलभूत अधिकारों की तुलना में संविधान के निदेशक सिद्धांतों को वरीयता देने के नाम पर जो हमले किये गये थे, उन्हें परवर्ती दिनों में खारिज करके संसद के द्वारा पारित कानूनों की संवैधानिकता को तय करने के मानदंडों के तौर पर उन अधिकारों को स्थापित किया गया । संसद के द्वारा पारित कानूनों को भी संविधान-सम्मत, खास तौर पर नागरिकों के मूलभूत अधिकारों से सम्मत होना पड़ेगा ।
इसीप्रकार, लोकपाल, सूचना का अधिकार आदि की तरह ही सीबीआई का मसला भी एक गंभीर मसला है जिसके भारी दुरुपयोग ने भारतीय राजनीति में शासक दल के स्वेच्छाचार को बेहिसाब बल पहुंचाया है । इसी अनुभव के आधार पर लोकपाल कानून की रोशनी में 2013 में सीबीआई प्रमुख की नियुक्ति और उसके कार्यकाल और उसे हटाये जाने के सारे विषयों को आम कर्मचारी की नियुक्तियों से अलग करके प्रधानमंत्री, नेता विपक्ष और मुख्य न्यायाधीश के कॉलेजियम के अधीन लाया गया और निदेशक के इस पद को कानूनी स्वायत्तता प्रदान की गई । इसका मूल मकसद ही यह था कि सीबीआई की जांच संबंधी क्रियाशीलता में सरकार का बेजा हस्तक्षेप न होने पाए ।
कहने का तात्पर्य सिर्फ इतना है कि विधायिका, कार्यपालिका और न्यायपालिका की तरह ही दूसरी तमाम स्वायत्त संवैधानिक संस्थाएं मिल कर जनतंत्र को एक प्रकार का सांस्थानिक रूप प्रदान करते हैं । इस संस्थान के संचालन के नियमों से इसके सारे घटक अपने-अपने स्तर पर बंधे होते हैं, यह जनतंत्र का अपना शील होता है । इसीलिये हैरोल्ड लास्की ने जनतांत्रिक व्यवस्था में प्रशासन को एक बहुत विशेषज्ञता का काम कहा था जिसमें शासन को उस जनता के हितों की रक्षा का दायित्व दिया जाता है जो अपने अधिकारों और हितों के बारे में पूरी तरह से जागरूक नहीं है ।
जनतंत्र में हमेशा यह संभव है कि जनता किसी भी सामयिक प्रभाव में हिटलर और मुसोलिनी को चुन कर सत्ता पर बैठा दे, जो अतीत में हो चुका है । यही जनतंत्र का अपना एक संकट भी है, जिसके पीछे सामाजिक-आर्थिक कारण मुख्य तौर पर काम करते हैं । अर्थात्, जनतांत्रिक प्रक्रिया से ही जनतंत्र के अंत की कहानी लिखी जा सकती है । इस प्रकार के अघटन को रोकने के लिये ही जनतंत्र का यह सांस्थानिक ढांचा सबसे अधिक महत्वपूर्ण माना जाता है । जनतंत्र की आंतरिक संरचना इन सभी अन्य स्वायत्त संस्थाओं से निर्मित होती है और उसे वह मजबूती प्रदान करती है ताकि वह अपने अंदर से ही किसी भी हिटलर या मुसोलिनी के प्रतिरोध कर सके । इतिहास के अनुभवों को आत्मसात करते हुए इन संस्थाओँ के विकास के जरिये ही जनतंत्र का अपना आत्म-विस्तार होता है ।
जो लोग जनतंत्र की आत्मा के इन तत्वों के महत्व को नहीं समझते हैं और सरकारी प्रशासन को ही सबसे अहम मानते हैं, वे कभी भी सुप्रीम कोर्ट के सीबीआई के मामले में लिये जा रहे निर्णय का मर्म नहीं समझ पायेंगे । सुप्रीम कोर्ट के चार जजों ने पिछले दिनों जब अपने ही मुख्य न्यायाधीश से लगभग विद्रोह करते हुए यह चेतावनी दी थी कि जनतंत्र खतरे में है, उस चेतावनी के महत्व को भी ये लोग कभी नहीं समझ पायेंगे क्योंकि उनके लिये हर संस्था को प्रशासन के महज एक मूक-बधिर अंग की भूमिका अदा करना चाहिए । अब भी वे राजशाही और जनतंत्र के बीच के मूलभूत अंतर को आत्मसात नहीं कर पाए हैं । इसीलिये वे यह कहते हुए पाये जाते हैं कि 'इस प्रकार तो कोई सरकार काम ही नहीं कर सकेगी' ।
यह बिल्कुल सही है कि जनतंत्र के ढांचे में ऐसी कोई सरकार काम नहीं कर सकती है जो मूलत: तानाशाही को थोपना चाहती है, राजशाही की तर्ज पर फासीवाद को लाना चाहती है । जनतंत्र का मर्म ही यही है कि ऐसी सरकार देश में न चलने पाए । सीबीआई के निदेशक को जबरन छुट्टी पर भेजने के सरकार के स्वेच्छाचार पर अंकुश की दिशा में सुप्रीम कोर्ट का निर्णय जनतंत्र की आत्म का निर्णय है ।
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