मंगलवार, 20 नवंबर 2018

कहानी में आत्म की विमर्शमयता का पहलू


(‘लहकके नये अंक में नीलकांत जी की टिप्पणी पर एक टिप्पणी )



आज हीलहकपत्रिका का नया अंक मिला शुरू में ही नीलकांत जी की एक टिप्पणी है - चन्द्रधर शर्मागुलेरीजी कीउसने कहा थाकी यादों को ताज़ा करती हुई टिप्पणी - ‘एक पुरानी हिन्दी की पहली नयी कहानी - ‘उसने कहा था 

सचमुच, काफी दिनों बाद फिर एक बारनई कहानीके ज़माने की तरह ही कहानी पर केंद्रित एक गंभीर और आकर्षक टिप्पणी पढ़ने को मिली  

चंद रोज पहले अख़बारों में विलायत में प्रथम विश्वयुद्ध के अंत के शताब्दी समारोह की ख़बरों को पढ़ रहा था उस लड़ाई में यूरोप की धरती पर सत्तर हज़ार भारतीय सैनिकों ने अपने प्राण दिये थे उनके इस बलिदान के स्मारक यूरोप से लेकर भारत में भी सब जगह मौजूद है। दिल्ली के इंडिया गेट पर ऐसे हज़ारों सैनिकों के नाम खुदे हुए हैं  

प्रथम विश्वयुद्ध की समाप्ति के शताब्दी समारोहों में भी भारी सम्मान के साथ हाल में जब उन वीर भारतीय सैनिकों को याद करते हुए श्रद्धांजलियां दी जा रही थी, हमारे ज़ेहन में गुलेरी जी की यहीउसने कहा थाकहानी की यादें थपेड़ें मार रही थी प्रथम विश्व युद्ध की हिंदी की अकेली कहानी  

अमृतसर का किसान छैला लहना सिंह भी इसी लड़ाई में जमादार लहना सिंह के रूप में तब फ्रांस की मिट्टी पर अद्भुत शौर्य और बुद्धि का परिचय देता हुआ लोट गया था मौत के कगार पर, लहना के पूरी तरह से शांत होने के पहले उसकी स्मृतियों की लौ का जो तेज भभका उठता है, उसी की रोशनी में लहना के किशोर वय के अंतर में गुँथे लाग के छोटे से अनुभव को अवचेतन से निकाल कर एक जुनून का रूप देने वाले सूबेदारनी के कथन की कहानी है - ‘उसने कहा था लहना सूबेदार की रक्षा में ही लड़ाई के मैदान में अपने प्राणों से खेल जाता है  

नीलकांत जी ने अपने विश्लेषण के जरियेकहानी क्या है ?’ के सवाल से जुड़ी नयी कहानी आंदोलन के वक़्त की बहस को इस टिप्पणी में पुनर्रुज्जीवित किया है इसमें उन्होंने लहना में लंबे काल तक ज़िंदा रह गये एक क्षणिक अहसास को कहानी मेंप्रभावकी प्रमुखता वाले नयी कहानी के तत्व से जोड़ करउसने कहा थाको हिंदी की पहली नयी कहानी बताया है और इसकी ओर ध्यान देने के पीछे नामवर सिंह के कहानी की आलोचना के औज़ारों की कमियों को चिन्हित किया है  

बहरहाल, नीलकांत जी या किसी की भीतेरी कुड़माई हो गयीवाले अहसास की क्रियात्मकता से बने लहना के चित्त वाले पहलू की अहमियत को मानते हुए भी यह कहानी सिर्फ समय के लंबे अंतराल में पसरे मौन में व्याप्त अहसास के साथ ही प्रत्यक्ष के वर्णन के लिहाज़ से भी एक अनूठी कहानी है  

आज भारत के सभी शहरों में ताँगों, इक्कों की जगह ऑटों ने ले ली है लेकिन जब ताँगे चला करते थे, सड़कों पर उनका आधिपत्य होता था और हार्न के रूप में उनकी बातों की जो ख़ास भाषा होती थी, वह आज भी अगर कहीं ज़िंदा है तो इसी कहानी में है। कहानी की शुरुआत ही इस प्रकार होती है

बड़े-बड़े शहरों के इक्के-गाड़िवालों की जवान के कोड़ों से जिनकी पीठ छिल गई है, और कान पक गए हैं, उनसे हमारी प्रार्थना है कि अमृतसर के बम्बूकार्ट वालों की बोली का मरहम लगाएं. जब बड़े-बड़े शहरों की चौड़ी सड़कों पर घोड़े की पीठ चाबुक से धुनते हुए, इक्केवाले कभी घोड़े की नानी से अपना निकट-सम्बन्ध स्थिर करते हैं, कभी राह चलते पैदलों की आंखों के होने पर तरस खाते हैं, कभी उनके पैरों की अंगुलियों के पोरे को चींघकर अपने-ही को सताया हुआ बताते हैं. और संसार-भर की ग्लानि, निराशा और क्षोभ के अवतार बने नाक की सीध चले जाते हैं, तब अमृतसर में उनकी बिरादरी वाले तंग चक्करदार गलियों में, हर-एक लड्ढी वाले के लिए ठहर कर सब्र का समुद्र उमड़ा कर 'बचो खालसाजी' 'हटो भाई जी' 'ठहरना भाई जी।' 'आने दो लाला जी.' 'हटो बाछा'.. कहते हुए सफेद फेटों, खच्चरों और बत्तकों, गन्नें और खोमचे और भारेवालों के जंगल में से राह खेते हैं.
क्या मजाल है कि 'जी' और 'साहब' बिना सुने किसी को हटना पड़े. यह बात नहीं कि उनकी जीभ चलती नहीं, पर मीठी छुरी की तरह महीन मार करती हुई, यदि कोई बुढ़िया बार-बार चितौनी देने पर भी लीक से नहीं हटती, तो उनकी बचनावली के ये नमूने हैं, 'हट जा जीणे जोगिए; हट जा करमा वालिए; हट जा पुतां प्यारिए; बच जा लम्बी वालिए।' समष्टि में इनके अर्थ हैं कि तू जीने योग्य है, तू भाग्योंवाली है, पुत्रों को प्यारी है, लम्बी उमर तेरे सामने है, तू क्यों मेरे पहिये के नीचे आना चाहती है? बच जा “ 

दो साल पहले हम मिस्र के पिरामिडों के गीजा शहर गये थे और वहाँ की सड़कों पर दौड़ते ताँगों के तांगेवालों का कभी घोड़े के साथ, तो कभी साथ में रेस कर रहे ताँगे वालों के साथ, तो कभी सड़क पर दूसरों के साथ हो-हल्ले से भरी बातचीत का जो उछल-कूद भरा नजारा देखा था, तब हमें इसी कहानी की याद आई थी  

इसके बाद आता है लड़ाई के मैदान में खंदक में सिख सैनिकों का आपसी व्यवहार, उनके हौंसले और चतुराई का चित्रण इन सब ब्यौरों में सूबेदारनी का लहना को दिलाया गया क़ौल कहानी के सूत्र की तरह मौजूद रहने पर भी गुलेरी जी की कथाकार के रूप में क्षमता का प्रदर्शन इन बाकी ब्यौरों से कहीं ज्यादा होता है अन्यथा यह कहानी वचन निभाने का एक कोरा भावुक आख्यान बन कर भी रह जा सकती थी  

और जुनून ! इसकी प्रकृति में ही काल के अवबोध से विच्छन्नता का मूल तत्व होता है  

हमारे दार्शनिक अभिनवगुप्त किसी भी कथा की रचना में (जीवन के विन्यास में) उसके अंतराल में निहित क्षोभ को एक प्रमुख तत्व बताते हैं क्षोभ अवश्यमेव अंतराले’ - क्षोभ, प्रेरणा अंतराल में होते हैं अभिनवगुप्त कहते हैं कि ऊपर प्रकृति और नीचे बुद्धि, इन दोनों के बीच में क्षोभ की उपस्थिति को मानना ही पड़ेगा यह प्रकाश और अप्रकाश का आंदोलन है लहना के अंतर का सुप्त भाव यहाँ उसी आभास के रूप में आता है इस विषय में अभिनव की सांख्य दर्शन से यही आपत्ति थी कि सांख्य ने क्षोभ के इस पृथग्-भूत गुणतत्व को नहीं समझा था जीवन में आत्म की विमर्शमयता को नहीं पहचाना था पाठ में मौन को अभिनव एक प्रकार का ऐसा रिक्त स्थान, अवकाश का स्थान बताते हैं जो उच्चरित शब्द की झंकार से उत्पन्न वायु में तैयार हुआ स्थल होता है, जिसे ठोस जगत नहीं, नभ संभालता है  

कहने का तात्पर्य यह है कि आदमी के जीवन की कथाओं में उसके चेतन-अवचेतन में अवशिष्ट प्रभावों को कहानी के मूल्याँकन में महत्वपूर्ण स्थान दे कर नयी कहानी के आलोचकों ने हिन्दी की कहानी समीक्षा को निश्चित तौर पर बहुत समृद्ध किया था इसमें नामवर सिंह के आलोचनात्मक लेखों के अलावा मार्कण्डेय केकहानी की बातके लेखों और देवीशंकर अवस्थी की समीक्षाओं को विशेष तौर पर देखा जा सकता है मुक्तिबोध कीएक साहित्यिक की डायरी’, उनके अन्य लेखों के साथ ही उनकी कहानियों ने भी इसकी जमीन तैयार करने का काम किया था तथापि प्रकृति और परिवेश का भी एक अपना आत्म होता है जिसके तार भी आदमी के आत्म से घनिष्ठ रूप में जुड़े होते हैं  

उसने कहा थापर नीलकांत जी की इस आकर्षक टिप्पणी ने आज मन को ख़ुश किया  

-अरुण माहेश्वरी 





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