आज के 'टेलिग्राफ' में पूर्व कूटनीतिज्ञ टी सी ए राघवन का एक लेख है — 'पुरानी अक्लमंदी' । विश्व रणनीतिक मामलों के विशेषज्ञ राघवन ने लेख के शुरू में ही दुनिया पर आधिपत्य के लिये स्थल-प्रभुत्व महत्वपूर्ण है या समुद्री प्रभुत्व के विषय को उठाते हुए इसके बारे में अंग्रेज हैलफोर्ड मैकाइंडर (1861-1947) और अमेरिकी आल्फ्रेड थायेर महन (1840-1914) के दो सिद्धांतों का जिक्र किया है । मैकाइंडर के अनुसार दुनिया में जिसका तीन महादेशों एशिया, यूरोप और अफ्रीका को जोड़ने वाली यूरेशियाई भूमि पर कब्जा होगा, वह सारी दुनिया पर राज करेगा । अमेरिकी नौ अधिकारी महन के अनुसार समुद्री शक्ति ही किसी भी राष्ट्र की सर्वोच्च शक्ति है जो किसी की भी नाकेबंदी कर सकती है, व्यापारी और सैनिक जहाजों के आवागमन को नियंत्रित कर सकती है ।
राघवन के अनुसार दुनिया में एक थल और नौ शक्ति के रूप में चीन के उदय ने फिर से रणनीति विषयक चर्चाओं में इस बहस को पुनर्जीवित कर दिया है । वे इसी सिलसिले में इतिहासकार और कूटनीतिज्ञ के एम पण्णीकर के अवलोकन का उल्लेख करते हैं जो 1948 से 1952 तक चीन में राजदूत भी थे । इस विषय पर उनकी दो किताबों 'India and Indian Ocean' और इसके दो दशक बाद आई 'Geographical Factors in Indian History' का जिक्र करते हुए वे उसके उस पहले वाक्य को उद्धृत करते हैं कि जब तक भारत ने सोलहवीं सदी के पहले दशक में समुद्र पर अपना नियंत्रण नहीं गंवाया, भारत ने कभी अपनी आजादी को नहीं खोया था । “1503 में कोचीन में और 1509 में डिउ में कालिकट के शासक के साथ पुर्तगालियों का युद्ध भारतीय इतिहास की दो सबसे महत्वपूर्ण घटनाएं थी” जिनका असर चार सौ साल तक बना रहा । पण्णीकर ने इन लड़ाइयों को भारत के इतिहास के लिहाज से प्लासी और बक्सर की लड़ाइयों से ज्यादा महत्वपूर्ण बताया था ।
यहीं पर पण्णीकर ने एक सबसे उल्लेखनीय बात लिखी कि भारत में उत्तर और दक्षिण को विंध्याचल पर्वतमाला नहीं, बल्कि समुद्र और थल से जुड़ी मानसिकता ने मुख्यतः विभाजित किया है । कालिदास के रघुवंशी आदर्श राजा अपने को 'आसमुद्रक्षितीशानामा' मानते थे। इनकी तुलना में आंध्र के राजा अपने को 'त्रि समुद्राधिपति' ।
1945 में जब पण्णिकर की पहली किताब आई उसी समय भारत के सामने एक नया धर्म-संकट खड़ा हुआ था — पाकिस्तान बना, और कश्मीर के एक हिस्से पर पाकिस्तान के अधिकार से भारत फारस, अफगानिस्तान और मध्य एशिया से जमीन के रास्ते से कट गया । ब्रिटिश उपनिवेशवादियों ने भारत को इन देशों तक जाने के लिये समुद्री रास्ता मुहैय्या नहीं कराया । अंग्रेज अपने साथ अपनी नौ सेना भी ले गये । इसे देख कर ही सिंगापुर और अंडमान पर जापान के कब्जे के अनुभव की पृष्ठभूमि में पण्णिकर ने लिखा कि “हम बड़ी भूल करेंगे यदि सोचेंगे कि प्रशांत महासागर को दूसरी एशियाई शक्ति अमेरिका के लिये छोड़ देगी । एक बार चीनी गणतंत्र की औद्योगिक शक्ति पूरी तरह पनप जाएगी तो प्रशांत के सूर्य में उसे अपना दावा करने से कोई नहीं रोक पायेगा ।”
पण्णिकर की यह बात आज जैसे किसी भविष्यवाणी की तरह सच साबित हो रही है । जहां तक भारत का संबंध है, पण्णिकर ने भारत की वास्तविक कमी को ज्ञान के क्षेत्र में उसकी कमी से जोड़ कर देखा था । भारत के महान उत्तर भारतीय साम्राज्यों ने दक्षिण में समुद्री शक्ति को कोई महत्व नहीं दिया । इसके कारण “न हमारा नौ दृष्टिकोण बन पाया न थल । ...हम भारत की सीमा के बाहर की राजनीतिक घटनाओं से अनभिज्ञ रहे । भारत के राजनीतिक पतन का कारण उसकी अज्ञानता रही ।”
राघवन ने भारतीय सीमाओं तक सिमटने की वजह से ज्ञान के क्षेत्र को होने वाली हानि के विषय को इस लेख के अंत में एक और संदर्भ में उठाया है जब इतिहासकार आर सी मजुमदार ने 1939 में 'All India Modern History Congress' का नाम बदल कर 'Indian History Congress' करने का विरोध किया था । मजुमदार ने भी कहा था — “अपने को अलगाने की प्रवृत्ति भारत की मिट्टी की विशेषता है । हमने अतीत में इसकी कीमत चुकाई है और यदि इससे मुक्त नहीं हो पाते हैं तो भविष्य में और भारी कीमत अदा करेंगे ।”
राघवन ने ज्ञान विमर्श पर रणनीति के संदर्भ में इस पुरानी अक्लमंदी की बात पर बहुत सही ध्यान खींचा है । आज 'विश्वगुरूता' के थोथे जाप के काल में यह चेतावनी बहुत महत्वपूर्ण हो जाती है । इसीलिये हम इस लेख को यहां मित्रों से साझा कर रहे हैं —
https://epaper.telegraphindia.com/calcutta/2018-11-08/71/Page-14.html
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