सोमवार, 11 फ़रवरी 2019

पवित्र स्वच्छता : शहरी और मानसिक

पवित्र स्वच्छता : शहरी और मानसिक भी
अरुण माहेश्वरी


अभी हम बीकानेर आए हुए हैं जयपुर की तरह के महानगर को छोड़ दिया जाए तो राजस्थान के बाक़ी सभी शहरों की कमोबेस एक ही तस्वीर है - प्रधानमंत्री के स्वच्छता अभियान के मिथ्याचार को बेपर्द करती तस्वीर  

लेकिन अन्य प्रदेशों की तुलना में राजस्थान के शहरों की गंदगी की एक अपनी अलग ही विशेषता है यहां की गंदगी पवित्र गंदगी है ये गाय के गोबर और गोमूत्र से लीप कर पवित्र रखे जा रहे शहर की स्वच्छता तस्वीर है इसमें जगह-जगह कुत्तों की टट्टी अतिरिक्त है बीकानेर की चिर-स्थायी खुली नालियाँ तो हैं ही बाक़ी टूटी हुई सड़कें और धूल-धक्कड़ तो शहरी गंदगी की ऐसी सर्वकालिक चीज़ें हैं, जिनकी प्रभूत मात्रा के बिना तो शहर की गंदगी की चर्चा भी मुमकिन नहीं है राजस्थान के कस्बाई शहरस्वच्छता अभियानके इस दौर में इन चीज़ों से पहले से कुछ ज़्यादा ही भरे हुए हैं !

बहरहाल, बीकानेर शहर की सड़कों पर गाय-गोधों का राज कोई नई बात नहीं हैं लेकिन हमें लगता हैं कि आजकल गोबर से जुड़ा पवित्रता-बोध एक ऐसे स्तर पर पहुँच गया है, जिसमें म्युनिसिपल्टी के लोग गोबर को साफ़ करने के बजाय उसे सड़क पर लीप कर पूरे शहर की स्वच्छता को पवित्रता का एक अतिरिक्त नया आयाम दे रहे हैं आख़िरकार गाय, गोबर और गोमूत्र के सांस्कृतिक पहलू कम मूल्यवान नहीं है ! पिछले दिनों इसी शहर में रामनवमी के अवसर पर हजारों लोग तलवारें लहराते हुए सड़कों पर उतरे थे जिसे पहले कभी नहीं देखा गया था

अभी यहाँ शादी-ब्याह का मौसम है पूरा समाज रीति-रिवाजों और कर्मकांडों की होड़ में डूबा हुआ लगता है हमें तो शहर का गोबर दिमाग़ों तक पसर गया लगता है ! जिससे बात कीजिए, वह कर्मकांडों के महिमागान में मुग्ध मिलेगा लगेगा जैसे कर्मकांडों से ही तो आदमी है, समाज है इन कर्मकांडों के पीछे के कदाचारों की कहानियों हम हर रोज़ पढ़ते-सुनते रहते हैं, लेकिन क्या मज़ाक़ है कि इनमें कोई कमी जाएँ ! ब्राह्मणों की बनाई लकीरों की फ़क़ीरी में ही आदमी को अपना होना तक दिखाई देने लगता है ! अन्यथा, जैसे वह किसी काम का नहीं हैं !

कुल मिला कर यह सचमुच एक भारी परिहास का विषय है हंस कर मज़ा लेने का नहीं गहरी त्रासदी का संदेश देने वाले गहरे प्रहसन का आदमी इसमें अजीब ढंग से ख़ुद पर अपने अधिकार को खो देता है, क्योंकि वह उसे घेर चुकी परिजनों की भीड़ के हाथ का खिलौना बना हुआ साफ़ दिखाई देता है वैसे तो आदमी का इस प्रकार अन्यों के हाथ की वस्तु बनना कोई असाधारण बात नहीं है मनुष्य का अपना मान-सम्मान, उसके मानव-अधिकार हर रोज़ कुचले जाते हैं और वह उसे इसी प्रकार सहर्ष मान कर चलता है सामाजिकता के ढाँचे की चक्की में व्यक्ति स्वातंत्र्य का यह घुन पिसने के लिये ही होता है !

लेकिन जब हम किसी नाटक के पात्र की तरह आदमी को पंडित के निर्देशों के अनुसार मंडप में कभी हवि देते तो कभी हाथ जोड़ते, चढ़ावा देते, तिलक लगाते या मंत्र पढ़ते देखते हैं, तब उसकी निष्ठा और विश्वास का वह पूरा प्रदर्शन कुल मिला कर एक ऐसा प्रहसनमूलक नाटक लगने लगता है जिसमें एक अच्छा-भला होशमंद आदमी किसी और ही जीव में प्रविष्ट हो गया दिखाई देता है आदमी के सत्य और आचरण के द्वैत का यह खुला प्रदर्शन ही तो किसी भी परिहासमूलक नाटक की तात्विकता कहलाता है। व्यक्ति के विश्वासों के सत्य को उसके बाहर किसी अनोखे रूप में प्रदर्शित किये जाने का नाटक !

कर्मकांडों के बारे में हमारे शास्त्रों की साफ़ मान्यता है कि जो ब्रह्म की प्राप्ति के ज्ञान मार्ग को अपनाने के योग्य नहीं है, उनके लिये कर्मकांडों का सरल रास्ता होता है जैसा कहा जाए, वैसा करो, बिना दिमाग का प्रयोग किये ! अल्प बुद्धि के कमजोर लोगों की मुक्ति का पथ


बीकानेर शहर में शादी के आयोजन में शामिल होते हुए शहर की दुर्दशा से बेपरवाह कर्मकांडों में फँसी इस दुनिया को देख कर पता नहीं, इन अजीब से विचारों ने क्यों इस प्रकार घेरना शुरू कर दिया कि लगा, जाति-च्युत हो कर जीना ही शायद आदमी के रूप में जीने के लिये ज़रूरी है

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