—अरुण माहेश्वरी
भारत के वर्तमान किसान आंदोलन ने अपनी जो खास गति पकड़ ली है उससे आज लगता है जैसे भारत का पूरा राजनीतिक संस्थान हतप्रभ है । सिद्धांतों में कृषि क्षेत्र के समग्र संकट की बात तो तमाम राजनीतिक दल किसी न किसी रूप में करते रहे हैं, लेकिन इस समग्र संकट का विस्फोट इतने और इस प्रकार के व्यापक जन-आंदोलन के रूप में हो सकता है, जिसमें देश का समूचा कृषि समाज अपने खुद के सारे कथित अन्तर्विरोधों को परे रख कर इजारेदाराना पूँजीवाद के ख़िलाफ़ एकजुट इकाई के रूप में, कृषि समाज और उसकी संस्कृति मात्र की रक्षा के लिए सामने आ जाएगा, यह इन सबकी कथित ‘कृषि संकट’ की समझ से बाहर था । कृषि संकट के बारे में चालू, एक प्रकार की मौखिक खाना-पूर्तियों वाली समझ के विपरीत इस आंदोलन ने जिस प्रकार के सामाजिक आलोड़न के स्वरूप को पेश किया है उसे न सिर्फ अभूतपूर्व, बल्कि चालू राजनीतिक शब्दावली के दायरे में अचिन्त्य (unthinkable) और अनुच्चरणीय (unpronounceable) भी कहा जा सकता है । मिथकों के बारे में कहा जाता है कि जब तक किसी मिथक के साथ कोई सामाजिक कर्मकांड नहीं जुड़ता है, तब तक उसकी कोई सामाजिक अहमियत नहीं होती है । उसी प्रकार जब तक किसी सामाजिक परिस्थिति की धारणा का किसी सामाजिक कार्रवाई के साथ संबंध नहीं जुड़ता है, उस कल्पना या विश्लेषण का कोई वास्तविक मायने नहीं हुआ करता है । इसीलिये अब तक कृषि संकट की सारी बातों के बावजूद इस संकट का सामाजिक स्वरूप इस किसान आंदोलन के जरिये जिस प्रकार सामने आया है, उसी से इस संकट का वह अर्थ प्रकट हुआ है जिसका इसके पहले किसी भी मंच पर सही-सही आकलन नहीं किया गया था ।
किसानों के इस आंदोलन में पूरे पंजाब के किसानों के संगठनों, पश्चिमी उत्तर प्रदेश के महेन्द्र सिंह टिकैत के अनुयायी संगठन आदि के साथ ही वह अखिल भारतीय किसान सभा (AIKS) भी पूरे भारत के पैमाने पर शामिल है जिसका कृषि आंदोलनों का अपना एक ऐतिहासिक और स्वर्णिम इतिहास रहा है । सन् 1936 में इसके गठन के बाद जमींदारी उन्मूलन से लेकर हाल में पंचायती राज्य के लिए आंदोलन तक में इसने महत्वपूर्ण भूमिका अदा की है । लेकिन किसान आंदोलन के इतने व्यापक अनुभवों के बावजूद इसके लिए भी अभी का यह किसान आंदोलन एक ऐसे स्वरूप में उपस्थित हुआ है, जिसका शायद उसे भी कभी पूरा अनुमान नहीं था । इस आंदोलन में उसकी सक्रिय भागीदारी के बावजूद कृषि आंदोलनों का उसका अपना अब तक का अनुभव और ज्ञान ही जैसे इस आंदोलन के अलीकपन को, इसकी अन्यन्यता को पूरी तरह से आत्मसात करने में कहीं न कहीं एक बाधा-स्वरूप काम कर रहा है ।
किसान सभा के अब तक के सारे आंदोलनों के अनुभव के केंद्र में सामंती ज़मींदार नामक एक तत्व के ख़िलाफ़ लड़ाई की भूमिका प्रमुख रही है । यह आज़ादी के दिनों से लेकर परवर्ती भूमि सुधार के आंदोलनों और कुछ हद तक पंचायती राज के ज़रिये सत्ता के विकेंद्रीकरण के आंदोलन तक में गाँवों में इनके वर्चस्व का पहलू उसके सामने प्रमुख चुनौती के रूप में हमेशा मौजूद रहा है । लेकिन भारतीय जनतंत्र में गाँवों से जुड़े तमाम आंदोलनों की पूरी प्रक्रिया में ही ग्रामीण जीवन के सत्ता संतुलन के चरित्र में जो क्रमिक बदलाव हुआ है, वह बदलाव किसान सभा के इधर के आंदोलनों के मंच पर बार-बार किसी न किसी रूप में अपने को व्यक्त करने के बावजूद वह उनके समग्र रूप को, गांवों में देशी-विदेशी कारपोरेट की पूंजी के व्यापक प्रवेश से पैदा होने वाली समस्याओं को सैद्धांतिक और क्रियात्मक स्तर पर सूत्रबद्ध करने में शायद चूकता रहा है । किसान आंदोलन के सभी स्तरों पर कृषि के सामान्य संकट की बात तो हमेशा की जाती रही है, लेकिन इस संकट के मूल में क्या है, यह कृषि क्षेत्र का अपना आंतरिक संकट ही है या कुछ ऐसा है जो उस पूरे जगत के अस्तित्व को ही विपन्न करने वाला, उसके बाहर से आया हुआ संकट है, इसे जिस प्रकार से समझने की जरूरत थी, शायद उस तरह से नहीं समझा जा सका है । पिछले दिनों किसान सभा के अलावा खेत मजदूरों के अलग संगठन की बात पर जिस प्रकार बल दिया जा रहा था, उसमें भी समग्र रूप में कृषि समाज के अस्तित्व के संकट के पहलू के प्रति जागरूकता की कमी कहीं न कहीं जरूर शामिल थी । यहां तक कि बड़े पैमाने पर ऋणग्रस्त किसानों की आत्म हत्याओं के बाद भी कृषि संकट के व्यापक सामाजिक स्वरूप के प्रति थोड़ी उदासीनता बनी रहती थी । पश्चिम बंगाल की किसान सभा ने अपने ही कारणों से खेत मजदूरों के अलग संगठन की बात को काफी सालों की भारी हिचक के बाद स्वीकार किया था । यहां इस प्रसंग का तात्पर्य सिर्फ इतना है कि आज मोदी ने यदि अपनी निरंकुश सत्ता के अहंकार में इन तीन कृषि कानूनों के जरिए पूरे कृषि क्षेत्र को भारत के इजारेदार घरानों को सौंप देने और तमाम किसानों को पूंजी का गुलाम बना देने की तरह का निष्ठुर कदम इतनी नंगई के साथ न उठाया होता और पंजाब-हरियाणा के उन्नत किसान समाज ने इसमें निहित भयंकर खतरे को अच्छी तरह से पहचान कर इसके प्रतिरोध में पूरी ताकत के साथ उतरने का फैसला न किया होता, तो शायद किसान सभा के परंपरागत सोच में कृषि संकट के व्यापक सत्य को उतारने में अभी और ज्यादा समय लग सकता था । अर्थात् कृषि समाज की संरचना के बारे में पारंपरिक समझ पिछले तमाम सालों में भारत के कृषि समाज में तेजी से जो बड़े परिवर्तन हुए हैं, उन्हें पकड़ने में एक बाधा बनी हुई है ।
यह कृषि पण्यों के बाज़ार से पैदा हुआ पूरे कृषि समाज का संकट है ; किसान को अपने उत्पाद पर लागत जितना भी दाम न मिल पाने से पैदा हुआ संकट है ; अर्थात् एक प्रकार से किसानों की फ़सल को बाज़ार में लूट लिए जाने से पैदा हुआ संकट है । किसान को जीने के लिए जोतने की ज़मीन के साथ ही फ़सल का दाम भी समान रूप से ज़रूरी है, भारत के किसान आंदोलन को इसका अहसास न रहा हो, यह सच नहीं है । इसी के चलते लंबे अर्से से एमएसपी को सुनिश्चित करने की माँग क्रमशः किसान आंदोलन के केंद्र में आई है । 2004 में स्वामिनाथन कमेटी के नाम से प्रसिद्ध किसानों के बारे में राष्ट्रीय आयोग का गठन भी इसी पृष्ठभूमि में हुआ जिसने अक्तूबर 2006 में अपनी अंतिम रिपोर्ट में कृषि पण्य पर लागत के डेढ़ गुना के हिसाब से न्यूनतम समर्थन मूल्य को तय करने का फार्मूला दिया । तभी से केंद्र सरकार पर उस कमेटी की सिफारिशों को लागू करने का लगातार दबाव बना हुआ था । साफ था कि यदि कृषि बचेगी तो उसके साथ जुड़े हुए सभी तबकों के हितों की रक्षा भी संभव होगी । सरकारें कुछ पण्यों पर एमएसपी तो हर साल घोषित करती रही और उसके चलते कुछ क्षेत्रों के किसानों को थोड़ा लाभ भी हुआ । लेकिन लागत के डेढ़ गुना वाला फार्मूला सही रूप में कभी लागू नहीं हुआ और न ही इससे कम कीमत पर फसल को न खरीदने की कोई कानूनी व्यवस्था ही बन पाई । अभी किसान अपनी इन मांगों के लिए जूझ ही रहे थे कि अंबानी-अडानी की ताकत से मदमस्त प्रधानमंत्री मोदी ने बिल्कुल उलटी दिशा में ही चलना शूरू कर दिया । और इस प्रकार एक झटके में पूरी कृषि संपदा पर हाथ साफ करने के इजारेदारों के सारे बदइरादे खुल कर सामने आ गए ।
2014 में मोदी और आरएसएस के शासन में आने के बाद ही एक के बाद एक तुगलकी निर्णयों ने देश के पूरे सामाजिक-आर्थिक तानेबाने को बर्बाद करके मेहनतकशों के जीवन को जिस प्रकार दूभर बना दिया है, उससे हर कोने में पहले से बिछे हुए असंतोष के बारूद में इस किसान आंदोलन ने जिस प्रकार एक पलीते की भूमिका अदा करनी शुरू कर दी है, उससे अब इस ज्वालामुखी के विस्फोट की शक्ति का एक संकेत मिलने पर भी कोई भी इसका पूरा अनुमान नहीं लगा सकता है । आज राजनीतिक आकलन के लिए चुनौती के इसी बिंदु पर भारत की तमाम राजनीतिक पार्टियों से यह वाजिब उम्मीद की जा सकती है कि कम से कम अब तो वे अपने वैचारिक खोल से बाहर निकले और इस आंदोलन पर खुद के किसी भी पूर्वकल्पित विश्लेषणात्मक ज्ञान के बोझ को लादने की कोशिश से इससे अपने को काटने या इसे किसी ईश्वरीय नियति पर छोड़ देने के सरल और सस्ते रास्ते पर चलने के बजाय इसमें अपनी भूमिका के लिए इस आंदोलन को पूरे मन से अपनाएं और इसकी स्वतंत्र गति को खुल कर सामने आने देने का अवसर प्रदान करें ।
इस बात को गहराई से समझने की जरूरत है कि एमएसपी केंद्रित कृषि सुधारों में क्रांतिकारी राजनितिक संभावनाएं निहित हैं । यह ग्रामीण अर्थनीति के साथ ही पूरे देश की अर्थ-व्यवस्था का कायाकल्प कर सकता है । पूरी सख़्ती के साथ एमएसपी की स्वामीनाथन कमेटी की रिपोर्ट को लागू किया जाए और लागत में वृद्धि या कमी के अनुसार इसे हर छ: महीने में संशोधित करने का पूरा सांस्थानिक ढाँचा तैयार हो ; गाँवों में खेत मज़दूरों की न्यूनतम मज़दूरी पर सख़्ती से अमल और इसमें भी संशोधनों के लिए एक सांस्थानिक ढाँचा विकसित हो ; बटाईदारों का पंजीकरण करके उनके अधिकारों को सुरक्षित किया जाए ; कृषि क्षेत्र में बैंकों के ऋण के अनुपात को आबादी के अनुपात में बढ़ाया जाए ; कृषि के आधुनिकीकरण के संगत कार्यक्रम अपनाए जाए ; भूमि हदबंदी के क़ानूनों पर सख़्ती से अमल हो ; मंडियों और भंडारण का व्यापक नेटवर्क विकसित किया जाए ।
कृषि क्षेत्र में सुधार के ऐसे एक व्यापक कार्यक्रम को राजनीति के केंद्र में लाकर ही किसानों के इस व्यापक जन-आलोड़न को उसकी तर्कपूर्ण संगति तक पहुंचाया जा सकता है । इन संभावनाओं को देखते हुए ही हमने बहुत शुरू में ही इस आंदोलन को भारत में शुरू हुआ ‘अरब वसंत’ का आंदोलन कहा था । यह आंदोलन अपने अंतर में पूंजीवाद के खिलाफ क्रांतिकारी रूपांतरण की संभावनाओं को लिए हुए है । भारत के सभी परिवर्तनकामी राजनीतिक दलों को इसे अच्छी तरह से पकड़ने और खुल कर समर्थन देने की जरूरत है ।
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