—अरुण माहेश्वरी
आज भारत बंद है । किसानों के आह्वान पर भारत बंद । भारत के विपक्ष के सभी राजनीतिक दलों ने इस बंद को अपना पूर्ण समर्थन दिया है । कांग्रेस, एनसीपी, सपा, डीएमके, आरजेडी, सीपीआई(एम), सीपीआई, कश्मीर के पीएजीडी, सीपीआई(एम-एल), सीपीआई, फारवर्ड ब्लाक, आरएसपी ने तो बाकायदा एक संयुक्त वक्तव्य के जरिए इसे अपना समर्थन दिया है । इनके अलावा टीएमसी, अकाली दल, बसपा, टीआरएस, शिव सेना, आम आदमी पार्टी ने भी इसके प्रति समर्थन जाहिर किया है ।
सच पूछा जाए तो किसानों के इस भारत बंद के प्रति समूचे विपक्ष की एकजुटता ही आज भारत की एकता की गारंटी रह गई है, वर्ना जहां तक मोदी और भाजपा का सवाल है, उन्होंने तो अपने रुख से अब तक यह साफ कर दिया है कि वे हमारे देश को तोड़ने का निर्णय ले चुके हैं ।
आज न्यूनतम राजनीतिक विवेक रखने वाला आदमी भी इस बात को समझने में चूक नहीं कर सकता है कि अगर मोदी सरकार ने किसानों के संघर्ष के ख़िलाफ़ नग्न दमन की ताक़त का प्रयोग किया अथवा इसे कोई जघन्य सांप्रदायिक विद्वेष का रूप देने की कोशिश की तो वह भारत की एकता और अखंडता पर एक भयंकर आघात होगा । उसके बाद शायद ईश्वर भी इस देश की अखंडता को क़ायम नहीं रख पायेगा ।
पंजाब में पिछले लगभग तीन महीनों से किसानों का व्यापक संघर्ष चल रहा था । यहाँ तक कि उसके दबाव में अकाली दल को एनडीए छोड़ने तक के लिए मजबूर होना पड़ा । इसके बावजूद मोदी ने इस आंदोलन के प्रति जिस लापरवाही का परिचय दिया, वह न सिर्फ मोदी की राजनीतिक अपरिपक्वता और चरम प्रशासनिक अयोग्यता का ज्वलंत प्रमाण है, बल्कि यह गृह मंत्री के नाते अमित शाह की भी भारी विफलता का एक नमूना है । मोदी के रुख से ही पता चलता है कि अमित शाह के पास इस आंदोलन की गहराई और व्यापकता के बारे में कोई खोज-ख़बर नहीं थी ।
इसी बीच 5 दिसंबर के दिन भारत के हर गाँव में नरेन्द्र मोदी, अंबानी और अडानी, कृषि पर कुदृष्टि रखने वाली इन तीन खल-मूर्तियों के पुतले जलाए गए । अकाली दल के वयोवृद्ध नेता प्रकाश सिंह बादल ने पद्म विभूषण सम्मान को लौटाया । किसानों के प्रति मोदी सरकार के रुख के अलावा किसान प्रदर्शनकारियों के ख़िलाफ़ बीजेपी के सांप्रदायिक अपप्रचार ने भी उन्हें दुखी कियाथा । बादल के अलावा और अनेक खिलाड़ियों और कलाकारों ने भी अपने सम्मानों को लौटाया । किसानों के समर्थन में पूर्व सैनिक अधिकारी भी सड़को पर उतरे ।
सरकार और किसान संगठनों के बीच अब तक वार्ता के पांच दौर हो चुके हैं । किसान संगठनों ने विस्तार के साथ सरकार को बता दिया है कि तुमने जो क़ानून तैयार किये हैं, उन्हें तुम खुद नहीं जानते हो । अर्थात् भ्रमित किसान नहीं, सिर्फ मोदी है । किसान नेताओं ने यहां तक कि सरकार के खाने को भी ठुकराया । पांचवे दौर की वार्ता के बीच किसान नेताओं ने आधे घंटे का मौन प्रतिवाद भी किया । अब छठी बैठक कल, 9 दिसंबर को होगी ।
इतना सब होने के बाद भी जब रकम रकम के केंद्रीय मंत्री तीनों कृषि क़ानूनों में सिर्फ संशोधन करने की बात स्वीकार रहे थे, तब वे शुद्ध रूप में विदूषक नजर आ रहे थे । उन सबकों देख कर लगता था जैसे वे सब हमारे प्रधानमंत्री के मतिभ्रम को बेपर्द करने वाले प्रहसन के चरित्र की भूमिका में आ गये हैं ।
कोई भी प्रहसन तभी तैयार होता है जब उसके चरित्र जिन बातों पर विश्वास नहीं करते हैं, उनके प्रति ही अपनी पूर्ण निष्ठा की क़समें खाते हैं और दर्शक उनके इस मिथ्याचार को साफ़ देख पा रहा होता है । वे किसानों सहित तमाम लोगों के सामने हंसी के पात्र बने हुए निःशंक नंगे खड़े थे ।
आज चारों ओर से घिरी हुई दिल्ली में मोदी और उनके लोग अपने दड़बों में दुबके हुए हैं, पर भारत की जनता की सार्वभौमिकता का जनतांत्रिक भारत दिल्ली के चारों ओर स्थापित हो चुका है । भारत का भविष्य आगे राजधानी दिल्ली से नहीं, दिल्ली की सड़कों पर जमा किसानों की सभाओं से तय होगा ।
कल तक मोदी किसानों को भ्रमित कह रहे थे, पर आज यह मानते हैं कि कुछ बिंदुओं पर किसानों की चिंता है । कहना न होगा, अंत में वे जब वे इन क़ानूनों को वापस लेने के फ़ैसले तक पहुंचेंगे, इतनी देर हो चुकी होगी कि तब वापस लेने का विकल्प भी इनकी डूबती नाव को नहीं बचा पाएगा ।
सचमुच इस नतीजे पर पहुंचने में अब कोई झिझक नहीं होनी चाहिए कि मोदी एक प्रकार की जुनूनी विक्षिप्तता के शिकार है । किसानों को सड़कों पर उतार कर पिछले दिनों जब वे वाराणसी में संगीत की धुन पर मौज से थिरक रहे थे, वह और किसी चीज का नहीं, इसी विक्षिप्तता का का शास्त्रीय लक्षण था, जिसमें आदमी अपने से बाहर कुछ भी देखने से इंकार की ज़िद में जीता है । इसके बाद उनकी विक्षिप्तावस्था का शायद कोई दूसरा प्रमाण ज़रूरी नहीं है ।
आज भी उन्हें अपने गोदी मीडिया और झूठे प्रचार की ताकत पर अगाध भरोसा है । उनके प्रिय आईटीसेल के प्रमुख अमित मालवीय को पहले ऐसे भारतीय नेता का गौरव प्राप्त हुआ है जिन्हें ट्विटर ने ऐसे व्यक्ति के रूप में चिन्हित किया है, जो जाली खबरें प्रसारित करता है । उसे ट्विटर पर ट्रंप जैसे Certified news manipulators की तिरस्कृत श्रेणी में डाल दिया गया है ।
इसी दौरान अमित शाह ने हैदराबाद नगर निगम को हथियाने के लिए जघन्यतम सांप्रदायिक प्रचार और अरबों रुपये ख़र्च करके अपनी पूरी ताक़त झोंक दी थी, ताकि किसानों के इतने व्यापक विरोध के बावजूद वे अपने का चुनावी राजनीति में अजेय साबित कर सके । पर इतना सब करने पर भी उस चुनाव में बीजेपी को एक तिहाई सीटें भी नहीं मिल पाई ।
राहुल गांधी सहित विपक्ष के सारे नेता इस बीच लगातार अपने बयानों से भी किसानों के पक्ष में लगातार प्रचार कर रहे हैं । राहुल गांधी ने मोदी सरकार से कहा है कि वह किसानों को बेवकूफ बनाने की कोशिशें बंद करे ; बेईमानी और ज़ुल्म रोके । वार्ताओं का नाटक ख़त्म करे और तीनों किसान-विरोधी काले क़ानूनों को फाड़ कर फेंक दे ।
हम जानते हैं कि जैसे आदमी का मूल सत्य अंतत: अन्य के ज़रिये ही प्रगट होता है, वैसे ही विद्रोहनुमा जन-संघर्षों से सत्ता का चरित्र भी व्यक्त होता है । भारत में किसानों के इस व्यापक संघर्ष में वे सारे लक्षण पैदा होने लगे हैं जो तानाशाहियों के पतन की परिघटना के शास्त्रीय रूप में दुनिया के कोने-कोने में बार-बार दिखाई देते रहे हैं । इसीलिये अपने एक लेख में हमने इस आंदोलन की तुलना ‘अरब वसंत’ की परिघटना से की थी ।
जाहिर है कि आगे जितने दिन बीतेंगे, आंदोलन को दबाने की कोशिश में सत्ता की नाना दमनमूलक कार्रवाइयों के अनुपात में ही इस आंदोलन के विद्रोही लक्षण उतने ही खुल कर दिखाई देने लगेंगे । मोदी शायद नहीं जानते कि इधर-उधर की झूठी बातों से वे खुद के अलावा और किसी को भी नहीं बरगला रहे हैं । हर बीतते दिन के साथ वे अपने अंत की ही कहानी लिख रहे हैं ।
अंत में हम यही कहेंगे कि यह किसानों का बहादुराना संघर्ष ही भारत की जनता के भावी साहसी नेतृत्व को भी जन्म देगा । इसमें जिनके कदम डगमगायेंगे, वे घिसटने के लिए पीछे छोड़ दिये जायेंगे ।
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