बुधवार, 27 दिसंबर 2023

रामजन्मभूमि प्रसंग पर सुप्रीम कोर्ट के फ़ैसले की व्याख्या भारत के संविधान से इंकार के अलावा और कुछ भी संभव नहीं है


— अरुण माहेश्वरी 

आज के टेलिग्राफ में राम मंदिर के प्रसंग में हिलाल अहमद का एक लेख है — राम मंदिर : एक वैकल्पिक परिप्रेक्ष्य ; एक भिन्न दृष्टि (Ram temple : an alternative perspective; A different reading) । 

हिलाल अहमद ने इस लेख में मूलतः सुप्रीम कोर्ट की राय की व्याख्या करते हुए कहा है कि यह राय क़ानूनी बारीकियों पर आधारित है ।जहां तक इसके सैद्धान्तिक पहलू का सवाल है, उनके अनुसार इसमें “धर्म निरपेक्षता को ही क़ानूनी फ़ैसले का निदेशक तत्त्व माना गया है । इसीलिए बाबरी मस्जिद के विध्वंस को एक अपराध बताया गया है; मुस्लिम पक्ष को मस्जिद बनाने के लिए पाँच एकड़ ज़मीन देने की बात कही गई है ।” 

अर्थात् हिलाल अहमद बल देकर कहते हैं कि सुप्रीम कोर्ट ने राम मंदिर को हिन्दू भावनाओं का विषय मान कर कोई राय नहीं दी है । 

इसके साथ ही वे यह जोड़ने से नहीं चूकते कि “इसमें इतिहासकारों की उस प्रसिद्ध रिपोर्ट को भी नहीं स्वीकारा गया है जिसमें बाबर के द्वारा मंदिर को तोड़ने की संभावना से इंकार किया गया था।” 

हिलाल के शब्दों में—“अदालत ने एक व्यावहारिक फ़ैसला लिया जिसमें मुस्लिम भावनाओं को ख़याल में रखा गया है ।” 

हिलाल आगे और व्याख्या करते हुए कहते हैं कि “अयोध्या की आध्यात्मिक भूमि पर मुसलमानों की ऐतिहासिक उपस्थिति का पहलू इस फ़ैसले का एक महत्वपूर्ण पहलू है । यह शहर बाबरी मस्जिद के अतिरिक्त और कई ऐतिहासिक मस्जिद और इबादत के स्थानों के लिए मशहूर है । भाजपा सरकार ने अयोध्या को एक शुद्ध हिन्दू शहर बनाने में कोई कोर-कसर नहीं छोड़ी है । फिर भी फ़ैज़ाबाद अयोध्या की मिलीजुली संस्कृति के पुनर्निर्माण की संभावना बनी हुई है ।” 

कुल मिला कर उनका मानना है कि यह फ़ैसला “अयोध्या के डरे हुए मुस्लिम बाशिंदों के आत्म-सम्मान को ही सिर्फ़ बल नहीं पहुँचायेगा , बल्कि धर्मपरायण हिन्दुओं के बीच भी इस शहर में मुसलमानों की धार्मिक उपस्थिति के प्रति स्वीकार के भाव को बल देगा ।” 

हिलाल अपनी इस व्याख्या की अंतिम पंक्ति में कहते हैं कि इस प्रकार की गांधीवादी सलाह आदर्शवादी और कुछ अटपटी लग सकती है, पर ‘बीती ताहि बिसार दे, आगे की सुध ले’ का यही अकेला रास्ता है ।” 

इस प्रकार अंतिम निष्कर्ष में हिलाल गांधीवादी आदर्शों की प्रायश्चित और सत्याग्रह की अवधारणा के बजाय ‘मजबूरी का नाम महात्मा गाँधी है’ की तरह की लोकोक्ति को ही वास्तविक गांधीवादी आदर्श मान लेते हैं, और कहना न होगा गांधीवादी आदर्शों के अपने उसी कल्पना लोक में राम मंदिर पर सुप्रीम कोर्ट के फ़ैसले का तथाकथित भिन्न पाठ पेश करके, संविधान की धर्म-निरपेक्ष भावना के अक्षुण्ण बने रहने के भाव के साथ अपनी मनगढ़ंत एक अलग परा-भाषा (meta-language) में उस फ़ैसले की व्याख्या प्रस्तुत करके सबको आत्म-तुष्ट होने का परामर्श देते हैं । 

हम जानते हैं कि किसी भी पाठ की व्याख्या का अर्थ उसके अवचेतन की अभिव्यक्ति के अलावा कुछ नहीं होता है । जब आप किसी फ़ैसले के पीछे निदेशक तत्त्व के रूप में धर्मनिरपेक्षता की बात कहते हैं तो इसका तात्पर्य यही होता है कि उसमें संविधान के धर्मनिरपेक्ष अवचेतन की ही अभिव्यक्ति हुई है । 

पर जब भी किसी पाठ की व्याख्या पाठ के अवचेतन से स्वतंत्र एक अलग वस्तु भाषा के रूप में आती है तो उसका पाठ की अपनी भाषा से कोई संबंध नहीं रहता , बल्कि वह भाषा पाठ से अलग एक परा-भाषा हो जाती है ।किसी भी व्याख्या का अस्तित्व पाठ से पूरी तरह से स्वतंत्र नहीं हो सकता है । हर हाल में वह व्याख्या पाठ में ही अन्तर्निहित होती है, बल्कि वह पाठ के गठन में भी शामिल होती है । 

जब भी कोई विश्लेषक किसी पाठ या प्रमाता का विश्लेषण करता है तो उसका वास्ता उनके अवचेतन के अलावा और किसी चीज से नहीं होता है। उसका लक्ष्य उसके अवचेतन पर अधिकार क़ायम करना होता है । उसका अपना काम सिर्फ़ इतना होता है कि अवचेतन में जो बिखरा हुआ होता है उसे वह एक तार्किक परिणति के रूप में प्रस्तुत करता है । 

इस लिहाज़ से देखने पर सवाल उठता है कि आख़िर हिलाल अहमद की इस व्याख्या का सच क्या है ? क्या हिलाल अहमद की यह व्याख्या सचमुच सुप्रीम कोर्ट की राय का कोई एक ऐसा भिन्न पाठ प्रस्तुत करती है जिससे यह पता चले कि अब तक जो संविधान में अस्पष्ट था उसे ही इस राय में स्पष्ट और तार्किक रूप में पेश किया गया है, या वास्तव में जो ‘आगे की सुध लेने’ के नाम पर भारत के संविधान से एक भयंकर  विच्युति की घातक नज़ीर पेश करता है, हिलाल अहमद उसे ही अपमान के घूँट की तरह पी लेने की नेक सलाह दे रहे हैं ! 

भारत के संविधान के रक्षक के रूप में सुप्रीम कोर्ट की कोई भी राय संविधान के अवचेतन की अभिव्यक्ति के अलावा और कुछ नहीं हो सकती है । जब भी कोई अदालत इस अवचेतन से स्वतंत्र रूप में अपने लिए किसी और नई भाषा को अपनाने का रास्ता चुनती है तब यह तय माना जाना चाहिए कि वह अपने लिए संविधान के रक्षक के बजाय  उसके भक्षक की दिशा में बढ़ने का रास्ता चुन रही होती है। 

एक अल्पसंख्यक समुदाय की इबादत के स्थल को ढहा कर उसकी जगह बहुसंख्यक समुदाय के मंदिर के निर्माण की अनुमति देना कभी धर्मनिरपेक्ष संविधान के तहत न्याय नहीं हो सकता है, बल्कि वह ‘जिसकी लाठी उसकी भैंस’ के तर्ज़ पर धर्म-आधारित राज्य के क़ानून के तर्क के सामने शुद्ध आत्मसमर्पण कहलायेगा । 

ध्यान से देखें तो हम पायेंगे कि राम मंदिर प्रसंग पर सुप्रीम कोर्ट की राय की हिलाल अहमद की यह खास ‘बहुलतावादी और धर्मनिरपेक्ष’ व्याख्या भी इस फ़ैसले में अन्तर्निहित आत्म समर्पण के पराजय भाव के अवचेतन की अभिव्यक्ति से ज़्यादा कुछ नहीं है । सुप्रीम कोर्ट ने रामजन्मभूमि के प्रसंग में जो फ़ैसला सुनाया था उसकी व्याख्या भारत के धर्मनिरपेक्ष संविधान से इंकार के अलावा और कुछ भी संभव नहीं हो सकती है ।

सचाई यह है कि आज के काल में अवचेतन और व्याख्या की तरह के शब्द उस जाति के शब्द हो गए हैं जिनकी ओट में पर्दे के पीछे से एक अलग ही भाव बोध पैदा किया जाता है । ये व्याख्याएँ पाठ के मूल अन्तर्निहित अर्थ को, उसके अवचेतन को विस्थापित करके उस जगह पर क़ब्ज़ा जमाने की कोशिशें हुआ करती है । यह पोस्ट-ट्रुथ काल की विशेष लाक्षणिकता है । 

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें