टीवी चैनलों पर चलाई जारही खबरों से पता चलता है कि नरेन्द्र मोदी ने एनडीए के बाहर के सहयोगियों की तलाश के लिये अपने दूतों को चारों दिशाओं में दौड़ा दिया है। संकेतों से कभी बताया जाता है कि एनसीपी से मोदी के दूतों का संपर्क बना है, तो कभी बीजेडी के बारे में तो कभी एआईडीएमके के बारे में हल्के से ऐसे ही इशारे दिये जारहे हैं। एनसीपी ने तो साफ बयान देकर कह दिया है कि वह यूपीए की घटक है, मोदी से उसका कोई वास्ता नहीं है। बीजेडी, एआईडीएमके ने अब तक कोई बयान नहीं दिया है, लेकिन इसबारे में मोदी के चैनलों की दबी जुबान ही बता देती है कि अभी तक किसी भी कोने से मोदी के लोगों को कोई सकारात्मक संकेत नहीं मिला है।
याद आती है 1996 की बात। भाजपा लोकसभा की सबसे बड़ी पार्टी के रूप में सामने आई थी और राष्ट्रपति शंकरदयाल शर्मा ने अटल बिहारी वाजपेयी को सरकार बनाने का मौका दिया था। भाजपा ने पूरी ताकत झोंक दी, लेकिन अपने लिये लोकसभा का बहुमत हासिल करने में विफल रही और 13 दिन बाद ही वाजपेयीजी को इस्तीफा दे देना पड़ा। वाजपेयी जी के निजी उदार व्यक्तित्व के बावजूद उनके साथ जुड़े हुए आरएसएस के पुछल्ले के चलते अधिकांश अन्य दलों ने उनसे दूर रहना ही उचित समझा।
इसबार तो स्थिति करेला और वह भी नीम चढ़ा वाली है। नरेन्द्र मोदी और आरएसएस का मेल कुछ वैसा ही है। मोदी अनायास ही किसी के लिये भी हिटलर की यादों को ताजा कर देते हैं। चुनाव अभियान के दौरान जिस लहजे में वे सभी छोटे-बड़े अन्य दलों और उनके नेताओं को घुड़कियां दे रहे थे, उसके बाद कहने के लिये कुछ शेष नहीं रह जाता है।
ऐसे में मोदी के लोगों के लिये ममता, जयललिता, मायावती या नवीन पटनायक किसी से भी किसी प्रकार के सहयोग की उम्मीद तक करना कोरी अनैतिकता और शुद्ध अवसरवाद कहलायेगा। इसके बावजूद मोदी के लोगों ने यदि अन्य राजनीतिक दलों को अपने शीशे में उतारने की कोशिश की तो निश्चित तौर पर वे मूंह के बल गिरेंगे।
एनडीए के घटक दलों को इन चुनावों में यदि स्पष्ट बहुमत नहीं मिलता है तो मोदी की सरकार का बनना एक सपना ही रहेगा, कभी हकीकत नहीं बन पायेगा। मोदी जी मुस्कुराते हुए अर्णव गोस्वामी को घुड़की के बल कुछ दलों को काबू में कर लेने का जो इशारा कर रहे थे, उसकी व्यर्थता का नजारा हमें जल्द ही देखने को मिलेगा।
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