अरुण माहेश्वरी
नरेन्द्र मोदी अभी लगातार विकास की, आशा की, सकारात्मकता और अच्छे दिनों की बात कर रहे हैं। पूरे जोशो-खरोश के साथ तोड़ने की नहीं, जोड़ने की बात कर रहे हैं।
भारत को विकास की जरूरत है, उसमें इसे प्राप्त करने की शक्ति भी है। वह हर लिहाज से विकास के योग्य है।
भारत आज दुनिया की तीसरी सबसे बड़ी अर्थ-व्यवस्था है। बड़ी अर्थ-व्यवस्था - अर्थात तमाम मदों पर ज्यादा से ज्यादा खर्च और निवेश में समर्थ अर्थ-व्यवस्था। । मनमोहन सिंह सरकार के दस साल सबसे तेज विकास दर के दस साल रहे हैं। रिजर्व बैंक की भारतीय अर्थ-व्यवस्था के बारे में आंकड़ों की हैंडबुक देख लीजिये। स्थिर कीमतों के आधार पर ही देखे तो जो सकल देशी उत्पाद (जीडीपी) 1951-52 में 286147 करोड़ रुपये का था, वह 1989-90 में 1206243 करोड़ हुआ और 2012-13 में उससे लगभग साढ़े चार गुना बढ़के 5505437 करोड़ रुपये होगया। पूंजी का निर्माण(कैपिटल फॉरमेशन) 1951-52 में जहां 45402 करोड़ था, वह 1989-90 में 319689 करोड़ तक पहुंचा और 2011-12 में लगभग सात गुना बढ़ कर 2131840 करोड़ रुपये होगया। 1951-52 के बाद हमने यहां मध्य में 1989-90 के आंकड़े लिये हैं, जिसके बाद से ही मनमोहन सिंह की नयी आर्थिक नीति का दौर-दौरां शुरू हुआ था। अंत में पिछले साल तक के आंकड़ों का उल्लेख किया गया है।
इसप्रकार, समग्र रूप में, आर्थिक आंकड़ों के झरोखे से देखे तो मनमोहन सिंह का काल भारत के इतिहास का सबसे अधिक जगमगाता काल नजर आयेगा।
इसके बावजूद, मनमोहन सिंह का काल ही सबसे अधिक निकम्मेपन और निराशा के रूप में गण्य हो रहा है ! ऊपर से, भ्रष्टाचार के तमाम रेकर्ड तोड़ने वाला काल भी।
क्या जवाब है इस गुत्थी का? इतनी बड़ी अर्थ-व्यवस्था लेकिन फिर भी शहरों, गांवों, ढांचागत सुविधाओं में वह चमक नहीं, जो हमारी आंखें चीन सहित विकसित विश्व में देखने की अभ्यस्त है - भले प्रत्यक्ष अनुभव से या वर्चुअल दुनिया के पर्दे से।
मोदी या कोई भी यदि यह समझता है कि लगातार बढ़ रही इतनी बड़ी अर्थ-व्यवस्था के रहते भारत को गंदगी मुक्त रखना संभव है, शहरों को चमकाना मुमकिन है, न्यूनतम नागरिक सुविधाएं मुहैय्या करना, संचार का और भी आधुनिकीकरण संभव है, तो यह पूरी तरह से बेबुनियाद नहीं है। पिछले सालों में लाखों करोड़ रुपये जिस प्रकार से एक जवाहरलाल नेहरू शहरी नवीकरण योजना के तहत तमाम राज्य सरकारों में बांटे गये उसके अनुपात को देखते हुए यह सब सोचना कत्तई आधारहीन नहीं है। दिल्ली जैसे शहर का जो कायाकल्प हुआ है, वह भी हर जगह चमकते जीवन के इस सपने को सार्थक करने की आशा जगाने के लिये काफी है। नरेन्द्र मोदी ने इसी सपने को दिल्ली नहीं, गुजरात के नाम पर इस चुनाव में बड़ी चतुराई से बेचा भी है। आगे के लिये भी वे अभी एक इसी बात पर बल दे रहे हैं।
गंगा को स्वच्छ बनाने के लिये भी अरबों रुपये फूंक दिये गये और आज भी मोदी सहित सारे राजनीतिक दल गंगा को शुद्ध करने की कसमें खा रहे हैं।
प्रश्न है कि अब तक यह सब क्यों नहीं हासिल किया जा सका ?
इसका एक सबसे बड़ा जवाब है - भ्रष्टाचार। केंद्र और राज्य सरकारों का भयंकर वित्तीय कदाचार, और निकम्मी नौकरशाही, लाल-फीताशाही।
हमारा सवाल है कि क्या मोदी सरकार एक भ्रष्टाचार-मुक्त सरकार होगी ?
एनडीए का अनुभव हम सबके सामने है। उस सरकार में भ्रष्टाचार इतने चरम पर चला गया था कि भारतीय जनता पार्टी के अध्यक्ष मात्र दो लाख की घूस लेते हुए कैमरे पर पकड़ लिये गये। आरएसएस के भी कई जाने-माने नेता पेट्रोल पंप घोटाले से लेकर न जाने कितने प्रकार के घोटालों में शामिल पाये गये थे। जिन टेलिकॉम, कोयला घोटालों की इधर इतनी चर्चा हो रही थी, उन सबका गोमुख वे नीतियां ही है जो एनडीए के शासन में अपनायी गयी थी।
तो क्या अब वही भाजपा गंगा स्नान करके पूरी तरह से पवित्र हो चुकी है ?
यह एक सौ टके का सवाल है क्योंकि इसीके उत्तर में मोदी के द्वारा दिखाये जा रहे सपनों का सच्चा अथवा झूठा साबित होना निर्भर करता है।
हमारी यह धारणा है कि भारतीय जनता पार्टी इस पैमाने पर किसी भी अर्थ में कांग्रेस से भिन्न पार्टी नहीं है। उसके नेतृत्व की सरकारों के सभी राज्यों में उतना ही भ्रष्टाचार और कुशासन है, जितना किसी भी कांग्रेस शासित राज्य में है या रहा है।
तब मोदी से कौन सी नयी आशा की जा सकती है ?
आर्थिक नीतियों के मामले में वह मनमोहन सिंह के रास्ते से टस से मस नहीं हो सकती। इस नीति ने निश्चित तौर पर भारतीय अर्थ-व्यवस्था को ‘90 के दशक के पहले के गतिरोध से निकाला है। इस मामले में अभी तक वह प्रभावी है।
और भ्रष्टाचार ! इससे मुक्ति भारतीय जनता पार्टी के लिये वैसे ही नामुमकिन है, जैसे कांग्रेस के लिये रही है। इस पार्टी में भी ऐसे लोगों की ही भरमार है जो आर्थिक अपराधों को अपराध नहीं माना करते।
इसपर अतिरिक्त है, आरएसएस के ‘सांस्कृतिक राष्ट्रवाद’ का बोझ। अब पहली बार आरएसएस वास्तव में भारत की राजसत्ता पर पहुंचा है। भारतीय समाज के बारे में उसका अपना एक अलग कार्यक्रम है जिसे वह सांस्कृतिक राष्ट्रवाद के नाम पर चलाता है। वह है - हिंदुत्व का कार्यक्रम, हिंदू राष्ट्र के निर्माण का कार्यक्रम। यह भारत के वर्तमान धर्म-निरपेक्ष संविधान को बदल कर उसकी जगह धर्म-आधारित राज्य के निर्माण का कार्यक्रम है। यह सन् 2002 के गुजरात वाला कार्यक्रम है। आज मोदी भारत के संविधान के प्रति निष्ठा की कितनी भी बातें क्यों न कहें, आरएसएस का प्रचारक होने के नाते वे भी आरएसएस के इस कार्यक्रम से प्रतिबद्ध है।
नव-उदारवाद के आर्थिक कार्यक्रम को छोड़ कर मोदी यदि आरएसएस के कार्यक्रम पर अमल की दिशा में बढ़ते हैं, तो ऊपर हमने आर्थिक क्षेत्र के संदर्भ में जो तमाम बातें कही है, उनके बिल्कुल विपरीत दिशा में परिस्थितियों के मुड़ जाने में थोड़ा भी समय नहीं लगेगा। वह भारतीय समाज को फिर से कबिलाई समाज की ओर लेजाने का रास्ता होगा। उसकी अंतिम परिणति कुछ वैसी ही होगी, जैसी हिटलर और मुसोलिनी ने जर्मनी और इटली की कर दी थी।
इन्हीं तमाम कारणों से नरेन्द्र मोदी के अभी के जोशीले भाषण लफ्फाजी ज्यादा प्रतीत होते हैं। भाषणों से एक बार के लिये छटा बिखेर कर श्रोताओं को मंत्र-मुग्ध किया जा सकता है, लेकिन वही श्रोता जब अपने जीवन के ठोस पीड़ादायी अनुभवों से तंद्रा से जागेगा तो अपने को बुरी तरह ठगा गया पायेगा। यही मोहभंग फिर एक और परिवर्तन की मुहिम शुरू करेगा। भारत के संघर्षशील राजनीतिक दलों को इस नयी मुहिम के लिये अभी से कमर कस कर तैयार होना चाहिए। इसी से असली तीसरा रास्ता तैयार होगा।
नरेन्द्र मोदी अभी लगातार विकास की, आशा की, सकारात्मकता और अच्छे दिनों की बात कर रहे हैं। पूरे जोशो-खरोश के साथ तोड़ने की नहीं, जोड़ने की बात कर रहे हैं।
भारत को विकास की जरूरत है, उसमें इसे प्राप्त करने की शक्ति भी है। वह हर लिहाज से विकास के योग्य है।
भारत आज दुनिया की तीसरी सबसे बड़ी अर्थ-व्यवस्था है। बड़ी अर्थ-व्यवस्था - अर्थात तमाम मदों पर ज्यादा से ज्यादा खर्च और निवेश में समर्थ अर्थ-व्यवस्था। । मनमोहन सिंह सरकार के दस साल सबसे तेज विकास दर के दस साल रहे हैं। रिजर्व बैंक की भारतीय अर्थ-व्यवस्था के बारे में आंकड़ों की हैंडबुक देख लीजिये। स्थिर कीमतों के आधार पर ही देखे तो जो सकल देशी उत्पाद (जीडीपी) 1951-52 में 286147 करोड़ रुपये का था, वह 1989-90 में 1206243 करोड़ हुआ और 2012-13 में उससे लगभग साढ़े चार गुना बढ़के 5505437 करोड़ रुपये होगया। पूंजी का निर्माण(कैपिटल फॉरमेशन) 1951-52 में जहां 45402 करोड़ था, वह 1989-90 में 319689 करोड़ तक पहुंचा और 2011-12 में लगभग सात गुना बढ़ कर 2131840 करोड़ रुपये होगया। 1951-52 के बाद हमने यहां मध्य में 1989-90 के आंकड़े लिये हैं, जिसके बाद से ही मनमोहन सिंह की नयी आर्थिक नीति का दौर-दौरां शुरू हुआ था। अंत में पिछले साल तक के आंकड़ों का उल्लेख किया गया है।
इसप्रकार, समग्र रूप में, आर्थिक आंकड़ों के झरोखे से देखे तो मनमोहन सिंह का काल भारत के इतिहास का सबसे अधिक जगमगाता काल नजर आयेगा।
इसके बावजूद, मनमोहन सिंह का काल ही सबसे अधिक निकम्मेपन और निराशा के रूप में गण्य हो रहा है ! ऊपर से, भ्रष्टाचार के तमाम रेकर्ड तोड़ने वाला काल भी।
क्या जवाब है इस गुत्थी का? इतनी बड़ी अर्थ-व्यवस्था लेकिन फिर भी शहरों, गांवों, ढांचागत सुविधाओं में वह चमक नहीं, जो हमारी आंखें चीन सहित विकसित विश्व में देखने की अभ्यस्त है - भले प्रत्यक्ष अनुभव से या वर्चुअल दुनिया के पर्दे से।
मोदी या कोई भी यदि यह समझता है कि लगातार बढ़ रही इतनी बड़ी अर्थ-व्यवस्था के रहते भारत को गंदगी मुक्त रखना संभव है, शहरों को चमकाना मुमकिन है, न्यूनतम नागरिक सुविधाएं मुहैय्या करना, संचार का और भी आधुनिकीकरण संभव है, तो यह पूरी तरह से बेबुनियाद नहीं है। पिछले सालों में लाखों करोड़ रुपये जिस प्रकार से एक जवाहरलाल नेहरू शहरी नवीकरण योजना के तहत तमाम राज्य सरकारों में बांटे गये उसके अनुपात को देखते हुए यह सब सोचना कत्तई आधारहीन नहीं है। दिल्ली जैसे शहर का जो कायाकल्प हुआ है, वह भी हर जगह चमकते जीवन के इस सपने को सार्थक करने की आशा जगाने के लिये काफी है। नरेन्द्र मोदी ने इसी सपने को दिल्ली नहीं, गुजरात के नाम पर इस चुनाव में बड़ी चतुराई से बेचा भी है। आगे के लिये भी वे अभी एक इसी बात पर बल दे रहे हैं।
गंगा को स्वच्छ बनाने के लिये भी अरबों रुपये फूंक दिये गये और आज भी मोदी सहित सारे राजनीतिक दल गंगा को शुद्ध करने की कसमें खा रहे हैं।
प्रश्न है कि अब तक यह सब क्यों नहीं हासिल किया जा सका ?
इसका एक सबसे बड़ा जवाब है - भ्रष्टाचार। केंद्र और राज्य सरकारों का भयंकर वित्तीय कदाचार, और निकम्मी नौकरशाही, लाल-फीताशाही।
हमारा सवाल है कि क्या मोदी सरकार एक भ्रष्टाचार-मुक्त सरकार होगी ?
एनडीए का अनुभव हम सबके सामने है। उस सरकार में भ्रष्टाचार इतने चरम पर चला गया था कि भारतीय जनता पार्टी के अध्यक्ष मात्र दो लाख की घूस लेते हुए कैमरे पर पकड़ लिये गये। आरएसएस के भी कई जाने-माने नेता पेट्रोल पंप घोटाले से लेकर न जाने कितने प्रकार के घोटालों में शामिल पाये गये थे। जिन टेलिकॉम, कोयला घोटालों की इधर इतनी चर्चा हो रही थी, उन सबका गोमुख वे नीतियां ही है जो एनडीए के शासन में अपनायी गयी थी।
तो क्या अब वही भाजपा गंगा स्नान करके पूरी तरह से पवित्र हो चुकी है ?
यह एक सौ टके का सवाल है क्योंकि इसीके उत्तर में मोदी के द्वारा दिखाये जा रहे सपनों का सच्चा अथवा झूठा साबित होना निर्भर करता है।
हमारी यह धारणा है कि भारतीय जनता पार्टी इस पैमाने पर किसी भी अर्थ में कांग्रेस से भिन्न पार्टी नहीं है। उसके नेतृत्व की सरकारों के सभी राज्यों में उतना ही भ्रष्टाचार और कुशासन है, जितना किसी भी कांग्रेस शासित राज्य में है या रहा है।
तब मोदी से कौन सी नयी आशा की जा सकती है ?
आर्थिक नीतियों के मामले में वह मनमोहन सिंह के रास्ते से टस से मस नहीं हो सकती। इस नीति ने निश्चित तौर पर भारतीय अर्थ-व्यवस्था को ‘90 के दशक के पहले के गतिरोध से निकाला है। इस मामले में अभी तक वह प्रभावी है।
और भ्रष्टाचार ! इससे मुक्ति भारतीय जनता पार्टी के लिये वैसे ही नामुमकिन है, जैसे कांग्रेस के लिये रही है। इस पार्टी में भी ऐसे लोगों की ही भरमार है जो आर्थिक अपराधों को अपराध नहीं माना करते।
इसपर अतिरिक्त है, आरएसएस के ‘सांस्कृतिक राष्ट्रवाद’ का बोझ। अब पहली बार आरएसएस वास्तव में भारत की राजसत्ता पर पहुंचा है। भारतीय समाज के बारे में उसका अपना एक अलग कार्यक्रम है जिसे वह सांस्कृतिक राष्ट्रवाद के नाम पर चलाता है। वह है - हिंदुत्व का कार्यक्रम, हिंदू राष्ट्र के निर्माण का कार्यक्रम। यह भारत के वर्तमान धर्म-निरपेक्ष संविधान को बदल कर उसकी जगह धर्म-आधारित राज्य के निर्माण का कार्यक्रम है। यह सन् 2002 के गुजरात वाला कार्यक्रम है। आज मोदी भारत के संविधान के प्रति निष्ठा की कितनी भी बातें क्यों न कहें, आरएसएस का प्रचारक होने के नाते वे भी आरएसएस के इस कार्यक्रम से प्रतिबद्ध है।
नव-उदारवाद के आर्थिक कार्यक्रम को छोड़ कर मोदी यदि आरएसएस के कार्यक्रम पर अमल की दिशा में बढ़ते हैं, तो ऊपर हमने आर्थिक क्षेत्र के संदर्भ में जो तमाम बातें कही है, उनके बिल्कुल विपरीत दिशा में परिस्थितियों के मुड़ जाने में थोड़ा भी समय नहीं लगेगा। वह भारतीय समाज को फिर से कबिलाई समाज की ओर लेजाने का रास्ता होगा। उसकी अंतिम परिणति कुछ वैसी ही होगी, जैसी हिटलर और मुसोलिनी ने जर्मनी और इटली की कर दी थी।
इन्हीं तमाम कारणों से नरेन्द्र मोदी के अभी के जोशीले भाषण लफ्फाजी ज्यादा प्रतीत होते हैं। भाषणों से एक बार के लिये छटा बिखेर कर श्रोताओं को मंत्र-मुग्ध किया जा सकता है, लेकिन वही श्रोता जब अपने जीवन के ठोस पीड़ादायी अनुभवों से तंद्रा से जागेगा तो अपने को बुरी तरह ठगा गया पायेगा। यही मोहभंग फिर एक और परिवर्तन की मुहिम शुरू करेगा। भारत के संघर्षशील राजनीतिक दलों को इस नयी मुहिम के लिये अभी से कमर कस कर तैयार होना चाहिए। इसी से असली तीसरा रास्ता तैयार होगा।
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