सोमवार, 5 मई 2014

सिरहाने ग्राम्शी



आज मेरी नयी किताब ‘सिरहाने ग्राम्शी’ मुझे मिली है। ‘राजकमल प्रकाशन’ से प्रकाशित इस किताब के ब्लर्ब पर जो लिखा गया है, उसे अपने मित्रों के साथ साझा कर रहा हूं। इसके अलावा एक चित्र, जिसमें सरला के साथ मैं किताब को उलट-पुलट कर देख रहा हूं :

फासिस्टों के नर-मेधी यातना और मृत्यु शिविरों से लेकर साइबेरिया के निर्वासन शिविरों और अमेरिकी जेल-औद्योगिक गंठजोड़ वाले कैदखानों तक की कमोबेस एक ही कहानी है। नागरिक स्वतंत्रता की प्रमुख अमेरिकी कार्यकर्ता ऐंजिला डेविस की शब्दावली में - आज भी जारी दास प्रथा की कहानी। सुधारगृह कहे जाने वाले भारतीय जेल इनसे शायद ही अलग है।

इटली में फासिस्टों के जेल में बीस साल के लिये सजा-याफ्ता मार्क्सवादी विचारक और कम्युनिस्ट नेता अंतोनिओ ग्राम्शी ने सजा के दस साल भी पूरे नहीं किये कि उनके शरीर ने जवाब दे दिया। मृत्यु के एक महीना पहले उन्हें रिहा किया गया था। लेकिन जेल में बिताएं इन चंद सालों के आरोपित एकांत का उन्होंने इटली के इतिहास, उसकी संस्कृति, मार्क्सवादी दर्शन तथा कम्युनिस्ट पार्टी के बारे में गहरे विवेचन के लिये जैसा इस्तेमाल किया उसने उनकी जेल डायरी को दुनिया के श्रेष्ठतम जेल-लेखन के समकक्ष रख दिया। खास तौर पर कम्युनिस्ट पार्टियों में शामिल लोगों के लिये तो इसने जैसे सोच-विचार के एक पूरे नये क्षेत्र को खोल दिया। ग्राम्शी का यह पूरा लेखन कम्युनिस्टों को, किसी भी मार्क्सवादी के लिये अपेक्षित, तमाम वैचारिक जड़ताओं से मानसिक तौर पर उनमुक्त करने का एक चुनौती भरा लेखन है।

एक ऐसे विचारक के साथ जेल में बिताए चंद दिनों की यह डायरी किसी भी पाठक के लिये, खास तौर पर राजनीतिक सामाजिक कार्यकर्ताओं के लिए बहुत उपयोगी अनुभव साबित हो सकती है। इसकी पारदर्शी भाषा, अंतस्थि्त सूक्ष्म वेदना और स्वच्छंद विचार-प्रवाह ने इस पुस्तक को अपने प्रकार की एक अनूठी कृति का रूप दिया है।

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