सोमवार, 23 मार्च 2015

ली क्वान यू


अरुण माहेश्वरी


ली क्वान यू, सिंगापुर के किंवदंती नेता, पूरब का बुद्धिमान व्यक्ति, सन् 1959 में अंग्रेजो से सिंगापुर की मुक्ति के बाद से लगभग छ: दशक से भी ज्यादा समय तक एक जनतांत्रिक प्रणाली में इस द्वीप शहर के एकछत्र नेता, सिंगापुर के निर्माता।  आज वे नहीं रहे। लेकिन एक छोटे से देश की प्रयोगशाला में उन्होंने जो उपलब्धियां की है, उनसे उनके पीछे विकास और शासन से जुड़े कई ऐसे महत्वपूर्ण सवाल छूट गये है, जिनसे आज दुनिया की संभवत: हर सरकार को किसी न किसी रूप में टकराना ही होगा। ली क्वान का सिंगापुर आर्थिक और वित्तीय क्षेत्र में पूरब और पश्चिम की परस्पर-निर्भरशीलता का एक ऐसा जटिल मॉडल पेश करता है, जिसमें कौन किसके हितों को साध रहा है कहना मुश्किल है, लेकिन वहां की व्यापक जनता के जीवन-स्तर पर इसका गहरा असर पड़ा है। पूरब का एक सबसे गरीब क्षेत्र आज दुनिया का एक सबसे चमचमाता हुआ, मानव विकास के अनेक मानदंडों पर काफी अग्रणी क्षेत्र प्रतीत होता है और इसकी हम तब तक अवहेलना नहीं कर सकते जब तक हम किसी ऐसे सोच में न डूबे हो कि ‘जगत प्रतीति मिथ्या है’।

अंग्रेजों ने अपनी वाणिज्यिक गतिविधियों के बंदरगाह शहर के तौर पर सिंगापुर के अलावा इसी क्षेत्र के और भी दो क्षेत्रों को चुना था - कुआलालमपुर के निकट मेलाका और मलयेशिया के उत्तर-पश्चिमी तट से लगा हुआ पेनांग। 1959 में अंग्रेजों ने सिंगापुर को स्वशासन का अधिकार दिया था और पिपुल्स ऐक्शन पार्टी के नेता ली के हाथ में कमान आई। 1963 में उसके मलय संघ में शामिल होने से मलयेशिया का जन्म हुआ। लेकिन दो साल बाद ही, कुछ जातीय संघर्षों की पृष्ठभूमि में 1965 में सिंगापुर को इस संघ से निकाल दिया गया और वह एक स्वतंत्र गणतंत्र के रूप में सामने आया। और तब से लेकर अब तक वहां ली क्वान की पिपुल्स एक्शन पार्टी का ही शासन रहा है। विपक्ष कभी भी पनप नहीं पाया या उसे पनपने नहीं दिया गया।

कहा जाता है कि सिंगापुर के जन्म की परिस्थितियों और उसके अति-क्षुद्र आकार के चलते ही वहां अस्तित्वीय संकट के बोध पर टिकी ऐसी राजनीतिक परिस्थितियां तैयार हुई जिनकी वजह से वहां जनतंत्र के आवरण में ही एकदलीय तानाशाही की व्यवस्था कायम हुई। ली ने सख्त हाथों से कमान संभाली और इस नवोदित छोटे से देश को अपने प्रकार का एक खास सुरक्षा कवच प्रदान करने के लिये ही उसे विश्व वित्तीय व्यवस्था का एक अभिन्न अंग बना दिया। देखते ही देखते, यह बंदरगाह, देश पूरब में विश्व पूंजीवाद की नाक बन गया। इससे उसे दुश्मनों की कुनजर से सुरक्षा मिली, तो इसके साथ ही विकास के कामों के लिये जरूरी पूंजी का अबाध प्रवाह। पूरब के बुद्धिमान कहे जाने वाले ली ने सिंगापुर की इस स्थिति को पूरी मजबूती से बनाये रखा - सिंगापुर दिन-प्रतिदिन चमकता रहा और विकास के एक खास शहर-केंद्रित मॉडल के उदाहरण के तौर पर आज वह सारी दुनिया के शासकों के आकर्षण का केंद्र बना हुआ है।

सिंगापुर के साथ अक्सर चीन की तुलना की जाती है। एक देश घोषित तौर पर पूंजीवाद के रास्ते को अपनाए हुए है और दूसरा समाजवाद को। लेकिन दोनों में कुछ अनोखी समानताओं को देखा जाता है। दोनों जगह एकदलीय शासन है और नीतियों के नाम पर शहरीकरण पर अतिरिक्त बल। राजनीति और अर्थनीति के क्षेत्र में विचारकों का एक बड़ा तबका ऐसा है जो सरकारों को किसी प्रशासनिक औजार से ज्यादा कोई महत्व देने के लिये तैयार नहीं है। शासन के साथ किसी भी देश की आबादी की संरचना के प्रश्नों, सामाजिक-सांस्कृतिक मूल्यों को वे कोई महत्व नहीं देते हैं। उनकी दृष्टि में विकास का लक्ष्य एक पूर्व-निर्धारित परम सत्य है, जिसे आज की दुनिया में नव-उदारवाद का लक्ष्य कहा जा सकता है। उनके अनुसार, शासन का काम पूरी शक्ति के साथ उस दिशा में तेजी से बढ़ना भर है। यही वजह है कि जब 2008 में अमेरिका में सब-प्राइम संकट के साथ वित्तीय क्षेत्र में भारी उथल-पुथल मची थी, उसके पहले तक अमेरिकी जनतांत्रिक प्रणाली को एक कमजोर प्रणाली बताते हुए अक्सर चीन की सख्त शासन प्रणाली की दुहाइयां दी जाती थी। यह सोच आज भी हमेशा वैकल्पिक शासन प्रणालियों पर विचार के क्रम में किसी न किसी रूप में सामने आता रहता है। इस मामले में सिंगापुर एक बहुत ही छोटे देश के नाते कोई ठोस विकल्प न होने पर भी एक सीमित क्षेत्र के विकास के मॉडल के रूप में वह हमेशा चर्चा के केंद्र में रहा है।

भारत में आज स्मार्ट सिटी की चर्चा जोरों से चल रही है। देश की कई राज्य सरकारें अपने-अपने तरीके से शहरीकरण के इस खास प्रकार के अभियान में ही अपना भविष्य देख रही है। इसमें अक्सर भारत के राजनीतिज्ञ सिंगापुर की यात्रा पर जाते हुए और विकास के ली के बताये हुए मॉडल का अध्ययन करते हुए पाए जाते हैं। मोदी जी ने स्वच्छ भारत का जो नारा दिया है, उसके पीछे भी शहरी स्वच्छता का वही आदर्श किसी न किसी रूप में झलकता हुआ दिखाई देता है, जैसा कि सिंगापुर में दिखाई देता है।

लेकिन हमारी समस्या यह है कि हम सिर्फ नारों और अभियानों में ही विकास का जाप करने पर ज्यादा यकीन करते हैं। देश का निर्माण एक व्यापक सांस्थानिक निर्माण का काम होता है। आजादी के इन 68 सालों में इस प्रकार का एक सांस्थानिक ढांचा हमारे यहां तैयार भी हुआ है। यह हमारे देश की ठोस वास्तविकता से जुड़ा हुआ ढांचा है जिसमें विकास के साथ जनता की लोकतांत्रिक भागीदारी को सुनिश्चित करने की भी व्यवस्थाएं है। बिल्कुल नीचे के स्तर तक स्वशासी संस्थाओं का निर्माण इसी दृष्टि से किया गया है। लेकिन मुसीबतों की जड़ यह है कि भ्रष्टाचार के कैंसर ने इस पूरी लोकतांत्रिक शासन की श्रृंखला को इतना पंगु कर दिया है कि जिसके कारण इसके वांछित परिणाम हासिल करना मुश्किल होगया है। हमारे यहां पंचायतें, नगरपालिकाएं और नगर-निगम  विकास के कामों को साधने के बजाय घनघोर भ्रष्टाचार के अड्डे बन गये हैं।

आज सिंगापुर के प्रयात नेता ली के महत्व को समझते हुए इस तथ्य को कभी भी ओझल नहीं किया जाना चाहिए कि ली ने अपने देश का कायाकल्प हवा में या कोरे नारों और विचारों से नहीं किया था। उन्होंने सिंगापुर को विश्व वित्तीय बाजार और विश्व व्यापार के एक केंद्र के साथ ही एक स्वच्छ और सुंदर देश के रूप में विकसित करने के लिये वहां एक सुनिश्चित सांस्थानिक ढांचा तैयार किया और उसे भ्रष्टाचार की तरह के कैंसर से यथासंभव बचाये रखा। सिंगापुर की सफलता के पीछे कहीं न कहीं ली के आधुनिक धर्म-निरपेक्ष दृष्टिकोण, सिंगापुर को जातीय संघर्षों के उसके दर्दनाक इतिहास से मुक्त रखने की सचेत कोशिशों की भी बड़ी भूमिका रही है। सिंगापुर अपनी आजादी के समय जिस प्रकार के चीनी और मलय जातियों के बीच भयंकर जातीय संघर्षों से जर्जर था, वह आज सिंगापुर के लिये सुदूर अतीत की चीज बन गयी है। हर प्रकार की जातीय और सांप्रदायिक संकीर्णता से मुक्ति में भी सिंगापुर के विकास का रहस्य छिपा हुआ है।




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