कर्मेन्दु शिविर ने अपनी वाल पर लेखकों द्वारा सम्मान को लौटाने का विरोध करते हुए किस्तवार लेखन शुरू किया है, जिसकी पहली किस्त उन्होंने आज लिखी है । उसके जवाब में हमने जो टिप्पणी की है, उसे हम यहाँ मित्रों से साझा कर रहे हैं । उनके लिखे को भी हम यहाँ अलग से नीचे टिप्पणी में दे रहे हैं -
Karmendu Shishir जी, आपकी बातों को पढ़ कर लगता है जैसे अभी जो चल रहा है, वह सब कोरा हवाई, आधारहीन मामला है । न इसकी कोई ठोस वजह है और न ही शायद इसका कोई ठोस रूप ! एक वर्चुअल संसार की सपनों की तरह की बातें, जिनमें कोई तारतम्य नहीं है !
हम आपसे सबसे पहली बात तो यह जानना चाहते हैं कि क्या डाभोलकर, पानसारे और अंत में कलबुर्गी की हत्याएँ हुई थी या नहीं ? दूसरी बात, साहित्य अकादमी से सम्मानित कलबुर्गी की हत्या के बावजूद साहित्य अकादमी ने तत्काल बयान देकर उस हत्या की निंदा नहीं की, बल्कि एक शोक प्रस्ताव भी पारित नहीं किया, यह सच है या नहीं ? तीसरी बात कि क्या लेखकों को डराने-धमकाने का सिलसिला पिछले चुनाव के पहले ही, जब अनंतमूर्ति को पाकिस्तान जाने का टिकट भेजा गया था, व्यापक पैमाने पर शुरू हो गया था या नहीं ? क्या फ़ेसबुक की तरह के सोशल मीडिया पर मोदी अथवा आरएसएस की राजनीति का विरोध करने वालों को संगठित रूप से बुरी से बुरी गालियाँ देने और डराने-धमकाने का काम चल रहा है या नहीं ? और क्या पूरे देश में विभिन्न प्रकार के सांप्रदायिक सवालों पर, जिनमें एक सवाल गोमांस का भी है, भयंकर असहिष्णुता का माहौल एक सचाई है या नहीं ?
आपकी बातों से लगता है, हमारे ये सारे सवाल कोरी कल्पना-प्रसूत है या ये जीवन-मृत्यु की तरह इतनी सामान्य बातें हैं जिन पर किसी भी लेखक या व्यक्ति के संवेदित, व्यथित अथवा क्षुब्ध होने का कोई तुक नहीं है !
अगर आप इन बातों को सच मानते हैं, मानते हैं कि विवेकवान बुद्धिजीवियों, लेखकों को डराया-धमकाया जाना और उनकी हत्या तक कर दिया जाना और समाज में साम्प्रदायिक असहिष्णुता का बुरी तरह बढ़ना एक सचाई है, तो सारा मामला इस बात पर टिक जाता है कि इन परिस्थितियों पर प्रतिक्रिया का रूप क्या होना चाहिए था और क्या नही ?
हमें लगता है कि आपके दिमाग़ में प्रतिवाद करने के तौर-तरीक़ों की कुछ बद्धमूल धारणाएं हैं । मसलन्, बांग्ला के बुद्धिजीवियों की तरह की, राष्ट्रपति को पत्र लिखो या वैसा ही कुछ और करो । आप उसे स्वीकार सकते हैं, लेकिन उदय प्रकाश से शुरू करके अब तक लगभग चालीस लेखकों और अन्य क्षेत्रों के रचनाकर्मियों-बुद्धिजीवियों ने सम्मानों को लौटाने का जो रास्ता अपनाया है, उसे आप नहीं स्वीकार कर सकते । आपकी इस पोस्ट का लुब्बेलुबाब यही है कि यह सम्मानों को ठुकराने का तरीक़ा सिर्फ ग़लत ही नहीं, बल्कि दुरभिसंधिमूलक है । बुरे लोगों का एक बुरा तरीक़ा ! इसमें आपको और भी बुरा लगा कि एक ने अभी प्रतिक्रिया दी तो दूसरे ने महीने भर बाद, तो बाक़ियों ने और भी बाद में । क्यों नहीं सब एक साथ ही बोलें !
सचमुच, आपकी ये सब घुमावदार दलीलें अनोखी लगती है । लेखक जिस बात को अपनी धड़कनों पर महसूस कर रहा है, जो भयानक परिस्थितियाँ कोरी कल्पना नहीं, ठोस सचाई है, उन्हें आप अजीब ढंग से अपनी कुछ आत्मगत निजी अवधारणाओं के साथ गड्ड-मड्ड करके सारे विषय को अमूर्त और गदला करके ऐसा काम कर रहे हैं, जो शायद ही आपका अभिप्रेत हो - संघी प्रचारकों की तरह प्रतिवाद के स्वरों की सचाई को संदेह के घेरे में डाल कर इस प्रतिवाद का तिरस्कार करने और आज की भयंकर रचना-विरोधी सच्चाई को झुठलाने का काम ।
लेखकों ने सचमुच निजी तौर पर, अपने लेखन कर्म पर पड़ रहे दबावों को महसूस करते हुए यह कार्रवाई की है और इसीलिये इसका कोई पूर्व-निर्धारित रूप नहीं रहा है । आज तक भी वे निजी तौर पर ही अपनी प्रतिक्रियाएँ दे रहे हैं । यही इस प्रतिवाद के अंदर के सच का सबसे बड़ा प्रमाण भी है । किसी भी सच्चे लेखक के लिये लिखने की स्वतंत्र परिस्थितयां ज्यादा मूल्यवान है, न कि कोई सरकारी सम्मान । खुल कर लिख न पाएँ, वैसी परिस्थिति में लेखक को ऐसे सम्मान गले में पडी ज़ंजीर लगने लगे तो इसमें कुछ भी अस्वाभाविक नहीं है ।
उल्टे, हमारा तो मानना है कि अगर शुरू से यह प्रतिवाद किसी सामूहिक या संगठित कार्रवाई के तौर पर सामने आता तब संघियों के लिये इसे बदनाम करना, इसे निराश राजनीतिज्ञों द्वारा संगठित कार्रवाई बताना और असहिष्णुता की इन भयावह परिस्थितियों को झुठलाना कहीं ज्यादा आसान होता । संभव है, उस समय आप भी शायद वैसी ही किसी और दलील के साथ लेखकों की भावनाओं को झुठलाते, क्योंकि आपकी इस पोस्ट से जो बात साफ तौर पर सामने आती है, वह यही कि आपके लिये लेखकों की अपनी स्वतंत्रता और अपनी जान की रक्षा की भावनाओं का कोई मायने नहीं है ।
दरअसल, लेखकों-बुदिधजीवियों का यह प्रतिवाद मोदी को हटाने का नहीं, अपनी अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता और अपनी जान को बचाने का आंदोलन है ।
Karmendu Shishir जी, आपकी बातों को पढ़ कर लगता है जैसे अभी जो चल रहा है, वह सब कोरा हवाई, आधारहीन मामला है । न इसकी कोई ठोस वजह है और न ही शायद इसका कोई ठोस रूप ! एक वर्चुअल संसार की सपनों की तरह की बातें, जिनमें कोई तारतम्य नहीं है !
हम आपसे सबसे पहली बात तो यह जानना चाहते हैं कि क्या डाभोलकर, पानसारे और अंत में कलबुर्गी की हत्याएँ हुई थी या नहीं ? दूसरी बात, साहित्य अकादमी से सम्मानित कलबुर्गी की हत्या के बावजूद साहित्य अकादमी ने तत्काल बयान देकर उस हत्या की निंदा नहीं की, बल्कि एक शोक प्रस्ताव भी पारित नहीं किया, यह सच है या नहीं ? तीसरी बात कि क्या लेखकों को डराने-धमकाने का सिलसिला पिछले चुनाव के पहले ही, जब अनंतमूर्ति को पाकिस्तान जाने का टिकट भेजा गया था, व्यापक पैमाने पर शुरू हो गया था या नहीं ? क्या फ़ेसबुक की तरह के सोशल मीडिया पर मोदी अथवा आरएसएस की राजनीति का विरोध करने वालों को संगठित रूप से बुरी से बुरी गालियाँ देने और डराने-धमकाने का काम चल रहा है या नहीं ? और क्या पूरे देश में विभिन्न प्रकार के सांप्रदायिक सवालों पर, जिनमें एक सवाल गोमांस का भी है, भयंकर असहिष्णुता का माहौल एक सचाई है या नहीं ?
आपकी बातों से लगता है, हमारे ये सारे सवाल कोरी कल्पना-प्रसूत है या ये जीवन-मृत्यु की तरह इतनी सामान्य बातें हैं जिन पर किसी भी लेखक या व्यक्ति के संवेदित, व्यथित अथवा क्षुब्ध होने का कोई तुक नहीं है !
अगर आप इन बातों को सच मानते हैं, मानते हैं कि विवेकवान बुद्धिजीवियों, लेखकों को डराया-धमकाया जाना और उनकी हत्या तक कर दिया जाना और समाज में साम्प्रदायिक असहिष्णुता का बुरी तरह बढ़ना एक सचाई है, तो सारा मामला इस बात पर टिक जाता है कि इन परिस्थितियों पर प्रतिक्रिया का रूप क्या होना चाहिए था और क्या नही ?
हमें लगता है कि आपके दिमाग़ में प्रतिवाद करने के तौर-तरीक़ों की कुछ बद्धमूल धारणाएं हैं । मसलन्, बांग्ला के बुद्धिजीवियों की तरह की, राष्ट्रपति को पत्र लिखो या वैसा ही कुछ और करो । आप उसे स्वीकार सकते हैं, लेकिन उदय प्रकाश से शुरू करके अब तक लगभग चालीस लेखकों और अन्य क्षेत्रों के रचनाकर्मियों-बुद्धिजीवियों ने सम्मानों को लौटाने का जो रास्ता अपनाया है, उसे आप नहीं स्वीकार कर सकते । आपकी इस पोस्ट का लुब्बेलुबाब यही है कि यह सम्मानों को ठुकराने का तरीक़ा सिर्फ ग़लत ही नहीं, बल्कि दुरभिसंधिमूलक है । बुरे लोगों का एक बुरा तरीक़ा ! इसमें आपको और भी बुरा लगा कि एक ने अभी प्रतिक्रिया दी तो दूसरे ने महीने भर बाद, तो बाक़ियों ने और भी बाद में । क्यों नहीं सब एक साथ ही बोलें !
सचमुच, आपकी ये सब घुमावदार दलीलें अनोखी लगती है । लेखक जिस बात को अपनी धड़कनों पर महसूस कर रहा है, जो भयानक परिस्थितियाँ कोरी कल्पना नहीं, ठोस सचाई है, उन्हें आप अजीब ढंग से अपनी कुछ आत्मगत निजी अवधारणाओं के साथ गड्ड-मड्ड करके सारे विषय को अमूर्त और गदला करके ऐसा काम कर रहे हैं, जो शायद ही आपका अभिप्रेत हो - संघी प्रचारकों की तरह प्रतिवाद के स्वरों की सचाई को संदेह के घेरे में डाल कर इस प्रतिवाद का तिरस्कार करने और आज की भयंकर रचना-विरोधी सच्चाई को झुठलाने का काम ।
लेखकों ने सचमुच निजी तौर पर, अपने लेखन कर्म पर पड़ रहे दबावों को महसूस करते हुए यह कार्रवाई की है और इसीलिये इसका कोई पूर्व-निर्धारित रूप नहीं रहा है । आज तक भी वे निजी तौर पर ही अपनी प्रतिक्रियाएँ दे रहे हैं । यही इस प्रतिवाद के अंदर के सच का सबसे बड़ा प्रमाण भी है । किसी भी सच्चे लेखक के लिये लिखने की स्वतंत्र परिस्थितयां ज्यादा मूल्यवान है, न कि कोई सरकारी सम्मान । खुल कर लिख न पाएँ, वैसी परिस्थिति में लेखक को ऐसे सम्मान गले में पडी ज़ंजीर लगने लगे तो इसमें कुछ भी अस्वाभाविक नहीं है ।
उल्टे, हमारा तो मानना है कि अगर शुरू से यह प्रतिवाद किसी सामूहिक या संगठित कार्रवाई के तौर पर सामने आता तब संघियों के लिये इसे बदनाम करना, इसे निराश राजनीतिज्ञों द्वारा संगठित कार्रवाई बताना और असहिष्णुता की इन भयावह परिस्थितियों को झुठलाना कहीं ज्यादा आसान होता । संभव है, उस समय आप भी शायद वैसी ही किसी और दलील के साथ लेखकों की भावनाओं को झुठलाते, क्योंकि आपकी इस पोस्ट से जो बात साफ तौर पर सामने आती है, वह यही कि आपके लिये लेखकों की अपनी स्वतंत्रता और अपनी जान की रक्षा की भावनाओं का कोई मायने नहीं है ।
दरअसल, लेखकों-बुदिधजीवियों का यह प्रतिवाद मोदी को हटाने का नहीं, अपनी अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता और अपनी जान को बचाने का आंदोलन है ।
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