शुक्रवार, 29 जुलाई 2016

महाश्वेता देवी (1926-2016)



महाश्वेता देवी की लिखने की टेबुल कभी भी बदली नहीं। बालीगंज स्टेशन रोड में ज्योतिर्मय बसु के मकान में लोहे की घुमावदार सीढ़ी वाली छत के घर, गोल्फ ग्रीन या राजाडांगा कहीं भी क्यों न रहे, टेबुल हमेशा एक ही। ढेर सारे लिफाफे, निवेदन पत्र, सरकारी लिफाफे, संपादित ‘वर्तिका’ पत्रिका की प्रूफकापियां बिखरी हुई। एक कोने में किसी तरह से उनके अपने राइटिंग पैड और कलम की बाकायदा मौजूदगी। सादा बड़े से उस चौकोर पैड पर डाट पेन से एकदम पूरे-पूरे अक्षरों में लिखने का अभ्यास था उनका।

लिखना, साहित्य बहुत बाद में आता है। कौन से शबरों के गांव में ट्यूबवेल नहीं बैठा है, बैंक ने कौन से लोधा नौजवान को कर्ज देने से मना कर दिया है - सरकारी कार्यालयों में लगातार चिट्ठियां लिखना ही जैसे उनका पहला काम था। ज्ञानपीठ से लेकर मैगसेसे पुरस्कार से विभूषित महाश्वेता जितनी लेखक थी, उतनी ही एक्टिविस्ट भी थी। 88 साल की उम्र में अपने हाथ में इंसुलिन की सूईं लगाते-लगाते वे कहती थी, ‘‘तुम लोग जिसे काम कहते हो, उनकी तुलना में ये तमाम बेकाम मुझे ज्यादा उत्साहित करते हैं।’’

इसीलिये महाश्वेता को सिर्फ एक रूप में देखना असंभव है। वे ‘हजार चौरासी की मां’ है। वे ‘अरण्य के अधिकार’ की उस प्रसिद्ध पंक्ति, ‘नंगों-भूखों की मृत्यु नहीं है’  की जननी है। दूसरी ओर वे सिंगुर-नंदीग्राम आंदोलन का एक चेहरा थी। एक ओर उनके लेखन से बिहार-मध्यप्रदेश के कुर्मी, भंगी, दुसाध बंगाली पाठकों के दरवाजे पर जोरदार प्रहार करते हैं। और एक महाश्वेता आक्साफोर्ड यूनिवर्सिटी प्रेस से दिल्ली बोर्ड के विद्यार्थियों के लिये ‘आनन्दपाठ’ शीर्षक संकलन तैयार करती है, जिम कार्बेट से लू शुन, वेरियर एल्विन का अनुवाद करके उन्हें बांग्ला में लाती है। उनके घर पर गांव से आए दरिद्रजनों का हमेशा आना-जाना लगा रहता है।

दो साल पहले की बात है। किसी काम के लिये कोलकाता आया एक शबर नौजवान महाश्वेता के घर पर टिका हुआ था। नहाने के बाद आले में रखी महाश्वेता की कंघी से ही अपने बाल संवार लिये। इस शहर में अनेक वामपंथी जात-पातहीन, वर्ग-विहीन, शोषणहीन समाज के सपने देखते हैं। लेकिन अपने खुद के तेल-साबुन, कघी को कितने लोग बेहिचक दूसरे को इस्तेमाल करने के लिये दे सकते हैं ? कैसे उन्होंने यह स्वभाव पाया ? सन् 2001 में गायत्री चक्रवर्ती स्पिवाक को महाश्वेता ने कहा था, ‘जब शबरों के पास गई, मेरे सारे सवालों के जवाब मिल गये। आदिवासियों पर जो भी लिखा है, उनके अंदर से ही पाया है।’

सबाल्टर्न इतिहास लेखन की प्रसिद्धी के बहुत पहले ही तो महाश्वेता के लेखन में वे सब अनसुने सुने जा सकते थे। 1966 में प्रकाशित हुई थी ‘कवि बंध्यघटी गात्री का जीवन और मृत्यु’। उसमें उपन्यासकार ने माना था, ‘बहुत दिनों से इतिहास का रोमांस मुझे आकर्षित नहीं कर रहा था। एक ऐसे नौजवान की कहानी लिखना चाहती थी जो अपने जन्म और जीवन का अतिक्रमण करके अपने लिये एक संसार बनाना चाहता था, उसका खुद का रचा हुआ संसार।’ ‘चोट्टी मुण्डा और उसका तीर’ वही अनश्वर स्पिरिट है। ‘चोट्टी खड़ा रहा। निर्वस्त्र। खड़े-खड़े ही वह हमेशा के लिये नदी में विलीन हो जाता है, यह किंवदंती है। जो सिर्फ मनुष्य ही हो सकता है।’ सारी दुनिया के सुधीजनों के बीच महाश्वेता इस वंचित जीवन की कथाकार के रूप में ही जानी जायेगी। गायत्री स्पिवाक महाश्वेता के लेखन का अंग्रेजी अनुवाद करेगी। इसीलिये महाश्वेता को बांग्ला से अलग भारतीय और अन्तरराष्ट्रीय साहित्य के परिप्रेक्ष्य में देखना होगा।

विश्व चिंतन से महाश्वेता का परिचय उनके जन्म से था। पिता कल्लोल युग के प्रसिद्ध लेखक युवनाश्व या मनीश घटक। काका ऋत्विक घटक। बड़े मामा अर्थशास्त्री, ‘इकोनोमिक एंड पोलिटिकल वीकली’ के संस्थापक सचिन चौधुरी। मां के ममेरे भाई कवि अमिय चक्रवर्ती। कक्षा पांच से ही शांतिनिकेतन में पढ़ाई। वहां बांग्ला पढ़ाते थे रवीन्द्रनाथ। नंदलाल बोस, रामकिंकर बेज जैसे शिक्षक मिलें। देखने लायक काल था। 14 जनवरी 1926 के दिन बांग्लादेश के पाबना (आज के राजशाही) जिले के नोतुन भारेंगा गांव में महाश्वेता का जन्म। इसके साल भर बाद ही ‘आग का दरिया’ की लेखिका कुर्रतुलैन हैदर जन्मी थी। दोनों के लेखन में ही जात-पात, पितृसत्ता का महाकाव्य-रूपी विस्तार दिखाई दिया। इसी चेतना की ही तो उपज थी - ‘स्तनदायिनी’ का नाम यशोदा। थाने में बलात्कृत दोपदी मेझेन द्रौपदी का ही आधुनिक संस्करण है। भारतीय निम्नवर्ग एक समान पड़ा हुआ पत्थर नहीं, उसमें भी दरारे हैं, वह क्या ‘श्री श्री गणेश महिमा’ में दिखाई नहीं देता है : ‘‘भंगियों की होली खत्म होती है दो सुअरों को मार कर, रात भर मद-मांस पर  हल्ला करते हैं। दुसाध यहां अलग-थलग थे। फिर दो साल हुए वे भी भंगियों के साथ होली में शामिल है।’’

अपनी साहित्य यात्रा के इस मोड़ पर आकर महाश्वेता एक दिन रुक नहीं गई। उसके पीछे उनकी लंबी परिक्रमा थी। ‘46 में विश्वभारती से अंग्रेजी में स्नातक हुई। एमए पास करने के बाद विजयगढ़ के ज्योतिष राय कालेज में अध्यापन। उसके पहले 1948 से ‘रंगमशाल’ अखबार में बच्चों के लिये लिखना शुरू किया। आजादी के बाद ‘नवान्नो’ के लेखक विजन भट्टाचार्य से विवाह। तब कभी ट्यूशन करके, कभी साबुन का पाउडर बेच कर परिवार चलाया। बीच में एक बार अमेरिका में बंदरों के निर्यात की योजना भी बनाई, लेकिन सफल नहीं हुई। 1962 में तलाक, फिर असित गुप्त के साथ दूसरी शादी। 1976 में उस वैवाहिक जीवन का भी अंत।

इसीबीच, पचास के दशक के मध्य एकमात्र बेटे नवारुण को उसके पिता के पास छोड़ कर एक कैमरा उठाया और आगरा की ट्रेन में बैठ गई। रानी के किले, महलक्ष्म मंदिर का कोना-कोना छान मारा। शाम के अंधेरे में आग ताप रही किसान औरतों से तांगेवाले के साथ यह सुना कि ‘रानी मरी नहीं। बुंदेलखंड की धरती और पहाड़ ने उसे आज भी छिपा रखा है।’

इसके बाद ही ‘देश’ पत्रिका में ‘झांसी की रानी’ उपन्यास धारावाहिक प्रकाशित हुआ। और इसप्रकार, अकेले घूम-घूम कर उपन्यास की सामग्री जुटाने वाली क्रांतिकारी महाश्वेता अपनी पूर्ववर्ती लीला मजुमदार, आशापूर्णा देवी से काफी अलग हो गई। उनका दबंग राजनीतिक स्वर भी अलग हो गया। ‘अग्निगर्भ’ उपन्यास की वह अविस्मरणीय पंक्ति, ‘‘जातिभेद की समस्या खत्म नहीं हुई है। प्यास का पानी और भूख का अन्न रूपकथा बने हुए है। फिर भी कितनी पार्टियां, कितने आदर्श, सब सबको कामरेड कहते हैं।’’ कामरेडों ने तो कभी भी ‘रूदाली’, ‘मर्डरर की मां’ की समस्या को देखा नहीं है। ‘चोली के पीछे’ की स्तनहीन नायिका जिसप्रकार ‘लॉकअप में गैंगरेप...ठेकेदार ग्राहक, बजाओ गाना’ कहती हुई चिल्लाती रहती है, पाठक के कान भी बंद हो जाते हैं।

कुल मिला कर महाश्वेता जैसे कोई प्रिज्म है। कभी बिल्कुल उदासीन तो कभी बिना गप्प किये जाने नहीं देगी। अंत में, बुढ़ापे की बीमारियों, पुत्रशोक ने उन्हें काफी ध्वस्त कर दिया था। फिर भी क्या महाश्वेता ही राजनीति-जीवी बहुमुखी बंगालियों की अंतिम विरासत होगी ? ममता बंदोपाध्याय की सभा के मंच पर उनकी उपस्थिति को लेकर बहुतों ने बहुत बातें कही थी। महाश्वेता ने परवाह नहीं की। लोगों की बातों की परवाह करना कभी भी उनकी प्रकृति नहीं रही।

अनुवाद : अरुण माहेश्वरी
(‘आनंदबाजार पत्रिका’ दैनिक के 29 जुलाई 2016 के अंक से साभार)

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