आज पाब्लो नेरुदा का 113वां जन्मदिन है। उन्हें याद करते हुए हम यहां अपनी किताब ‘पाब्लो नेरुदा :
एक कैदी की खुली दुनिया’ का एक अध्याय यहां मित्रों से साझा कर रहे हैं जिसमें उनके बर्मा के राजदूत के दिनों के अनुभवों पर चर्चा की गई है -
पूरब का विषाद
1927
में वे पूरब की यात्रा पर निकले और यात्रा के कई खट्टे-मीठे अनुभवों के साथ वे रंगून पंहुचे। पैरिस के मार्सिलेस बंदरगाह से जिबोती, शंघाई, याकोहामा, टोक्यो, सिंगापुर होते हुए वे रंगून के इरावती के बंदरगाह पर पंहुचे। नेरुदा ने इसके बाद की पूरब की अपनी यात्रा के अनुभवों को ‘मेमायर्स’ के जिस अध्याय में लिखा है, उसका शीर्षक है : चमकदार अकेलापन।
नेरूदा ने पूरब की अपनी यात्रा पर जिसप्रकार के स्वरों में चर्चा की है, उससे सभी उनके इन पांच वर्षों को उनके जीवन के दुखभरे पांच वर्ष बताते हैं जब वे विदेश की धरती पर एक बहुत ही हिंसक किस्म की सामाजिक परिस्थितियों के साथ किसी प्रकार का कोई सामंजस्य नहीं बैठा पाये थे। न वे तत्कालीन औपनिवेशिक शासकों की पांत में शामिल हो पाते थे और नहीं वे नेटिव जनता के जीवन से ही जुड़ पाये थे।
एक कौंसुल के रूप में रंगून में नेरूदा के पास नहीं के बराबर काम रहता था। जब कभी तीन महीने में एक बार कलकत्ता बंदरगाह से कोई जहाज मोम अथवा चाय के बक्से लेकर चीले के लिये रवाना होता था, तभी कुछ कागजातों को देख लेने के लिये उनकी जरूरत पड़ती थी। नेरूदा ने ‘मेमायर्स’ में लिखा है कि इसके बाद के बिना किसी काम के तीन महीने बाजारों और मंदिरों में अकेले अपने में ही खोये हुए महीनें हुआ करते थे। मेरी कविता के लिये यह सबसे अधिक पीड़ादायी काल रहा है।
नेरूदा तब दिन-दिन भर सड़कों पर घूमते रहते थे। उन्होंने लिखा है कि सड़के ही उनका धर्म बन गयी थी। जाति व्यवस्था ने भारतीय जनता को जैसे एक दूसरे पर आरोपित समांतर षटफलकोें की दीर्घाओं में बांट कर रखा था जिसके शीर्ष पर ईश्वर विराजमान था। दूसरी ओर, अंग्रेजों की अपनी वर्ण व्यवस्था थी जो छोटी दुकानों के क्लर्क से शुरू होकर पेशेवरों और बुद्धिजीवियों तक, और निर्यातकों तक प्रसारित थी और इस व्यवस्था की बगीचे वाली छत पर साम्राज्य के सिविल सर्विस के लोग, बैंकर आराम फरमाया करते थे।
नेरूदा ने लिखा है कि ये दो विश्व कभी एक दूसरे के संपर्क में नहीं आते थे। अंग्रेजों के लिये सुरक्षित स्थानों पर नेटिव्स को अनुमति नहीं थी, और अंग्रेज उस देश की धड़कनों से दूर रहा करते थे। उनके लिये यह एक बेहद असहनीय परिस्थिति थी। उनके अंग्रेज दोस्त चेतावनी के स्वर में उनसे आम लोगों से दूरी बनाये रखने केे लिये कहते थे और नेरूदा सोचते थे कि आखिरकार मैं पूरब में इन अस्थायी औपनिवेशिकों के साथ जीवन बिताने के लिये तो नहीं आया हूं , बल्कि इस विश्व की प्राचीन आत्मिकता के साथ, इस अभागे मानव परिवार के साथ दिन गुजारने के लिये आया हूं।
नेरूदा आगे लिखते हैं कि मैं वहां के आम लोगों की आत्मा और जीवन में इतने गहरे तक चला गया था कि मैं एक नेटिव लड़की को अपना दिल दे बैठा। सड़कों पर वह अंग्रेज औरतों का लिबास पहनती थी और अपना नाम जोसी ब्लिस बताती थी, लेकिन अपने घर में, जिसे मैंने जल्द ही जान लिया, वह उन कपड़ों और उस नाम को उतार कर अपना चमकदार सारोंग पहन लेती थी और अपना गुप्त बर्मी नाम रख लेती थी।
नेरूदा ने जोसी ब्लिस के साथ काफी दिन बिताये, लेकिन उसके साथ के अंतिम दिन नेरूदा के लिये बेहद तनाव और दुख के दिन होगये थे। ‘मेमायर्स’ में नेरूदा ने इसका इन शब्दों में बयान किया है :
प्यारी जोसी ब्लिस क्रमश: इतनी छायी रहने वाली और अधिकारवादी होगयी थी कि उसकी ईष्र्यालू बदमिजाजी ने एक बीमारी का रूप ले लिया। यदि ऐसा नहीं होता तो संभवत: मैं उसके साथ सारी जिंदगी गुजारता।
...विदेशों से मेरे नाम आने वाले पत्रों को देख कर वह ईष्र्या करती थी और लाल-पीली हो जाती थी, मेेरे तारों को बिना खोले छिपा देती थी। ...कभी-कभी रोशनी से मैं जग जाता था और अपनी मच्छरदानी के दूसरी ओर किसी भूत को घूमते हुए देखता था। सफेद कपड़ों में अपना धारदार लंबा देशी चाकू चमकाती हुई वही हुआ करती थी। ... वह मुझे मार कर ही चूकती। सौभाग्य से मुझे सीलोन में ट्रांसफर का नोटिश आगया। मैंने अपने जाने की गुप्त तैयारियां की और एक दिन, अपने कपड़ों और किताबों को पीछे रख कर मैं हर दिन की तरह घर से निकला और उस जहाज पर बैठ गया जो मुझे वहां से दूर ले जायेगा।
मैं जोसी ब्लिस, एक प्रकार की बर्मी बाघिनी को गहरी पीड़ा के साथ छोड़ रहा था।
नेरूदा को जोसी ब्लिस और उसके साथ बिताये गये तनाव और उत्तेजना के दिनों की की याद हमेशा आती रही। वर्षों बाद उन्होंने उसे स्मरण करते हुए दो कविताएं लिखी। ‘प्रणय :जोसी ब्लिस(1) और ‘प्रणय : जोशी ब्लिस (2)। इन कविताओं में अपने उन दिनों के अनुभवों को नेरूदा ने किस प्रकार व्यक्त किया है, यह देखना थोड़ा दिलचस्प होगा। पहली कविता का प्रारंभ ही वे इस सवाल से करते हैं:
क्या हुआ उस प्रचण्ड क्षोभ वाली का?
और अंत इस बात से करते है :
सम्भव है, अब वह
रंगून के विशाल कब्रीस्तान के बीच
बेचैन आराम करती है,
या सम्भव है कि लोगों ने उसका तन, सारी शाम,
इरावती के तट पर जलाया हो, जबकि नदी
अपनी मर्मर ध्वनि में
वें बाते कहती रही, जिन्हें मैंने उसे आंसुओं में कहा होता।
इसी प्रकार दूसरी कविता का प्रारंभ इस प्रकार है:
हां, उन दिनों के लिए
बेशक, गुलाब है व्यर्थ। कुछ भी नहीं,
एक आरक्त जिा के सिवा
उपजता था,
आग जो दफ्न ग्रीष्म से,
उसी पुराने सूरज से बरसती थी।
मैं उस परित्यक्ता से दूर भागा।
पकड़ से बचते हुए एक नाविक की तरह भागा
नेरूदा के श्रीलंका प्रवास के समय जोसी ब्लिस अचानक एक बार फिर उनके घर पहंुच गयी थी। नेरूदा के शब्दों में बिना किसी चेतावनी के मेरे बर्मी प्यार, प्रचंड जोेसी ब्लिस ने मेरे घर के सामने खेमा गाड़ दिया। वह इतनी दूर के देश से वहां आ गयी थी। उसकी पीठ पर चावल का बोरा लदा हुआ था जैसे यह मानती हो कि रंगून के अलावा और कही चावल पैदा नहीं किया जाता। वह हमारी पसंदीदा पॉल राब्सन का रेकर्ड और एक लंबी, समेटी हुई चटाई भी लायी थी। ...उसे घर में घुसने दू, इसका मैं साहस नहीं कर सका। वह मोहब्बत की मारी आतंकवादी थी, कुछ भी कर सकती थी।
अंत में एक दिन उसने चले जाने का मन बनाया। उसने मुझसे जहाज तक साथ चलने की विनती की। जब जहाज का लंगर उठाया जाने लगा और मुझे अब किनारे से दूर चला जाना चाहिये था, तभी वह शोक और प्यार के आवेग में अपने इर्द-गिर्द के सारे यात्रियों को धकेलते हुए आयी, मेरे चेहरे को चुंबनों से ढक दिया और मुझे अपने आंसुओं से नहा दिया। उसने किसी कर्मकांड की तरह मेरी बाहों को चूमा, मेरे कोट को चूूमा और मैं उसे रोकू, इसके पहले ही वह मेरे जूतों पर गिर गयी। जब वह खड़ी हुई तब उसके पूरे चेहरे पर आटे की तरह मेरे सफेद जूतों की चाक-पालिस पुती हुई थी। मैं उसे यात्रा पर न जाने, हमेशा के लिये चले जाने के बजाय जहाज को छोड़ कर अपने साथ चलने के लिये नहीं कह सका। मेरे विवेक ने मुझे ऐसा करने से रोका, लेकिन मेरे हृदय पर गहरा जख्म लगा जो आज भी मेरा हिस्सा बना हुआ है। वह अनियंत्रित शोक, उसके चॉक से पुते चेहरे पर से ढुलक रहे वे विकट आंसू आज भी मेरी स्मृति में ताजा है।
पूरब में बिताये गये इन पांच वर्षों में नेरूदा कई मर्तबा भारत की यात्रा पर आये। कोलकाता में तब उन्होंने अखिल भारतीय कांग्रेस कमेटी के एक अधिवेशन में भी शिरकत की जहां उनकी मुलाकात महात्मा गांधी, पंडित मोतीलाल नेहरू और उनके बेटे जवाहरलाल नेहरू से हुई। उस समय नेहरू पूर्ण स्वतंत्रता की बात कर रहे थे, जबकि गांधी पहले कदम के रूप में सिर्फ स्वायत्तता की मांग उठा रहे थे। नेरूदा ने गांधी को एक ‘चालाक लोमड़ी’,
व्यवहारिक व्यक्ति, चतुर रणनीतिकार और कभी न थकने वाला व्यक्ति कहा है। नेहरू को कांग्रेस की क्रांति का एक बुद्धिमान प्रणेता बताया है। नेरूदा ने वहां सुभाष चंद्र बोस को भी देखा था। कोलकाता में उन्होंने रवीन्द्रनाथ से भी मिलने की कोशिश की थी, लेकिन शहर में न होने के कारण उनसे मुलाकात नहीं कर पाये। इसके अलावा इसी काल में उन्होंने मुंबई तथा भारत के अन्य शहरों की यात्रा भी की।
पूरब की इस यात्रा के दौरान ही नेरूदा श्रीलंका के कोलंबो में, इंडोनेशिया के जावा और सिंगापुर में रहे।
खुद नेरूदा ने अपनी पूरब की इस यात्रा की स्मृतियाें के बारे में बाद में जो कविताएं लिखी उनमें से कुछ उनके संकलन ‘The
Moon in the Labyrinth ’(भूलभुलैया में चांद) में प्रकाशित हुई है जिसका हिंदी में चंद्रबली सिंह ने अपने ‘पाब्लो नेरूदा कविता संचयन’ में अनुवाद किया है। यहां ऐसी कुछ कविताओं के अंशों पर गौर करना मुनासिब होगा, ताकि इस काल के उनके अनुभवों को ज्यादा समग्रता में देखा जा सके।
इनमें एक कविता है : ‘आरंभिक यात्राएं’।
पहली बार जब मैंने सागर की यात्रा की, मैं अन्तहीन रहा,
मैं सारी दुनिया से उम्र में छोटा था।
और तट पर मेरा स्वागत करने को
विश्व की अनंत टनटनाहट उठी।
मुझे दुनिया में होने का बोध नहीं था।
मेरी आस्था दफ़्न मीनार में थी।
बहुत कम में मैंने बहुत ज्यादा चीजें पायीं थीं,
...
और तब मैंने समझा कि नग्न हूं,
मुझे और कपड़ों से ढंकने की जरूरत है।
मैंने कभी गंभीरता से जूतों के बारे में नहीं सोचा था।
मेरे पास बोलने के लिये भाषाएं नहीं थीं।
सिर्फ खुद की किताब ही पढ़ सकता था।
...
दुनिया औरतों से भरी पड़ी थी,
किसी दुकान की शीशों की खिड़की में लदे सामानों-सी
...
मैंने सीखा कि वीनस कोई दंतकथा नहीं थी।
निश्चित और दृढ़ वह थी, अपनी शाश्वत दो भुजाओं के साथ,
और उसके कठोर मुक्ताफल ने
मेरी लैंगिक लोलुप धृष्टता सह ली।
अन्य कविता है - ‘पूरब में अफीम’
सिंगापुर से आगे, अफ़ीम की गंध आने लगी।
ईमानदार अंग्रेज इसे अच्छी तरह जानता था।
जेनेवा में वह इसका छिपकर व्यापार करनेवालों की
निंदा करता था,
लेकिन उपनिवेशों में हर बंदरगाह
कानूनी धूएं के बादल उठाता था।
...
मैंने चारो ओर देखा। दयनीय शिकार
दास, रिक्शों और बागानों से आये कुली,
बेजान लदुआ घोडे़,
सड़क के कुत्ते,
दीन दुष्प्रयुक्त जन।
यहां, अपने घावों के बाद,
मानव नहीं बल्कि पांव होने के बाद,
मानव नहीं बल्कि लदुआ पशु होने के बाद,
चलते-चलते और पसीना बहाते-बहाते रहने के बाद,
ख़्ाून का पसीना बहाने, आत्मा से रिक्त होने के बाद,
वहां पड़े थे,
...अकेले,
पसरे हुए,
अंत में लेटे हुए, वे कठोर पांवों के लोग।
हरेक ने भूख का विनिमय
आनंद के एक धुंधले अधिकार के लिये किया था।
इन्हीं अनुभवों की एक और कविता है - ‘रंगून 1927’।
रंगून मैं देर कर आया।
हर चीज वहां पहले से ही थी -
रक्त का,
स्वप्नों और स्वर्ण का,
एक नगर,
एक नदी जो
पाशविक जंगल से
घुटन भरे नगर में
और उसकी कुष्ठग्रस्त सड़कों पर प्रवाहित थी।
श्वेतों के लिये एक श्वेत होटल
और सुनहरे लोगों के लिए स्वर्ण का एक पैगोडा था।
यही था जो
चलता था
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