—अरुण माहेश्वरी
सन् 2014 में पूर्ण बहुमत के साथ मोदी जब लोक सभा में जीत कर आए थे, कौन सोच सकता था कि तीन साल बाद ही यह लोक सभा उन्हें डराने लगेगी और प्रधानमंत्री पद से उनकी चलाचली की बेला बिल्कुल सामने दिखाई देने लगेगी । लेकिन आज का सच यही है । वे संसद का शीतकालीन सत्र अभी नहीं बुला रहे हैं । भारत के कुल 29 राज्यों और 7 केंद्रशासित क्षेत्रों में से सिर्फ 2 राज्यों के चुनाव उनके लिये इतने महत्वपूर्ण हो गये हैं कि प्रधानमंत्री सहित उनका पूरा मंत्रीमंडल सारे कामों को छोड़ कर आज गुजरात में डेरा डाल कर बैठ गया है ।
आगामी 9 और 18 दिसंबर को गुजरात की राज्य विधान सभा के चुनाव होंगे और मोदी के सामने यह साफ हो चुका है कि ये चुनाव किसी राज्य के चुनाव भर नहीं रहे हैं, बल्कि लोक सभा के लिये मध्यावधि में ही जैसे किसी जनमत संग्रह का रूप ले चुके हैं । पिछले तीन सालों में उनके किये-धरे पर ये जनता के बीच एक ऐसे विश्वास मत का रूप ले चुके है जिसमें मोदी कंपनी के हार जाने की प्रबलतम संभावनाएं हैं । और, उनमें तथा उनके गिरोह के सभी लोगों में यह डर समा गया है कि यदि गुजरात में भाजपा हार जाती है तो इस बात पर सत्य प्रमाणित होने की मुहर लग जायेगी कि मोदी का करिश्मा आज न सिर्फ पूरी तरह से धूलिसात हो चुका है, बल्कि वे एक राजनीतिक नेता के तौर पर किसी भी राजनीतिक दल के लिये घाटे का सौदा बन चुके हैं । यह भी साबित हो जायेगा कि मोदी की जिन लफ्फाजियों को, जनता को पूरी तरह से मूर्ख समझते हुए बेझिझक जो मन में आए बड़े-बड़े झूठे वादे करने की क्षमता को राजनीति के पतन के इस दौर में उनकी सबसे बड़ी ताकत माना जा रहा था, वही अब उनके लिये वाकई जहर साबित हो रहा है ।
गुजरात चुनाव के परिणाम से झूठ और धोखे पर तथा तुगलकी सनकीपन पर टिके अपने व्यक्तित्व के इस प्रकार बीच में ही बिखर जाने के खतरे ने निश्चत तौर पर मोदी और उनके लोगों का बुरी तरह से परेशान कर दिया है । चुनाव की जिस प्रक्रिया के बीच से मोदी का उदय हुआ था, उन्होंने संसद भवन की चौखट पर माथा टेका था, सिर्फ तीन साल बाद उसी की एक छोटी सी राज्य-स्तरीय प्रक्रिया के बीच से ही उनका अस्त भी होने जा रहा है, इसे ये सब फटी आंखों से असहाय हो कर देख रहे हैं ।
मोदी-शाह के बारे में आम लोगों में एक अजीब सी दहशत भरी अवधारणा है कि जैसे ये आज के कलयुग के साक्षात रावण की सेना हैं, जो कुछ भी कर गुजरने की क्षमता रखते हैं । इसी बीच गुजरात में इनकी करतूतों के ऐसे-ऐसे किस्से बाजार में आ चुके हैं, राणा अयूब की 'गुजरात फाइल्स', मनोज मित्ता की ' द फिक्शन आफ फैक्ट-फाइंडिंग', तिस्ता शीतलवाड की 'फुट सोल्जर आफ द कंस्टीट्यूशन', तथा इनके सबसे बड़े सहयोगी बाबा रामदेव के बारे में प्रियंका पाठक नारायण की 'गाडमैन टू टाईकून : द अनटोल्ड स्टोरी आफ बाबा रामदेव' की तरह की ऐसी किताबें बाजार में छाई हुई हैं कि उन्हें देख कर किसी की भी रूह कांप सकती है और यह सोच कर उसमें गहरा पश्चाताप भी हो सकता है कि पता नहीं, हमने अपने वोट की ताकत से कैसे भयंकर लोगों को अपने सिर पर बैठा लिया है ! ऊपर से नोटबंदी और जीएसटी को लेकर आम लोगों का अनुभव ! सबको इस बात का अहसास हो चुका है कि मोदी नामक जिस शख्स को गद्दी पर बैठाया गया है, वह और कुछ भी क्यों न हो, आम लोगों का हितैषी नहीं है । राष्ट्र के हित के नाम पर आम लोगों को सताने को ही उन्होंने राजनीति का मूल मंत्र मान लिया है ।
आज गुजरात के आम लोगों में उनके जीवन के अनुभवों और उनकी जानकारियों से जुड़े ये सारे पहलू अब सतह पर आने लगे हैं । राजनीति की दुनिया के सच को जानने वाले सबको इस बात का अनुमान हो गया है कि गुजरात का यह चुनाव मोदी के प्रति पूरे देश के लोगों की भावनाओं को एक हद तक प्रतिबिंबित करेगा ।
यही वजह है कि मोदी के लिये संसद का सत्र चले, न चले — यह बात उतनी महत्वपूर्ण नहीं है जितनी यह बात है कि उन्हें यह अफसोस न रहे कि गुजरात को बचा लेने में उन्होंने कोई कोर-कसर तो नहीं छोड़ दी ! इसीलिये, आज वे संसद का सत्र बुला कर उससे विपक्ष को तमाम प्रकार के सवालों से उन्हें घेरने का कोई मौका नहीं देना चाहते । यही उनके अंदर के फासीवादी तत्व का भी एक बड़ा परिचायक भी है ।
सन् 2014 में पूर्ण बहुमत के साथ मोदी जब लोक सभा में जीत कर आए थे, कौन सोच सकता था कि तीन साल बाद ही यह लोक सभा उन्हें डराने लगेगी और प्रधानमंत्री पद से उनकी चलाचली की बेला बिल्कुल सामने दिखाई देने लगेगी । लेकिन आज का सच यही है । वे संसद का शीतकालीन सत्र अभी नहीं बुला रहे हैं । भारत के कुल 29 राज्यों और 7 केंद्रशासित क्षेत्रों में से सिर्फ 2 राज्यों के चुनाव उनके लिये इतने महत्वपूर्ण हो गये हैं कि प्रधानमंत्री सहित उनका पूरा मंत्रीमंडल सारे कामों को छोड़ कर आज गुजरात में डेरा डाल कर बैठ गया है ।
आगामी 9 और 18 दिसंबर को गुजरात की राज्य विधान सभा के चुनाव होंगे और मोदी के सामने यह साफ हो चुका है कि ये चुनाव किसी राज्य के चुनाव भर नहीं रहे हैं, बल्कि लोक सभा के लिये मध्यावधि में ही जैसे किसी जनमत संग्रह का रूप ले चुके हैं । पिछले तीन सालों में उनके किये-धरे पर ये जनता के बीच एक ऐसे विश्वास मत का रूप ले चुके है जिसमें मोदी कंपनी के हार जाने की प्रबलतम संभावनाएं हैं । और, उनमें तथा उनके गिरोह के सभी लोगों में यह डर समा गया है कि यदि गुजरात में भाजपा हार जाती है तो इस बात पर सत्य प्रमाणित होने की मुहर लग जायेगी कि मोदी का करिश्मा आज न सिर्फ पूरी तरह से धूलिसात हो चुका है, बल्कि वे एक राजनीतिक नेता के तौर पर किसी भी राजनीतिक दल के लिये घाटे का सौदा बन चुके हैं । यह भी साबित हो जायेगा कि मोदी की जिन लफ्फाजियों को, जनता को पूरी तरह से मूर्ख समझते हुए बेझिझक जो मन में आए बड़े-बड़े झूठे वादे करने की क्षमता को राजनीति के पतन के इस दौर में उनकी सबसे बड़ी ताकत माना जा रहा था, वही अब उनके लिये वाकई जहर साबित हो रहा है ।
गुजरात चुनाव के परिणाम से झूठ और धोखे पर तथा तुगलकी सनकीपन पर टिके अपने व्यक्तित्व के इस प्रकार बीच में ही बिखर जाने के खतरे ने निश्चत तौर पर मोदी और उनके लोगों का बुरी तरह से परेशान कर दिया है । चुनाव की जिस प्रक्रिया के बीच से मोदी का उदय हुआ था, उन्होंने संसद भवन की चौखट पर माथा टेका था, सिर्फ तीन साल बाद उसी की एक छोटी सी राज्य-स्तरीय प्रक्रिया के बीच से ही उनका अस्त भी होने जा रहा है, इसे ये सब फटी आंखों से असहाय हो कर देख रहे हैं ।
मोदी-शाह के बारे में आम लोगों में एक अजीब सी दहशत भरी अवधारणा है कि जैसे ये आज के कलयुग के साक्षात रावण की सेना हैं, जो कुछ भी कर गुजरने की क्षमता रखते हैं । इसी बीच गुजरात में इनकी करतूतों के ऐसे-ऐसे किस्से बाजार में आ चुके हैं, राणा अयूब की 'गुजरात फाइल्स', मनोज मित्ता की ' द फिक्शन आफ फैक्ट-फाइंडिंग', तिस्ता शीतलवाड की 'फुट सोल्जर आफ द कंस्टीट्यूशन', तथा इनके सबसे बड़े सहयोगी बाबा रामदेव के बारे में प्रियंका पाठक नारायण की 'गाडमैन टू टाईकून : द अनटोल्ड स्टोरी आफ बाबा रामदेव' की तरह की ऐसी किताबें बाजार में छाई हुई हैं कि उन्हें देख कर किसी की भी रूह कांप सकती है और यह सोच कर उसमें गहरा पश्चाताप भी हो सकता है कि पता नहीं, हमने अपने वोट की ताकत से कैसे भयंकर लोगों को अपने सिर पर बैठा लिया है ! ऊपर से नोटबंदी और जीएसटी को लेकर आम लोगों का अनुभव ! सबको इस बात का अहसास हो चुका है कि मोदी नामक जिस शख्स को गद्दी पर बैठाया गया है, वह और कुछ भी क्यों न हो, आम लोगों का हितैषी नहीं है । राष्ट्र के हित के नाम पर आम लोगों को सताने को ही उन्होंने राजनीति का मूल मंत्र मान लिया है ।
आज गुजरात के आम लोगों में उनके जीवन के अनुभवों और उनकी जानकारियों से जुड़े ये सारे पहलू अब सतह पर आने लगे हैं । राजनीति की दुनिया के सच को जानने वाले सबको इस बात का अनुमान हो गया है कि गुजरात का यह चुनाव मोदी के प्रति पूरे देश के लोगों की भावनाओं को एक हद तक प्रतिबिंबित करेगा ।
यही वजह है कि मोदी के लिये संसद का सत्र चले, न चले — यह बात उतनी महत्वपूर्ण नहीं है जितनी यह बात है कि उन्हें यह अफसोस न रहे कि गुजरात को बचा लेने में उन्होंने कोई कोर-कसर तो नहीं छोड़ दी ! इसीलिये, आज वे संसद का सत्र बुला कर उससे विपक्ष को तमाम प्रकार के सवालों से उन्हें घेरने का कोई मौका नहीं देना चाहते । यही उनके अंदर के फासीवादी तत्व का भी एक बड़ा परिचायक भी है ।
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