—अरुण माहेश्वरी
'पद्मावती' प्रकरण पर भाजपा और उसकी करणी सेना जो कर रही है, इन लोगों से इसके अतिरिक्त किसी और बात की उम्मीद भी नहीं की जा सकती है । ये सब इतिहास के कब्रगाह से नाना प्रेतकथाएं तैयार करके राजनीति में उनके खौफ को भुनाने वाले बाजीगरों की जमात है । करणी सेना वालों के बारे में तो स्टिंग आपरेशन से यह सामने आया है कि उसके नेता इसे शुद्ध रूप से पैसे कमाने का धंधा माने हुए हैं । ऐसे लोग जीवन के सभी अन्य संदर्भों की तरह ही किसी भी कला कृति को, जो खुद में पहले से ही एक कल्पना की उपज है, एक प्रेतकथा में बदल कर अगर उससे राजनीतिक लाभ भी उठाने की कोशिश करें तो इसमें किसी को अचरज नहीं होना चाहिए ।
हम नहीं जानते, भाजपा और उनकी करणी सेना वालों के इस पूरे जघन्य नाटक से कथित राजपूती अस्मिता के गौरव के मिथ को कोई लाभ पहुंचा है या नहीं, लेकिन इतना जरूर जानते हैं कि जब से इन्होंने पद्मावती को राजमाता बना कर पूजना शुरू किया हैं, और जब से कथित छत्राणियों की तलवारें भांजने वाली तस्वीरें बाजार में आई हैं, पूरा सोशल मीडिया राजपूत राजाओं की वीरता की उन कहानियों से पट गया है कि कैसे गजनी से उन्होंने शिकस्त खाईं, तो कैसे गौरी से हारें, खिलजी ने जमीन पर उनके नाक रगड़वायें और अपने रनिवासे में छत्राणियों को दाखिल किया, तो बाबर ने उन्हें बुरी तरह शर्मशार किया और अकबर से लेकर औरंगजेब तक के समय में तो मुगलों के साथ उनके बाकायदा रोटी-बेटी के संबंध बन गये थे । सर्वोपरि, ये सारे राजपूत वीर कैसे अंग्रेजों की खैरात पर पलते थे, इसकी चर्चा भी जोर-शोर से चल रही है। अभिलेखागारों की चारदिवारियों में कैद बादशाहों के वे फरमान भी बाजार में आ गये हैं जिनमें शाहजहां मिर्जाराजा जयसिंह को संबोधित करते हुए उसे इस्लाम धर्म और इस्लामी साम्राज्य के प्रति आस्थावान बताता है !
ये सब क्या है ? ये किसी भी घटना के सत्य का वह अतिरेक-पूर्ण कथन है जो तभी तैयार होता है जब वह घटना घट चुकी होती है । जीवन में जब कोई तूफान आता है, वह युद्ध या किसी प्राकृतिक प्रकोप की वजह से हो या प्रेम का तूफान ही क्यों न हो, एक बार के लिये सामान्य जीवन के सारे संतुलन बिगड़ जाते हैं । यह सामान्य या स्वाभाविक जीवन का सच नहीं होता है । ऐसे ही कुछ 'आद्य-ब्रह्मांडीय' उथल-पुथल के बिंदुओं से ईश्वरीय मिथकीय काव्यात्मक कहानियां तैयार होती हैं, तो इनके अंदर से ही भूत-प्रेत की डरावनी कहानियां भी बनाई जाती है । इसमें बहुत कुछ कथाकार पर निर्भर करता है ; कह सकते हैं इतिहासकार नामक प्राणी के नजरिये पर भी । यह सब उस तूफान के प्रवाह से जीवन और मनुष्यों के अंतर में पैदा हुए शून्य को भरने की अपनी-अपनी कोशिशों की तरह है ।
इतिहास में जय-पराजयों की कहानी के अतिरेक से वही उल्लसित होता है अथवा डराता है, जो इस घटना के शून्य में अपनी गढ़ी हुई सचाई को भरना चाहता है । यह मनुष्यों के जीवन के सच को काल्पनिक कथाओं से बदलने की वह इतिहास-दृष्टि है जिसमें इतिहास सिर्फ राजा-महाराजाओं या शासकों की तरह के नायकों का होता है, इससे आम जीवन का ठोस यथार्थ वहिष्कृत रहता है । यह एक बुनियादी वजह रही जिसके कारण भारतीय जन-मानस में तथाकथित इतिहास के प्रति हमेशा एक गहरी उदासीनता का भाव रहा । 'कोउ नृप होइ हमें का हानी' का बोध । राज्य के प्रति जनता की सचेतनता का एक सीधा संबंध जनतांत्रिक चेतना और व्यवस्था से जुड़ा होता है क्योंकि इसके केंद्र में किसी राजा की नहीं, जनता की सार्वभौमिकता होती है ।
हमारा दुर्भाग्य है कि आज जनतंत्र के युग में भी इस देश के शासन में एक ऐसी पार्टी आ गई है जिसका वर्तमान जन जीवन के सच से कोई सरोकार नहीं है, उसकी दिलचस्पी सिर्फ अतीत में, इतिहास में है । राजशाही के समय काल के सामंती मान-मूल्यों के गर्त से खनन करके निकाली गई कहानियों से ही यह अपना राजनीतिक कारोबार चलाती है । और इसी चक्कर में इन्होंने पद्मावती के नाम पर राजपूती गौरव का जो तूफान खड़ा किया है, उसी में से राजपूती लज्जा की भी वे सब कथाएं निकलने लगी है जिनका आज के वास्तविक जीवन में कोई मूल्य नहीं है ; जैसे तलवारे चमकाती छत्राणियों की तस्वीरों और जौहर के नैतिक मूल्यों पर आधुनिक स्त्री के बखानों का कोई मूल्य नहीं है । फिर भी हम रोजाना आम लोगों के बीच इन्हीं फिजूल से सवालों पर पैदा की जा रही उत्तेजना को झेलने के लिये अभिशप्त है ।
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