भारत में मोदी–आरएसएस के फासीवाद के खिलाफ व्यापकतम संयुक्त मोर्चा की दिशा में धर्म–निरपेक्ष और जनतांत्रिक ताकतों की लामबंदी की एक प्रक्रिया ठोस रूप में शुरू हो चुकी है । 1 फरवरी 2018 को दिल्ली में 17 दलों के नेताओं की बैठक हुई है जिसमें वामपंथी पार्टियों में सीपीआई भी शामिल थी, लेकिन सीपीआई(एम) शामिल नहीं हुई । चूंकि सीपीआई(एम) मोदी–आरएसएस को फासीवादी मानने के विषय पर विचार–मंथन कर रही है, इसीलिए अभी वह मोदी–विरोधी व्यापकतम संयुक्त मोर्चा की अवधारणा या किसी भी पूंजीवादी दल के साथ ताल–मेल करने की राजनीतिक गतिविधि में शामिल होने के पक्ष में नहीं है । यद्यपि जज लोया की संदेहास्पाद मृत्यु की जांच की मांग पर विपक्ष के सभी दलों का जो संयुक्त प्रतिनिधि मंडल राष्ट्रपति से मिलने गया था उसमें सीपीआई(एम) का प्रतिनिधि भी शामिल था ।
बहरहाल, भारतीय जनतंत्र के सामने चुनौती की इस सबसे कठिन घड़ी में सीपीआई(एम) के अंदर की यह पूरी बहस अपने स्वरूप और सार–तत्व, दोनों लिहाज से पूरे कम्युनिस्ट आंदोलन के लिए एक बुरा उदाहरण दिखाई देती है । जनता के जीवन के सभी स्तरों पर भारी संकट के ऐसे काल में किसी कम्युनिस्ट पार्टी का फासीवाद की शास्त्रीय व्याख्या की बहस में डूबे रहना खुद में दुनिया के कम्युनिस्ट आंदोलन के इतिहास में ऐसी नजीर तैयार कर रहा है जिसमें अपने को कम्युनिस्ट कहने वाला एक दल प्रत्यक्ष रूप में फासीवाद की मदद में उतरा हुआ नजर आने लगता है । जर्मनी में हिटलर के उदय के काल से ही किसी न किसी कारण से जो बदनुमा दाग सोशल डेमोक्रेटों पर लगा हुआ है, लगता है जैसे अब भारत में कम्युनिस्टों ने फासीवादी बर्बर राष्ट्रवादी ताकतों की सहायता की उस भूमिका को अपनाने का निश्चय कर लिया है!
आगामी अप्रैल महीने में हैदराबाद में सीपीआई(एम) की कांग्रेस का इस सिलसिले में कुछ भी परिणाम क्यों न सामने आए, मोदी और आरएसएस–विरोधी जन–आंदोलन और संघर्ष की गति को नुकसान पहुंचाने का जो काम इसी बीच सीपीआई(एम) के बहुमतवादी गुट ने नाना प्रकार के भ्रम उत्पन्न करके किया है, वह खुद में सभी जनतंत्र–प्रेमी लोगों के लिए चिंताजनक है ।
सचमुच, जो यह समझते हैं कि फासीवाद का मतलब है आदमी खाना–पीना, सेक्स और दूसरी सारी नित्य क्रियाएं बंद कर देगा, शहर वीरान हो जाएंगे, यातायात ठप्प हो जाएगा आदि, उनके लिए समाज में कभी फासीवाद नहीं आएगा ।
मुसोलिनी ने अपने समय में पूंजीवाद और समाजवाद के बजाय कॉरपोरेटिज्म का नारा दिया था । उसी को प्रतिध्वनित करते हुए भारत में आरएसएस के पहले सरसंघचालक एम– एस– गोलवलकर ने कहा था, ‘न पूंजीवाद चलेगा न समाजवाद, संघवाद का डंका बजेगा’ । इतिहास भी गवाह है कि फासीवाद में उदार जनतंत्र, नागरिकों के अधिकार, कानून का शासन और संपत्ति के मूलभूत की तरह की पूंजीवाद की बुनियादी विशेषताओं का कोई लक्षण नहीं होता है । यह आधुनिक युग में शुद्ध रूप से एक सनकी नेता और जनता के एक हिस्से को नफरत का निशाना बना कर समाज के ध्रुवीकरण पर टिके बर्बर राष्ट्रवादी संगठन की तानाशाही है । इसे सिर्फ बुल्गारिया के कम्युनिस्ट नेता जार्ज दिमित्रोव की लोकप्रिय परिभाषा, ‘पूंजीवाद का बर्बरतम रूप’ से कत्तई सही और समग्र रूप में व्याख्यायित नहीं किया जा सकता है ।
फासीवाद अगर शुद्ध रूप से पूंजीपतियों का शासन ही होता तो इस ऐतिहासिक तथ्य को कोई कैसे व्याख्यायित करेगा कि हिटलर ने उन सभी पूंजीपतियों को भी प्रताड़ित किया, यातना शिविरों में रखा अथवा देश छोड़ कर भाग जाने के लिए मजबूर किया जिन्होंने कभी उसके उत्थान में भारी आर्थिक मदद की थी । न्युरेमबर्ग अदालत में गवाहियों के दस्तावेजों में उन सबके बयान सुरक्षित है ।
नाजीवाद–फासीवाद में बाजार अर्थ–व्यवस्था या उपभोक्ता के अधिकार की तरह की भी किसी चीज का कोई मूल्य नहीं था । हिटलर–मुसोलिनी के आदेश पर तमाम उद्योगों और पूरी अर्थ–व्यवस्था को उनकी विश्व–विजय की योजना के काम में लगा दिया गया था । फासिस्टों की यह केंद्रीयकृत, एक नेता की कमांड पर चलने वाली अर्थ–व्यवस्था पूंजीवादी बाजार अर्थ–व्यवस्था से गुणात्मक रूप से अलग थी । इसीलिए फासीवाद के खिलाफ संघर्ष किसी भी क्रांतिकारी पार्टी के कामों की दिशा के रणनीतिगत परिप्रेक्ष्य में शामिल होना चाहिएय इसे जनता के जनवाद की लड़ाई के अंग के रूप में अपनाया जाना चाहिए । यह पूंजीवादी जनतंत्र के परिप्रेक्ष्य से जुड़ा महज कोई कार्यनीतिगत विषय नहीं हो सकता है ।
भारत में मोदी ने अपने नोटबंदी के तुगलकी कदम से और अर्थनीति के अन्य सभी मामलों में सनकीपन से फासीवाद की इन सभी लाक्षणिकताओं का साफ परिचय दिया है और आरएसएस का तो पूरा ढांचा फासिस्टों और नाजियों की तर्ज पर ही निर्मित हुआ है । एक तानाशाह का निर्माण आरएसएस के मूलभूत उद्देश्यों में शामिल है । गुजरात में 2002 के जन–संहार और फर्जी मुठभेड़ों के हत्यारे गिरोहों और इनके द्वारा गुप्त हत्याओं से जुड़े तमाम तथ्यों के बाद इसके बारे में नए रूप में जानने के लिए बहुत कुछ शेष नहीं रह जाता है ।
इन सबके बावजूद ‘भाजपा–आरएसएस फासीवादी है या नहीं’ की तरह की भ्रामक बहस दुनिया के गौरवशाली कम्युनिस्ट आंदोलन के इतिहास के साथ एक खिलवाड़ की तरह है । खुद भारत के कम्युनिस्ट आंदोलन के लिए यह किसी आत्महंता कार्रवाई से कम नहीं है । यह आज के समय की मोदी–विरोधी राजनीति के परिदृश्य से सीपीआई(एम) को पूरी तरह से हटा देने की तरह का एक कृत्य है । अपने वक्त की प्रमुख राजनीतिक लड़ाई का मूक द्रष्टा भर बनाए रखने वाली बहसें कम्युनिस्ट पार्टियों के सांगठनिक सिद्धांत, जनवादी केंद्रीयतावाद पर अमल नहीं, बल्कि उसका खुला मजाक है । इसीलिए एक पार्टी संगठन की आंतरिक क्रियाशीलता का यह खास पहलू जो सीधे तौर पर उसकी व्यवहारिक राजनीति को प्रभावित करता है, बहुत ही गहरी जांच की अपेक्षा रखता है । इन बहसों में फंसे हुए ‘क्रांतिकारियों’ को अभी तक यह समझना बाकी है कि मृत्यु भी अपने व्यापक अर्थ में जीवन की ही एक परिघटना है । मृतक नहीं जान पाता है कि वह मर चुका है, इसकी पहचान तो बचा हुआ जीवितों का संसार किया करता है । जब आप राजनीतिक लड़ाई के मौजूदा परिप्रेक्ष्य से ही बाहर रहेंगे तो ज्यादा समय नहीं लगेगा जनता की राजनीतिक स्मृतियों से ही हट जाने में । दुनिया में इसके भी तमाम उदाहरण भरे हुए हैं ।
‘वायर’ पोर्टल पर चंद रोज पहले सीपीआई (एम) के इस अंदुरूनी, मतदान के जरिए सबसे प्रमुख राजनीतिक विषयों पर नीतियां तय करने के, घटनाक्रम पर उसके महासचिव सीताराम येचुरी का एक साक्षात्कार प्रसारित हुआ था । एक पार्टी के महासचिव का जिसे राजनीतिक तौर पर सही वक्तव्य कहते हैं, बिल्कुल वैसा ही साक्षात्कार था वह । पार्टी, उसकी अपनी व्यवस्थाएं, अनुशासन, और मर्यादाएं – सीताराम समग्र रूप में इन सबकी बाधाओं का संकेत देते हुए भी पार्टी में चल रही बहस को जीवंत बता रहे थे । तीन दिन की बहस के बाद भी दोनों गुट मोटे तौर पर अपनी–अपनी जगह से टस से मस नहीं हुएं, लेकिन बहस जीवंत रही ! किसी भी व्यक्ति या संस्था के मृत्यु की ओर क्षय से सिर्फ उसके अंत के नहीं, उसके अंदर बचे हुए जीवन के चिन्हों को भी देखा जाता है । ‘जीवंतता’ के ऐसे प्रमाण अक्सर चमत्कार में विश्वास की तरह के एक और विभ्रम का भी कारण बना करते हैं । मसलन्, चंद दिनों पहले ही दिल्ली में हुए मजदूरों और किसानों के महापड़ाव से, जिसमें वामपंथी जन–संगठनों ने बढ़–चढ़ कर हिस्सा लिया था, या राजस्थान और महाराष्ट्र में किसानों के कुछ सफल आंदोलनों से सीपीआई(एम) के अंदर अपने अकेले के बल पर ही मोदी को पटखनी देने का विभ्रम पैदा हो सकता है; बल्कि उसे कांग्रेस–विरोधी बहुमतवादी गुट संभवत: बाकायदा पैदा कर भी रहा होगा !
यह सच है कि जीवन और मनुष्य की तरह ही पार्टी को भी अगर सही रूप में जानना हो तो उसे हमेशा एक परिघटनात्मक (phenomenological) रूप में ही देखा जाना चाहिए । किसी भी पार्टी के सारे घटकों को सिर्फ पहचान कर उसे एक जीवित सत्ता के रूप में नहीं जाना जा सकता है । समय और स्थान की चुनौतियों के सामने किसी परिघटना के रूप में ही उसकी सजीवता की पहचान होती है । राजनीतिक सहीपन पर अतिरिक्त बल एक प्रकार की जड़ता, मृत्यु के सामने आत्म–समर्पण की तरह है, जो आपसे अनायास ही परिवर्तनकारी गतिशीलता से जुड़ी शक्ति और आकर्षण को छीन लेता है । इसीलिए हमेशा यह भी जरूरी होता है कि ऐसी मर्यादाओं के बंधनों को पूरे दम–खम के साथ चुनौती दी जाए ।
हम जानते हैं यह काम किसी बाहरी पर्यवेक्षक या विश्लेषक के लिए जितना सरल होता है, व्यवहारिक राजनीति के धरातल पर उतना ही अधिक कठिन । लेकिन यही तो व्यवहारिक राजनीति की वे समस्याएं हैं जिनसे बिना टकराए कभी भी किसी दल को निरंतर आगे बढ़ने का रास्ता नहीं मिल सकता है । यह भी तभी मुमकिन है जब राजनीति के अपने अन्तर्निहित तर्कों को प्रमुखता दी जाएं, न कि व्यक्ति के अस्तित्व की मजबूरियां को । पार्टियों का नौकरशाही नेतृत्व अक्सर व्यक्तियों को अपने वर्चस्व का मोहरा बनाता है और राजनीति के साथ समझौते किया करता है । आज वाम राजनीति की सबसे प्रमुख पार्टी सीपीआई(एम) कुछ ऐसी ही जकड़बंदी में फंसी हुई दिखाई देती है । वह ऊपर के स्तर पर सीधे मोदी–आरएसएस के फासीवाद के सहयोगी की भूमिका में वैसे ही उतरी हुई है जैसे कभी मार्टिन हाइडेगर के स्तर के दार्शनिक ने अपनी तत्व मीमांसा में हिटलर को पूंजीवाद के ही सर्व–निम्न–तल की अभिव्यक्ति मान कर उसे अपना समर्थन देना श्रेयस्कर माना था, न कि जनतंत्र की नकाब ओढ़े नागरिक स्वतंत्रताओं की पक्षधर उदार पूंजीवादी जनतांत्रिक ताकतों का साथ देना । आज जो वामपंथी कांग्रेस और भाजपा की आर्थिक नीतियों में तथाकथित समानता के नाम पर मोदी–विरोधी व्यापक संयुक्त मोर्चा से अलग रहने की बात कहते हैं, उनकी दशा हाइडेगर की तरह की ही है । वे अपनी ‘तात्विक’ वर्गीय अवधारणा के ऐसे विभ्रम के ही शिकार हैं जो उन्हें फासीवाद और पूंजीवाद को पूरी तरह से अलग–अलग सामाजिक व्यवस्थाओं के रूप में देखने से रोकता हैं । उनकी गाड़ी दिमित्रोव की उस समझ पर ही अटकी हुई है, जो उस एक क्षण में निर्मित हुई थी जब हिटलर ने सोवियत संघ पर हमला किया था और उसके इस अकेले कदम से ‘साम्राज्यवादियों की आपसी लड़ाई’ को ‘जनयुद्ध’ मान लिया गया था । आज भी वे पूंजीवादी जनतंत्र में फासीवाद के प्रतिरोध के संघर्ष को महज उस एक क्षण को टालने का संघर्ष मानते हैं जब अचानक नागरिक स्वतंत्रताओं पर सर्वतोमुखी हमले शुरू हो जाएंगे, जनतंत्र पूरी तरह से स्थगित कर दिया जाएगा । वे उदार पूंजीवादी जनतंत्र और फासीवाद को तत्वत: अलग–अलग देखने में असमर्थ हैं । यह जरूरी नहीं है कि पूंजीवादी के टूटने का अनिवार्य रूप से कोई प्रगतिशील परिणाम ही निकलेगा । इसीलिए इतिहास के चक्र की उर्ध्वगामी गति की बद्धमूल अवधारणा से मुक्ति की जरूरत है ।
दुष्यंत कुमार का एक बहुत लोकप्रिय शेर है :
भूख है तो सब्र कर रोटी नहीं तो क्या हुआ
आजकल दिल्ली में है जेरे–बहस यह मुद्दआ ।
जिस समय हम वाम राजनीति की समस्याएं की यह भूमिका लिख रहे हैं, कहना न होगा सीपीआई(एम) की केंद्रीय कमेटी दुष्यंत कुमार के इसी शेर को लगभग चरितार्थ करती हुई दिखाई दे रही है ।
हम नहीं जानते कि वाम राजनीति के नाना पक्षों पर समय–समय पर लिखे गए इस पुस्तक में संकलित लेख इस राजनीति की समस्याओं पर प्रकाश डालने में कितना सफल हुए हैं और कितना विफल । लेकिन इनकी बदौलत इस राजनीति को समस्याग्रस्त मान कर यदि वामपंथी राजनीतिक हलके में कोई मामूली सी कसमसाहट भी पैदा हो सके तो उसे ही हम इस किताब की सार्थकता मानेंगे ।
इसके प्रकाशन में अनामिका प्रकाशन का उत्साह हमारे लिए प्रेरक रहा है । सरला का सहयोग उल्लेख की अपेक्षा नहीं रखता है ।
12 फरवरी 2018
नई दिल्ली अरुण माहेश्वरी
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