—अरुण माहेश्वरी
जो भी मार्क्स के साहित्य से थोड़ा परिचित है, वह उनकी कृति 'लूई बोनापार्ट की अठारहवीं ब्रुमेर' के महत्व को जानता है । सन् 1848 से 1852 के बीच की फ्रांस की तूफानी राजनीतिक घटनावली का एक जीवंत चित्र — यह अपने आप में एक अनोखी कृति है ।
इसमें लूई बोनापार्ट नेपोलियन बोनापार्ट का भतीजा है जिसे इतिहास में नेपोलियन तृतीय के नाम से भी जाना जाता है । 10 दिसंबर 1848 के दिन वह एक चुनाव के जरिये फ्रांसीसी जनतंत्र के राष्ट्रपति पद के लिये चुन कर आया था । इसके पहले 1830 से ही वहां लूई फिलिप का शासन चल रहा था, जिसे जुलाई राजतंत्र के नाम से जाना जाता है क्योंकि 1830 की जुलाई में एक विद्रोह के जरिये उसकी स्थापना हुई थी । फरवरी 1848 में एक राज्य विद्रोह के जरिये फ्रांस में जनतंत्र कायम हुआ और 10 दिसंबर को लूई बोनापार्ट इस जनतंत्र का राष्ट्रपति चुना गया । राष्ट्रपति चुने जाने के तीन साल बाद ही 2 दिसंबर 1851 के दिन लूई ने एक और राज्य विद्रोह से खुद को फ्रांस का सम्राट घोषित कर दिया और 1870 में मृत्यु के समय तक वह उसी पद पर बना रहा ।
एक जनतांत्रिक राजनीतिक व्यवस्था में राज्य विद्रोह के जरिये राजशाही कायम करने की फ्रांस में यह दूसरी घटना थी । फ्रांसीसी क्रांति (1789) के बाद 9 नवंबर 1799 के दिन सेना नायक नेपोलियन बोनापार्ट ने इसी प्रकार विद्रोह के जरिये फौजी तानाशाही स्थापित की थी और अपने को फ्रांस का सम्राट घोषित कर दिया था । फ्रांस के जनतंत्रीय पंचांग के अनुसार 9 नवंबर के दिन को अठारहवीं ब्रुमेर कहा जाता है । बाद में, 2 दिसंबर 1851 के दिन जब लुई बोनापार्ट ने राज्य विद्रोह के जरिये अपने को सम्राट घोषित किया, तो कार्ल मार्क्स ने इसे 'लुई बोनापार्ट की अठारहवीं ब्रुमेर' कहा और इसी शीर्षक से उन्होंने 1848 से 1852 के बीच के चार वर्षों के राजनीतिक घटना क्रम पर जो लगभग 110 पृष्ठों की एक प्रकार की कमेंट्री लिखी, उसे आज तक मार्क्सवादी नजरिये से किसी भी समसामयिक राजनीतिक घटनाक्रम से जुड़ी सामाजिक परिघटना के विश्लेषण के प्रकाश स्तंभ के तौर पर देखा जाता है । मार्क्स ने यह कृति दिसंबर 1851 से मार्च 1852 के बीच समय लिखी जब तक जनतंत्र के स्थान पर एक और राजशाही की स्थापना से इस घटना चक्र का एक वृत्त पूरा हुआ था ।
मार्क्स ने इस कृति में तत्कालीन फ्रांस की राजनीति और समाज में सक्रिय पर्वत पार्टी, अमन की पार्टी, राजवंशीय विरोध-पक्ष, सर्वहारा के नाम पर राजनीति कर रही ताकतों और अनेक प्रकार के चरित्रों को अपने विश्लेषण का विषय बनाया था ।
गौर करने की बात है कि इस घटनाक्रम के पहले ही 1847 में मार्क्स-एंगेल्स ने प्रथम इंटरनेशनल नाम से एक कम्युनिस्ट संगठन का गठन कर लिया था और फ्रांस की घटनाओं पर उनकी नजर गड़ी हुई थी । उनके कम्युनिस्ट लीग से अलग हो गये एक विलिख शापर गुट के फ्रांस के कुछ स्थानीय लोगों ने अपनी निम्न-पूंजीवादी षड़यंत्रकारी गतिविधियों के कारण फ्रांसीसी और प्रशियाई पुलिस को यह मौका दिया था जिसमें उनके कई सदस्यों को गिरफ्तार करके उनके खिलाफ जर्मन-फ्रांसीसी षड़यंत्र केस मढ़ दिया गया था। इस केस में पुलिस ने मार्क्स, एंगेल्स को भी फंसाने की एक असफल कोशिश की थी ।
बहरहाल, यहां हमारा मकसद मार्क्स की इस महान कृति का परिचय देना या उसका विश्लेषण करना नहीं है । हम यहां इस कृति के सिर्फ उस अति-क्षुद्र अंश को सामने लाना चाहते हैं जहां मार्क्स फ्रांस में पूंजीवादी विकास के एक चरण से जुड़े इस जटिल राजनीतिक घटनाक्रम की व्याख्या करते हुए लिखते हैं कि “2 दिसंबर को ताश के किसी जादूगर ने मानो फरवरी क्रांति (जब फरवरी 1848 में राजतंत्र को उखाड़ कर जनतंत्र की स्थापना हुई थी) को छूमंतर कर दिया, और अब जाहिर हुआ कि जिस चीज का सफाया हुआ, वह राजतंत्र नहीं, बल्कि वे उदारवादी छूटें हैं जो सदियों के संघर्ष के द्वारा राजतंत्र से प्राप्त की गई थी ।...फरवरी 1848 के coup de main (आकस्मिक प्रहार) का जवाब दिसम्बर, 1851 के coup de tete (उद्दंड कार्रवाई) से दिया गया ।”
मार्क्स आगे लिखते हैं कि “अठारहवीं शताब्दी की क्रांतियों जैसी पूंजीवादी क्रांतियां तूफानी चाल से कामयाबियों पर कामयाबियां हासिल करती है ; उनकी प्रत्येक नाटकीय निष्पत्ति दूसरी को मात करती है ; मनुष्य और वस्तुएं दोनों जगमगाते दिखाई देते हैं...किन्तु ये सारी बाते अल्पजीवी होती है ।...समाज पर इसके पहले कि वह अपने तूफानी दौर के परिणामों को गंभीरतापूर्वक आत्मसात करना सीखे, एक खुमारी भरा अवसाद छा जाता है ।”
इसके बाद ही मार्क्स उन्नीसवी शताब्दी की सर्वहारा क्रांतियों की चर्चा करते हैं और जो बड़े मार्के की बात कहते हैं, यहां उसे ही सामने लाना हमारे इस लेखन का मुख्य उद्देश्य है, क्योंकि इससे किसी न किसी रूप में अभी के भारतीय वामपंथ की पिछले एक अर्से से चली आ रही दुविधाग्रस्त स्थिति पर रोशनी गिरती है ।
मार्क्स लिखते हैं —“दूसरी ओर, उन्नीसवीं शताब्दी की क्रांतियों जैसी सर्वहारा क्रांतियां निरंतर अपनी आलोचना करती है, आगे बढ़ते-बढ़ते स्वयं ही बार-बार रुक जाती है, अब तक तै किये हुए रास्ते से फिर वापस लौट आती है ताकि अपनी यात्रा दोबारा शुरू करें, अपने प्रथम प्रयासों की अपर्याप्तताओं, कमजोरियों और तुच्छताओं की निर्मम अद्यत भर्त्सना करती है, शत्रु को मानो इस लिए पटकती है कि वह धरती से नवीन बल प्राप्त कर और अधिक विराट हो कर फिर उनके सामने आये ; स्वयं अपने लक्ष्यों के अस्पष्ट से विराट आकार से बारंबार झिझककर पीछे हट जाती है — तब तक, जब तक कि ऐसी परिस्थिति तैयार नहीं हो जाती जिसमें पीछे हटना बिल्कुल असंभव होता है और अवस्थाएं स्वयं पुकार कर कहती है :
Hic Rhodus, hic salta !
यहां गुलाब, नाचो यहां !”
इस अंतिम पंक्ति का असली अर्थ होता है — यहां रोडस, कूदो यहां ! यह कथन गपबाज लोगों के एक किस्से से आता है जिसे एक गपोड़ी कहता है कि उसने रोडस में जबर्दस्त लंबी छलांग लगाई थी । तो उसके मित्रों ने उससे कहा कि हाथ कंगन को आरसी क्या, यहीं रोडस है, लगाओ छलांग !
हेगेल ने इस पद का प्रयोग अपनी कृति 'न्याय दर्शन का सिद्धांत' की भूमिका में किया है — यहां गुलाब, नाचो यहां ( युनानी भाषा में रोडस शब्द का अर्थ गुलाब होता है) ।
और मार्क्स 19वीं सदी की सर्वहारा क्रांतियों को परिस्थिति से आंख चुरा कर भागने के बजाय परिस्थिति की चुनौती को स्वीकारने की बात कहते हुए लिखते हैं — यहा गुलाब, नाचो यहां !
कहने का मतलब है कि भारतीय वामपंथ को जो भी वास्तविक स्थिति उपलब्ध है, जो राजनीतिक परिदृश्य है, उससे अपने को किसी भी बहाने अलग हटाने के बजाय उसमें अपनी भूमिका और उपस्थिति को बनाये रखना चाहिए । उसे अपने कथित लक्ष्यों के 'अस्पष्ट और विराट आकार' से बारंबार झिझक कर पीछे हटने की दशा से निकलना चाहिए ! बांग्ला में एक कहावत है — मोरिबो तो मोरिबो, कौशल कोरिया मोरिबो । (मरेंगे तो मर जायेंगे, लेकिन कुछ चालाकी करते हुए मरेंगे ।) किसी भी प्रकार की कन्नी काटने वाली सैद्धांतिक कौशलबाजी व्यवहारिक राजनीति का विकल्प नहीं है ।
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