चार खंडों में प्रकाशित ब्लाग लेखन ‘स्वातंत्र्य चेतना का स्फोट’ की भूमिका
ब्लाग लेखन को हमने एक विमर्शकारी लेखन के रूप में ही अपनाया है । हम जो पार्टी पत्रकारिता के संस्कार के साथ लेखन की दुनिया में आए हैं, शायद हमारी प्रकृति ही है कि अपने सामने विषय के वैविध्य का ढेर होने पर भी उन सब पर विचार के हमारे क्रम में एक खास प्रकार की सार्वलौकिकता का सूत्र जरूर मौजूद रहता है । वैसे तो यह किसी भी लेखक का सत्य होता है, क्योंकि कोई भी व्यक्ति पूरी तरह से विचारधारा-शून्य और परिप्रेक्ष्य-विहीन नहीं होता है । लेकिन हमें लगता है कि पार्टी पत्रकारिता के काम को गंभीरता से करने वालों का इस मामले में शायद एक खास प्रशिक्षण हो जाता है, क्योंकि उन्हें अन्य विचारों से टकराते हुए ही अपने पक्ष की विशिष्टता और तार्किकता की खोज करके उन्हें पेश करना होता है । लेखन का यह एक बिल्कुल भिन्न प्रकार का प्रशिक्षण है जिसमें गहरे शोधमूलक रूझान की साधना के बावजूद आम तौर पर ऐसे तथाकथित निर्विवादित प्रकार के, अथवा अनुभव-निरपेक्ष प्रकार के विषयों पर लिखने की प्रेरणा नहीं मिलती हैं, जिनका कोई तात्कालिक या समकालीन संदर्भ न हो, या जो समग्र रूप में हमारे विचारधारात्मक क्षितिज में किसी नई चुनौती को पेश न करते हो । लेखन की दुनिया में निमज्जित कई शांत, शालीन लोगों को इसमें एक प्रकार का युयुत्सु भाव दिखाई देता है, खंडन-मंडन का भाव जो उनके मनन की असीम-संधानी योग-साधना से मेल नहीं खाता है और इसीलिये उन्हें यह काफी हद तक अवांछित भी लगता है ।
लेकिन विवादों के बीच से ही अपने मत के निरूपण की परंपरा सिर्फ मार्क्सवादी विचारकों की परंपरा नहीं रही हैं । भारतीय चिंतन में तो शास्त्रार्थों का बहुत ही गौरवशाली इतिहास रहा है । अभिनवगुप्त ने शैवमत में उत्पलदेव के प्रत्यभिज्ञादर्शन की स्थापना के उपक्रम में बौद्ध दर्शन, ब्राह्मणवादी कुलीनता, शंकर के वेदांत और उनसे स्वतंत्र रूप में विकसित हुई वेदांत की तमाम धाराओं, पंचरात्र के वैष्णवपंथ और लगभग 92 शैवागमों की सूक्ष्म से सूक्ष्म स्थापनाओं के खंडन-मंडन के जरिये ही 'तंत्रालोक'. 'ध्वन्यालोक' और 'ईश्वरप्रत्यभिज्ञाविमर्शिनी' के स्तर की अपनी सर्वकालिक महान कृतियों की रचना की थी । इसके बावजूद, आधुनिक काल में दुनिया के धरातल पर मार्क्स, एंगेल्स, लेनिन सहित तमाम मार्क्सवादी क्रांतिकारियों और विचारकों ने वाद-विवाद-संवाद की चिंतन की इस शैली को एक ऐसे जीवंत और द्वंद्वात्मक स्वरूप में साधा और विकसित किया जो विचारों के खंडन-मंडन के प्रचलित रूपों से बहुत आगे जाकर, अन्तर-बाह्य दोनों स्तरों पर विचारों के रचनात्मक विकास का, और साथ ही विचारों को एक भौतिक शक्ति में बदलने का बहुत ही कारगर औजार साबित हुआ है । मार्क्सवाद के सामाजिक प्रयोगों की सफलता-विफलता के आरोह-अवरोहों के बीच भी मार्क्सवादी चिंतन की धारा पर कभी भी कोई जड़ता या गतिरोध व्याप गया दिखाई नहीं देता है । कार्ल मार्क्स के बाद के इन दो सौ सालों में कोई भी नया विचारोत्तेजक बौद्धिक विमर्श मार्क्सवाद के दायरे को लांघ कर संभव नहीं हुआ है । इसे ही जॉक दरीदा ने अपनी उत्तर-आधुनिकतावादी विचार-यात्रा में मार्क्स के भूत की सदा-सर्वदा मौजूदगी के रूप में याद किया है ।
यद्यपि विचार और व्यवहार के इस द्वंद्वात्मक उपक्रम में निश्चित तौर पर चीन की जनता के जीवन में एक सांस्कृतिक विरेचन का कारण बनने वाली माओ की 'सांस्कृतिक क्रांति' अथवा पूंजीवादी रूझानों से संघर्ष के नाम पर बौद्धिकों मात्र के सफाये की पौल पोट की तरह की कुछ वैसी ही अतियां भी सामने आई हैं, जैसी भारत में बौद्धों और ब्राह्मणों के बीच, वैष्णवों और शैवों के बीच खूनी संघर्षों के इतिहास में मिलती हैं । इसके अलावा एक महत्वपूर्ण दूसरा पहलू समाजवाद के पराभव का भी है, जब विश्व क्रांति की निर्विकल्प दिशा के प्रति नाउम्मीदी ने 'एक देश में समाजवाद' की तरह के विकल्पों को ही निर्विकल्प मान कर, शैवागमों की भाषा में मल को ही विमल मान कर, अपना लिया गया और बाद में उसके अपरिहार्य पराभव ने एक ऐसे शून्य की सृष्टि कर दी जिसमें झूठी उम्मीदों के सहारे चलने के अलावा जैसे कम्युनिस्ट आंदोलन के पास कोई चारा नहीं दिखाई देता है ।
बहरहाल, इस प्रकार के किसी भी विचलन या परिणाम के हवाले से वैचारिक टकराहटों की अपनी रचनात्मकता को, उसकी भौतिक भूमिका की चरितार्थता को कभी खारिज नहीं किया जा सकता है । हमारे यहां अभिनवगुप्त ने 'तंत्रालोक' में पुष्प, धूप, नैवेद्य, या मंत्र जाप को नहीं, विमर्श की दृढ़ता, विभिन्न भावों के साथ भैरवी संविद (चेतना शक्ति) की संहति की स्थापना को पूजा कहा है ।
“पूजा नाम विभिन्नस्य भावौघस्यापि सङ्गति:
स्वतंत्रविमलानन्तभैरवीयचिदात्मना । (तंत्रालोक, चतुर्थ आह्निकम, 121)
'पूजा नाम न पुष्पाद्यैर्या मतिः क्रियते दृढा
निर्विकल्पे महाव्योम्नि सा पूजा ह्यादराल्लय:'
भिन्न-भिन्न रूप रस आदि भाव समूह का देशकाल आदि से अविभाज्य शुद्ध और अनंत भैरवीय संविद् ( स्वतंत्र चेतना शक्ति) रूप से जो संगति, एकाकारता होती है, वही पूजा मानी जाती है । पुष्प आदि से पूजा नहीं होती, बल्कि निर्विकल्प महाव्योम में जो दृढ़ विश्वास किया जाता है, जो आदर के साथ लय है, वह पूजा है ।
सिर्फ इतना ही नहीं, अभिनव आगे यह भी लिखते हैं कि यह परामर्शरूपिणी चेतना शक्ति ही अपने स्वातंत्र्य के कारण अन्तः और बाह्य (वैचारिक और भौतिक) दोनों स्तरों पर मौजूद रह कर स्फुरण करती है :
“तथाहि संविदेवेयमन्तर्बाह्योभयात्मना
स्वतन्त्र्याद्वर्तमानैव परामर्शस्वरूपिणी । (वही, 122)
यहां जो विमर्श परामर्शरूपिणी है, परामर्शमूलक है, उसे ही हम वैचारिक द्वंद्वात्मकता के रूप में समझ सकते हैं । तभी जो बाहर प्रकाशित होता है, वही अंतर में भी व्यक्त होता है । बाह्य और अन्तर, दोनों स्तरों पर इसके रचनात्मक परिणामों से इसमें कोई बिखराव नहीं आता है । यही इसकी विशिष्टता है । अन्य की अन्य के साथ एकता को यहां पूजा बताया गया है । यह परामर्शरूपिणी द्वंद्वमूलक चेतना शक्ति अपने स्वातंत्र्य की वजह से ही अन्तःबाह्य एवं दोनों रूपों में मौजूद रह कर अपनी रचनात्मक भूमिका अदा करती है । भिन्न-भिन्न भाव समूह का चिदात्म्य के साथ, एक सार्वलौकिक सत्य के साथ एकात्म्य । इस प्रकार विमर्श मात्र की अपनी सार्वलौकिक स्वातंत्र्य की विश्वदृष्टि भी है । इसी स्वातंत्र्य से जुड़ कर नाउम्मीदी के भी एक अनोखे साहस की सृष्टि होती है, जो वर्तमान की सभी रूढ़ियों की जंजीरों को तोड़ कर नयी सामाजिक संरचना का हेतु बन सकता है ।
आज के प्रसिद्ध मार्क्सवादी फ्रांसीसी दार्शनिक ऐलेन बदउ का एक नाटक है — L’Incident d’Antioche (एंटियोक की घटना) । इसकी पृष्ठभूमि में कहीं न कहीं ईसाई मिशन में लगे सेंट पॉल्स और पीटर के बीच एंटियोक में बाइबल की सार्वलौकिकता को लेकर हुआ संघर्ष भी है । नाटक का विषय यह है कि क्या किसी भी क्रांतिकारी को परंपरागत रूढ़ियों का पालन करते रहना चाहिए ? मसलन्, देवदूत पीटर को क्या पुराने यहूदी रीति-रिवाजों का पालन जारी रखना चाहिए ; मसलन्, आज क्रांति-विमुख लोगों को बाजार अर्थ-व्यवस्था और संसदीय जनतंत्र की निर्विकल्पता से ही चिपके रहना चाहिए ? अथवा ईसाइयों ने यहूदी-विद्वेष का जो रास्ता अपनाया, या पौल पौट के खमेर रूज ने पुराने काल के समर्थकों के सफाये की जो नीति अपनाई, उस लाइन को अपनाया जाना चाहिए ? इस नाटक के एक अंश में क्रांति का नेता कमिउ क्रांति हो जाने के बाद कहता है — मेरा काम पूरा हो गया, अब चलता हूं ।
उसका साथी डेविड कहता है कि आज जब काम करने का समय आया है, तभी तुम मूंह फेर रहे हो । तो कमिउ कहता है — “विजय के बाद जो बचता है वह है पराजय ।... फौरन पराजय नहीं, जो भी वर्तमान के साथ निबाह करके चलेगा उसकी धीरे-धीरे निश्चित पराजय ।...उस प्रकार की पराजय की शान को मैं तुम्हारे लिये छोड़ता हूं, किसी अहंकारवश या धीरज की कमी की वजह से नहीं, बल्कि इसलिये क्योंकि मैं उसके लिये उपयुक्त नहीं हूं ।”
बदउ इसकी व्याख्या करते हुए एक जगह लिखते हैं कि उसने इसलिये नई सत्ता का त्याग किया क्योंकि कुछ लोग सिर्फ विध्वंस से प्यार करते हैं और चूंकि वह देख रहा है कि अब एक नये राज्य के पुनर्निर्माण का काम होगा, उस पुनर्निर्माण में उसे एक प्रकार के दोहराव की ऊब दिखाई देने लगती है, इसीलिये उसकी उसमें कोई दिलचस्पी नहीं रहती है । (Alain Badiou, The Communist Hypothesis, Verso, 2015, page – 15-17)
यह कुछ वैसा ही है जैसे महाभारत के महा-विध्वंस के अंत में महर्षि व्यास पांडवों को हिमालय की ओर रवाना कर देते हैं । पांडु जो गुरुओं के लिये हिंसक पशुओं का वध करने ऋषि-मुनियों के साथ वन में ही रह गये थे, उनके वंशधर पांचों पांडवों की अस्मिता भी युद्ध और विध्वंस से ही जुड़ी हुई थी, वे राजर्षि योग के लिये अनुपयुक्त थे । इसीलिये जब युद्ध के अंत में राजगद्दी पर बैठ कर एक नये राज्य के निर्माण का समय आता है, भूत, वर्तमान और भविष्य तक की चतुर्वणीय समाज-व्यवस्था की कथा कहने वाले व्यास ने नहीं चाहा कि अपने इन नायकों को फिर से उसी हमेशा के ध्वंस-निर्माण-ध्वंस के वृत्त में शामिल कर दिया जाए । पांडवों के इस संन्यास के जरिये व्यास कौरवों के राज्य के संहारकर्ताओं को किसी नये दमनकारी राज्य के निर्माण के लिये या तो उपयुक्त नहीं पाते जैसे ऊपर बदउ के चरित्र कमउ ने अपने को नहीं पाया था, या वे पांडवों के इस वैराग्य के जरिये किसी ऐसी सामाजिक व्यवस्था की ओर बढ़ने का संदेश देना चाहते है जो राज्य-विहीन मानव की स्वातंत्र्य सत्ता पर टिकी समाज-व्यवस्था हो । व्यास ने महाभारम के आदि पर्व में ही एक जगह शैवमत के भैरव-भाव के प्रतीक, पाशुपत की चर्चा की हैं, लेकिन उसके साथ वे उसे राजसत्ता के किसी भी रूप को जोड़ने के बजाय न्याय, शिक्षा और स्वास्थ्य की तरह के आत्म-सत्ता के पक्षों से जोड़ कर पेश करते हैं ।
“न्यायशिक्षाचिकित्सा च दानं पाशुपतं“ । इसे मनुष्य के किसी भी राजसत्ता से, हर बंधन से मुक्ति के भाव को राजनीति के धरातल पर राज्य-विहीन साम्यवादी समाज की परिकल्पना का संकेत भी कहा जा सकता है ।
बदउ के उपरोक्त नाटक में क्रांति के बाद की आगे की कहानी भी है । क्रांति का नेता कमिउ तैयार नहीं था पुनर्निर्माण की एक धीमी और निरंतर जारी उबाऊ प्रक्रिया के बीच से आने वाली अनिवार्य विफलता को अपनाने के लिये । लेकिन क्रांति की इस आंतरिक कमजोरी के साथ ही, इस नाटक में उसकी विफलता का आगे एक और, दूसरा आख्यान भी आता है, जब क्रांति के बाद के नये शासक डेविड की मां पौला उससे कहती है — 'तुम सत्ता छोड़ दो ।'
डेविड मां से कहता है कि 'तुम मेरी मां होकर प्रति-क्रांतिकारी काम क्यों कर रही हो',
तो पौला उसे कहती है — “प्रति-क्रांति तुम हो । तुमने न्याय के सारे बोध को गंवा दिया है । तुम्हारी राजनीति कुत्सित है ।...सुनो । ...हमारी परिकल्पना, सिद्धांततः, यह नहीं थी कि हम एक अच्छी सरकार की समस्याओँ का समाधान करेंगे ।...हमने कहा था कि दुनिया एक ऐसी नीति के रास्ते पर चल सकती है जिसे बदला जा सकता है, राजनीति को ही खत्म कर देने वाली नीति । ...उस परिकल्पना के ऐतिहासिक स्वरूप को राजसत्ता ने निगल लिया है । एक मुक्तिदायी संगठन का राजसत्ता में विलय हो गया है । ...कोई भी सही नीति यह दावा नहीं कर सकती है कि वह अब तक किये जा चुके कामों की ही निरंतरता है । हमारा उद्देश्य एक बार और हमेशा के लिये उस चेतना को मुक्त कर देने का है जो न्याय, समानता को कायम करती है और राजसत्ता और दरबारों की साजिशों का हमेशा के लिये अंत करती है, और उस बची हुई जमीन का भी सफाया करती है जिससे पैदा होने वाली सत्ता की लिप्सा आदमी ऊर्जा के प्रत्येक रूप को लील लेती है ।”
...डेविड मां से कहता है — “दुनिया हमेशा के लिये बदल गई है । विश्वास करो । मेरी प्यारी मां तुम चीजों को नीचे से देख रही हो । तुम निर्णय लेने वालों में नहीं हो ।”
“पौला — यही पुरानी आजमाई हुई चाल है ।... जरूर तुम कुछ नया करोगे । तुम सूरज को भूरे रंग से रंग दोगे ।”
इसी सिलसिले में बौखला कर डेविड मां से पूछता है — कहो तो, तुम कौन हो ? ...तुम निश्चय ही हमें और शक्तिशाली बनने के लिये नहीं कह रही हो । बल्कि हमें सत्ता को त्याग देने, आने वाले लंबे काल के लिये उसे छोड़ देने के लिये कह रही हो ।
तो पौला कहती है, “मानव जाति की महानता सत्ता में नहीं है । बिना परों वाले दोपाये का खुद पर नियंत्रण हो, और वह, जो उतना संभव भी नहीं लगता, प्रकृति के सभी नियमों, इतिहास के सभी नियमों के खिलाफ जाए और उस राह पर चले जिसमें हर व्यक्ति प्रत्येक के प्रति समान होगा । सिर्फ कानून में नहीं, भौतिक यथार्थ में भी।” (जोर हमारा)
इसपर डेविड कहता है, “ तुम इतनी पागल हो !”
पौला कहती है — “नहीं, मैं नहीं । मैं तुमसे कहूंगी सारे उन्माद को छोड़ो । तुम्हें बहुत धीर-स्थिर हो कर निर्णय करना है । जो भी व्यक्ति मरीचिका के पीछे भागता है, वह यह नहीं समझ सकता है । विजय और समग्रता के प्रति अपने आग्रह को भूल जाओ । वैविध्य के सूत्र को पकड़ कर चलो ।”
...“राजनीति का अर्थ एक राजनीतिक भविष्य दृष्टि के आधार पर इकट्ठा होना है ताकि आदमी राजसत्ता की मानसिक जकड़बंदी से मुक्त रह सके ।” (वही, पृष्ठ – 15-22) (जोर हमारा)
(Our hypothesis was not, in theory, that we were going to resolve the problem of good government…We said that the world could stand the trajectory of a policy that could be reversed…Historical realization of that hypothesis was swallowed up by the state. A liberating organisation merged completely into the state…No correct policy can now argue that it is a continuation of the work that has already been done. Our mission is to unseal, once and for all, the consciousness that organises justice, equality, the end of states and imperial rackets, and the residual platform where the concern for power sucks in every form of energy…Of course you’ll do something new. You’ll paint the surface of the sun grey…Power is not the mark of the human race’s greatness. The featherless biped must get a grip on himself and, unlikely as it seems, go against all the laws of nature and all the laws of history, and follow the path that means that anyone will be equal of everyone…For anyone who gives in to the passion for images, it is incomprehensible. Forget about the obsession with conquest and totality. Follow the thread of multiplicity…Politics means uniting around a political vision that escapes the mental hold of the state.)
अभिनवगुप्त का भैरव भाव क्या है ? अंतहीन लालसाओं से भरे स्वातंत्र्य का वह भाव जो किसी से कोई अपेक्षा नहीं रखता है । यह नाउम्मीदी का साहस है । सुविधा के लिये इसे एक सच्ची सर्वहारा चेतना भी कह सकते हैं । अभिनव अपने तंत्रालोक को परम भोग और परम त्याग का दर्शन कहते हैं । बदउ की कम्युनिस्ट परियोजना में प्रत्येक निर्लोभी और स्वतंत्र मनुष्य की समानता की कामना और विजय और समग्रता के आग्रह को छोड़ कर वैविध्य के सूत्र को पकड़ने का जो मंत्र दिया गया है, उसी 'विभिन्नस्य भावौघस्यापि सङ्गति:', वैविध्य के भाव से संगति की बात अभिनव कहते हैं । तंत्रालोक इसी वैविध्य को अपनी चेतना शक्ति में समाहित करने की प्रक्रिया का, तर्क की एक विधि से विकल्पों के संस्कार अर्थात द्वंद्वों का निवारण करते हुए ज्ञान के सोपानों पर चढ़ने और फिर चेतना-शक्ति के स्फुरण की, कहा जा सकता है मनुष्य की रचना-प्रक्रिया पर समग्र विमर्श की एक महान कृति है । संस्कार की इस प्रक्रिया में द्वंद्व द्वंद्व नहीं रहते, विमर्श बन जाते हैं । यह अपने आप से एक प्रकार का प्रत्यवमर्श भी होता है । दुविधा एक बंधन, बद्धता है । द्वंद्वों, दुविधाओं से सत्तर्क मुक्त अभेद चेतना शक्ति के प्रहार से भेद की जमीन तोड़ कर ही स्फुटता, रचनात्मकता का उदय होता है । जड़ता टूटती है और रचनात्मकता का विस्फोट होता है ।
बदउ के नाटक के उपरोक्त पूरे प्रसंग को हम अपने यहां आजादी की लड़ाई के महानायक गांधी पर पूरी तरह से घटित होते देख सकते है । लड़ाई के दौर में हमेशा नेतृत्व की कमान थामे रहने वाला, खुद को डिक्टेटर तक कहने वाला वह नायक आजादी के ठीक बाद अपने को नई राजसत्ता के खेल में पूरी तरह से अनुपयुक्त पाता है और उससे विरत हो जाता है। वह गुलामी की जंजीर को तोड़ने आया था, उसे तोड़ दिया । अब आजाद भारत का नया राज्य बनेगा, नई जंजीरें तैयार होगी, बापू उसमें क्यों शामिल होंगे ! वे देख रहे थे जीत के बाद आगे सिर्फ हार खड़ी प्रतीक्षा कर रही है — फौरन नहीं, धीरे-धीरे । इस पराजय को सबको मानना होगा क्योंकि यह निर्रथक पराजय नहीं होगी, एक प्रकार के स्वातंत्र्य से स्फूरित पराजय, जीवन में किंचित शांति लाने और राज्य को मजबूत करने वाली पराजय । गांधी इस पराजय के गौरव को दूसरों के लिये छोड़ने को तैयार थे क्योंकि नाफरमानी के उनके विचार क्यों किसी के भी फरमान को मानने के लिये मजबूर हो ! वे आजादी की लड़ाई के उत्साह की समाप्ति के बाद की लोगों की तिरछी नजरों की कल्पना कर पा रहे थे और अपने को उन बुरी नजरों के वृत्त के बाहर रखना ही श्रेयस्कर समझते थे । उन्होंने अपने जीवन को ही अपना संदेश कह कर राजनीति मात्र को उस भविष्य दृष्टि का रूप देने की बात कही जो नैतिक स्वातंत्र्य के बल पर आदमी को राजसत्ता के मानसिक दबावों से मुक्त रहने की ताकत देती है, नाफरमानी की ताकत देती है, जैसा कि बदउ के नाटक में डेविड की मां पौला उससे कहती है । रूस में क्रांति के पहले लेनिन ने एक बार चिंतित हो कर त्रातस्की के पूछा था कि यदि क्रांति विफल हो जाती है तो क्या होगा, तो त्रातस्की का जवाब था, यदि क्रांति सफल हो जाती है तो क्या होगा ?
इसी पूरे प्रसंग, क्रांति और उसके बाद फिर एक नये राज्य के निर्माण के दोहराव की त्रासदी के अतिरिक्त एक तीसरा पहलू भी हो सकता है, जिससे इस पूरे विमर्श का त्रिक बनता है, वह यह कि शुरू में ही जनरोष किसी संगठित शक्ति के अभाव में बदलाव की कोई शक्ल न ले और सिर्फ अराजकता पैदा करके बिखर जाए, जैसा हमने खास तौर पर अफ्रीका और मध्य एशिया के अरब वसंत (2010-2014) के तूफानी घटना क्रम में देखा । यह राजसत्ता-केंद्रित परिवर्तन की पूरी त्रासदी का वह पहलू है जो आदमी के सामयिक क्रोध की तरह भड़कता है लेकिन कोई विवेकपूर्ण रूप नहीं ले पाता है बल्कि और भी पतन की दिशा में बढ़ जाता है — कांग्रेस के भ्रष्टाचार के खिलाफ रोष से मोदी की तरह के सांप्रदायिक फासीवादी तुगलक के शासन का उदय भी एक ऐसा ही उदाहरण है । स्तालिन ने जब कम्युनिस्ट आंदोलन में वामपंथी और दक्षिणपंथी, दोनों प्रकार के विचारधारात्मक भटकावों को समान रूप से गलत बताया था तो वे भी साम्यवादी परिप्रेक्ष्य की दिशा में लगातार बढ़ने के लिये कहीं न कहीं एक सही और स्वतंत्र विवेक को हासिल करने की बात कह रहे थे । यह दूसरी बात है कि इन्हीं स्तालिन ने इस राजनीतिक विवेक के केंद्र में राजसत्ता के प्रयोग को रख कर ऐसी अतियां कर दी, जो बदउ की पौला के शब्दों में क्रांति को ही न्याय के बोध से शून्य प्रतिक्रांति का प्रतिरूप बना देती है । मूल बात यह है कि मुक्ति की राजनीति के सामने राजसत्ता का दमन जितना बड़ा शत्रु नहीं है, उससे कहीं बड़ा शत्रु उसमें लालसाओं का अंत हो जाना, 'कुछ भी नहीं होगा' के नकारवाद और उस खोखलेपन से पैदा होने वाली अमानुषिक निष्ठुरता है । विमर्श ही आदमी के अंतर के शून्य को भरने का और मानव-कल्याण के समताकारी व्योम से उसके लय का, संगति बनाये रखने का अकेला साधन है ।
कहना न होगा, ब्लाग लेखन से एक प्रकार के ऐसे ही निरंतर विमर्श के बीच बने रहने का, अपने स्वातंत्र्य के बल पर नई राजनीति और समाज-नीति की दिशा में योगदान का हमें जो मौका मिला है, उसी के प्रतिफल को आप इन सभी खंडों में समाहित वैविध्यपूर्ण विषयों के आवर्त्तों की एकलयता में देख सकते हैं । इनसे आज के समय के इस जरूरी विमर्श की ऐतिहासिकता का अगर कोई स्वरूप बन सके तो हम उसे ही अपने कार्य की एक बड़ी सफलता मानेंगे । हमें पूरी उम्मीद है कि इस प्रकार के एक वैचित्र्यपूर्ण संकलन को पाठकों की भी स्वीकृति मिलेगी ।
विगत चार साल के नियमित लेखन से बने इन वार्षिक खंडों को प्रकाशित करने के मामले में प्रशांत बिस्सा जी ने जिस प्रकार के भारी उत्साह का परिचय दिया है इसके लिये उनके प्रति आभारी हूं । उनका उत्साह हमारे लिये इस प्रकार के लेखन को पाठक की स्वीकृति का भी एक गवाह रहा है । और सरला की भूमिका का जिक्र क्या करूं, वह इस प्रकार के पूरे काम के उत्सव के एक आश्रय-स्थल की तरह है, जिसके बिना ऐसे किसी उल्लास की संभावना ही नहीं बनती है ।
10 नवंबर 2017. अरुण माहेश्वरी
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ब्लाग लेखन को हमने एक विमर्शकारी लेखन के रूप में ही अपनाया है । हम जो पार्टी पत्रकारिता के संस्कार के साथ लेखन की दुनिया में आए हैं, शायद हमारी प्रकृति ही है कि अपने सामने विषय के वैविध्य का ढेर होने पर भी उन सब पर विचार के हमारे क्रम में एक खास प्रकार की सार्वलौकिकता का सूत्र जरूर मौजूद रहता है । वैसे तो यह किसी भी लेखक का सत्य होता है, क्योंकि कोई भी व्यक्ति पूरी तरह से विचारधारा-शून्य और परिप्रेक्ष्य-विहीन नहीं होता है । लेकिन हमें लगता है कि पार्टी पत्रकारिता के काम को गंभीरता से करने वालों का इस मामले में शायद एक खास प्रशिक्षण हो जाता है, क्योंकि उन्हें अन्य विचारों से टकराते हुए ही अपने पक्ष की विशिष्टता और तार्किकता की खोज करके उन्हें पेश करना होता है । लेखन का यह एक बिल्कुल भिन्न प्रकार का प्रशिक्षण है जिसमें गहरे शोधमूलक रूझान की साधना के बावजूद आम तौर पर ऐसे तथाकथित निर्विवादित प्रकार के, अथवा अनुभव-निरपेक्ष प्रकार के विषयों पर लिखने की प्रेरणा नहीं मिलती हैं, जिनका कोई तात्कालिक या समकालीन संदर्भ न हो, या जो समग्र रूप में हमारे विचारधारात्मक क्षितिज में किसी नई चुनौती को पेश न करते हो । लेखन की दुनिया में निमज्जित कई शांत, शालीन लोगों को इसमें एक प्रकार का युयुत्सु भाव दिखाई देता है, खंडन-मंडन का भाव जो उनके मनन की असीम-संधानी योग-साधना से मेल नहीं खाता है और इसीलिये उन्हें यह काफी हद तक अवांछित भी लगता है ।
लेकिन विवादों के बीच से ही अपने मत के निरूपण की परंपरा सिर्फ मार्क्सवादी विचारकों की परंपरा नहीं रही हैं । भारतीय चिंतन में तो शास्त्रार्थों का बहुत ही गौरवशाली इतिहास रहा है । अभिनवगुप्त ने शैवमत में उत्पलदेव के प्रत्यभिज्ञादर्शन की स्थापना के उपक्रम में बौद्ध दर्शन, ब्राह्मणवादी कुलीनता, शंकर के वेदांत और उनसे स्वतंत्र रूप में विकसित हुई वेदांत की तमाम धाराओं, पंचरात्र के वैष्णवपंथ और लगभग 92 शैवागमों की सूक्ष्म से सूक्ष्म स्थापनाओं के खंडन-मंडन के जरिये ही 'तंत्रालोक'. 'ध्वन्यालोक' और 'ईश्वरप्रत्यभिज्ञाविमर्शिनी' के स्तर की अपनी सर्वकालिक महान कृतियों की रचना की थी । इसके बावजूद, आधुनिक काल में दुनिया के धरातल पर मार्क्स, एंगेल्स, लेनिन सहित तमाम मार्क्सवादी क्रांतिकारियों और विचारकों ने वाद-विवाद-संवाद की चिंतन की इस शैली को एक ऐसे जीवंत और द्वंद्वात्मक स्वरूप में साधा और विकसित किया जो विचारों के खंडन-मंडन के प्रचलित रूपों से बहुत आगे जाकर, अन्तर-बाह्य दोनों स्तरों पर विचारों के रचनात्मक विकास का, और साथ ही विचारों को एक भौतिक शक्ति में बदलने का बहुत ही कारगर औजार साबित हुआ है । मार्क्सवाद के सामाजिक प्रयोगों की सफलता-विफलता के आरोह-अवरोहों के बीच भी मार्क्सवादी चिंतन की धारा पर कभी भी कोई जड़ता या गतिरोध व्याप गया दिखाई नहीं देता है । कार्ल मार्क्स के बाद के इन दो सौ सालों में कोई भी नया विचारोत्तेजक बौद्धिक विमर्श मार्क्सवाद के दायरे को लांघ कर संभव नहीं हुआ है । इसे ही जॉक दरीदा ने अपनी उत्तर-आधुनिकतावादी विचार-यात्रा में मार्क्स के भूत की सदा-सर्वदा मौजूदगी के रूप में याद किया है ।
यद्यपि विचार और व्यवहार के इस द्वंद्वात्मक उपक्रम में निश्चित तौर पर चीन की जनता के जीवन में एक सांस्कृतिक विरेचन का कारण बनने वाली माओ की 'सांस्कृतिक क्रांति' अथवा पूंजीवादी रूझानों से संघर्ष के नाम पर बौद्धिकों मात्र के सफाये की पौल पोट की तरह की कुछ वैसी ही अतियां भी सामने आई हैं, जैसी भारत में बौद्धों और ब्राह्मणों के बीच, वैष्णवों और शैवों के बीच खूनी संघर्षों के इतिहास में मिलती हैं । इसके अलावा एक महत्वपूर्ण दूसरा पहलू समाजवाद के पराभव का भी है, जब विश्व क्रांति की निर्विकल्प दिशा के प्रति नाउम्मीदी ने 'एक देश में समाजवाद' की तरह के विकल्पों को ही निर्विकल्प मान कर, शैवागमों की भाषा में मल को ही विमल मान कर, अपना लिया गया और बाद में उसके अपरिहार्य पराभव ने एक ऐसे शून्य की सृष्टि कर दी जिसमें झूठी उम्मीदों के सहारे चलने के अलावा जैसे कम्युनिस्ट आंदोलन के पास कोई चारा नहीं दिखाई देता है ।
बहरहाल, इस प्रकार के किसी भी विचलन या परिणाम के हवाले से वैचारिक टकराहटों की अपनी रचनात्मकता को, उसकी भौतिक भूमिका की चरितार्थता को कभी खारिज नहीं किया जा सकता है । हमारे यहां अभिनवगुप्त ने 'तंत्रालोक' में पुष्प, धूप, नैवेद्य, या मंत्र जाप को नहीं, विमर्श की दृढ़ता, विभिन्न भावों के साथ भैरवी संविद (चेतना शक्ति) की संहति की स्थापना को पूजा कहा है ।
“पूजा नाम विभिन्नस्य भावौघस्यापि सङ्गति:
स्वतंत्रविमलानन्तभैरवीयचिदात्मना । (तंत्रालोक, चतुर्थ आह्निकम, 121)
'पूजा नाम न पुष्पाद्यैर्या मतिः क्रियते दृढा
निर्विकल्पे महाव्योम्नि सा पूजा ह्यादराल्लय:'
भिन्न-भिन्न रूप रस आदि भाव समूह का देशकाल आदि से अविभाज्य शुद्ध और अनंत भैरवीय संविद् ( स्वतंत्र चेतना शक्ति) रूप से जो संगति, एकाकारता होती है, वही पूजा मानी जाती है । पुष्प आदि से पूजा नहीं होती, बल्कि निर्विकल्प महाव्योम में जो दृढ़ विश्वास किया जाता है, जो आदर के साथ लय है, वह पूजा है ।
सिर्फ इतना ही नहीं, अभिनव आगे यह भी लिखते हैं कि यह परामर्शरूपिणी चेतना शक्ति ही अपने स्वातंत्र्य के कारण अन्तः और बाह्य (वैचारिक और भौतिक) दोनों स्तरों पर मौजूद रह कर स्फुरण करती है :
“तथाहि संविदेवेयमन्तर्बाह्योभयात्मना
स्वतन्त्र्याद्वर्तमानैव परामर्शस्वरूपिणी । (वही, 122)
यहां जो विमर्श परामर्शरूपिणी है, परामर्शमूलक है, उसे ही हम वैचारिक द्वंद्वात्मकता के रूप में समझ सकते हैं । तभी जो बाहर प्रकाशित होता है, वही अंतर में भी व्यक्त होता है । बाह्य और अन्तर, दोनों स्तरों पर इसके रचनात्मक परिणामों से इसमें कोई बिखराव नहीं आता है । यही इसकी विशिष्टता है । अन्य की अन्य के साथ एकता को यहां पूजा बताया गया है । यह परामर्शरूपिणी द्वंद्वमूलक चेतना शक्ति अपने स्वातंत्र्य की वजह से ही अन्तःबाह्य एवं दोनों रूपों में मौजूद रह कर अपनी रचनात्मक भूमिका अदा करती है । भिन्न-भिन्न भाव समूह का चिदात्म्य के साथ, एक सार्वलौकिक सत्य के साथ एकात्म्य । इस प्रकार विमर्श मात्र की अपनी सार्वलौकिक स्वातंत्र्य की विश्वदृष्टि भी है । इसी स्वातंत्र्य से जुड़ कर नाउम्मीदी के भी एक अनोखे साहस की सृष्टि होती है, जो वर्तमान की सभी रूढ़ियों की जंजीरों को तोड़ कर नयी सामाजिक संरचना का हेतु बन सकता है ।
आज के प्रसिद्ध मार्क्सवादी फ्रांसीसी दार्शनिक ऐलेन बदउ का एक नाटक है — L’Incident d’Antioche (एंटियोक की घटना) । इसकी पृष्ठभूमि में कहीं न कहीं ईसाई मिशन में लगे सेंट पॉल्स और पीटर के बीच एंटियोक में बाइबल की सार्वलौकिकता को लेकर हुआ संघर्ष भी है । नाटक का विषय यह है कि क्या किसी भी क्रांतिकारी को परंपरागत रूढ़ियों का पालन करते रहना चाहिए ? मसलन्, देवदूत पीटर को क्या पुराने यहूदी रीति-रिवाजों का पालन जारी रखना चाहिए ; मसलन्, आज क्रांति-विमुख लोगों को बाजार अर्थ-व्यवस्था और संसदीय जनतंत्र की निर्विकल्पता से ही चिपके रहना चाहिए ? अथवा ईसाइयों ने यहूदी-विद्वेष का जो रास्ता अपनाया, या पौल पौट के खमेर रूज ने पुराने काल के समर्थकों के सफाये की जो नीति अपनाई, उस लाइन को अपनाया जाना चाहिए ? इस नाटक के एक अंश में क्रांति का नेता कमिउ क्रांति हो जाने के बाद कहता है — मेरा काम पूरा हो गया, अब चलता हूं ।
उसका साथी डेविड कहता है कि आज जब काम करने का समय आया है, तभी तुम मूंह फेर रहे हो । तो कमिउ कहता है — “विजय के बाद जो बचता है वह है पराजय ।... फौरन पराजय नहीं, जो भी वर्तमान के साथ निबाह करके चलेगा उसकी धीरे-धीरे निश्चित पराजय ।...उस प्रकार की पराजय की शान को मैं तुम्हारे लिये छोड़ता हूं, किसी अहंकारवश या धीरज की कमी की वजह से नहीं, बल्कि इसलिये क्योंकि मैं उसके लिये उपयुक्त नहीं हूं ।”
बदउ इसकी व्याख्या करते हुए एक जगह लिखते हैं कि उसने इसलिये नई सत्ता का त्याग किया क्योंकि कुछ लोग सिर्फ विध्वंस से प्यार करते हैं और चूंकि वह देख रहा है कि अब एक नये राज्य के पुनर्निर्माण का काम होगा, उस पुनर्निर्माण में उसे एक प्रकार के दोहराव की ऊब दिखाई देने लगती है, इसीलिये उसकी उसमें कोई दिलचस्पी नहीं रहती है । (Alain Badiou, The Communist Hypothesis, Verso, 2015, page – 15-17)
यह कुछ वैसा ही है जैसे महाभारत के महा-विध्वंस के अंत में महर्षि व्यास पांडवों को हिमालय की ओर रवाना कर देते हैं । पांडु जो गुरुओं के लिये हिंसक पशुओं का वध करने ऋषि-मुनियों के साथ वन में ही रह गये थे, उनके वंशधर पांचों पांडवों की अस्मिता भी युद्ध और विध्वंस से ही जुड़ी हुई थी, वे राजर्षि योग के लिये अनुपयुक्त थे । इसीलिये जब युद्ध के अंत में राजगद्दी पर बैठ कर एक नये राज्य के निर्माण का समय आता है, भूत, वर्तमान और भविष्य तक की चतुर्वणीय समाज-व्यवस्था की कथा कहने वाले व्यास ने नहीं चाहा कि अपने इन नायकों को फिर से उसी हमेशा के ध्वंस-निर्माण-ध्वंस के वृत्त में शामिल कर दिया जाए । पांडवों के इस संन्यास के जरिये व्यास कौरवों के राज्य के संहारकर्ताओं को किसी नये दमनकारी राज्य के निर्माण के लिये या तो उपयुक्त नहीं पाते जैसे ऊपर बदउ के चरित्र कमउ ने अपने को नहीं पाया था, या वे पांडवों के इस वैराग्य के जरिये किसी ऐसी सामाजिक व्यवस्था की ओर बढ़ने का संदेश देना चाहते है जो राज्य-विहीन मानव की स्वातंत्र्य सत्ता पर टिकी समाज-व्यवस्था हो । व्यास ने महाभारम के आदि पर्व में ही एक जगह शैवमत के भैरव-भाव के प्रतीक, पाशुपत की चर्चा की हैं, लेकिन उसके साथ वे उसे राजसत्ता के किसी भी रूप को जोड़ने के बजाय न्याय, शिक्षा और स्वास्थ्य की तरह के आत्म-सत्ता के पक्षों से जोड़ कर पेश करते हैं ।
“न्यायशिक्षाचिकित्सा च दानं पाशुपतं“ । इसे मनुष्य के किसी भी राजसत्ता से, हर बंधन से मुक्ति के भाव को राजनीति के धरातल पर राज्य-विहीन साम्यवादी समाज की परिकल्पना का संकेत भी कहा जा सकता है ।
बदउ के उपरोक्त नाटक में क्रांति के बाद की आगे की कहानी भी है । क्रांति का नेता कमिउ तैयार नहीं था पुनर्निर्माण की एक धीमी और निरंतर जारी उबाऊ प्रक्रिया के बीच से आने वाली अनिवार्य विफलता को अपनाने के लिये । लेकिन क्रांति की इस आंतरिक कमजोरी के साथ ही, इस नाटक में उसकी विफलता का आगे एक और, दूसरा आख्यान भी आता है, जब क्रांति के बाद के नये शासक डेविड की मां पौला उससे कहती है — 'तुम सत्ता छोड़ दो ।'
डेविड मां से कहता है कि 'तुम मेरी मां होकर प्रति-क्रांतिकारी काम क्यों कर रही हो',
तो पौला उसे कहती है — “प्रति-क्रांति तुम हो । तुमने न्याय के सारे बोध को गंवा दिया है । तुम्हारी राजनीति कुत्सित है ।...सुनो । ...हमारी परिकल्पना, सिद्धांततः, यह नहीं थी कि हम एक अच्छी सरकार की समस्याओँ का समाधान करेंगे ।...हमने कहा था कि दुनिया एक ऐसी नीति के रास्ते पर चल सकती है जिसे बदला जा सकता है, राजनीति को ही खत्म कर देने वाली नीति । ...उस परिकल्पना के ऐतिहासिक स्वरूप को राजसत्ता ने निगल लिया है । एक मुक्तिदायी संगठन का राजसत्ता में विलय हो गया है । ...कोई भी सही नीति यह दावा नहीं कर सकती है कि वह अब तक किये जा चुके कामों की ही निरंतरता है । हमारा उद्देश्य एक बार और हमेशा के लिये उस चेतना को मुक्त कर देने का है जो न्याय, समानता को कायम करती है और राजसत्ता और दरबारों की साजिशों का हमेशा के लिये अंत करती है, और उस बची हुई जमीन का भी सफाया करती है जिससे पैदा होने वाली सत्ता की लिप्सा आदमी ऊर्जा के प्रत्येक रूप को लील लेती है ।”
...डेविड मां से कहता है — “दुनिया हमेशा के लिये बदल गई है । विश्वास करो । मेरी प्यारी मां तुम चीजों को नीचे से देख रही हो । तुम निर्णय लेने वालों में नहीं हो ।”
“पौला — यही पुरानी आजमाई हुई चाल है ।... जरूर तुम कुछ नया करोगे । तुम सूरज को भूरे रंग से रंग दोगे ।”
इसी सिलसिले में बौखला कर डेविड मां से पूछता है — कहो तो, तुम कौन हो ? ...तुम निश्चय ही हमें और शक्तिशाली बनने के लिये नहीं कह रही हो । बल्कि हमें सत्ता को त्याग देने, आने वाले लंबे काल के लिये उसे छोड़ देने के लिये कह रही हो ।
तो पौला कहती है, “मानव जाति की महानता सत्ता में नहीं है । बिना परों वाले दोपाये का खुद पर नियंत्रण हो, और वह, जो उतना संभव भी नहीं लगता, प्रकृति के सभी नियमों, इतिहास के सभी नियमों के खिलाफ जाए और उस राह पर चले जिसमें हर व्यक्ति प्रत्येक के प्रति समान होगा । सिर्फ कानून में नहीं, भौतिक यथार्थ में भी।” (जोर हमारा)
इसपर डेविड कहता है, “ तुम इतनी पागल हो !”
पौला कहती है — “नहीं, मैं नहीं । मैं तुमसे कहूंगी सारे उन्माद को छोड़ो । तुम्हें बहुत धीर-स्थिर हो कर निर्णय करना है । जो भी व्यक्ति मरीचिका के पीछे भागता है, वह यह नहीं समझ सकता है । विजय और समग्रता के प्रति अपने आग्रह को भूल जाओ । वैविध्य के सूत्र को पकड़ कर चलो ।”
...“राजनीति का अर्थ एक राजनीतिक भविष्य दृष्टि के आधार पर इकट्ठा होना है ताकि आदमी राजसत्ता की मानसिक जकड़बंदी से मुक्त रह सके ।” (वही, पृष्ठ – 15-22) (जोर हमारा)
(Our hypothesis was not, in theory, that we were going to resolve the problem of good government…We said that the world could stand the trajectory of a policy that could be reversed…Historical realization of that hypothesis was swallowed up by the state. A liberating organisation merged completely into the state…No correct policy can now argue that it is a continuation of the work that has already been done. Our mission is to unseal, once and for all, the consciousness that organises justice, equality, the end of states and imperial rackets, and the residual platform where the concern for power sucks in every form of energy…Of course you’ll do something new. You’ll paint the surface of the sun grey…Power is not the mark of the human race’s greatness. The featherless biped must get a grip on himself and, unlikely as it seems, go against all the laws of nature and all the laws of history, and follow the path that means that anyone will be equal of everyone…For anyone who gives in to the passion for images, it is incomprehensible. Forget about the obsession with conquest and totality. Follow the thread of multiplicity…Politics means uniting around a political vision that escapes the mental hold of the state.)
अभिनवगुप्त का भैरव भाव क्या है ? अंतहीन लालसाओं से भरे स्वातंत्र्य का वह भाव जो किसी से कोई अपेक्षा नहीं रखता है । यह नाउम्मीदी का साहस है । सुविधा के लिये इसे एक सच्ची सर्वहारा चेतना भी कह सकते हैं । अभिनव अपने तंत्रालोक को परम भोग और परम त्याग का दर्शन कहते हैं । बदउ की कम्युनिस्ट परियोजना में प्रत्येक निर्लोभी और स्वतंत्र मनुष्य की समानता की कामना और विजय और समग्रता के आग्रह को छोड़ कर वैविध्य के सूत्र को पकड़ने का जो मंत्र दिया गया है, उसी 'विभिन्नस्य भावौघस्यापि सङ्गति:', वैविध्य के भाव से संगति की बात अभिनव कहते हैं । तंत्रालोक इसी वैविध्य को अपनी चेतना शक्ति में समाहित करने की प्रक्रिया का, तर्क की एक विधि से विकल्पों के संस्कार अर्थात द्वंद्वों का निवारण करते हुए ज्ञान के सोपानों पर चढ़ने और फिर चेतना-शक्ति के स्फुरण की, कहा जा सकता है मनुष्य की रचना-प्रक्रिया पर समग्र विमर्श की एक महान कृति है । संस्कार की इस प्रक्रिया में द्वंद्व द्वंद्व नहीं रहते, विमर्श बन जाते हैं । यह अपने आप से एक प्रकार का प्रत्यवमर्श भी होता है । दुविधा एक बंधन, बद्धता है । द्वंद्वों, दुविधाओं से सत्तर्क मुक्त अभेद चेतना शक्ति के प्रहार से भेद की जमीन तोड़ कर ही स्फुटता, रचनात्मकता का उदय होता है । जड़ता टूटती है और रचनात्मकता का विस्फोट होता है ।
बदउ के नाटक के उपरोक्त पूरे प्रसंग को हम अपने यहां आजादी की लड़ाई के महानायक गांधी पर पूरी तरह से घटित होते देख सकते है । लड़ाई के दौर में हमेशा नेतृत्व की कमान थामे रहने वाला, खुद को डिक्टेटर तक कहने वाला वह नायक आजादी के ठीक बाद अपने को नई राजसत्ता के खेल में पूरी तरह से अनुपयुक्त पाता है और उससे विरत हो जाता है। वह गुलामी की जंजीर को तोड़ने आया था, उसे तोड़ दिया । अब आजाद भारत का नया राज्य बनेगा, नई जंजीरें तैयार होगी, बापू उसमें क्यों शामिल होंगे ! वे देख रहे थे जीत के बाद आगे सिर्फ हार खड़ी प्रतीक्षा कर रही है — फौरन नहीं, धीरे-धीरे । इस पराजय को सबको मानना होगा क्योंकि यह निर्रथक पराजय नहीं होगी, एक प्रकार के स्वातंत्र्य से स्फूरित पराजय, जीवन में किंचित शांति लाने और राज्य को मजबूत करने वाली पराजय । गांधी इस पराजय के गौरव को दूसरों के लिये छोड़ने को तैयार थे क्योंकि नाफरमानी के उनके विचार क्यों किसी के भी फरमान को मानने के लिये मजबूर हो ! वे आजादी की लड़ाई के उत्साह की समाप्ति के बाद की लोगों की तिरछी नजरों की कल्पना कर पा रहे थे और अपने को उन बुरी नजरों के वृत्त के बाहर रखना ही श्रेयस्कर समझते थे । उन्होंने अपने जीवन को ही अपना संदेश कह कर राजनीति मात्र को उस भविष्य दृष्टि का रूप देने की बात कही जो नैतिक स्वातंत्र्य के बल पर आदमी को राजसत्ता के मानसिक दबावों से मुक्त रहने की ताकत देती है, नाफरमानी की ताकत देती है, जैसा कि बदउ के नाटक में डेविड की मां पौला उससे कहती है । रूस में क्रांति के पहले लेनिन ने एक बार चिंतित हो कर त्रातस्की के पूछा था कि यदि क्रांति विफल हो जाती है तो क्या होगा, तो त्रातस्की का जवाब था, यदि क्रांति सफल हो जाती है तो क्या होगा ?
इसी पूरे प्रसंग, क्रांति और उसके बाद फिर एक नये राज्य के निर्माण के दोहराव की त्रासदी के अतिरिक्त एक तीसरा पहलू भी हो सकता है, जिससे इस पूरे विमर्श का त्रिक बनता है, वह यह कि शुरू में ही जनरोष किसी संगठित शक्ति के अभाव में बदलाव की कोई शक्ल न ले और सिर्फ अराजकता पैदा करके बिखर जाए, जैसा हमने खास तौर पर अफ्रीका और मध्य एशिया के अरब वसंत (2010-2014) के तूफानी घटना क्रम में देखा । यह राजसत्ता-केंद्रित परिवर्तन की पूरी त्रासदी का वह पहलू है जो आदमी के सामयिक क्रोध की तरह भड़कता है लेकिन कोई विवेकपूर्ण रूप नहीं ले पाता है बल्कि और भी पतन की दिशा में बढ़ जाता है — कांग्रेस के भ्रष्टाचार के खिलाफ रोष से मोदी की तरह के सांप्रदायिक फासीवादी तुगलक के शासन का उदय भी एक ऐसा ही उदाहरण है । स्तालिन ने जब कम्युनिस्ट आंदोलन में वामपंथी और दक्षिणपंथी, दोनों प्रकार के विचारधारात्मक भटकावों को समान रूप से गलत बताया था तो वे भी साम्यवादी परिप्रेक्ष्य की दिशा में लगातार बढ़ने के लिये कहीं न कहीं एक सही और स्वतंत्र विवेक को हासिल करने की बात कह रहे थे । यह दूसरी बात है कि इन्हीं स्तालिन ने इस राजनीतिक विवेक के केंद्र में राजसत्ता के प्रयोग को रख कर ऐसी अतियां कर दी, जो बदउ की पौला के शब्दों में क्रांति को ही न्याय के बोध से शून्य प्रतिक्रांति का प्रतिरूप बना देती है । मूल बात यह है कि मुक्ति की राजनीति के सामने राजसत्ता का दमन जितना बड़ा शत्रु नहीं है, उससे कहीं बड़ा शत्रु उसमें लालसाओं का अंत हो जाना, 'कुछ भी नहीं होगा' के नकारवाद और उस खोखलेपन से पैदा होने वाली अमानुषिक निष्ठुरता है । विमर्श ही आदमी के अंतर के शून्य को भरने का और मानव-कल्याण के समताकारी व्योम से उसके लय का, संगति बनाये रखने का अकेला साधन है ।
कहना न होगा, ब्लाग लेखन से एक प्रकार के ऐसे ही निरंतर विमर्श के बीच बने रहने का, अपने स्वातंत्र्य के बल पर नई राजनीति और समाज-नीति की दिशा में योगदान का हमें जो मौका मिला है, उसी के प्रतिफल को आप इन सभी खंडों में समाहित वैविध्यपूर्ण विषयों के आवर्त्तों की एकलयता में देख सकते हैं । इनसे आज के समय के इस जरूरी विमर्श की ऐतिहासिकता का अगर कोई स्वरूप बन सके तो हम उसे ही अपने कार्य की एक बड़ी सफलता मानेंगे । हमें पूरी उम्मीद है कि इस प्रकार के एक वैचित्र्यपूर्ण संकलन को पाठकों की भी स्वीकृति मिलेगी ।
विगत चार साल के नियमित लेखन से बने इन वार्षिक खंडों को प्रकाशित करने के मामले में प्रशांत बिस्सा जी ने जिस प्रकार के भारी उत्साह का परिचय दिया है इसके लिये उनके प्रति आभारी हूं । उनका उत्साह हमारे लिये इस प्रकार के लेखन को पाठक की स्वीकृति का भी एक गवाह रहा है । और सरला की भूमिका का जिक्र क्या करूं, वह इस प्रकार के पूरे काम के उत्सव के एक आश्रय-स्थल की तरह है, जिसके बिना ऐसे किसी उल्लास की संभावना ही नहीं बनती है ।
10 नवंबर 2017. अरुण माहेश्वरी
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