(जॉक लकान के मनोविश्लेषण के सिद्धांतों पर केंद्रित एक विमर्श की प्रस्तावना)
—अरुण माहेश्वरी
जाक लकान
(13 अप्रैल 1901 — 9 सितंबर 1981)
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जॉक लकान का जन्म 13 अप्रैल 1901 के दिन पैरिस के एक समृद्ध परिवार में हुआ था । पिता आल्फ्रेड लकान और मां एमिली बौद्री, दोनों ही पक्के कैथोलिक विचारों के थे । पैरिस के जाने-माने Stanislas College में 1907 में उनका दाखिला हुआ जहां बड़े लोगों के बच्चे ही शिक्षा पाया करते थे । बेहद धार्मिक और पारंपरिक रूढ़ियों के साथ 1919 में उनकी शिक्षा पूरी हुई ।
Collège Stanislas de Paris
आईपीए की एक कांग्रेस में शामिल सदस्य और आईपीए का लोगो
प्रथम विश्वयुद्ध के समय 1915 में लकान के पिता आल्फ्रेड सेना में सर्जेंट बने और जॉक के कालेज का एक हिस्सा जख्मी सैनिकों के अस्पताल में बदल दिया गया था । उसी काल में लकान ने बेनेडिक्ट स्पीनोजा (1632-1677) को पढ़ना शुरू किया, जिनके बारे में फायरबाख ने 1843 में लिखा था कि स्पिनोजा की शिक्षाएं आधुनिक युग की भौतिकवादी अवधारणाओं की एक अभिव्यक्ति है । ("an expression of the materialistic conceptions of the modern age." ) प्रसिद्ध मार्क्सवादी चिंतक प्लेखनोव ने मार्क्सवाद को स्पिनोजावाद का आधुनिक रूप तक कह दिया था ।
स्पिनोजा
एक जाने-माने कैथोलिक विचारक ज्यां बारूजी ने लकान को दर्शनशास्त्र की शिक्षा दी । बारुजी ने ज्ञानोदय-विरोधी प्रसिद्ध ईसाई रहस्यवादी दार्शनिक और पादरी सेंट जॉन आफ क्रास (1542-1591) पर अपना काम किया था । कहा जाता है कि सेंट जॉन को प्रार्थना के समय सलीब पर लटके ईसा मसीह दिखाई दिये थे । उसी के आधार पर उन्होंने ऊपर से सलीब पर लटके ईसा मसीह का एक चित्र बनाया था । अपने इसी कृतित्व की वजह से वे ईसाई धर्म के इतिहास में सेंट जान आफ क्रास के नाम से प्रसिद्ध हो गये ।
सेंट जोन आफ क्रास
बहरहाल, 1918 तक आते-आते जॉक लकान के कदम पैरिस की प्रसिद्ध प्रकाशक सिल्विया बीच की पुस्तकों की दुकान ‘शेक्सपियर एंड कंपनी’ में पड़ने लगे थे । सिल्विया बीच ने ही जेम्स जॉयस की 'यूलिसिस' का प्रकाशन किया था । हेमिंग्वे की पहली किताब ‘Three stories and ten poems’ के प्रकाशन के लिये भी सिल्विया बीच के प्रोत्साहन की बात कही जाती है । इस दुकान पर पैरिस के तमाम बौद्धिक इकट्ठा हुआ करते थे । वहीं से लकान में परंपरा-भंजक दादाइज्म और अवां-गर्द आंदोलन के प्रति गहरा आकर्षण पैदा हुआ ।
सिल्विया बीच, जेम्स जॉयस और शेक्सपियर एंड कंपनी की दुकान
1919 में कालेज की शिक्षा पूरी करने के बाद लकान डाक्टरी की पढ़ाई के लिये पैरिस मेडिकल फैकल्टी में भर्ती हुए । 1920 में उनकी मुलाकात अति यथार्थवादी लेखक आंद्रे ब्रेतां से हुई और अतियथार्थवादी (Surrealist) आंदोलन के प्रति भी उनमें गहरी दिलचस्पी पैदा हो गई । लकान दुबले-पतले आदमी थे, इसीलिये उन्हें सेना में नहीं रखा गया । पैरिस की शेक्सपियर ऐंड कंपनी में ही 7 दिसंबर 1921 के दिन लकान ने जेम्स जॉयस के मुंह से युलिसिस का पाठ भी सुना था ।
आंद्रे ब्रेतां और सरियलिस्ट आंदोलन के उनके मित्र
सेंट अणे हास्पीटल, पैरिस
लकान की 1930 में प्रसिद्ध अतियथार्थवादी चित्रकार सल्वाडोर डाली (1904-1989) से मुलाकात हुई । उनका एक सबसे प्रसिद्ध चित्र है — The persistance of Memory (स्मृति का हठ) । लकान के कला प्रेम और छवियों, तस्वीरों, बिंबों के संसार के साथ उनके विशेष संपर्क की जीवन-दृष्टि का बीजारोपण वस्तुतः यहीं से होता है ।
सल्वाडोर डाली और उनका प्रसिद्ध चित्र ‘स्मृति का हठ’
लकान के विश्लेषण के औजार और उनकी महत्ता
लंबे समय तक पैरिस के बौद्धिक जगत में लकान की पहचान कला कृतियों के एक उत्साही संग्रहकर्ता, वास्तुकला, मूर्तिकला, चित्रकला और फिल्मों पर, पाषाणयुग की प्राचीन गुफाओं से लेकर मध्ययुग के गिरजाघरों तथा रैनेसांस के चित्रों से लेकर समकालीन कला तक पर पत्र-पत्रिकाओं में गाहे-बगाहे टिप्पणियां करने वाले कला समीक्षक के रूप में भी रही । (देखें -Steven Z. Levine : Lacan Reframed, 2008, I.B.Tauris & Co. Ltd, London)
इस मामले में यह कहा जा सकता है कि लकान को कला-प्रेम भी मानो मनोविश्लेषण की तरह फ्रायड के कला-प्रेम से विरासत के तौर पर मिला था । फ्रायड ने लियोनार्दो द विंची के बचपन पर उनकी कलाकृतियों का विश्लेषण करते हुए एक पूरी किताब ही लिखी थी — Leonardo da Vinci and A Memory of His Childhood (1910) । फ्रायड जब हिटलर के काल में वियेना से भाग कर लंदन आकर बसे थे (6 जून 1938) तब कहा जाता है कि वे अपने साथ कलाकृतियों का एक अच्छा खासा खजाना भी लेकर आए थे । (देखें जोनाथन जोन्स का लेख — Art on the couch: when Sigmund Freud examined Leonardo da Vinci
The father of psychoanalysis was also an inspiring writer on art – but do his ideas stand the test of time?) फ्रायड ने लियोनार्दो द विंची के साथ ही मीकेलेंजोलो बनोरोती की कलाकृतियों पर भी लेखन किया था, जिसकी तब काफी चर्चा भी रही थी ।
पैरिस में लकान की मित्र मंडली के कुछ सदस्य और लियोनार्दो द विंची ; आंद्रे ब्रेतां, जेम्स जॉयस, क्लाद लेवी स्ट्रास, आंद्रे मैसोन, लुई आल्थूसर
लकान ने फ्रायड के काम को जितना भी आगे क्यों न बढ़ाया हो, उनके कामों को देखते हुए यह बात बेहिचक कही जा सकती है कि वास्तव में वे सारी जिंदगी अपने गुरू के ही मूलभूत विश्लेषणों और स्थापनाओं को जांचते-टटोलते रहे ; उनकी कमियों को दूर करने अथवा उनके निष्कर्षों को अद्यतन करने के काम में ही लगे रहे । आज भले ही स्लावोय जिजेक, ऐलेन बाद्यू की तरह के दार्शनिक अपने को लकानपंथी कहते हैं, लकान खुद घोषित तौर पर हमेशा फ्रायडपंथी ही रहे ।
ऐलेन मिलर
लकान के अंतिम तीस साल के सेमिनारों के वक्तव्यों को लिप्यांतरित करके उनके वक्तव्यों और लेखों का एक भारी भरकम संकलन फ्रेंच भाषा में 1966 में प्रकाशित हुआ था जो अंग्रेजी में 1977 में आया । इन भाषणों में अनायास ही कला कृतियों के विश्लेषणों के अनेक संदर्भ आते हैं जिन पर उन्होंने अलग से कभी विस्तार से नहीं लिखा था । इस प्रकार के संदर्भों से उनका पूरा लेखन बेहद गर्हित, सांद्र और कठिन भी होता चला गया । लकान इन्हीं सारे संदर्भों का पेरिस में मनोवैज्ञानिकों, दार्शनिकों, कवियों, चित्रकारों और अन्य जिज्ञासु श्रोताओं से भरे अपने सेमिनारों (1953-1980) में भी भरपूर इस्तेमाल किया करते थे और श्रोता उनके भाषणों के बहुस्तरीय गहन स्वरूप पर मंत्रमुग्ध हो जाया करते थे । कहा जाता है कि उन सेमिनारों में उनके चमत्कृत करने वाले वक्तव्यों के पाठ से पैदा हुई जिज्ञासाओं के चलते श्रोताओं में उनके आगे और विश्लेषणों से समृद्ध होने की भारी ललक पैदा होती थी और यही वजह थी कि उनके सेमिनारों को सुनने वालों की भीड़ लगातार बढ़ती ही जाती थी ।
मार्क्सवादी दार्शनिक लुई आल्थुसर ने 1964-68 के काल में उच्च शिक्षा के प्रतिष्ठित पैरिस केंद्र (Parisian centre of higher learning) में उनके कई सेमिनार कराए थे, लेकिन जब 1968 के मई महीने में लकान ने फ्रांस के छात्रों के ऐतिहासिक संघर्ष को अपना खुला समर्थन दिया, तबसे उन्हें उस संस्था के कक्ष में सेमिनार करने से रोक दिया गया । इसके बाद विश्व प्रसिद्ध सांस्कृतिक मानवशास्त्री (Cultural Anthropologist) लेवी स्ट्रास लकान के जीवन के अंतिम काल तक उन्हें पैरिस विश्वविद्यालय में कानून की कक्षाओं में सेमिनारों के लिये के बुलाते रहे ।
मौरिस मार्ले पौंटी, मिशेल फुको, जॉक दरीदा, हेलेन सिकोस, जॉक लकान सेमिनार में, रोलाँ बार्थ लूसे इरिगेरे, जूलिया क्रिस्तेवा
लकान के इस बेहिसाब कठिन लेखन को आम तौर पर दृश्य कला के छात्र बड़े चाव और गंभीरता से पढ़ा करते हैं । इसका एक प्रमुख कारण किसी भी बौद्धिक की तरह ही यह भी रहता है कि वे इसके जरिये जीवन को और उसे जीने के तरीकों के मूल को जानना चाहते हैं । यह किसी भी मानव प्राणी के लिये एक बुनियादी महत्व का विषय है । लकान के सेमिनारों से इस एक सवाल के ही बहुत रचनात्मक जवाब मिलते हैं, क्योंकि हम जिस प्रकार जी रहे हैं, इन सेमिनारों में वे वस्तुतः उसी के पीछे के मनोवैज्ञानिक कारणों का विश्लेषण पेश किया करते थे ।
(क्रमशः)
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