मंगलवार, 14 अप्रैल 2020

अथातो चित्त जिज्ञासा - 9

(जॉक लकान के मनोविश्लेषण के सिद्धांतों पर केंद्रित एक विमर्श की प्रस्तावना)

—अरुण माहेश्वरी
 

जाक लकान
(13 अप्रैल 1901 — 9 सितंबर 1981)

(9)

लकानियन विश्लेषण के आधारभूत स्तम्भ

(क) डर


मनोविश्लेषण के लकानियन सिद्धांतों के निरूपण में केंद्रीय रूप से कौन सी स्थितियां और लक्षण प्रमुख रहे हैं, उनके बारे में हमारी जिज्ञासा का यह एक पहला पड़ाव है ।

अब तक की पूरी चर्चा से यह साफ देखा जा सकता है कि आदमी के चित्त को संचालित करने, व्यग्र करने वाला एक परासत्य, अनेक प्रकार के मूर्त रूपों में सामने आने वाली उसकी छवियां, आदमी पर किसी 'अन्य' का दबाव — यही है जो चित्त की खाली पट्टी पर तमाम प्रकार के भावों, विचारों की भाषाई आकृतियों को लिखा करते हैं । इस प्रकार एक खाली पृष्ठ पर अदृश्य कलम की नोक के दबाव को ही दबाव होने के नाते ही एक डर भी कहा जा सकता है ।

इस मन के डर, आदमी की व्यग्रता और उसके अंदर के उद्वेलन के मायने क्या होते हैं ? इसी के अर्थ की तलाश से शुरू करके लकान ने आगे अपने अध्ययन से इससे जुड़े संरचनात्मक भाषाशास्त्र को किस प्रकार फ्रायडवाद से जोड़ा, किसी भी शिशु मन के निर्माण का प्रतिबिंब चरण (mirror stage) क्या है, आदमी के अहम् (Ego) और उसकी पहचान (Identity) का निर्माण कैसे होता है और उसके मनोजगत की गति के नियम क्या हैं — इन सब विषयों पर उनके अभिनव विचारों को सिलसिलेवार तरीके से गहराई से देखने समझने की जरूरत है । एक तत्त्व डर का संरचनामूलक आत्मिक विस्तार । इस प्रक्रिया की समझ से ही यह जाहिर हो पायेगा कि लकान के मनोविश्लेषण के निष्कर्षों ने क्यों और कैसे साहित्य, कला, दर्शन और नारीवाद आदि की तरह के अस्मिता से जुड़े तमाम उत्तर-आधुनिक विमर्शों तक पर कैसे गहरा असर डाला है । इसमें सबसे बड़ी बात यह है, जैसा कि हमने पहले भी कहा है, उनके सिद्धांत सिर्फ किसी बौद्धिक विमर्श की उपज नहीं हैं । वे मनोरोगियों से वार्ताओं के विश्लेषणों के ठोस आधार पर स्थित है, अर्थात्, एक प्रकार से मानव-मन की प्रयोगशाला से नि:सृत है । हमारे लिए जरूरत इस बात की है कि उनके तमाम बेहद जटिल और गहन सूत्रों के खोल कर किंचित आसान करके समझा जाए ।


हम पहले ही इस बात का जिक्र कर आए है कि जाक लकान प्रसिद्ध अतियथार्थवादी स्पैनिश लेखक आंद्रे ब्रेतां और कलाकार सल्वाडोर डाली के मित्र थे और पाब्लो पिकासो के निजी चिकित्सक भी । 1930 के दशक के शुरू में वे अतियथार्थवादी पत्रिकाओं के नियमित लेखक हुआ करते थे । सन् 1926 में पेरिस के सेंट अणे अस्पताल में और 1928 में Special Infirmary Police prefecture alienate में मनोरोगियों पर काम करते वक्त ही लकान में आदमी के डर, उसकी व्यग्रता की ग्रंथी के बारे में अध्ययन करने की इच्छा पैदा हुई थी । उसी दौरान लगभग तीस मनोरोगियों के विश्लेषण के आधार पर उन्होंने 'व्यक्तित्व के साथ संबंधों के संदर्भ में डर के मनोरोग के बारे में' (On Paranoid Psychosis in its Relations with the Personality) ( De la psychose paranoiaque dans rapports avec la personnalite) अपना शोधपत्र लिखा था । चूंकि अतियथार्थवादी चित्रकार सल्वाडोर डाली से लकान की गहरी दोस्ती थी और उसी बीच सल्वाडोर डाली की एक किताब 'critical paranoia' आ चुकी थी, इसीलिये कुछ हलकों से डर के मनोविज्ञान के बारे में लकान की रुचि को सल्वाडोर डाली से जोड़ा जाने लगा था । इस भ्रम को दूर करने के लिये ही लकान ने बहुत साफ तौर पर इस मामले में अपने गुरू के तौर पर 'Psychosis of Passion' (जुनून का पागलपन) (1921)  पुस्तक के लेखक गेएतो गेशियेन द क्लिरेंबो (Gatian de Clerambault) का उल्लेख किया था । लकान का कहना था कि क्लिरेंबो की मानसिक स्वयंक्रिया (mental automatism) के बारे में यांत्रिक और त्रुटिपूर्ण समझ भी आदमी के आत्मजगत की संरचना को पढ़ने के मामले में फ्रांसीसी मनोविज्ञान की दूसरी किसी भी व्यवहारिक धारा से उन्हें ज्यादा उपयोगी लगी थी । (देखें, Jacques Lacan, Ecrits, page – 65) इस प्रकार शुरू से ही लकान ने ज्ञान के दूसरे अनेक क्षेत्रों से अन्तरक्रिया करते हुए भी मूलतः खुद को मनोविश्लेषण के क्षेत्र की परंपरा पर ही आधारित किया था । ‘यो यदात्मकतानिष्ठस्तद्भावं स प्रपद्यते ।’ (जो साधक जिस भुवन की स्वरूपता के प्रति निष्ठा रखता है वह उसी रूप में सिद्धि प्राप्त करता है ।)


लकान ने खुद अपने पर्यवेक्षणों के शुरू में ही आदमी में इस प्रकार की 'मानसिक स्वयंक्रिया' (mental automatism) की प्रक्रिया को लक्षित किया — एक ऐसी स्थिति जब आदमी पर कोई नियंत्रण नहीं रह जाता है, वह अपनी ही स्वतंत्र गति से चलता जाता है । इसी से विक्षिप्तता और पागलपन के नाना रूपों का एक सामान्य ढांचा तैयार होता है जिसमें आदमी जैसे इस जगत के ‘बाहर से’ संचालित होने लगता है । यह बाहरी शक्ति किन्हीं विचारों की गूंज हो सकती है अथवा ‘अन्य‘ के द्वारा की गयी टीका-टिप्पणी भी । वह जो दैनंदिन चर्या में प्रत्यक्ष नहीं होता, भाव जगत की वस्तु होता है ।


गेएतो गेशियेन द क्लिरेंबो

सवाल उठता है कि जिन तत्वों का कोई ठोस अस्तित्व ही नहीं है, वे कैसे प्रभावशाली हो जाते हैं, और आदमी को अपनी गिरफ्त में ले लेते हैं ? लकान ने पाया कि साहित्य के संरचनावादी सिद्धांत से आदमी के इस मनोविज्ञान के सूत्र मिल सकते हैं जिसमें व्यक्ति की सचेतनता पर अन्य सामाजिक स्तर पर औपचारिक रूप से मान्य तत्वों को, नीति-नैतिकताओं को लागू करके विषय को विश्लेषित किया जाता है । इसे ही लकान ने डर (Paranoia) के रूप, चित्त से जुड़ी और उसे दबाव में रखने वाली कुछ अन्य संरचनाओं के रूप में देखा था । बाद के दिनों में अपने Ecrits के पहले, भूमिकामूलक प्रसिद्ध लेख — Seminar on “The Purloined Letter” में अपने संकेत सिद्धांत की रूपरेखा को रखते हुए वे कहते हैं कि इन संकेतकों की श्रृंखला का लगातार दबाव ही आदमी की अपनी स्वतःस्फूर्त क्रियाओं के दोहराव का कारण होता है । यदि हमें फ्रायड की अवचेतन की खोज का आदमी में पता लगाना है तो इसे उसके अस्तित्व से अलग करके देखना चाहिए । प्रतीकात्मकता आदमी के गहरे पैठी हुई उसकी एक प्रकार की अन्य, तिरछी नजर होती है । दैनन्दिन स्वतःस्फूर्त क्रियाओं के दोहराव में व्यक्ति संकेतों की तंग गलियों का अनुसरण करता रहता है, उन संकेतों के औजारों और उनके दबावों के बोझ को ढोता हुआ शुतुरमुर्ग की तरह सिर गाड़े हुए अपने से ही बात करता है । (Ecrits, page – 11-12)


बहरहाल, क्लिरेंबो मनोविश्लेषण की फ्रांसीसी परंपरा से गहराई से परिचित थे इसीलिये अपनी पैनी नजर और अपने वैचारिक रूझानों के चलते ही वे इसमें मनोरोग के क्लिनिक की संभावना को देख पाए थे । कहां आदमी उस दोहराव से अपने को काटता है, इसकी सिनाख्त करने के तरीके के तौर पर । लकान का कहना था कि शायद एक कारण यह भी था कि उनका खुद का रूझान फ्रायड की ओर हो गया था । “रोगी की जांच से मिलने वाले लक्षणों के औपचारिक स्वरूप पर विश्वास के कारण ही मैं उसे, उस संरचना को, समझने लगा था और विभिन्न रचनात्मक रूपों में इसकी अभिव्यक्ति की सीमाओं को देख पा रहा था ।” (वही – 66)



इस विषय पर लकान की 1932 की थिसिस में जो अध्ययन पेश किया गया, उसका कला और साहित्य के तत्कालीन अतियथार्थवादी (surrealist)  विचारों पर काफी गहरा असर पड़ा था । सल्वाडोर डाली ने अपनी पत्रिका Surrealist Review (Minotaure) के 1933 के पहले अंक में ही उसकी चर्चा की थी ।  लकान इस पत्रिका में अक्सर लिखा करते थे । लकान ने अपनी थिसिस में जिस मनोरोगी ऐमी के मामले का विस्तार से जिक्र किया था उसमें उन्होंने उसके बारे में पॉल एलुआर्द की एक कविता का भी प्रयोग किया था ।


ऐमी को एलुआर्द ने अपने अप्रकाशित उपन्यास की नायिका बनाया था जिसने पैरिस की एक प्रसिद्ध अभिनेत्री युगेट डफल्स (Huguette Duflos)  को छुरा मारने की कोशिश की थी । यह मामला तब पेरिस के सारे अखबारों में चर्चा का सरगर्म विषय था । लकान ने ऐमी के इस पागलपन के पीछे काम कर रहे कारणों को टुकड़ों-टुकड़ों में जोड़ कर समझने की कोशिश की थी । उनकी इस थिसिस ने मनोरोग के पर्यावरण की एक बिल्कुल नई अवधारणा पेश की । लकान का निष्कर्ष था कि उस अभिनेत्री पर हमला करके ऐमी ने दरअसल खुद पर ही प्रहार किया था ।

युगेट डफल्स

ऐमी की शिकार डफल्स स्वतंत्र और सामाजिक मान-सम्मान वाली औरतों की एक प्रतीक थी, एक ऐसी औरत, जो खुद ऐमी की अपनी कामना की चीज थी । ऐमी अपने जीवन के कष्टों पर जब भी सोचती थी, डफल्स की सूरत उसके दिमाग में कौंध आया करती थी और इस प्रकार, डफल्स के बार-बार उसके दिमाग में लौटने से क्रमशः वह उसे अपने और अपने जवान बेटे के अस्तित्व के लिये चुनौती और खतरे के रूप में भी देखने लगी थी । इस डर के चलते ही डफल्स उसकी नफरत और कामना, दोनों की एक आदर्श मूर्ति बन गई । लकान की विशेष दिलचस्पी ऐमी के मन में डफल्स की इन दोनों छवियों, उसके डर और उसकी अपनी पहचान की कामना के बीच के जटिल संबंध के बारे में थी । बाद में ऐमी को गिरफ्तार करके जब जेल में रखा गया, उसने पाया कि उसका दंड के रूप में यह उत्पीड़न ही, जिसकी आशंका में उसने डफल्स पर हमला किया था, उसके अपराध का वास्तविक कारण था । एक स्तर पर जाकर उसे महसूस हुआ मानों वह खुद ही अपने इस उत्पीड़न का लक्ष्य थी, यही उसकी कामना थी । 

इस मामले के लकान के विश्लेषण से ऐसे कई पहलू सामने आए थे जो लकान के आगे के अपने कामों के केंद्रीय विषय बनने वाले थे । मसलन्, आदमी की आत्ममुग्धता, उसकी अपनी छवि की चिंता, उसके आदर्श । और, कैसे कोई व्यक्तित्व शरीर की सीमाओं के बाहर तक फैलता है और एक जटिल सामाजिक संजाल के दायरे में निर्मित होता है । वह अभिनेत्री जैसे खुद ऐमी के ही व्यक्तित्व का एक अभिन्न हिस्सा बन गई थी । इससे इस बात के संकेत मिलें कि कैसे एक मनुष्य की अस्मिता में ऐसे सारे तत्व शामिल हो सकते हैं जो उसके शरीर की जैविक सीमाओं के बिल्कुल बाहर के होते हैं । एक अर्थ में, ऐमी की अस्मिता आक्षरिक अर्थ में उसके खुद के शरीर के बाहर स्थित थी । मार्क्स के शब्दों में, विचार मनुष्यों के हृदय में बस कर एक भौतिक शक्ति का रूप ले लेते हैं ।

लकान ने अपनी थिसिस में व्यक्ति पर साहित्य के अवांछित प्रभावों का जिक्र किया है । आदर्शों की भूमिका को वे दोहराव की एक श्रृंखला के तौर पर देखते हैं जिससे वे उस पूरी संरचना की सूरत को देख पाते हैं जो किसी मनोवैज्ञानिक क्लिनिक के ब्यौरों से ज्यादा शिक्षाप्रद होते हैं, क्योंकि उनमें इसे कोरे मनोविकार की एक ग्रंथी बता कर आगे उनकी कोई खास कीमत नहीं लगाई जाती है । (Ecrits – 66)

इसके बारे में लकान लिखते हैं कि ऐमी के दिमाग में उस अभिनेत्री के बारे में एक विभ्रम था । वह सचमुच की एक स्टार भी थी, इसीलिये यह विभ्रम और भी ज्यादा, बल्कि दोहरा था । ऐमी ने उस पर हमला करने की गंभीर कोशिश के लिये जैसे ही उसे छुआ उसके अंदर के विभ्रम की चादर फट गई और उसकी इस हमले की धुन में एक खाईनुमा छंद-पतन के साथ अतिरिक्त तीव्रता का संयोग हुआ । लकान कहते हैं कि “इससे उन्हें रंगमंच पर अभिनय के आवेग की याद आ गई, जिसे आम तौर पर कहा जाता है — 'आत्म-संताप' का अभिनय ; और इसी आत्म-संताप के चालू कथन से मैं मानो किसी अपराध के सुराख को पाकर फ्रायड की ओर बढ़ गया । कैसे ज्ञान और उसकी क्रियात्मकता के बिल्कुल ढर्रेवर स्वरूप से अचानक दूसरी ही क्रिया के प्रमाण मिलने लगते हैं ! इसने लगता है मुझे काफी समृद्ध किया जो कोई भी अकादमिक व्यक्ति, यहां तक कि विद्रोही विचार के अवाँ गर्द भी नहीं कर सकते थे । ज्ञान को जिस प्रकार से उसके रूढ़ रूप और क्रियाओं के आधार पर पेश किया जाता है, वहीं यह उसकी एक दूसरी भूमिका का संकेत देता है जिससे हमें आगे और जानकारी मिलती है । इससे कोई भी शिक्षाशास्त्री, यहां तक कि विद्रोही अवांगर्द भी कन्नी काट जाते हैं । समझने की चीज यह है कि मनोविश्लेषण की चौखट से निकल कर ही शायद मैंने व्यवहारिक प्रयोग के जरिये यह जाना कि ज्ञान से जुड़े आदमी के रूझान कहीं ज्यादा दिलचस्प होते हैं, क्योंकि ये ऐसे हैं, जिन्हें उनके मूल रूप में सुन कर ही दूर कर दिया जाना चाहिए ।” (वही, पृष्ठ – 66)

लकान के इस कथन को क्रांतिकारी रणनीति में सिद्धांत और व्यवहार के योग से, विचार और क्रिया के निरंतर उपक्रम से बनने वाले आगे के पथ की समझ के आधार पर भी समझा जा सकता है । क्रांतिकारी पार्टी अपनी दैनंदिन गतिविधियों से ही क्रांति की समस्याओं का कोई रास्ता निकाल सकती है । (क्रमशः)

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