धरती का पूरब और पश्चिम में बँटवारा उपनिवेशवादियों का मनुष्यों को दिया गया बुनियादी दिग्भ्रम है। पृथ्वी के सच से इसका कोई ताल्लुक़ नहीं है । सूरज धरती के हर कोने में पूरब से उगता है औरपश्चिम में ही अस्त होता है । फिर कौन किसका पूरब और कौन किसका पश्चिम, कैसे तय होगा ? परपृथ्वी का पूरब और पश्चिम में विभाजन का संबंध उसके ठोस यथार्थ से नहीं, उसके विचारधारात्मकपहलुओं से रहा है । इसी का फल था कि मनुष्य-श्रेष्ठ का ‘आर्यात्व’ का सिद्धांत आया जिसके लियेदुनिया को कितनी बड़ी क़ीमत अदा करनी पड़ी, हिटलर का इतिहास बताता है ।
वास्तव में पृथ्वी को उत्तर और दक्षिण में ज़रूर विभाजित किया जा सकता है । उत्तरी और दक्षिणी ध्रुव अटल है । इस विभाजन के भीअपने सैद्धांतिक रूप तैयार किये जा सकते हैं । अभी की तमाम वैश्विक संस्थाएँ इसी आधार पर अपने कामों की दिशा तय करती है ।
भारत में गांधी ने पूरब और पश्चिम के कृत्रिम विभाजन को नहीं स्वीकारा था । पर आरएसएस के संस्थापकों ने आर्य-श्रेष्ठता को मान करपूरब और पश्चिम की धारणा को भी माना था ।
दुनिया में आज उत्तर और दक्षिण विकसित और विकासशील के, शोषक और शोषितों के, प्रभुत्वशाली प्रतिक्रियावाद और स्वतंत्रताकामीप्रगतिशीलता के द्योतक है । पूर्व के काल्पनिक विभाजन का वर्तमान यथार्थ स्वरूप ।
बहरहाल, भारत में भी तमाम सामाजिक सुधारवादी आंदोलन की भूमि दक्षिण भारत रहा है, और उत्तर सांप्रदायिकता की ज़मीन बना हुआहै । ‘हिंदी, हिंदू, हिंदुस्तान’ वाला उत्तर का शासक दल ही अभी पूरे राष्ट्र को अस्त-व्यस्त किए हुए हैं, जो सब विषयों को गड्ड-मज्जा करनेपर तुला हुआ है । जो चाहता है आर्थिक तबाही को हम आर्थिक समृद्धि मानें । वह नौजवानों को काम देने के बजाय ‘सनातन कीश्रेष्ठता’ की तलाश में लगा हुआ है ।
यह स्थान-संबंधी कोई दिग्भ्रम (topological disorientation) है या सीधी भाषा में नेतृत्व की दिशाहीनता है ? इसी सवाल पर प्रसिद्धभाषा़ास्त्री जी एन देवी ने आज के टेलिग्राफ़ में अपने एक अच्छे लेख ‘Loss of direction’ का अंत किया है ।
हम यहाँ उस लेख का लिंक दे रहे हैं :
https://www.telegraphindia.com/opinion/india-is-suffering-from-navigation-impairment/cid/1790910
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