बाबा रामदेव के योग-शिविरों और उनकी पतंजलि संस्था का पिछले दिनों कितना ही फैलाव क्यों न हुआ हो, अपने अनुयायियों की एक फ़ौज तैयार करके उनकी शक्ति के प्रदर्शन और राजनीतिक महत्वाकांक्षाओं से भरे नाना बयानों और अभियानों के ज़रिये उन्होंने पिछले दिनों ख़ुद को एक राजनीतिक ताक़त के रूप में पेश करने की कितनी ही कसरतें क्यों न की हो, सच्चाई यही है कि आज जन-मानस में उनकी वास्तविक छवि अपना व्यवसाय चमकाने के काम में लगे दूसरे किसी भी धूर्त साधू-संन्यासी से भिन्न नहीं है । ख़ास तौर पर, रामदेव की नग्न राजनीतिक महत्वाकांक्षाओं ने संत-महात्मा के उनके नैतिक वलय को पूरी तरह से तार-तार कर दिया है ।
पिछले दिनों केंद्रीय सरकार ने जिस प्रकार बाबा रामदेव के कारोबारों को देश के क़ानून की मर्यादाओं का पालन करने के लिये मजबूर करकेउन्हें उनके देवदूत वाले उच्चासन से नीचे धरती पर उतार दिया, तभी से कांग्रेस दल के प्रति उनका जाती-वैर किसी से छिपा नहीं है । भ्रष्टाचार, कालेधन की उनकी तमाम थोथी बातों के पीछे काम कर रहे नग्न निजी स्वार्थ को हर कोई देख सकता है । दूसरे कई साधन-संपन्न लोगों, कारपोरेट घरानों की तरह वे भी चुनावों आदि के समय अपने धन-बल के प्रयोग से देश की राजनीति को प्रभावित-संचालित करने की हैसियत रखने वाले व्यक्ति के रूप में ख़ुद को प्रक्षेपित करने के मौक़ों की जुगत में है । इसमें वे अपने व्यवसाय के भविष्य को, सरकारी-राजनीतिक संरक्षण से आगे और ज़्यादा निर्भय होकर सही-ग़लत, कुछ भी निःसंकोच करते हुए मुनाफ़े के पहाड़ को जमा करने की संभावनाएँ देखते हैं ।
इन मामलों में जो कारपोरेट घराने अथवा बड़े-बड़े आश्रमों वाले बाबा भी, राजनीति के लंबे अनुभवों से पक चुके हैं, वे अक्सर किसी एक पार्टी या एक पक्ष को ही मदद करने तक सीमित नहीं रहते । राजनीतिक पार्टियों पर किये जाने वाले ख़र्च उनके सकल व्यवसाय की नेट-वर्किंग का एक सामान्य पहलू होता है । इसमें वे किसी को भी जाती-शत्रु या जाती-दोस्त नहीं बनाते । किसी को भी, उसकी हैसियत के अनुसार, प्रसाद बाँटने से परहेज़ भी नहीं करते ।
लेकिन रामदेव की तरह के नव-धनाढ्यों का मामला किंचित भिन्न होता है। चंद दिनों में पैसों की इतनी ताक़त से बौरा जाने की वजह से उनके पैर ज़मीन पर नहीं रहते । उनमें किसी को भी देख लेने का, हर किसी को अपनी जेब में भर लेने का अश्लील उत्साह दिखाई देता है ।
सभी परिपक्व राजनीतिज्ञ इन बातों को भली-भाँति जानते हैं और वे पूँजी के कितने भी बड़े दलाल क्यों न हो, राज्यसत्ता की शक्ति के सामने ऐसे सब 'हैसियतमंदों' के बौनेपन को पहचानते हैं ।
यही वह बिंदु है, जहाँ व्यक्ति राजनीतिज्ञों और व्यक्ति पूँजीपतियों के बीच एक प्रकार का ईर्ष्या-द्वेष बना रहता है । परस्पराश्रित होने पर भी एक-दूसरे की टाँग खींचने का साजिशाना खेल भी उनके बीच चलता रहता है ।
नरेन्द्र मोदी की तरह के सत्ता के घुटे हए खिलाड़ी इन बातों से परिचित न हो, ऐसा नहीं हो सकता । इसके बावजूद, हाल में रामदेव के साथ एक साझा मंच पर उन्होंने जिसप्रकार के 'स्वामि -भक्ति' के गद-गद भाव को व्यक्त किया, वह सचमुच चौंकाने वाला है ।
चुनावों के वक़्त गधे को भी बाप बनाने की राजनीतिज्ञों की तमाम चालों को समझने के बावजूद, बाबा रामदेव सरीखे एक बदनाम, योग और प्रसाधन व्यवसायी के चरणों में नरेन्द्र मोदी का इस क़दर लोटना-पोटना कोरा मिथ्याचार नहीं, बल्कि प्रचार में उतरने के चंद दिनों के अंदर ही उनकी जो दुर्दशा हो रही है, उसका एक बड़ा प्रमाण है । बाबा रामदेव की स्तुति चुनाव में उनके खस्ता हाल, उनके डूबते आत्म-विश्वास का बयान है ।
नरेन्द्र मोदी अपने अंतर की गहराइयों में इस सच को अच्छी तरह जानते है कि जनमत तैयार करने के मामले में रामदेव का अब कौड़ी का मूल्य भी नहीं रह गया है । ऐसे में, उनकी रामदेव वंदना डूबते आदमी की तिनके का सहारा खोजने जैसी बदहवास हरकत है । परस्पर की डूबती नैया को सहारा देने का यह रामदेव-नरेन्द्र मोदी खेल इनमें से किसी के लिये भी फलदायी होगा, विश्वास नहीं होता । तथापि, रामदेव के सामने इस प्रकार माथा टेक कर मोदी जी ने अपने राजनीतिक क़द को और बौना किया है । रामदेव को निश्चित तौर पर इससे आज भी अपनी हैसियत के बने रहने की ख़ुशफ़हमी हो सकती है ।
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