आज अरविंद केजरीवाल की किताब ‘स्वराज’ पढ़ गया। कुछ लोग इसे आम आदमी पार्टी की गीता अथवा घोषणापत्र कह कर प्रचारित कर रहे हैं।
इस किताब को पढ़ने के बाद हमें तो इस बात पर जरा भी विश्वास नहीं होता। हम सोच भी नहीं सकते कि एक इतनी सीमित दृष्टि की किताब कैसे किसी राष्ट्रीय महत्वाकांक्षा वाली पार्टी का कार्यक्रम बन सकती है!
इस किताब का महत्व किसी एनजीओ द्वारा किये गये भारत के पंचायती राज के अध्ययन से अधिक कुछ नहीं है, जिसमें भारत के गांवों के प्रशासन में जन-भागीदारी को सुनिश्चित करने के लिये कुछ ढांचागत सुधारों के सुझाव दिये गये हैं। अधिक से अधिक, इसे Participatory Democracy की समस्याओं के एक सीमित पक्ष का अध्ययन कहा जा सकता है। पंचायती राज में कैसे जनता की भागीदारी सुनिश्चित हो, सरकारी कोष और खर्च के मामलों में जनता की आवाज सुनी जाए और सरकारी अधिकारी तथा जन-प्रतिनिधि जनता के निर्देशों का पालन करें, इसके बारे में इसमें ग्राम सभाओं और उसी तर्ज पर शहरों में मोहल्ला सभाओं को शक्ति प्रदान करने के उपाय कुछ ठोस उदाहरणों के साथ बताये गये हैं। जनतंत्र का अर्थ सिर्फ मतदान का अधिकार नहीं, दैनंदिन शासन का अधिकार है। और इसे सुनिश्चित करने के लिये मौजूदा कानूनों में जिन चंद तब्दीलियों की जरूरत है, यह किताब उसके कुछ पक्षों पर प्रकाश डालती है।
मैं इसे इसलिये सीमित महत्व की किताब कह रहा हूं क्योंकि इससे हमारी अर्थ-व्यवस्था के बारे में श्रीमान केजरीवाल की समग्र समझ का जरा भी परिचय नहीं मिलता। जिसे अर्थ-व्यवस्था के विकास का इंजन कहा जा सकता है, उस औद्योगिक विकास के बारे में इसमें एक शब्द भी नहीं है। न एक शब्द उन सामाजिक-संबंधों के बारे में कहा गया है जो वर्तमान उत्पादन-संबंधों की उपज है। उत्पादन के साधनों पर निजी स्वामित्व, संपत्ति के अधिकार की अनुलंघनियता और तमाम राष्ट्रीय संसाधनों को पूंजीपतियों को सुपुर्द करने की नीतियों के चलते हम मुनाफे पर टिका अपना जो समाज तैयार कर रहे हैं, वही तो हमारी तमाम नीति-नैतिकताओं, संस्कृति और सभ्यता के रूप की जड़ में है। गांव, शहर कुछ भी इस बुनियादी, भौतिक सच्चाई के प्रभावों से मुक्त नहीं रह सकता है।
यहां तक कि गांव के स्तर पर भी सामंती प्रभुत्व को समाप्त करने के बारे में, सच्चे भूमि-सुधार के बारे में इसमें एक शब्द नहीं कहा गया है।
अन्तरराष्ट्रीय आर्थिक नीतियों के बारे में सोच तो शायद इस किताब के लिये दूर-दराज का भी कोई विषय नहीं है!
केजरीवाल की सबसे प्रमुख चिंता भ्रष्टाचार है। और दूसरी चिंता है - नक्सलवाद। इन दोनों में से किसी का भी स्थायी समाधान पूंजीवाद के रहते तो कभी संभव नहीं है।
उन्होंने जिस अमेरिका, स्वीट्जरलैंड और ब्राजील के उदाहरण अपनी इस किताब में दिये हैं, वे समाज भी भ्रष्टाचार और तमाम प्रकार के कदाचारों से मुक्त समाज नहीं है। इन समाजों के यथार्थ के बारे में ऐसे ढेर सारे अध्ययन मौजूद हैं जो केजरीवाल की समझ के विपरीत इन देशों में होने वाले आर्थिक घोटालों, राजनीतिक कदाचारों और सामाजिक विकृतियों की कहानियां कहते हैं।
हमारी राय में तो इतनी सीमित और एनजीओ-छाप समझ के बल पर राष्ट्रीय नीतियों में सुधार के क्षेत्र में केजरीवाल और उनकी पार्टी का रत्ती भर योगदान भी संभव नहीं होगा। वामपंथी पार्टियां, कांग्रेस और दूसरी पार्टियां उनसे अपनी मूलभूत नीतियों के खुलासे की जो मांग कर रही है, वह बेजा नहीं है। ‘स्वराज’ को पढ़ने के बाद तो यह सचमुच एक चिंताजनक बात लगती है।
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