शुक्रवार, 31 जनवरी 2014

‘पथ’ विमर्श



कल 30 जनवरी के मौके पर ‘आनंदबाजार पत्रिका’ में गौतम भद्र का एक लेख छपा था -‘‘पथ पर विचार न करने में खतरा है’’। अभीक दे द्वारा संपादित और संकलित गांधीवादी चिंतक निर्मल कुमार बसु के लेखों के संकलन की एक समीक्षा।

तीन कॉलम की इस समीक्षा के पहले दो कॉलम में गौतम भद्र ने बंगाल में लुप्तप्राय गांधीवादी विमर्श के कुछ ऐतिहासिक प्रसंगों का उल्लेख किया है। यह खुद में बहस का एक अलग विषय है।

हम यहां उनके लेख के अंतिम अंश की ओर सबका ध्यान खींचना चाहेंगे। इसमें उन्होंने निर्मल बसु के एक लेख में आये नंतुबिहारी नस्कर नामक चरित्र का जिक्र किया है। एक भोला-भाला साधारण आदमी, हमेशा दूसरों की भलाई के लिये तत्पर रहने वाला, पक्का सत्याग्रही। आजादी की लड़ाई में कई बार जेल गया। आजादी के बाद भी परोपकारी नंतुबिहारी, सबके सब मर्ज की दवा - किसी को परमिट लेना है, किसी को अपना तबादला रुकवाना है - नंतु नि:स्वार्थ भाव से सबका काम करता जाता। आस-पास के सब लोगों की भलाई, देश-सेवा के लिये समर्पित प्राण।

निर्मल बसु ने नंतुबिहारी के इन जन-सेवा कार्यों की ओर इशारा करते हुए अपने लेख में दिखाया कि कैसे निर्लोभी नंतुबिहारी के इन्हीं कामों की बदौलत ऊपर से नीचे तक भ्रष्टाचार और सत्ता के केंद्र निर्मित होते जाते हैं। नंतुबिहारी की ‘देश सेवा’ वस्तुत: राष्ट्र के निर्माण की नींव को ही खोखला कर रही है।

दिन-रात व्यस्त रहने वाला नंतुबिहारी कहता है, ‘‘क्या कर रहा हूं दादा, खुद ही नहीं जानता। लेकिन सांस लेने की भी फुर्सत नहीं है।’’

गौतम भद्र ने इस कहानी के अंत में टिप्पणी की है - ‘‘पिछले तीस सालों से और आज भी, बंगाल के गांव-गांव में इस प्रकार के कैडर या कार्यकर्ता के दर्शन दुर्लभ नहीं हैं।’’

गौतम भद्र इस नतीजे पर पहुंचते हैं कि व्यक्ति की सदिच्छा, ईमानदारी, व्यवहार- कुशलता या सांगठनिक दक्षता ही काफी नहीं होते। जरूरी है आदर्शों के बारे में जागरूकता और तदनुरूप चरित्र का निर्माण।

सरकारी प्रशासन से लेकर सामाजिक जीवन और रोजमर्रे के कामों में भी इन दोनों के बीच कैसे संतुलन रखा जाए, भद्र बताते हैं, पहले के गांधीवादियों के बीच विमर्श का यह एक प्रमुख मुद्दा था। भ्रष्टाचार अनेक रूपों में होता है, कई प्रकार के भ्रष्टाचार को समाज में भ्रष्टाचार माना भी नहीं जाता। भद्र कहते हैं, भ्रष्टाचार की सिनाख्त करने के लिये भी आत्म-शिक्षा जरूरी है।

आज भ्रष्टाचार का विषय राजनीतिक चर्चा के केंद्र में हैं। बड़े आदर्शों से शून्य, सिर्फ भलाई की सदिच्छा भी किसी जनतांत्रिक प्रणाली को भ्रष्टाचार में तब्दील कर सकती है। बंगाल में भुला दिया गया गांधीवादी विमर्श यही कहता है कि हर प्रयोग के अंतर्निहित आदर्शों के साथ रुको, सोचो और सवाल उठाओ।

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