मंगलवार, 11 मार्च 2014

जलते रोम में नीरो की बंशी



फासीवाद का खतरा और नव-उदारवाद के प्रतिरोध की तान !

चुनाव प्रचार के प्रारंभ के समय में ही इस लेखक ने लिखा था - नव-उदारवाद चुनाव का मुद्दा नहीं बन सकता है। 

इसके अलावा, जाति-क्षेत्र के समीकरणों की तमाम बातों के बावजूद भारत की बदलती हुई जमीनी सचाई यह है कि जातिवाद, सांप्रदायिकता और क्षेत्रीयतावाद की जकड़ कमजोर हुई है। यह लालू, मायावती, अगप के साथ ही आडवाणी वाली रामजन्म भूमि आंदोलन की गिरावट का काल है। तमिलनाडु में भी द्रविड़ राजनीति की नींव कमजोर हो रही है। ‘पहचान की राजनीति’ के ये सभी आंदोलन एक समय में अपने चरम पर पहुंच कर अब पतनोन्मुख है।

ऐसे में आम आदमी पार्टी यदि मतदाताओं की कल्पना को छू रही है तो फिर उस पर नव-उदारवाद का लेबल लगा कर उसे तिरस्कृत करने का कोई तर्क नहीं है।

प्रभात पटनायक ने आज के ‘टेलिग्राफ’ में अपने लेख में यही किया है। वे ‘पहचान की राजनीति’ की जिन विभिन्न धाराओं के सम्मिलन पर नजर टिकाये हुए हैं, उनमें से एक भी कथित नव-उदारवाद के दोष से मुक्त नहीं है।

इसके विपरीत, दिल्ली की 49 दिनों की ‘आप’ सरकार ने खुदरा व्यापार में एफडीआई पर रोक लगा कर नव-उदारवाद के प्रतिरोध का एक ठोस उदाहरण पेश किया था। सीआईआई में अरविंद केजरीवाल का भाषण नव-उदारवाद की पैरवी नहीं, कानून के शासन की बात कह रहा था। यह खुद में आर्थिक मामलों के संचालन में राज्य की सकारात्मक भूमिका को स्वीकृति कहलायेगा। सरकारें व्यापार न करें तो इसमें क्या हर्ज है। व्यापार राज्य के नियमों का सख्ती से पालन करें, यही उचित है।
पढि़ये प्रभात का लेख :
http://www.telegraphindia.com/1140311/jsp/opinion/story_18059123.jsp#.Ux618PmSxFI

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