शुक्रवार, 7 मार्च 2014

दिल्ली में जो हुआ, वही पूरे भारत में होगा



यह चुनाव-प्रचार अभूतपूर्व है। ऐसा पहले शायद ही कभी दिखाई दिया हो। 

भारत की राजनीति एक बड़ी करवट बदलती दिखाई दे रही है। 

जो चल रहा था, वह चल नहीं सकता और नया क्या हो, उसकी कोई साफ रूप-रेखा नजर नहीं आती।

इसमें एक ओर कांग्रेस है जो लगातार सत्ता पर होने पर भी आज अपने को बदलाव के एजेंट के रूप में पेश करना चाहती है। 

दूसरी ओर भाजपा है जो विपक्ष में होने पर भी पुराने, और भी जघन्य तौर-तरीकों और मूल्यों से चिपकी हुई पतित यथास्थितिवाद की पार्टी है।

इनके बीच से ही तीसरा पक्ष उभरा है आम आदमी पार्टी का, स्वस्थ और नयी जनतांत्रिक राजनीति का दावेदार और भारत के शहरी मध्यवर्ग के लिये बड़े आकर्षण का विषय।

और एक चौथा पक्ष है, वामपंथियों तथा कई राज्यों में सत्ताधारी गैर-कांग्रेस, गैर-भाजपा दलों का, जो किसी भी रूप में नया नहीं, पुराने चुनावोत्तर जोड़-तोड़ के हिसाब पर तैयार हुआ विकल्प है।

जो दल इन चारों के बाहर है, वे क्या है और क्या नहीं है, कहना मुश्किल है।

इन हालत में मतदाताओं में एक हिस्सा तो वह है, जो इन तमाम वर्षों में किसी न किसी राजनीतिक दल से अपने को जोड़ चुका है और आज भी जुड़ा हुआ है।

दूसरा हिस्सा, हमेशा की तरह हवा के रुख पर अपने मत को स्थिर करता है।

तीसरा एक बड़ा हिस्सा ऐसा है जिनका अपनी परंपरागत दलगत प्रतिबद्धताओं से मोहभंग हुआ है, लेकिन धर्म-निरपेक्षता और सांप्रदायिकता के प्रश्न पर कोई समझौता करने के लिये तैयार नहीं है।

और चौथा हिस्सा, बहुत बड़ा हिस्सा आज के नौजवानों का है, जो आधुनिक है, उदार है और भ्रष्ट राजनीतिज्ञों के चंगुल से मुक्ति और स्वस्थ जनतांत्रिक बदलाव चाहता है।

मतदाताओं के पहले तबके की संख्या जनता के आम मोहभंग के साथ दिन प्रति दिन कम हुई है, अर्थात दलगत प्रतिबद्धताएं कमजोर हुई है।

मीडिया के विस्फोट से दूसरा तबका अब वैचारिक रूझानों के मामले में पहले जितना शून्य नहीं रहा है।

निर्णायक भूमिका मतदाताओं का तीसरा और चौथा हिस्सा ही अदा करेगा। ये ही आज भारत में संख्या की दृष्टि से भी सबसे अधिक हैं।


जो पुराने ढांचे में सोचते हैं, जो यह समझते है कि आज भी जाति, संप्रदाय और क्षेत्र की राजनीति निर्णायक साबित होगी, उनको करारा झटका लगने वाला है। ऐसे सारे लोग भारत के नये यथार्थ को, नये मतदाताओं और उनकी मानसिकता को समझने में विफल है। 

भारत के अधिक से अधिक आर्थिक एकीकरण का अर्थ यही है कि पहचान पर आधारित राजनीति (Identity Politics) कमजोर हुई है। 

अरविंद केजरीवाल और आम आदमी पार्टी के प्रति सब जगह जो एक प्रकार का स्वत: स्फूर्त समर्थन दिखाई दे रहा है, उसके पीछे यही सचाई काम कर रही है। यह बहुत ही स्वागतयोग्य है। राहुल गांधी ने भी इस सच को पकड़ा है, लेकिन थोड़ी देर से।

आम आदमी पार्टी की आगामी लोकसभा चुनावों में एक महत्वपूर्ण भूमिका होगी, इसे कोई पसंद करे या न करे।


दिल्ली में जो हुआ, वही पूरे भारत में होगा। 

आज भारत में यदि किसी पार्टी की हवा है तो वह सिर्फ़ आम आदमी पार्टी की हवा है । भाजपा और कांग्रेस का सारा मजमा अरबों रुपयों के बल पर जम रहा है । 'आप' की ताक़त पूरी तरह से साधारण जन है । 

सिर्फ़ साल भर पहले बनी इस पार्टी ने भारत के आम मतदाताओं की कल्पना को छुआ है । दिल्ली में इस पार्टी की शानदार सफलता ने कांग्रेस और भाजपा के दबदबे के सामने ख़ुद को पूरी तरह से असहाय पा रहे साधारण जनों में एक नये आत्म-विश्वास और ऊर्जा का संचार किया है ।

अकेले इस पार्टी ने गुजरात में घुस कर मोदी के विकास के झूठ के परखचे उड़ाये हैं। मोदी के शासन के जन-विरोधी चरित्र का पर्दाफ़ाश किया है ।

आज जो लोग इस पार्टी के नाम पर नाक-भौं सिकोड़ते हैं, उन्हें दिल्ली के परिणाम याद करने चाहियें ।

हम फिर दोहरायेंगे, आगामी आम चुनाव में भारत में वही होगा, जो दिल्ली में हुआ था ।


चुनाव आयोग के सूत्रों के अनुसार, 2009 के आम चुनाव में भाजपा को कुल मतों का 18.8 प्रतिशत मत मिले थे। कांग्रेस को 28.55 प्रतिशत।

नरेन्द्र मोदी के नेतृत्व में भाजपा के मतों में एक प्रतिशत वृद्धि की भी संभावना नहीं है। उनकी एक आडंबरपूर्ण तानाशाह की सूरत किसी के भी मन में सिवाय डर के और कुछ पैदा नहीं कर सकती।

आखिरी समय तक राहुल गांधी कोई करिश्मा कर दिखाये तो दूसरी बात है, अन्यथा कांग्रेस के मतों में भी गिरावट के आसार दिखाई देते हैं।

इसीलिये फिर एक बार दोहराता हूं - दिल्ली में जो हुआ, इस बार सारे भारत में वही होगा।

साम्प्रदायिकता के खिलाफ प्रतिरोध की अनुलंघनीय प्राचीर - 13 प्रतिशत नये नौजवान मतदाता और 13 प्रतिशत अल्पसंख्यक मतदाता। बाकी चीजें अतिरिक्त।

२०१४ के आम चुनाव में कुल ८० करोड़ मतदाता भाग लेंगे । इनमें १० करोड़ मतदाता पहली बार मत देंगे । अर्थात लगभग १३ प्रतिशत नये नौजवान मतदाता होंगे । 

भारत का नौजवान और कुछ भी हो, सांप्रदायिक नहीं हो सकता । इस बार यह नौजवान ही निर्णायक होगा ।

आगामी आम चुनाव में नौजवान मतदाता हर अहंकारी नेता को धूल चटायेगा,इसमें शक नहीं ।

नौजवान धर्म, जाति और क्षेत्र पर आधारित पहचान की राजनीति को एक सिरे से ठुकरायें। समाज के सभी तबकों के बीच सौहार्द्र, मेल-जोल और शांतिपूर्ण सहजीवन को बढ़ावा देने वाले परिवेश के पक्ष में अपना मत दें। यही युवा धर्म है।

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