शुक्रवार, 21 मार्च 2014

गांधी और भगत सिंह

सरला माहेश्वरी


जरूरत है सभी पूर्वाग्रहों को छोड़ कर गांधीजी और भगत सिंह के प्रसंग की तथ्यमूलक ढंग से चर्चा की जाए। यह भारत के स्वतंत्रता संघर्ष की विभिन्न धाराओं के बारे में एक ठोस समझ हासिल करने के लिहाज से काफी महत्वपूर्ण है। यह बात तमाम संदेहों से परे है कि अंग्रेजों से देश की राजनीतिक आजादी के बारे में गांधी और भगतसिंह दोनों की मंजिल एक होते हुए भी उनके रास्ते एक-दूसरे से बिल्कुल अलग थे। यह फर्क सिर्फ अहिंसा और हिंसा के प्रश्न का नहीं था, बल्कि इसमें कहीं न कहीं दोनों के सम्पूर्ण जीवन दर्शन के बीच का फर्क भी काम कर रहा था। सत्य और अहिंसा संबंधी गांधीजी के अपने खास आग्रह तो थे ही।

यहां हम मुख्य रूप से भगतसिंह की फांसी के सिलसिले में गांधीजी की भूमिका के प्रसंग पर ही विस्तार से चर्चा करेंगे क्योंकि यह एक बेहद विवादास्पद विषय रहा है और इसमें बाज हलकों से कुछ इसप्रकार के आरोप भी लगाये जाते हैं, जैसे गांधीजी ने तत्कालीन ब्रिटिश सरकार से सांठ-गांठ करके भगतसिंह को फांसी लगवाने में एक भूमिका अदा की थी। यहां हम गांधीजी की तत्कालीन गतिविधियों के विस्तृत ब्यौरे के अतिरिक्त भगत सिंह और उनके साथियों की फांसी के सिर्फ तीन दिन पहले सुखदेव द्वारा गांधीजी को लिखे गये पत्र को बिना किसी काट-छांट के दे रहे है, ताकि पाठक खुद इस पूरे प्रसंग में अपने निष्कर्षों तक पहुंच सकता है।
भगत सिंह की फांसी के प्रकरण में अक्सर गांधी-इर्विन समझौते की चर्चा की जाती है। उस समय लार्ड इरविन भारत के वाइसराय थे। ब्रिटिश राज्य के भारतीय इतिहास में गांधी-इर्विन वार्ता को एक महत्वपूर्ण घटना माना जाता है क्योंकि भारत में ब्रिटिश साम्राज्य की स्थापना के बाद यह पहला मौका था जब सरकार ने देश के ऐसे किसी प्रतिनिधि से बातचीत की, जिसने उसके अधिकार को चुनौती दी थी, और वह भी बराबरी के आधार पर और सौजन्य के साथ। यद्यपि इससे भारत की स्वतंत्रता को पाने में कोई लाभ नहीं हुआ। वाइसराय ने इसमें कड़ी सौदेबाजी की और उन्हें जितने भी तात्कालिक लाभ मिल सकते थे, सब के सब हासिल किये। इसी वजह से इस समझौते की बाज हलकों से तीखी आलोचना की जाती है। लेकिन गांधीवादियों की नजर में इस वार्ता से उनके सत्याग्रह को राजनीतिक संघर्ष का एक विधि-सम्मत उपाय मान लिया गया और इसे वे जनशक्ति तथा जनता के नैतिक बल की उपयोगिता का प्रमाण मानते हैं।
बहरहाल, यह एक दीगर प्रसंग है, जिस पर अलग से काफी चर्चा की जा सकती है। यहां प्रासंगिक बात यह है कि वाइसराय इर्विन से गांधीजी की वार्ताओं के दौरान दुनिया-जहां के तमाम प्रश्नों के साथ ही भगत सिंह के मामले का सवाल भी बार-बार उठा था। 18 फरवरी 1931 के दिन इर्विन और गांधीजी की मुलाकात का इर्विन और महात्मा गांधी द्वारा दिये गये वृत्तांतों को संपूर्ण गांधी वाड़्मय के पैंतालीसवें खंड में संकलित किया गया है। इर्विन ने इस बैठक के अपने वृत्तांत में भगत सिंह के प्रसंग में लिखा है : अन्त में उन्होंने भगतसिंह के मामले का उल्लेख किया। उन्होंने मृत्यु दंड न देने का आग्रह नहीं किया। यद्यपि किसी भी परिस्थिति में प्राणी हत्या के खिलाफ होने के कारण वे स्वयं फांसी की सजा के विरुद्ध थे। उनका ऐसा विचार था कि इससे शान्ति स्थापना में मदद मिलेगी। लेकिन उन्होंने मौजूदा परिस्थितियों में उस सजा को मुलतवी करने की मांग जरूर की। मैंने इतना कह देना काफी समझा कि मृत्यु दण्ड की तारीख के बारेमें चाहे जो निर्णय हो, मुझे नहीं लगता कि सजा बदलने के पक्षमें उनके पास कोई ऐसा तर्क था जिसे इतने ही जोरदार ढंगसे किसी अन्य हिंसक अपराध के मामले में न पेश किया जा सकता हो। वाइसराय केवल दया के आधार पर सजा घटाते या माफ करते हैं, राजनीतिक उद्देश्य से नहीं। (स.गा.वा., 45वां खंड, पृ: 202)
इसी वार्ता के गांधीजी के वृत्तांत में इस प्रसंग को इस प्रकार व्यक्त किया गया है: मैंने भगतसिंहकी बात की। मैंने कहा  ‘हमने जो बात की है उसके साथ इसका कुछ संबंध नहीं है और शायद मेरा इस बात का जिक्र करना भी अनुचित माना जायेगा, किन्तु आजकलके वातावरण को ज्यादा अनुकूल बनाना हो तो आपको चाहिएं कि फिलहाल भगतसिंहकी फांसी को मुलतवी कर दें।’ वाइसराय को यह बहुत अच्छा लगा।
वाइसराय: आपने यह बात इस तरह मेरे सामने रखी इसके लिए मैं बहुत आभारी हूं। सजा कम करना कठिन काम है। किन्तु उसे (फांसी को) मुल्तवी करनेकी बातपर तो जरूर विचार किया जाना चाहिए।
मैंने भगतसिंह के बारे में कहा, वह बहादुर तो है ही पर उसका दिमाग ठिकाने नहीं है, इतना जरूर कहूंगा। फिर भी मृत्युदण्ड बुरी चीज है क्योंकि वह ऐसे व्यक्ति को सुधरने का अवसर नहीं देती। मैं तो मानवीय दृष्टिकोणसे यह बात आपके सामने रख रहा हूं और देश में नाहक तूफान न उठ खड़ो हो, इसलिए सजा मुल्तवी कर देने का इच्छुक हूं। मैं तो उसे छोड़ दूं किन्तु कोई सरकार उसे छोड़ देगी ऐसी आशा मुझे नहीं है। आप मुझे इस विषय में कुछ जवाब न दें तो भी मुझे बुरा नहीं लगेगा। (उपरोक्त, पृ: 206)
इसके बाद गांधी जी ने 7 मार्च 1931 के दिन दिल्ली में हुई एक सार्वजनिक सभा में भगत सिंह के प्रसंग में विस्तार से अपने विचार रखे थे। इस सभा में  50 हजार से ज्यादा लोग उपस्थित थे। इसमें वे कहते हैं : अगला सवाल भगतसिंह और दूसरे लोगों के बारे में है, जिनको मौत की सजा दी जा चुकी है। मुझसे पूछा गया है कि जब कि इन देशभक्तों के सिरपर मौतकी छाया मंडरा रही है, शान्ति हो कैसे सकती है। यह दुर्भाग्यपूर्ण है कि इन पत्रकों को बांटने वाले नौजवान ऐसी सीधी-सादी बात भी नहीं समझ सकते। उन्हें समझना चाहिए कि हमने कोई शान्ति-सन्धि नहीं की है। सिर्फ अल्पकालीन और अस्थायी समझौता किया है। मैं युवकोंसे प्रार्थना करता हूं कि वे व्यवहार-बुद्धि, आवेशहीन वीरता, धैर्य और विवेकको तिलांजलि न दे दें। मैंने 62 वर्षीय युवक होनेका दावा किया है। परन्तु यदि मुझे जीर्ण-शीर्ण, बूढ़े और पुराणपंथी की संज्ञा भी दे दी जाये तो भी मुझे आपसे विवेकपूर्ण काम करनेकी प्रार्थना करने का अधिकार है। ...परन्तु मैं आपको बता दूं कि भगतसिंह और बाकी लोग रिहा क्यों नहीं किये गये हैं। हो सकता है कि यदि आप समझौतेकी बातचीत कर रहे होते तो आप वाइसराय को ज्यादा अच्छी शर्तों के लिये राजी कर लेते, परन्तु कार्यसमिति के लोग तो इससे ज्यादा प्राप्त नहीं कर सकते थे। ...समझौता करते समय हम जितना दबाव डाल सकते थे, उतना हमने डाला और अस्थायी समझौते के अन्तर्गत हमें जो-कुछ न्यायपूर्वक मिल सकता था, उससे सन्तोष कर लिया। अस्थायी सन्धि के लिए मध्यस्थता करने वाले हम लोग सत्य और अहिंसाके अपने प्रण और न्यायकी सीमाओं को नहीं भूल सकते थे।
परन्तु जिनका आपने नाम लिया हैं, उन सबकों रिहा कराने का रास्ता अब भी खुला है। आप समझौतेको कार्यरूप दें, तो ऐसा हो सकता है। ‘यंग इंडिया’ समझौतेका समर्थन करे और इसकी सारी शर्तों को पूरा करे और यदि ईश्वर ने चाहा और हमारे उपर्युक्त स्थितिपर पहुंचने तक भगतसिंह औरदूसरे लोग जीवित रहे तो वे फांसी के तख्ते पर लटकनेसे ही नहीं बच जायेंगे, रिहा भी कर दिये जायेंगे।
परन्तु मैं ‘यंग इंडिया’ को एक चेतावनी दे दूं। इन चीजोंको मांगना आसान है, पाना नहीं। आप उन लोगों की रिहाई की मांग करते हैं जिन्हें हिंसाके आरोप में फांसी की सजा दी गई है। यह कोई गलत बात नहीं है। मेरा अहिंसा-धर्म चोर-डाकुओं और यहांतक कि हत्यारों को भी सजा देने के पक्षमें नहीं है। भगतसिंह जैसे बहादुर आदमी को फांसीपर लटकानेकी बात तो दूर रहीं, मेरी अन्तरात्मा तो किसीको भी फांसी के तख्ते पर लटकाने की गवाही नहीं देती है। परन्तु मैं आपको बता दूं कि आप भी जबतक समझौतेकी शर्तोंका पालन नहीं करते, उन्हें बचा नहीं सकते। यह काम आप हिंसा द्वारा नहीं कर सकते। यदि आपको हिंसापर ही विश्वास है, तो मैं आपको निश्चयपूर्वक बता सकता हूं कि आप केवल भगतसिंहको ही नहीं छुड़ा सकेंगे बल्कि आपको भगतसिंह-जैसे और हजारों लोगोंका बलिदान करना पड़ेगा।
पुन: 23 मार्च को भगतसिंह की फांसी के ठीक 4 दिन पहले गांधीजी की इर्विन से भेंट हुई थी। इर्विन द्वारा दिये गये इस भेंट के वृत्तांत में कहा गया है: जाते-जाते उन्होंने कहा कि आप भगतसिंह का उल्लेख करनेकी आज्ञा दें तो मैंने अखबार में पढ़ा है कि फांसी की तारीख 24 मार्च घोषित की गई है। यह एक दुर्दिन ही होगा; ठीक उसी दिन कांग्रेसके नये अध्यक्ष कराची पहुंचेंगे और जनता में बड़ी उत्तेजना होगी।
मैंने उन्हें बताया कि मैंने इस मामलेपर बहुत ध्यानसे विचार किया है, पर मुझे अपने मनमें सजा कम करनेके औचित्य का कोई ठोस आधार नहीं मिला। जहांतक तारीखका सवाल है, मैंने कांग्रेसके अधिवेशन के समाप्त होनेतक इसे टालनेकी सम्भावना पर विचार किया था, पर जानबूझ कर अनेक कारणों से उसे रद कर दिया, जैसे
1.कि, आदेश दे देनेके बाद केवल राजनीतिक कारणसे फांसीको स्थगित करना मुझे ठीक नहीं जंचा;
2.कि, फांसी को स्थगित करना अमानवीय होगा; क्योंकि इससे मित्रों और सम्बन्धियों को लगेगा कि मैं सजा कम करने की बात सोच रहा हूं; और
3.कि, कांग्रेस उचित रूप से यह शिकायत कर सकेगी कि सरकार ने उसे धोखा दिया है।
ऐसा लगा कि उन्होंने इन तर्कों के आधार को सही माना और आगे कुछ नहीं कहा। (उपरोक्त, पृ. 334)
इसके दो दिनों बाद पत्रकारों से बातचीत में जब गांधीजी से पूछा गया कि क्या आपको कोई ऐसी आशा है कि भगतसिंह को शायद अन्तिम समयपर बचाया जा सकेगा? तो गांधीजी का जवाब था - है तो, पर बहुत क्षीण। (उपरोक्त, पृ. 338)


ठीक फांसी दिये जाने के दिन, 23 मार्च को सुबह के समय गांधीजी ने वाइसराय को एक पत्र लिखा। इसमें उन्होंने वाइसराय से कहा कि आपको यह पत्र लिखना आपके प्रति क्रूरता करने-जैसा लगता है; पर शान्ति के हितमें अन्तिम अपील करना आवश्यक है। यद्यपि आपने मुझे साफ-साफ बता दिया था कि भगतसिंह और अन्य दो लोगों की मौत की सजा में कोई रियायत किये जाने की आशा नहीं है, फिर भी आपने मेरे शनिवार के निवेदनपर विचार करने को कहा था। डा. सप्रू मुझसे कल मिले और उन्होंने मुझे बताया कि आप इस मामले से चिन्तित है और आप कोई रास्ता निकालने का विचार कर रहे हैंं। यदि इसपर पुन: विचार करने की गुंजाइश हो, तो मैं आपका ध्यान निम्न बातों की ओर दिलाना चाहता हूं।
जनमत, वह सही हो या गलत, सजा में रियायत चाहता है। जब कोई सिद्धान्त दाव पर न हो तो लोकमत का मान करना हमारा कत्‍​र्तव्य हो जाता है।
प्रस्तुत मामले में स्थिति ऐसी है कि यदि सजा हल्की की जाती है तो बहुत सम्भव है कि आन्तरिक शान्ति की स्थापना में सहायता मिले। यदि मौतकी सजा दी गई तो निस्सन्देह शान्ति खतरे में पड़ जायेगी।
मैं आपको यह सूचित कर सकता हूं कि क्रान्तिकारी दलने मुझे यह आश्वासन दिया है कि यदि इन लोगों की जान बख्श दी जाये तो यह दल अपनी कार्यवाहियां बन्द कर देगा। यह देखते हुए मेरी रायमें मौतकी सजाको, क्रांन्तिकारियों द्वारा होनेवाली हत्याएं जबतक बन्द रहती हैं, तबतक मुल्तवी कर देना एक लाजमी फर्ज बन जाता है।
राजनीतिक हत्याओं के मामलों में इससे पहले भी तरह दी जा चुकी है। यदि ऐसा करने से बहुत-सी अन्य निर्दोष जानें बचाई जा सकती हों तो उनका बचाना लाभदायक होगा। हो सकता है कि इससे क्रांतिकारियोंकी आतंकपूर्ण कार्यवाहियां लगभग समाप्त हो जायें।
चूंकि आप शान्ति-स्थापनाके लिए मेरे प्रभाव को, जैसा भी वह है, उपयोगी समझते प्रतीत होते हैं, इसलिए अकारण ही मेरी स्थिति को भविष्य के लिए और ज्यादा कठिन न बनाइए; यों ही वह कुछ सरल नहीं है।
मौत की सजापर अमल हो जानेके बाद तो वह कदम वापस नहीं लिया जा सकता। यदि आप यह सोचते हैं कि फैसले में थोड़ी भी गुंजाइश है, तो मैं आपसे यह प्रार्थना करूंगा कि इस सजाको, जिसे फिर वापस नहीं लिया जा सकता, आगे और विचार के लिए स्थगित कर दें।
यदि मेरी उपस्थिति आवश्यक हो तो मैं आ सकता हूं। (उपरोक्त, पृ. 354)

उल्लेखनीय है कि वाइसराय ने तत्काल उसी समय गांधीजी को उनके इस पत्र का जवाब दिया और उसमें उनके अनुरोध को मानने से साफ इंकार कर दिया।
23 मार्च 1931 की शाम 7 बज कर 23 मिनट पर लाहौर के केंद्रीय कारागार में राजगुरू और सुखदेव के साथ भगतसिंह को फांसी दे दी गयी। इस समाचार के मिलते ही गांधीजी ने एक वक्तव्य जारी किया : भगतसिंह और उनके साथी फांसी पाकर शहीद बन गये हैं। ऐसा लगता है मानो उनकी मृत्युसे हजारों लोगों की निजी हानि हुई है। इन नवयुवक देशभक्तों की याद में प्रशंसा के जो शब्द कहे जा सकते हैं, मैं उनके साथ हूं। तो भी देश के युवकों को उनके उदाहरण की नकल करने के विरुद्ध चेतावनी देता हूं। बलिदान करनेकी अपनी शक्ति, अपने परिश्रम और त्याग करनेके अपने उत्साह का उपयोग हम उनकी तरह न करें। इस देशकी मुक्ति खून करके प्राप्त नहीं की जानी चाहिए।
सरकार के बारे में मुझे ऐसा लगे बिना नहीं रहता कि उसने क्रांतिकारी पक्षको अपने पक्ष में करने का सुनहरा अवसर गंवा दिया है। समझौते को दृष्टि में रखकर और कुछ नहीं तो फांसी की सजाको अनिश्चित कालतक अमलमें न लाना उसका फर्ज था। सरकारने अपने कामसे समझौते को बड़ा धक्का पहुंचाया है और एक बार फिर लोकमत को ठुकराने और अपने अपरिमित पशुबलका प्रदर्शन करनेकी शक्ति को साबित किया है।
पशुबल से काम लेनेका यह आग्रह कदाचित् अशुभ का सूचक है और यह बताता है कि वह मुंहसे तो शानदार और नेक इरादे जाहिर करती है, पर सत्ता नहीं छोड़ना चाहती। फिर भी प्रजा का कत्‍​र्तव्य तो स्पष्ट है।
कांग्रेसको अपने निश्चित मार्गसे नहीं हटना चाहिए। मेरा मत तो यह है कि ज्यादा से -ज्यादा उत्तेजना का कारण होने पर भी कांग्रेस समझौते को मान्य रखे और आशानुकूल परिणाम प्राप्त करने की शक्ति की परीक्षा होने दे।
गुस्से में आकर हमें गलत मार्गपर नहीं जाना चाहिए। सजामें कमी करना समझौते का भाग नहीं था, यह हमें समझ लेना चाहिए। हम सरकार पर गुंडाशाही का आरोप तो लगा सकते हैं, किन्तु हम उसपर समझौतेकी शर्तों को भंग करनेका आरोप नहीं लगा सकते। मेरा निश्चिम मत है कि सरकार द्वारा की गई इस गम्भीर भूलके परिणामस्वरूप स्वतन्त्रता प्राप्त करने की हमारी शक्तिमें वृद्धि हुई है और उसके लिए भगतसिंह और साथियों ने मृत्युको भेंटा है।
थोड़ा भी क्रोधपूर्ण  काम करके हम मौकेको हाथ से न गंवा देंं।  सार्वजनिक हड़ताल होगी, यह तो निर्विवाद ही है। बिल्कुल शान्त और गम्भीरता के साथ जुलूस निकालने से बढ़कर और किसी दूसरे तरीके से हम मौत के मूंहमें जानेवाले इन देशभक्तोंका सम्मान कर भी नहीं सकते।
(उपरोक्त, पृ. 356-357)
यह था वह पूरा बयान जो भगतसिंह की फांसी के समाचार को सुनने के ठीक बाद गांधीजी ने दिया था। भगतसिंह को एक देशभक्त और सम्मान का पात्र मानने तथा ब्रिटिश सरकार के इस कुकर्म को गुंडाशाही करार देने के बावजूद गांधीजी ने हर समय भगतसिंह के रास्ते के प्रति अपनी असहमति को जाहिर करने में कभी भी कोई हिचक नहीं दिखाई। उपरोक्त तमाम वृत्तांतों से यह भी साफ है कि गांधीजी भगतसिंह को सुनाई गयी सजा को लेकर लगातार चिन्तित थे और अपने ढंग से, अपने खास कार्यनीतिक अंदाज में ब्रिटिश सरकार से गुजारिशें भी कर रहे थे। वाइसराय से उन्होंने यहां तक कहा था कि दया एक ऐसी वस्तु है जो कभी निष्फल नहीं होती। अंतिम क्षणों में क्रांन्तिकारियों के इस आश्वासन का भी हवाला दिया था कि यदि भगतसिंह की जान बख्श दी जाती है तो वे अपनी कार्रवाइयां बंद कर देंगे। लेकिन इसके बावजूद, आंदोलन और समझौते के अपने व्यापक परिप्रेक्ष्य में वे इस सवाल को सबसे केंन्द्रीय प्रश्न बनाने के लिये तैयार नहीं थे। वाइसराय इर्विन के सामने वे जिसप्रकार बार-बार भगतसिंह के सवाल को उठा रहे थे, उससे एक बात यह भी जाहिर होती है कि उस समय के राजनीतिक माहौल में इस सवाल की पूरी तरह से अवहेलना करना उनके लिये मुमकिन नहीं था। वे लोकमत की उपेक्षा नहीं कर सकते थे और अपने खास अंदाज में इसकी उपेक्षा करने के लिये ब्रिटिश सरकार को कोस भी रहे थे। तथापि उन्होंने भगतसिंह की फांसी को रुकवाने में अपनी असमर्थता को मान लिया था और इसीलिये इसपर वे अपनी राजनीति का कुछ भी दाव पर लगाने के लिये तैयार नहीं थे। वे इस बात से पूरी तरह से वाकिफ थे कि उनकी इस असमर्थता से देश भर में उनके प्रति भारी असंतोष पैदा होगा। इसे उन्होंने वाइसराय से भी कहा था कि  अकारण ही मेरी स्थिति को भविष्य के लिए और ज्यादा कठिन न बनाइए; यों ही वह कुछ सरल नहीं है।

भगतसिंह की फांसी के बाद कुछ-कुछ वैसा ही दृश्य देखने को भी मिला। फांसी के दो दिन बाद ही कराची में कांग्रेस का अधिवेशन शुरू हुआ। गांधीजी जब कराची पहुंचे तो लाल कमीज पहने हुए नौजवान भारत सभा के कार्यकर्ताओं ने उनके विरुद्ध काली झंडियों के साथ स्टेशन पर जोरदार प्रदर्शन किया। वे नारे दे रहे थे : ‘गांधीवाद का नाश हो’, ‘गांधी वापस जाओ’। इस बारे में 26 मार्च को पत्रकारों से अपनी बातचीत में गांधीजी ने कहा, मैं भगतसिंह औरउसके साथियों की मौत की सजा में परिवर्तन नहीं करवा सका और इसी कारण नवयुवकोंने मेरे प्रति अपना क्रोध प्रदर्शित किया है। मैं इसके लिए पूरी तरह से तैयार था। यद्यपि वे मुझपर बहुत नाराज थे, फिर भी मैं सोचता हूं कि उन्होंने अपने क्रोध का प्रदर्शन बहुत ही सभ्य ढंगसे किया। वे चाहते तो आसानी से मारपीट कर सकते थे; पर उन्होंने ऐसा कुछ नहीं किया। वे कई तरह से मुझे अपमानित कर सकते थे पर उन्होंने अपने क्रोध पर अंकुश रखा और मेरा अपमान केवल काले कपड़े के फूल, जो कि, मैं समझता हूं, तीनों देशभक्तों की चिता की राख के प्रतीक थे, देकर किया। इन्हें भी वे मेरे ऊपर बरसा सकते थे अथवा मुझ पर फेंक सकते थे, पर यह सब न करके मुझे अपने हाथोंसे फूल लेनेकी छूट दी और मैंने कृतज्ञतापूर्वक इन फूलों को लिया। (उपरोक्त, पृ.365)
इसीदिन गांधीजी ने कांग्रेस के कराची अधिवेशन में अपना जो उद्घाटन भाषण दिया उसमें भगत सिंह का प्रसंग ही पूरी तरह से छाया हुआ था और उन्होंने इसके बारे में काफी ज्यादा विस्तार से चर्चा की थी। इसमें वे कहते हैं :
उन्हें फांसीपर लटका कर सरकारने लोगों को गुस्सा होने का जबर्दस्त कारण दिया है। मूझे भी इससे चोट पहुंची है, क्योंकि हमारे विचार-परामर्श और बातचीत से मुझे धुंधली-सी आशा बंध गई थी कि भगतसिंह, राजगुरू, और सुखदेव शायद बच जायेंगे। मैं उन्हें बचा नहीं सका, इससे अगर नौजवान मुझपर गुस्सा होते हैं, तो मुझे आश्चर्य नहीं होता, पर कोई कारण नहीं कि मैं भी उनसे गुस्सा होऊं।
इसके बाद गांधी जी ने थोड़े विस्तार से अपने अहिंसा धर्म की व्याख्या की और पुन: एक दिन पहले उनके खिलाफ किये गये नौजवानों के प्रदर्शन की बात को उठाते हुए कहा कि उनसे नाराज होने के बदले मैं राजी हुआ हूं, क्योंकि उन प्रदर्शनों में किसी प्रकार का अविवेक न था। वे मुझपर हाथ उठा सकते थे, पर वे उलटे मेरे अंगरक्षक बन गये और मुझे मोटर तक ले गये। ...वे नौजवान तो दुनिया को यह बताना चाहते थे कि उन्हें विश्वास है कि महात्मा चाहे जितना महान क्यों न हो, वह हिन्दुस्तान का नुकसान कर रहा है। अगर वे मानते हैं कि मैं देश को दगा दे रहा हूं तो मेरी पोल खोलने का उन्हें अधिकार है। मैं चाहता हूं कि इस सम्बन्ध में आप मेरे दृष्टिकोण को समझें।
इसके बाद गांधीजी ने पुन: विस्तार से अपने अहिंसा के सिद्धांत पर प्रकाश डाला। उन्होंने भगतसिंह की फांसी के बाद कानपुर में भड़की हिंसा पर टिप्पणी करते हुए कहा कि अखबारों से पता चलता है कि भगतसिंह की शहादत से कानपुर के हिन्दू पागल होगये,...मेरा विश्वास है कि अगर भगतसिंह की आत्मा कानपुर काण्ड को देख रही है, तो अवश्य गहरी वेदना और शरम अनुभव करती होगी। गांधीजी के इस लंबे भाषण के अंत में किसी ने उनसे सवाल किया कि आपने भगतसिंह को बचाने के लिए क्या किया?
इसपर गांधीजी का जवाब था : मैं अपना बचाव करनेके के लिए नहीं बैठा था, इसलिए मैंने आपको विस्तार से यह नहीं बताया कि भगतसिंह और उनके साथियों को बचाने के लिए मैंने क्या-क्या किया। मैं वाइसराय को जिस तरह समझा सकता था, उस तरह से मैंने समझाया। समझानेकी जितनी शक्ति मुझमें थी, सब मैंने उनपर आजमा कर देखी। भगतसिंहकी परिवारवालों के साथ निश्चित आखिरी मुलाकात के दिन, अर्थात 23 मार्च को सबेरे मैंने वाइसराय को एक खानगी खत लिखा। उसमें मैंने अपनी सारी आत्मा ऊंडेल दी थी, पर सब बेकार हुआ। आप कहेंगे मुझे एक बात और करनी चाहिए थी:- सजा को घटाने के लिए समझौतेमें एक शर्त रखनी चाहिए थी। ऐसा हो नहीं सकता था। और समझौता वापस ले लेनेकी धमकी देना तो विश्वासघात कहा जाता। कार्य-समिति इस बातमें मेरे साथ थी कि सजा घटानेकी शर्त समझौते की शर्त नहीं हो सकती। इसलिए मैं इसकी चर्चा तो सुलह की बातों से अलग ही कर सकता था। मैंने उदारता की आशा की थी। मेरी वह आशा सफल होनेवाली न थी, पर इस कारण समझौता तो कभी नहीं तोड़ा जा सकता।(उपरोक्त, पृ.371-373)
कांग्रेस के कराची अधिवेशन में एक प्रस्ताव पारित किया गया : ‘भगतसिंह और उनके साथियों के सम्बन्ध में’। इस प्रस्ताव का मसविदा गांधीजी ने तैयार किया था और जवाहरलाल नेहरू ने इसे अधिवेशन में पेश किया। इसमें कहा गया : यह कांग्रेस किसी भी रूप अथवा प्रकार की राजनीतिक हिंसासे अपना सम्बन्ध न रखते हुए और उसका समर्थन न करते हुए स्वर्गीय भगतसिंह और उनके साथी सर्वश्री सुखदेव और राजगुरू के बलिदान और बहादुरीकी प्रशंसा को अभिलेखबद्ध करती है और इनकी जीवन-हानिपर शोकातुर परिवारों के साथ शोक प्रकट करती है। कांग्रेस की राय है कि इन तीनों को फांसीपर लटकाना अत्यंत निम्न प्रतिशोध का कृत्य है और इस तरह सजा कम करने की राष्ट्रकी सर्वमुखी मांगका जानबूझकर निरादर किया गया है। इस कांग्रेस की यह भी राय है कि सरकार ने दो राष्ट्रों के बीच अत्यन्त आवश्यक सद्भाव बढ़ाने की इस घड़ी का, और जो दल निराश होकर राजनीतिक हिंसाका सहारा लेता है, उसे शान्ति के मार्ग पर लाने का सुनहरा मौका खो दिया है।
29 मार्च 1931 के ‘नवजीवन’ में गांधीजी ने भगतसिंह पर एक टिप्पणी लिखी। इसमें उन्होंने लिखा कि वीर भगतसिंह और उनके दो साथी फांसी पर चढ़ गये। उनकी देहको बचानेके बहुतेरे प्रयत्न किये गये, कुछ आशा भी बंधी, पर वह व्यर्थ हुई।
भगतसिंह को जीवित रहने की इच्छा नहीं थी; उसने माफी मांगने से इनकार किया। अर्जी देने से इनकार किया। यदि वह जीते रहनेको तैयार होता तो वह या तो दूसरों के लिए काम करने की दृष्टिसे होता या फिर इसलिए होता कि उसकी फांसीसे कोई आवेश में आकर व्यर्थ ही किसी का खून न करे। भगतसिंह अहिंसा का पुजारी नहीं था, पर वह हिंसा को भी धर्म नहीं मानता था; वह अन्य उपाय न देखकर खून करनको तैयार हुआ था। उसका आखिरी पत्र इस प्रकार था: मैं तो लड़ते हुए गिरफ्तार हुआ हूं। मुझे फांसी नहीं दी जासकती। मुझे तोपसे उड़ा दो, गोलीसे मारो। इन वीरों ने मौत के भय को जीता था। इनकी वीरता के लिए इन्हें हजारों नमन हों।
इसके बाद ही गांधीजी ने भगतसिंह के रास्ते को अनुकरणीय नहीं बताते हुए दलील दी कि अगर हमारे यहां किसी की हत्या करने वाले की प्रशंसा करना रूढ़ हो जाये तो जिसे हम न्याय समझते है, उसके लिए एक-दूसरेका खून करने लगें। जिस देश में करोड़ों कंगाल और अपाहिज लोग हों, उस देश में यह स्थिति भयानक होगी।
आगे सरकार की पशु-वृत्ति की आलोचना करते हुए कहा कि सरकार को फांसी देने का अधिकार था जरूर, पर कई अधिकारों की शोभा इसीमें होती है कि वे सिर्फ थैलीमें बन्द पड़े रहे; उनका प्रयोग न किया जाये। ...अभी तक सरकार में इतनी विवेक-शक्ति नहीं आई है। सरकार ने जनता को क्रोधित होने का स्पष्ट अवसर दे दिया है।
यह था भगतसिंह और उनकी फांसी के बारे में गांधीजी का समग्र नजरिया। अब हम एक नजर दूसरे पक्ष की ओर डालते है। जिस समय गांधीजी वाइसराय से समझौते के दौरान उनसे क्रांतिकारियों के बारे में भी बात कर रहे थे, उस समय भगत सिंह और उनके क्रांतिकारी साथी गांधीजी के बारे में क्या सोच रहे थे, इसे जानने के लिये सबसे उपयोगी है शहीद सुखदेव का गांधीजी के नाम वह पत्र जो उन्होंने फांसी के तीन दिन पहले, 20 मार्च को लिखा था। यह पत्र रमेश विद्रोही की पुस्तक ‘भगतसिंह जीवन, व्यक्तित्व, विचार’ में संकलित है। यह गांधीजी को मिला था या नहीं, कह नहीं सकते क्योंकि गांधीजी की इसके बारे में कोई प्रतिक्रिया गांधी वाड़्मय में नहीं दिखाई देती। यहां हम तीन पृष्ठों के इस लंबे पत्र को पूरा दे देना उचित समझते हैं। पत्र का पूरा मजमून इस प्रकार है :


आदरणीय महात्मा जी,
आज कल की ताजा खबरों से पता चलता है कि सन्धि की चर्चा के बाद आपने क्रांतिकारियों के नाम कई अपीलें जारी की है। अपीलों में आपने कम से कम वर्तमान समय के लिए क्रांतिकारी आन्दोलन रोक देने के लिए कहा है। दरअसल बात यह कि किसी आन्दोलन को रोक देने का काम सैद्धन्तिक दृष्टि से अपने बस की बात नहीं है। समय-समय पर जरूरत के मुताबिक आन्दोलनों के नेता अपनी नीति बदलते रहते हैं।
हमारा अनुमान है कि सन्धि की बातचीत के दौरान आपर कए भी यह बात न भूले होंगे कि यह समझौता कोई समझौता नहीं हो सकता। मेरा ख्याल है कि यह तो सभी समझदार इन्सान समझमे होंगे कि आप के सभी सुधारों को मान लेने पर भी देश को उसका अन्तिम फल प्राप्त नहीं होगा। लाहौर कांग्रेस के प्रस्ताव के अनुसार, कांग्रेस तब तक लड़ाई चलाने के लिए प्रतिबद्ध है जब तक पूरी आजादी हासिल न हो जाए। बीच-बीच में की गयी सन्धियां और समझौते तो सिर्फ पल भर का ठहराव है, जिसमें अगली लड़ाई के लिए ज्यादा से ज्यादा ताकत जुटाने का मौका मिलता है। सिर्फ इस सिद्धांत पर ही किसी तरह की सन्धि या समझौता करने के विषय में सोचा जा सकता है। समझौते के लिए सही समय और शब्दों पर विचार करने का काम नेताओं का है। भले ही लाहौर के पूरी आजादी के प्रस्ताव के होते हुए भी आपने अपना आन्दोलन रोक दिया है, फिर भी प्रस्ताव उसी रूप में कायम है।
हिन्दुस्तान सोशलिस्ट रिपब्लिकन आर्मी के क्रांतिकारियों का उद्देश्य इस देश में समाजवादी प्रजातंत्र की स्थापन है। इस उद्देश्य में संशोधन करने की कोई गुंजाइश नहीं है। वे तो अपना संग्राम तब तक पूरी तरह जारी रखने के लिए प्रतिबद्ध है, जब तक यह उद्देश्य हासिल नहीं हो जाता और इस आदर्श की पूरी तरह स्थापना नहीं होजाती। लेकिन समय के परिवर्तन के साथ-साथ वे अपनी रणनीति भी बदलते रहना चाहते हैं। क्रांतिकारियों का युद्ध अलग-अलग मौकों पर अलग-अलग रूप धारण कर लेता है। कभी यह खुलेे ढंग से होता है और कभी यह गुप्त रूप धारण कर लेता है। कभी सिर्फ आन्दोलन जैसा ही रह जाता है, कभी जिन्दगी और मौत का भयानक संग्राम बन जाता है। मौजूदा हालत में क्रांतिकारियों के सामने आन्दोलन रोकने के लिए विशेष कुछ कारणों का होना आवश्यक है। लेकिन आपने हमारे सामने ऐसा कोई निश्चित कारण पेश नहीं किया, जिस पर विचार करके हम अपना आन्दोलन रोक दे। सिर्फ भावुकता भरी अपीलें क्रांतिकारियों के संग्राम पर कोई असर नहीं डाल सकती।
समझौता करके आपने अपना आन्दोलन रोक लिया है जिसके परिणामस्वरूप आपके आन्दोलन के कैदी छूट गये है। लेकिन क्रांतिकारी कैदियों के सम्बन्ध में आप क्या कहना चाहते हैं?
गदर पार्टी के साथी 1915 के कैदी आज भी जेलों में पड़े सड़ रहे हैं जबकि उनकी सजाएं पूरी हो चुकी है। मार्शल लॉ के कई सौ कैदी जीते हुए भी कब्रों में दफनाए गये लोगों जैसे जिन्दगी बीता रहे हैं। इसीतरह बब्बर अकाली लहर के कई दर्जन कैदी जेलों में सजाएं बर्दाश्त कर रहे हैं। आधे दर्जन से ज्यादा ाड़यन्त्र के मामले लाहौर, दिल्ली, चटगांव, बम्बई, कलकत्ता आदि में चल रहे हैं। अनेक क्रांतिकारी भूमिगत है जिनमे ंबहुत सी महिलाएं भी है। आधा दर्जन से ज्यादा कैदी मौत की सजा का इंतजार कर रहे हैं। इन सबके बारे में आपको क्या कहना है?
लाहौर ाड़यंत्र के तीन कैदी जिन्हें फांसी की सजा मिली है और जिन्हे इसी वजह से सम्मान प्राप्त होगया है, उनकी सजा में परिवर्तन से देश का उतना कुछ नहीं संवर सकता जितना उन्हें फांसी पर चढ़ा देने से होगा।
इन सब बातों के कायम रहते हुए भी आप हमसे आन्दोलन रोक देने की अपीलें कर रहे हैंं। हम अपना क्रांतिकारी आंदोलन क्यों रोक ले? आपने कोई सही कारण नहीं बताया। इस तरह के हालात में आपकी अपीलों का मतलब बस यही है कि आप स्वयं क्रांतिकारी आंदोलनों को कुचलने में नौकरशाही का साथ दे रहे हैं। इन अपीलों के जरिये आप स्वयं क्रांतिकारी दलों में फूट डाल रहे हैं और विश्वासघात की शिक्षा दे रहे हैं। अगर यह बात न होती तो आपके लिये बेहतर यही होता कि आप कुछ प्रमुख क्रांतिकारियों से मिल कर इस विषय पर बातचीत कर लेते। आपको आंदोलन रोक देने की सलाह से पहले उसके कारण तर्क के साथ समझाने चाहिए थे।
मेरा ख्याल है कि आम लोगों की तरह आपकी यह धारणा न होगी कि क्रांतिकारी तर्कहीन होते हैं और उन्हें मरने-मारने के काम में मजा आता है। हम आपको बता देना चाहते हैं कि असलियत इसके एकदम विपरीत है। वे हर कदम उठाने से पहल चारो ओर के हालातों पर विचार कर लेते हैं। उन्हें अपनी जिम्मेदारी का अहसास हर समय रहता है। हम अपने क्रांतिकारी विधान में रचनात्मक ढंग की जरूरत को प्रमुख स्थान देते है। भले ही मौजूदा हालत में ध्वंसात्मक हिस्से की ओर ध्यान देना पड़ा।
क्रांतिकारियों के लिये जनता में पैदा हुई सहानुभूति और सहायता को नष्ट करके सरकार किसी भी तरह से उनको कुचल देना चाहती है। अकेले तो वे बहुत आसानी से कुचले जा सकते है, इसलिए इस तरह के हालात में इसीतरह की भावुक अपीलों द्वारा उनमें फूट और विश्वासघात को पैदा करना बहुत बड़ी गलती एवं क्रांति-विरोधी काम होगा। इससे सरकार को उन्हें कुचलने में साफ तौर पर सहायता मिलती है।
इसलिए हमारी आपसे प्रार्थना है, या तो आप जेलों में बंद क्रांतिकारियों से मिल कर इस विषय पर बातचीत करने पर कोई फैसला कर ले अन्यथा ऐसी अपीलें करना बंद कर दे। इन दोनों रास्ते में से किसी एक को अख्तियार कर लीजिए और वह भी पूरे दिल से। अगर आप उनकी सहायता नहीं कर सकते तो मेहरबानी करके उन पर दया कीजिए, और उन्हें अकेल छोड़ दीजिए। वे अपनी रक्षा स्वयं कर लेंगे। वे बहुत अच्छी तरह जानते हैं कि आगे आने वाले राजनीतिक युद्ध में उनका नेतृत्व निश्चित है। जनता बराबर उनकी तरफ बढ़ रही हैं। वह दिन दूर नहीं है जब उनके नेतृत्व में और उनके झंडे के नीचे जनता अपने समाजवादी प्रजातंत्र के महान लक्ष्य की ओर बढ़ती नजर आयेगी।
और अगर आप वाकई उनकी सहायता करना चाहते हैं तो उन्हें दृष्टिकोण समझाने के लिए उनसे बातचीत और हालात पर खुली बहस कीजिए।
उम्मीद है आप उपर्युक्त प्रार्थना पर विचार करेंगे और अपना मत जनता के सामने रखेंगे।
आपका
अनेकों में से एक।  



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