अरुण माहेश्वरी
आज के अखबारों में एक साथ भारत की तीन प्रमुख हस्तियों के बयान एक साथ प्रकाशित हुए हैं।
पहला बयान है राष्ट्रपति प्रणव मुखर्जी का। एक महीने में तीसरी बार उन्होंने भारत की बहुलता के हवाले से असहिष्णुता को ठुकराने का आह्वान किया है। उनके शब्दों में - ‘‘130 करोड़ लोगों का भारत मुख्यत: तीन नृजातीय समूहों, कॉकेसियन, द्रविड़ और मंगोलों का देश है। यहां 122 भाषाएं हैं, 1600 बोलियां हैं और सात धर्मों का पालन किया जाता है। भारत फला-फूला सामंजस्य और सहिष्णुता की अपनी शक्ति की बदौलत। इसकी हर कीमत पर रक्षा करनी होगी।’’
राष्ट्रपति जी ने यह भी कहा कि ‘‘हमारा बहुलतावादी चरित्र समय की कसौटी पर खरा उतरा है। हमारी प्राचीन सभ्यता ने सदियों से हमारी विविधता को कायम रखा है।’’
राष्ट्रपति दिल्ली हाईकोर्ट के स्वर्ण जयंती समारोह में बोल रहे थे।
दूसरा बयान है रिजर्व बैंक आफ इंडिया के गवर्नर रघुराम राजन का। आईआईटी, दिल्ली के दीक्षांत समारोह को संबोधित करते हुए उन्होंने संवाद के लिये सहिष्णुता और परस्पर सम्मान को नितांत जरूरी बताया। उनका बल इस बात पर था कि सिर्फ सहिष्णुता के बल पर अनेक बुराइयों से निपटा जा सकता है। उदाहरण के तौर पर उन्होंने अमेरिका का जिक्र किया। वहां पहले अक्सर अमेरिकी विद्रोही नौजवान प्रदर्शनों में प्रशासन को भड़काने के लिये अमेरिकी झंडे को जला दिया करते थे। इससे पुलिस उनपर और भी उग्रता से हमला करती, जो प्रकारांतर से विद्रोहियों को ही लाभ पहुंचाता था। क्रमश: अमेरिकी समाज झंडे को जलाने के प्रति सहिष्णु होगया, प्रशासन ने उसे तवज्जो देना बंद कर दिया और देखा गया कि क्रमश: विद्रोही नौजवानों द्वारा झंडे को जलाना भी बंद होगया।
गवर्नर राजन ने सत्ता के बल पर किसी पर भी अपने विचार को लादने की भर्त्सना की।
तीसरी आवाज है इन्फोसिस के सह-संस्थापक, एन. आर. नारायणमूर्ति की। नारायणमूर्ति उन लोगों में रहे हैं जिन्होंने एक समय नरेन्द्र मोदी को आंकने के लिए हमेशा 2002 के गुजरात के जन-संहार के मानदंड के प्रयोग का विरोध किया था। कल उन्होंने ही एनडीटीवी पर एक बातचीत में साफ शब्दों में कहा - ‘‘आज की सच्चाई यह है कि भारत में अल्पसंख्यकों के दिमाग में काफी डर समा गया है।’’
‘‘इस या दूसरी किसी भी सरकार की प्राथमिकता होनी चाहिए कि केंद्र और राज्य, दोनों स्तर पर प्रत्येक भारतीय के अंदर फिर से यह आत्म-विश्वास, ऊर्जा, उत्साह और निष्ठा पैदा करे कि यह देश हम सबका है। हमें सब अधिकार समान रूप से प्राप्त है। हम यहां बिल्कुल सुरक्षित है और इसीलिये हम भारत के उत्थान के लिये काम करेंगे।
‘‘किसी भी देश ने तब तक स्थाई आर्थिक प्रगति हासिल नहीं की है जब तक उसमें अविश्वास और डर का अंत नहीं हो जाता, जब तक बहु-संख्यकों द्वारा अल्प-संख्यकों का उत्पीड़न समाप्त नहीं हो जाता।’’
दो दिन पहले ही आरएसएस के प्रवक्ता ने देश के बुद्धिजीवियों के ऐसे ही बयानों और असहिष्णुता के खिलाफ उनकी कार्रवाइयों को ‘नंगा नाच’ घोषित किया था।
राष्ट्रपति प्रणव मुखर्जी, रिजर्व बैंक के गवर्नर रघुराम राजन और इन्फोसिस के एन. आर. नारायणमूर्ति के उपरोक्त बयानों को आरएसएस कौन सा ‘नाच’ कहेगा ?
आज के अखबारों में एक साथ भारत की तीन प्रमुख हस्तियों के बयान एक साथ प्रकाशित हुए हैं।
पहला बयान है राष्ट्रपति प्रणव मुखर्जी का। एक महीने में तीसरी बार उन्होंने भारत की बहुलता के हवाले से असहिष्णुता को ठुकराने का आह्वान किया है। उनके शब्दों में - ‘‘130 करोड़ लोगों का भारत मुख्यत: तीन नृजातीय समूहों, कॉकेसियन, द्रविड़ और मंगोलों का देश है। यहां 122 भाषाएं हैं, 1600 बोलियां हैं और सात धर्मों का पालन किया जाता है। भारत फला-फूला सामंजस्य और सहिष्णुता की अपनी शक्ति की बदौलत। इसकी हर कीमत पर रक्षा करनी होगी।’’
राष्ट्रपति जी ने यह भी कहा कि ‘‘हमारा बहुलतावादी चरित्र समय की कसौटी पर खरा उतरा है। हमारी प्राचीन सभ्यता ने सदियों से हमारी विविधता को कायम रखा है।’’
राष्ट्रपति दिल्ली हाईकोर्ट के स्वर्ण जयंती समारोह में बोल रहे थे।
दूसरा बयान है रिजर्व बैंक आफ इंडिया के गवर्नर रघुराम राजन का। आईआईटी, दिल्ली के दीक्षांत समारोह को संबोधित करते हुए उन्होंने संवाद के लिये सहिष्णुता और परस्पर सम्मान को नितांत जरूरी बताया। उनका बल इस बात पर था कि सिर्फ सहिष्णुता के बल पर अनेक बुराइयों से निपटा जा सकता है। उदाहरण के तौर पर उन्होंने अमेरिका का जिक्र किया। वहां पहले अक्सर अमेरिकी विद्रोही नौजवान प्रदर्शनों में प्रशासन को भड़काने के लिये अमेरिकी झंडे को जला दिया करते थे। इससे पुलिस उनपर और भी उग्रता से हमला करती, जो प्रकारांतर से विद्रोहियों को ही लाभ पहुंचाता था। क्रमश: अमेरिकी समाज झंडे को जलाने के प्रति सहिष्णु होगया, प्रशासन ने उसे तवज्जो देना बंद कर दिया और देखा गया कि क्रमश: विद्रोही नौजवानों द्वारा झंडे को जलाना भी बंद होगया।
गवर्नर राजन ने सत्ता के बल पर किसी पर भी अपने विचार को लादने की भर्त्सना की।
तीसरी आवाज है इन्फोसिस के सह-संस्थापक, एन. आर. नारायणमूर्ति की। नारायणमूर्ति उन लोगों में रहे हैं जिन्होंने एक समय नरेन्द्र मोदी को आंकने के लिए हमेशा 2002 के गुजरात के जन-संहार के मानदंड के प्रयोग का विरोध किया था। कल उन्होंने ही एनडीटीवी पर एक बातचीत में साफ शब्दों में कहा - ‘‘आज की सच्चाई यह है कि भारत में अल्पसंख्यकों के दिमाग में काफी डर समा गया है।’’
‘‘इस या दूसरी किसी भी सरकार की प्राथमिकता होनी चाहिए कि केंद्र और राज्य, दोनों स्तर पर प्रत्येक भारतीय के अंदर फिर से यह आत्म-विश्वास, ऊर्जा, उत्साह और निष्ठा पैदा करे कि यह देश हम सबका है। हमें सब अधिकार समान रूप से प्राप्त है। हम यहां बिल्कुल सुरक्षित है और इसीलिये हम भारत के उत्थान के लिये काम करेंगे।
‘‘किसी भी देश ने तब तक स्थाई आर्थिक प्रगति हासिल नहीं की है जब तक उसमें अविश्वास और डर का अंत नहीं हो जाता, जब तक बहु-संख्यकों द्वारा अल्प-संख्यकों का उत्पीड़न समाप्त नहीं हो जाता।’’
दो दिन पहले ही आरएसएस के प्रवक्ता ने देश के बुद्धिजीवियों के ऐसे ही बयानों और असहिष्णुता के खिलाफ उनकी कार्रवाइयों को ‘नंगा नाच’ घोषित किया था।
राष्ट्रपति प्रणव मुखर्जी, रिजर्व बैंक के गवर्नर रघुराम राजन और इन्फोसिस के एन. आर. नारायणमूर्ति के उपरोक्त बयानों को आरएसएस कौन सा ‘नाच’ कहेगा ?
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