शुक्रवार, 27 नवंबर 2015

बुराई का अंत और बुराई का प्रारंभ साथ-साथ

अरुण माहेश्वरी


आज संविधान दिवस की बहस के सिलसिले में लोक सभा में प्रधानमंत्री के भाषण को नहीं सुन पाया। कुछ न्यूज चैनलों पर उसकी क्लिपिंग्स देखी और उस पर कइयों की टिप्पणियों को भी सुना।

इसके पहले लोक सभा में राजनाथ सिंह का और राज्य सभा में अरुण जेटली का भाषण सुना था।

इन सबसे कुल मिला कर जैसी वैचारिक अराजकता का दृश्य दिखाई देता है, उससे अनायास ही हेगेल के तर्क शास्त्र में वर्णित उस स्थिति का खयाल आ जाता है कि कैसे कोई चीज बढ़ते-बढ़ते स्व-विरोधों के एक अनोखे संयोग में अपने अंत के साथ ही अपने उदय का संकेत देती है। एक परम विवर्तन। Absolute recoil । इस मामले में - एक बुराई के अंत के दृश्य से उसी बुराई का उदय।

शेक्सपियर के नाटक Troilus and Cressida के पांचवे अंक के दूसरे दृश्य में शेक्सपियर लिखते हैं :
O madness of discourse,
That cause sets up with and against itself !
Bi-fold authority ! where reason can revolt
without perdition, and loss assume all reason
Without revolt
(आह, विमर्श का पागलपन,/ कर्ता खुद के साथ और खुद के खिलाफ सामने आता है/दोहरी हैसियत ! जहां विवेक विद्रोह कर सकता है/ बिना विनाश के, और अंत सारे विवेक को धारण कर लेता है/बिना विद्रोह के)

इस नाटक के संदर्भ में ये पंक्तियां ट्रौयलस की उन स्व-विरोधी दलीलों के बारे में है जब ट्रौयलस को क्रेसीडा की बेवफाई का पता चलता है ; वह जो कहना चाहता है एक ही सुर में उसके पक्ष और विपक्ष की सारी दलीलें देने लगता है; उसके तर्क उसकी खुद की दलीलों के खिलाफ होते हैं लेकिन उन्हें खारिज नहीं करते, उसकी अतार्किकता तर्क को बिना खारिज किये तर्क का रूप लेने लगती है। एक कर्ता जो खुद अपने खिलाफ काम करता है, एक तर्क जो खुद के अस्वीकार से जुड़ जाता है।

यही है संविधान की मर्यादा और उसके नग्न उलंघन के बीच के संघी गोपनीय समझौते की सचाई !

इस सरकार के शासन के अंत तक यही नाटक जारी रहेगा। बुराई का अंत बुराई के प्रारंभ के साथ चलेगा। 

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