रविवार, 19 जून 2016

राजन प्रस्थान प्रकरण : क्या यह कोरा वितंडा है, या इसमें कोई आर्थिक तर्क भी है ?

-अरुण माहेश्वरी


आज के ‘टेलिग्राफ’ में रिजर्व बैंक के गवर्नर रघुराम राजन के प्रस्थान से जुड़ी खबरें छाई हुई हैं। नौकरशाहों का आना-जाना आम तौर पर कुछ राजनीतिक चर्चा से अतिरिक्त कोई विशेष अर्थ नहीं रखता है। इसमें अक्सर कानून का शासन वनाम नेताओं की मनमर्जी का सवाल मुख्य तौर पर काम करता है। हरियाणा कैडर के आईएएस अधिकारी अशोक खेमका का बाईस साल में अड़तालीस बार तबादला हो गया था। लेकिन उससे कोई विशेष नीतिगत सवाल सामने नहीं आया। नेताओं के भ्रष्टाचार और एक नौकरशाह द्वारा कानून के पालन के प्रति निष्ठा अथवा नौकरशाह के भ्रष्टाचार और कानून के बीच के तनाव से ज्यादा ऐसे विषयों की कोई अहमियत नहीं होती है।

लेकिन राजन को लेकर जो आज चल रहा है, उसमें प्रकट रूप में इस प्रकार का कोई पहलू नहीं दिखाई देता है। इसमें शक नहीं है कि नेताओं के साथ अक्सर कुछ भौंकने वाले पिल्ले रहा करते हैं। आज की राजनीति में सुब्रह्मण्यम स्वामी की भूमिका इससे ज्यादा नहीं है। और, हम यह भी नहीं मानते कि तमाम राजनीतिक निर्णयों के पीछे हमेशा निश्चित आर्थिक ही कारण होते हैं, जिसे बाज हलकों से ‘वर्गीय स्वार्थों’ की पदावली में व्याख्यायित किया जाता है।

फिर राजन को लेकर इतना शोर क्यों हैं ?

दरअसल, अगर हम गहराई से सोचे तो सबसे पहले हमें यह देखना होगा कि अर्थ-व्यवस्था में पूरी बैंकिंग प्रणाली की वास्तविक भूमिका क्या होती है ? बैंकिंग  प्रणाली को हम एक ऐसी सामाजिक-आर्थिक प्रक्रिया के रूप में देख सकते हैं जिसके जरिये समाज में पैदा होने वाली सारी अतिरिक्त संपदा मुद्रा के रूप यहां आकर संचित होती है। इस संपदा का एक बड़ा हिस्सा सरकारी काम-काजों, योजनाओं पर खर्च किया जाता है और बाकी हिस्से का ब्याज या दूसरे किसी भी रूप में लाभ कमाने के लिये अर्थ-व्यवस्था में फिर निवेश किया जाता है।

यहीं पर आकर किसी के लिये भी विचार का प्रश्न यह आ जाता है कि अतिरिक्त संपदा कहां और कितनी पैदा हो रही है और उसके खर्च या निवेश की प्राथमिकताएं क्या है ? दुनिया के विकसित देशों के पास अतिरिक्त संपदा हासिल करने के बेशुमार स्रोत हैं। औपनिवेशिक देशों की वित्तीय पूंजी आज भी सारी दुनिया से लगातार नाना प्रकार से धन बटोर रही है। और, अमेरिका जैसे देश ने अपने बहुराष्ट्रीय निगमों के जरिये सारी दुनिया पर अपने व्यापार का ऐसा जाल फैला लिया है कि उसके पास भी अतिरिक्त संपदा का एक लगातार, विशाल स्रोत बना हुआ है। कहना न होगा, कुल मिला कर किसी भी समाज में अतिरिक्त संपदा की पैदाईश का एक गहरा संबंध वहां की सामाजिक-राजनीतिक-ऐतिहासिक परिस्थितियों से भी होता है।

इसीलिये विकसित देशों के सामने सबसे बड़ी समस्या उनके खजाने में मुद्रा के रूप में लगातार इकट्ठा हो रही पूंजी के समानांतर उसके लगातार निवेश करते चले जाने की होती है। मुद्रा का यह अविराम अंतर्वाह प्रवाह जब साथ-साथ नहीं चलता है तो उनके सामने मुद्रा के संचित होने का गंभीर संकट हमेशा बना रहता है। खजाने में लगातार जमा होने वाली मुद्रा के निवेश को सुगम बनाने के लिये ही उन देशों में ब्याज की दर लगातार गिरती चली गई है, जो संचय के बजाय उपभोग को बढ़ावा देती है और दुनिया के विभिन्न हिस्सों में अपनी पूंजी के निवेश की संभावनाओं को बल पहुंचाती है।

लेकिन भारत की तरह के एक गरीब और विकासशील देश की स्थिति क्या है ? यह लाखों की तादाद में किसानों की आत्म-हत्याओं वाला देश है। जो भी सरकार यहां की व्यापक जनता की दुर्दशा से आंख मींच कर चलेगी, वही इस नतीजे पर पहुंच सकती है कि हमारे पास भी विकसित देशों की तरह संचित मुद्रा का वह अपार और अक्षय स्रोत है जिसके निवेश का हमारे पास रास्ता नहीं है। हमारा सामाजिक यथार्थ यह बताने के लिये काफी है कि हमारे लिये धन का कितना ज्यादा महत्व है। इसीलिये, यदि हमारा संसार एक अभावों का संसार है तो इसकी बैंकिंग प्रणाली में जमा होने वाली मुद्रा स्वाभाविक तौर पर हमारे लिये अन्यों की तुलना में बहुत कीमती है।

आरएसएस कंपनी और सुब्रह्मण्यम स्वामी भारत की झूठी शान की धुन में खोये हुए हैं। प्रधानमंत्री सहित इनके तमाम लोग जब 21वीं सदी को दुनिया में भारत की सदी कहते हैं तो किसी भी यथार्थवादी को इसपर हंसी के सिवाय और कुछ नहीं आ सकती है। कुछ तो इसकी तुलना गाड़ी के साथ दौड़ने वाले उस कुत्ते से भी करते हैं जो यह समझता है कि उसीने गाड़ी का सारा बोझ अपने कंधे पर ले रखा है। जैसे वाजपेयी के समय में ये अपनी ही तैयार की हुई ‘शाइनिंग इंडिया’ की माया में भटक गये थे, वैसे ही आज प्रधानमंत्री की आत्ममुग्धता में खोये हुए हैं। इसीलिये, बिना सोचे-समझे वे यह मान रहे हैं कि जब दुनिया के विकसित देश ब्याज की दरों में इतनी भारी कमी करके चलते हैं तो भला हम, इस पूरी सदी के वाहक, ऐसा क्यों नहीं कर सकते ! इनके मित्र पूंजीपति भी शुद्ध रूप से अपने निजी लाभों के लिये इन्हें यही सुझाव दे रहे हैं। वे इन्हें समझा रहे हैं कि ब्याज की दरों में गिरावट से देश के औद्योगीकरण की गति को बल मिलेगा।

इस, औद्योगीकरण के मामले में, राजन सहित दुनिया के तमाम अर्थशास्त्रियों का आकलन बिल्कुल अलग है। वे खुली आंख से आज के डिजिटल युग को देख रहे हैं। दुनिया की अर्थ-व्यवस्था अति-उत्पादन के संकट से त्रस्त है। चीन जैसा देश हांफ रहा है। विश्व बाजार नहीं, आज उसका आंतरिक बाजार उसके लिये रक्षक का काम कर रहा है। ऐसे समय में, औद्योगीकरण की अंधी मांग सिर्फ एक मृग-मरीचिका है जिसमें फंस कर मुट्ठी भर तथाकथित उद्योगपतियों की जेबें तो भरी जा सकती है, लेकिन वास्तव में कुछ भी हासिल नहीं हो सकता।

इसके विपरीत, उनका मानना है कि निवेश के मामले में विदेशों से मिलने वाली सस्ती पूंजी को ही लक्ष्य बना कर चला जाएं और उसीके जरिये समाज के आधुनिकीकरण की प्रक्रिया की दिशा में बढ़ा जाएं, जो अंतत: हमारे आंतरिक बाजार को चंगा करने में भी एक भूमिका अदा कर सकता है। एक बड़े मध्यवर्ग के तैयार हो जाने के बावजूद अभी तक हम इस मामले में बहुत पीछे ही हैं। इसी आकलन के आधार पर वे किसी भी हालत में बैंकों के ब्याज की दर को कम करते जाने के पक्ष में नहीं है क्योंकि इससे भारत के आम लोगों को उनके संचय पर होने वाली आमदनी कम होगी, व्यापक किसान जनता के साथ ही मध्यवर्ग का भी दरिद्रीकरण होगा और वित्त बाजार पर गिद्ध दृष्टि लगाये हुए उद्योगपति नामधारी मुट्ठी भर लोग मालामाल होंगे।

इस प्रकार, राजन के प्रस्थान के प्रकरण पर चल रहे सारे विवाद के मूल में अर्थ-व्यवस्था की यथार्थवादी और काल्पनिक समझ का एक द्वंद्व साफ दिखाई दे रहा है।  

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