-अरुण माहेश्वरी
रवीश कुमार ने पिछला पूरा सप्ताह अपने प्राइम टाइम में भारत की स्कूली शिक्षा में लग चुकी भ्रष्टाचार और मुनाफाखोरी की दीमक की चर्चा में व्यतीत किया। इसकी ध्वनि-प्रतिध्वनि देश के प्रत्येक कोने में काफी सघनता के साथ सुनाई दी और जगह-जगह अभिभावकों ने स्वतःस्फूर्त ढंग से जुलूस-प्रदर्शन भी शुरू कर दिये। रवीश कुमार के पास हजारों शिकायती ई मेल की तो निश्चित तौर पर भरमार हो गई होगी।
रवीश कुमार ने पिछला पूरा सप्ताह अपने प्राइम टाइम में भारत की स्कूली शिक्षा में लग चुकी भ्रष्टाचार और मुनाफाखोरी की दीमक की चर्चा में व्यतीत किया। इसकी ध्वनि-प्रतिध्वनि देश के प्रत्येक कोने में काफी सघनता के साथ सुनाई दी और जगह-जगह अभिभावकों ने स्वतःस्फूर्त ढंग से जुलूस-प्रदर्शन भी शुरू कर दिये। रवीश कुमार के पास हजारों शिकायती ई मेल की तो निश्चित तौर पर भरमार हो गई होगी।
आज देश की सामाजिक स्थिति राजनीति-जनित उत्तेजनाओं में जिस प्रकार फंसी हुई है, बहुत से लोगों को शायद लगता होगा कि इन हिंदू-मुस्लिम या सवर्ण-अवर्ण या शहर-देहात की तरह के राजनीतिक बना दिये गये प्रश्नों के समाधान में ही भारत की प्रगति का रास्ता निहित है। इसीलिये हम तमाम लोग पूरी ताकत से इन तथाकथित बड़े विषयों से जूझते रहने के लिये ही मजबूर रहते हैं।
लेकिन नागरिक समाज की गांठे किन छोटे-छोटे, दैनन्दिन जीवन के बेहद महत्वपूर्ण सवालों में फंसी हुई है, यह तब पता चलता है जब कोई स्कूली शिक्षा की तरह के प्रत्येक आदमी के जीवन को प्रभावित करने वाले विषय को उठा कर उनमें अटके हुए समाज की विडंबनाओं पर रोशनी डालता है। यही तो वे गांठे है, जिनमें फंसा कर कोई भी शोषक-व्यवस्था पूरे समाज के विकास की गति को रोक कर रखती है।
हम सब जानते हैं, अमेरिका के इतने जागरूक राष्ट्रपति बराक ओबामा को सीरिया, अफगानिस्तान, क्यूबा या वेनेजुएला की तरह के तमाम विषयों से, या फिर 2008 के मेल्टडाउन के बाद की आंतरिक आर्थिक परिस्थितियों से निपटने में जितनी परेशानी नहीं हुई थी, उससे बहुत ज्यादा परेशानी स्वास्थ्य के विषय से हुई थी। उनकी ओबामा हेल्थ केयर के नाम से प्रसिद्ध स्कीम के खिलाफ, जिसमें प्रत्येक अमेरिकी को पूरी तरह से मुफ्त और बेहतरीन स्वास्थ्य सुविधा उपलब्ध कराने की व्यवस्था की गई थी, पूरा अमेरिकी तंत्र उतर पड़ा था। अर्थनीति शास्त्र के सभी अस्त्रों का इस्तेमाल करते हुए उसे बदनाम करने और रोकने की हरचंद कोशिश की गई। इस काम में रिपब्लिकन और डैमोक्रेटों, दोनों को शामिल पाया गया था। लेकिन यही ओबामा की जीवन दृष्टि थी, जिसने अमेरिकी नागरिकों के स्वास्थ्य के इस मूलभूत अधिकार को दूसरी तमाम झूठी शास्त्रीयताओं से ऊपर माना, और वे डटे रहे। और कहना न होगा, अमेरिकी राजनीति के इतिहास में ओबामा अपने इस एक योगदान की वजह से ही हमेशा सम्मान के साथ याद किये जायेंगे।
इसी पृष्ठभूमि में हमें अपने देश में भी शिक्षा और स्वास्थ्य की तरह के विषयों के महत्व को देखने की कोशिश करनी चाहिए। रवीश कुमार तो बहुत छोटी से हस्ती है, भारत के राष्ट्रपति और प्रधानमंत्री भी यदि ठान लें कि शिक्षा जगत को ऐसे सभी प्रकार के शिक्षा माफियाओं से मुक्त करायेंगे तब भी यह एक असंभव काम होगा। इसके लिये किसी बड़ी क्रांति से कम प्रयत्न नहीं करने पड़ेंगे।
इसी प्रकार, भारत में स्वास्थ्य और चिकित्सा का क्षेत्र भी एक ऐसा क्षेत्र है, जिसके काले अंधेरे में हमारे देश का पूरा पूंजीवादी तंत्र सबसे अधिक फलफूल रहा है और हमारा समाज पूरी तरह से अटका हुआ है। किसी सरकार की हिम्मत नहीं है कि इसमें चल रही महा-धांधलियों की एक चूल भी हिला सकें।
यह जरूर है कि भारत के वर्तमान प्रधानमंत्री इन या ऐसे दूसरे सभी, मसलन् स्वच्छता, प्रदूषण या निर्मल गंगा की तरह के प्रकल्पों पर बिना किसी ठोस कार्रवाई के भारी शोर-शराबा जरूर कर सकते हैं! इस मामले में वे भारत के नंबर वन विज्ञापन ब्वाय अमिताभ बच्चन से टक्कर ले रहे हैं । और, ठोस रूप से करने के लिये उनके पास कुछ कारपोरेट घरानों की सेवा में नोटबंदी की तरह का जन-विरोधी कदम होते हैं ।
हम जानते हैं, और रवीश भी इस चीज को जानते हैं कि उनके ऐसे एकाध कार्यक्रम से परिस्थिति में रंच मात्र भी फर्क नहीं आने वाला है। लेकिन जो भी राजनीति को सामाजिक निर्माण के किसी रचनात्मक कार्य के रूप में देखते हैं, उनके जेहन में इस प्रकार के विषयों के महत्व को बैठाने में ये कार्यक्रम अगर थोड़ा भी सफल होते हैं तो हम मानेंगे कि रवीश ने एक बीज डाला है जिस पर फल आने में संभव है दशकों नहीं, बल्कि सदियों का समय भी लग जाए, लेकिन फल आयेंगे जरूर।
रवीश कुमार को इन शानदार कार्यक्रमों के लिये बधाई।
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