(कामरेड सीताराम येचुरी का साक्षात्कार )
-अरुण माहेश्वरी
आज के टेलिग्राफ में संकरषण ठाकुर को दिये एक साक्षात्कार में सीपीआई(एम) के महासचिव ने यह साफ कर दिया है कि अपनी पार्टी के नियमानुसार अब वे तीसरी बार राज्य सभा में नहीं जायेंगे।
जब उनसे पूछा गया कि “ऐसी कौन सी गलती हुई जिसकी वजह से आज वामपंथ का यह खस्ता हाल है ? इसके जवाब में उन्होंने कहा है कि “मैं नहीं कहूंगा कि कोई गलती हुई है। हमेशा की तरह ही दुनिया तेजी से बदल रही है, लेकिन हम उससे ताल-मेल बैठाने में पिछड़ गये हैं। लेनिन ने बहुत सारगर्भित ढंग से मार्क्सवाद को परिभाषित किया था - यह ठोस परिस्थिति का ठोस सार तत्व है। जब ठोस परिस्थिति बदलती जाती है और उसके अनुरूप ठोस विश्लेषण नहीं होता तो एक समय का फर्क पैदा हो जाता है। हम उस फर्क के शिकार है, हम उस गति से ताल-मेल नहीं बैठा पाए हैं।”
(I wouldn’t say some thing has gone wrong. The world has been changing rapidly, as it always does, but we suffered a lag in keeping up. Lenin had defined Marxism very pithily – it is the concrete essence of concrete conditions. As concrete conditions keep changing and concrete analysis doesn’t keep pace, there is a time lag. We are victims of that lag, we have not kept pace.)
राजनीति में यह फर्क सिद्धांत और व्यवहार, दोनों स्तरों पर ही व्यक्त हो सकता है। हम नहीं जानते, सीताराम यहां किस स्तर पर आए फर्क की बात कर रहे हैं, जो समय के साथ ताल-मेल न बैठा पाने की कमजोरी के बावजूद किसी “गलती” की श्रेणी में नहीं आता है !
बहरहाल, अपने साक्षात्कार में सीताराम आगे सोवियत संघ के बिखराव, वैश्वीकरण, द्वितीय विश्वयुद्ध के बाद समाजवाद की जमा गलतियों की बात करते हैं और कहते हैं कि जब युद्ध और अनौपिवेशीकरण के उपरांत पूंजीवाद के शांतिपूर्ण दृढ़ीकरण (consolidation) की प्रक्रिया शुरू हुई, समाजवाद के लिये जरूरी था कि वह वैश्विक परिवर्तन को आत्मसात करता। पूंजीवाद यही कर रहा था। वह इसे आत्मसात कर रहा था।…”
जब सीताराम से यह पूछा गया कि क्या वे सोवियत की घटनाओं को भारतीय वामपंथ की दशा के लिये जिम्मेदार मानते हैं तो उन्होंने साफ कहा कि नहीं, वे तो सिर्फ समय में आए फर्क को बता रहे थे, अपनी दशा के लिये किसी अन्य को दोषी नहीं ठहरा रहे थे।
और इसके साथ ही बात वामपंथ के मताधार में आई गिरावट, और बंगाल पर आ गई। सीताराम ने पार्टी कांग्रेस का हवाला देते हुए पार्टी की स्वतंत्र हस्तक्षेपकारी शक्ति के विकास को अपनी प्रमुख चिंता का विषय बताया और एक मार्के की बात कही कि “ हम जब सांप्रदायिक ताकतों के उदय आदि की तरह के बड़े मुद्दों पर बात कर रहे थे, जनता के हित से जुड़े मुद्दे हमसे छूट गये। उससे हमारी स्वतंत्र पहचान खत्म हो गई। इसके लिये कुछ हद तक सांगठनिक कारण भी जिम्मेदार थे, जिनकी ओर हम ज्यादा ध्यान नहीं दे रहे थे।” उन्होंने बताया कि तभी से सांगठनिक मुद्दों पर ध्यान देना शुरू किया गया। कोलकाता में प्लेनम हुए अभी एक साल ही बीता है। इस दिशा में सुधारों का अभी पूरा जायजा नहीं लिया जा सकता है।
जब संकरषण ठाकुर ने उनसे पूछा कि संगठन की ओर ध्यान क्यों नहीं दिया जा सका तो सीताराम ने कहा कि इसके कई राजनीतिक कारण रहे। “ चुनावी राजनीति में गठजोड़ों के दो पहलू होते हैं। पहला राजनीति के बड़े खतरों से बचना और दूसरा आप जिनके साथ हाथ मिलाते हैं, उनकी गलत नीतियों से लड़ना।”
अर्थात, एक होती है आपकी प्रत्यक्ष स्थिति और दूसरी अदृश्य, एक प्रकार की आभासी स्थिति। जब कोई किसी बड़ी भूमिका में होता है तब उसकी वह स्थिति उससे एक अलग भूमिका की मांग करने लगती है, पंच परमेश्वर वाली मांग। इसीलिये सीताराम जिसे गठजोड़ की राजनीति का दूसरा पहलू कहते हैं, कमजोरी वाला पहलू, वह उसका एक सबसे स्वाभाविक और कहीं ज्यादा शक्तिशाली पहलू होता है, वह पर्दे के पीछे काम करता है, लेकिन सर्वप्रमुख हो जाता है। इसे पश्चिम बंगाल के वाम मोर्चा के अनुभव से और भी अच्छी तरह से समझा जा सकता है। वाममोर्चा की एकता इसीलिये कायम रही क्योंकि उसमें अन्य वामपंथी दलों के लिये उनकी तमाम कमजोरियों के बावजूद हमेशा एक जगह बनी रही। इसे ही चालू शब्दावली में गठबंधन धर्म भी कहते हैं।
इस सवाल पर कि यूपीए में रहते वक्त तो आपने बहुत कुछ किया, कामरेड सीताराम ने ग्रामीण रोजगार योजना, भोजन का अधिकार, शिक्षा का अधिकार की तरह की सब बातों को गिनाया, भेल के निजीकरण को रोकने, हवाई अड्डों के निजीकरण को रोकने की तरह की बातें भी गिनाई। इस पर संकरषण ने पूछा कि तब यूपीए सरकार से हटना क्या एक बड़ी भूल थी, तो सीताराम ने कहा - “ नहीं ऐसा नहीं है। लेकिन यह कहूंगा कि जिस सवाल पर हम हटें, उसे जनता को नहीं समझा सके।”
कहना न होगा, कि जिस चीज को आप नहीं समझा सके, कांग्रेस ने समझा दिया। कांग्रेस ने आपके व्यवहार को गठबंधन धर्म के विरुद्ध साबित कर दिया।
संकरषण ने पलट कर फिर सवाल किया कि क्या आपने इस पर पार्टी में चर्चा की, तो सीताराम ने बताया, बाद में की गई। हम एक न्यूनतम कार्यक्रम के आधार पर मनमोहन सिंह सरकार का समर्थन कर रहे थे, अभी उसमें से दूसरी कई चीजों को पूरा करना था, तब अचानक पारमाणविक संधि का मुद्दा आ गया। दूसरा हम बिल्कुल सही भारत के अमेरिका के साये में जाने को लेकर चिंतित थे। इसी सिलसिले में, सीताराम ने आज के अमेरिकी राष्ट्रपति ट्रंप का उल्लेख करते हुए कहा कि देख नहीं रहे हैं, वह क्या कर रहा है ? “ साम्राज्यवाद का यही चरित्र है। अमेरिकी साम्राज्यवाद के साये में जाना भारत के आत्म-हित के अनुरूप नहीं था। …अमेरिका के साथ पारमाणविक संधि पर हस्ताक्षर करके कौन सा बड़ा आत्महित साध लिया गया । ”
इसपर जब संकरषण ठाकुर ने पूछा कि आज भारत में जो हो रहा है, उसके लिये क्या आप अपने को किसी भी रूप में जिम्मेदार मानते हैं ? सीताराम ने कहा कि “ मैं यह नहीं कहूंगा कि देश के हित को देखने की अकेले हमारी जिम्मेदारी नहीं थी। ...मैं अब भी नहीं समझ पा रहा हूं कि उस संधि को करने की कांग्रेस की क्या बाध्यता थी । ” उससे एक मेगावाट बिजली नहीं मिली, बल्कि उसकी मदद से नरेन्द्र मोदी ने भारत को प्रतिरक्षा से लेकर आर्थिक मामलों तक में देश को अमेरिका के छोटे सहयोगी का रूप दे दिया।
आगे सीताराम से बंगाल के बारे में कुछ सवाल-जवाब हुएं। उन्होंने कहा कि बंगाल की राजनीति सिर्फ चुनावी मसला नहीं है, वर्ग संघर्ष का मसला है। गांव में वाममोर्चा के समय में जिनके हितों को नुकसान पहुंचा उन्होंने पलट कर वार किया है।
आज वामपंथ के बजाय गरीबों के नेता के रूप में ममता बनर्जी, नरेन्द्र मोदी की छवि पर सीताराम ने कहा कि जैसे ट्रंप अमेरिका के मजदूर वर्ग का हितैषी है ! ब्रिटेन के दक्षिणपंथी ब्रेक्सिट के नाम पर मजदूर वर्ग का समर्थन पा गये । मार्क्सवादी के रूप में यह हमारे लिये चिंता की बात है। यह इसलिये संभव हुआ क्योंकि वामपंथ ने अपनी जगह छोड़ दी। मजदूरों में असंतोष है लेकिन हम अगर उनके बीच नहीं रहेंगे, तो ऊपर-ऊपर की राजनीति से कुछ नहीं होगा।
इसी में सीताराम ने बंगाल के प्रसंग में बताया कि वहां लगातार 35 साल के शासन के कारण कार्यकर्ता अधिक से अधिक प्रशासन पर निर्भर हो गया था। आज वहां ममता बनर्जी और भाजपा, दोनों सांप्रदायिक ध्रुवीकरण का खेल खेल रहे हैं। यह सिलसिला हर जगह दिखाई देता है जिसके कारण एक राष्ट्र के रूप में हम बहुत संकटजनक स्थिति में हैं। बंगाल के बारे में उन्होंने आगे यह भी कहा कि वहां कांग्रेस के साथ जाना हमारी नीतियों से मेल नहीं खाता था। तथापि सांप्रदायिक ताकतों से लड़ने के लिये हमारा कहना है कि एक व्यापक मंच की जरूरत है।
आगे की राजनीति के बारे में सीताराम ने कहा कि सबसे पहले हमें एक स्पष्ट धर्म-निरपेक्ष विचारों के व्यक्ति को राष्ट्रपति भवन में लाने की लड़ाई लड़नी है।
इसी साक्षात्कार के अंत में उन्होंने यह भी साफ किया कि अपनी पार्टी के नियम का पालन करते हुए वे अब फिर राज्य सभा के लिये नहीं खड़े होंगे।
हमने यहां अपनी कुछ टिप्पणियों के बावजूद कामरेड सीताराम के पूरे साक्षात्कार का सार-संक्षेप भरसक ईमानदारी से रखने की कोशिश की है।
सीताराम ने इस साक्षात्कार में जिन तमाम विषयों पर अपनी राय दी है, वे सभी आज वामपंथी राजनीति में दिलचस्पी रखने वाले लोगों के लिये समान रूप से चिंता के विषय हैं। कम्युनिस्ट पार्टी के संगठन से जुड़े सवाल हो या परमाणविक संधि की तरह का महत्वपूर्ण व्यवहारिक राजनीति का सवाल हो। कुछ दिनों पहले ही फेसबुक पर अपनी एक पोस्ट में हमने सीताराम के राज्य सभा में जाने के बारे में भी लिखा था कि आज की राजनीति में संसद के मंच के खास महत्व को समझते हुए सीताराम का वहां रहना उचित होगा।
लेकिन कामरेड सीताराम ने इस साक्षात्कार में राजनीति के कठिन सवालों को दरकिनार करते हुए किस प्रकार कुछ चालू विश्वासों या नियमों की बातों को दोहरा कर विवाद के तमाम विषयों को टालने की कोशिश की है, वह इसमें साफ दिखाई देता है। जिन विषयों को हम अतीव महत्व का मानते रहे हैं, उन्हें सीपीआई(एम) के महासचिव के द्वारा कोई खास तवज्जो न देना, यह बताने के लिये काफी है कि कैसे हम दो अलग-अलग जमीन पर खड़े हो कर अपनी बातें कह रहे हैं।
वे वामपंथ की सारी समस्या की जड़ों में मेहनतकशों के बीच उसकी उपस्थिति की बात पर बल दे रहे थे, और हम उस बात को किसी भी रूप में कमतर न समझते हुए भी राजनीतिक व्यवहार और विचार की भौतिक शक्ति पर भी समान बल देते रहे हैं। हांए इसमें भी, राष्ट्रपति चुनाव का एक विषय ऐसा दिखाई दियाए जिसमें हमें अपनी राय और कामरेड सीताराम की राय में कोई फर्क नहीं दिखाई दिया।
बहरहाल, कामरेड सीताराम और हम जैसे लोगों के बीच विचारों का यह फर्क किसी को जितना ही ऊपरी या उथला क्यों न दिखाई दे, यह उतना उथला है नहीं। बंगाल में पैंतीस साल के शासन से कार्यकर्ताओं के प्रशासन-आश्रित हो जाने की बात देश के दूसरे किसी भी हिस्से में, जहां वामपंथियों की कभी कोई सरकार नहीं रही है, जरा भी लागू नहीं होती है। इसके बावजूद, जब वामपंथ राजनीति में अपनी पूर्व भूमिका को गंवाता है तो कोई कैसे, उसे एक गहरा राजनीतिक विषय मानने से इंकार कर सकता है ? और जनता के बीच लगातार काम करते रहने के बावजूद किसी राजनीतिक पार्टी का कोई राजनीतिक शक्ति न बन पाना उसके सामने कैसे समान रूप से गहरे सांगठनिक सिद्धांतों का सवाल पैदा नहीं करता है ?
मार्क्सवाद के विज्ञान के तहत भारत में जनता का जनवाद स्थापित करने का सिद्धांत अपनाया गया, उस पर अमल के लिये पार्टी गठित हुई और काल-सापेक्ष एक कार्यनीति अपनाई गई। इन सब के साथ ही जुड़े होते हैं राजनीति के लगातार व्यवहारिक प्रयोग, समकालीनता के प्रयोग। यह सच है कि व्यवहार के ये पहलू कितने भी महत्वपूर्ण क्यों न हो, कभी भी किसी विज्ञान का स्थान नहीं ले सकते हैं। इन्हें बार-बार ठोस अनुभवों के आधार पर सिद्धांत की रोशनी में परखा जाता है। इसीलिये जहां एक समय में किसी भी वजह से लिये गये व्यवहारिक निर्णय पर ही अटक कर रहा नहीं जा सकता, वहीं उसे किसी आधिभौतिक सत्य की तरह परम मान कर दोहराने का भी कोई तुक नहीं होता, तब तो और भी नहीं जब उससे कोई वांछित परिणाम हासिल नहीं हो सका। इससे वह प्रयोग एक तात्कालिक राजनीति का सामयिक विषय न रह कर आगे के रास्ते की एक स्थायी बाधा साबित होने लगता है। यूपीए-1 के अनुभव से निकाले जा रहे ऐसे गलत निष्कर्षों के कारण ही सीपीआई(एम) के अंध-कांग्रेस विरोध में फंसने का खतरा पैदा होता है।
कामरेड सीताराम पार्टी के महासचिव हैं। उनकी कुछ सीमाओं को समझा जा सकता है। लेकिन फिर भी, यह जरूरी लगता है कि वे पार्टी के राजनीतिक व्यवहार की जड़ताओं को तोड़ने के लिये ही कहीं ज्यादा खुल कर पार्टी के अतीत के राजनीतिक और सांगठनिक व्यवहार से जुड़े विषयों पर चर्चा करें। जब किसी भी कोने से गंभीरता के साथ कुछ विषयों परए वे भले जनवादी केंद्रीयतावाद की तरह के विषय ही क्यों न हो, कोई सवाल उठे तो उसके जवाब में हम एक गहरे गतिरोध में फंसे दल के महासचिव से यह उम्मीद नहीं करेंगे की वह सवाल उठाने वालों को ही यह कह कर चुप कराने में ज्यादा दिलचस्पी लें कि हम आपकी बात को विचार के दायरे में लाकर आपको अनुगृहीत नहीं कर सकतेए जैसा पहले देखा जा चुका है ! हमने "गतिरोध” की चर्चा इसीलिये भी की क्योंकि खुद सीताराम ने यह स्वीकारा है कि हम समय की गति के साथ अपना ताल-मेल बैठाने में विफल रहे हैं।
बहरहाल, हम यहां कामरेड सीताराम के इस साक्षात्कार का लिंक मित्रों के साथ साझा कर रहे हैं :
https://www.telegraphindia.com/1170430/jsp/7days/story_148985.jsp
-अरुण माहेश्वरी
आज के टेलिग्राफ में संकरषण ठाकुर को दिये एक साक्षात्कार में सीपीआई(एम) के महासचिव ने यह साफ कर दिया है कि अपनी पार्टी के नियमानुसार अब वे तीसरी बार राज्य सभा में नहीं जायेंगे।
जब उनसे पूछा गया कि “ऐसी कौन सी गलती हुई जिसकी वजह से आज वामपंथ का यह खस्ता हाल है ? इसके जवाब में उन्होंने कहा है कि “मैं नहीं कहूंगा कि कोई गलती हुई है। हमेशा की तरह ही दुनिया तेजी से बदल रही है, लेकिन हम उससे ताल-मेल बैठाने में पिछड़ गये हैं। लेनिन ने बहुत सारगर्भित ढंग से मार्क्सवाद को परिभाषित किया था - यह ठोस परिस्थिति का ठोस सार तत्व है। जब ठोस परिस्थिति बदलती जाती है और उसके अनुरूप ठोस विश्लेषण नहीं होता तो एक समय का फर्क पैदा हो जाता है। हम उस फर्क के शिकार है, हम उस गति से ताल-मेल नहीं बैठा पाए हैं।”
(I wouldn’t say some thing has gone wrong. The world has been changing rapidly, as it always does, but we suffered a lag in keeping up. Lenin had defined Marxism very pithily – it is the concrete essence of concrete conditions. As concrete conditions keep changing and concrete analysis doesn’t keep pace, there is a time lag. We are victims of that lag, we have not kept pace.)
राजनीति में यह फर्क सिद्धांत और व्यवहार, दोनों स्तरों पर ही व्यक्त हो सकता है। हम नहीं जानते, सीताराम यहां किस स्तर पर आए फर्क की बात कर रहे हैं, जो समय के साथ ताल-मेल न बैठा पाने की कमजोरी के बावजूद किसी “गलती” की श्रेणी में नहीं आता है !
बहरहाल, अपने साक्षात्कार में सीताराम आगे सोवियत संघ के बिखराव, वैश्वीकरण, द्वितीय विश्वयुद्ध के बाद समाजवाद की जमा गलतियों की बात करते हैं और कहते हैं कि जब युद्ध और अनौपिवेशीकरण के उपरांत पूंजीवाद के शांतिपूर्ण दृढ़ीकरण (consolidation) की प्रक्रिया शुरू हुई, समाजवाद के लिये जरूरी था कि वह वैश्विक परिवर्तन को आत्मसात करता। पूंजीवाद यही कर रहा था। वह इसे आत्मसात कर रहा था।…”
जब सीताराम से यह पूछा गया कि क्या वे सोवियत की घटनाओं को भारतीय वामपंथ की दशा के लिये जिम्मेदार मानते हैं तो उन्होंने साफ कहा कि नहीं, वे तो सिर्फ समय में आए फर्क को बता रहे थे, अपनी दशा के लिये किसी अन्य को दोषी नहीं ठहरा रहे थे।
और इसके साथ ही बात वामपंथ के मताधार में आई गिरावट, और बंगाल पर आ गई। सीताराम ने पार्टी कांग्रेस का हवाला देते हुए पार्टी की स्वतंत्र हस्तक्षेपकारी शक्ति के विकास को अपनी प्रमुख चिंता का विषय बताया और एक मार्के की बात कही कि “ हम जब सांप्रदायिक ताकतों के उदय आदि की तरह के बड़े मुद्दों पर बात कर रहे थे, जनता के हित से जुड़े मुद्दे हमसे छूट गये। उससे हमारी स्वतंत्र पहचान खत्म हो गई। इसके लिये कुछ हद तक सांगठनिक कारण भी जिम्मेदार थे, जिनकी ओर हम ज्यादा ध्यान नहीं दे रहे थे।” उन्होंने बताया कि तभी से सांगठनिक मुद्दों पर ध्यान देना शुरू किया गया। कोलकाता में प्लेनम हुए अभी एक साल ही बीता है। इस दिशा में सुधारों का अभी पूरा जायजा नहीं लिया जा सकता है।
जब संकरषण ठाकुर ने उनसे पूछा कि संगठन की ओर ध्यान क्यों नहीं दिया जा सका तो सीताराम ने कहा कि इसके कई राजनीतिक कारण रहे। “ चुनावी राजनीति में गठजोड़ों के दो पहलू होते हैं। पहला राजनीति के बड़े खतरों से बचना और दूसरा आप जिनके साथ हाथ मिलाते हैं, उनकी गलत नीतियों से लड़ना।”
अर्थात, एक होती है आपकी प्रत्यक्ष स्थिति और दूसरी अदृश्य, एक प्रकार की आभासी स्थिति। जब कोई किसी बड़ी भूमिका में होता है तब उसकी वह स्थिति उससे एक अलग भूमिका की मांग करने लगती है, पंच परमेश्वर वाली मांग। इसीलिये सीताराम जिसे गठजोड़ की राजनीति का दूसरा पहलू कहते हैं, कमजोरी वाला पहलू, वह उसका एक सबसे स्वाभाविक और कहीं ज्यादा शक्तिशाली पहलू होता है, वह पर्दे के पीछे काम करता है, लेकिन सर्वप्रमुख हो जाता है। इसे पश्चिम बंगाल के वाम मोर्चा के अनुभव से और भी अच्छी तरह से समझा जा सकता है। वाममोर्चा की एकता इसीलिये कायम रही क्योंकि उसमें अन्य वामपंथी दलों के लिये उनकी तमाम कमजोरियों के बावजूद हमेशा एक जगह बनी रही। इसे ही चालू शब्दावली में गठबंधन धर्म भी कहते हैं।
इस सवाल पर कि यूपीए में रहते वक्त तो आपने बहुत कुछ किया, कामरेड सीताराम ने ग्रामीण रोजगार योजना, भोजन का अधिकार, शिक्षा का अधिकार की तरह की सब बातों को गिनाया, भेल के निजीकरण को रोकने, हवाई अड्डों के निजीकरण को रोकने की तरह की बातें भी गिनाई। इस पर संकरषण ने पूछा कि तब यूपीए सरकार से हटना क्या एक बड़ी भूल थी, तो सीताराम ने कहा - “ नहीं ऐसा नहीं है। लेकिन यह कहूंगा कि जिस सवाल पर हम हटें, उसे जनता को नहीं समझा सके।”
कहना न होगा, कि जिस चीज को आप नहीं समझा सके, कांग्रेस ने समझा दिया। कांग्रेस ने आपके व्यवहार को गठबंधन धर्म के विरुद्ध साबित कर दिया।
संकरषण ने पलट कर फिर सवाल किया कि क्या आपने इस पर पार्टी में चर्चा की, तो सीताराम ने बताया, बाद में की गई। हम एक न्यूनतम कार्यक्रम के आधार पर मनमोहन सिंह सरकार का समर्थन कर रहे थे, अभी उसमें से दूसरी कई चीजों को पूरा करना था, तब अचानक पारमाणविक संधि का मुद्दा आ गया। दूसरा हम बिल्कुल सही भारत के अमेरिका के साये में जाने को लेकर चिंतित थे। इसी सिलसिले में, सीताराम ने आज के अमेरिकी राष्ट्रपति ट्रंप का उल्लेख करते हुए कहा कि देख नहीं रहे हैं, वह क्या कर रहा है ? “ साम्राज्यवाद का यही चरित्र है। अमेरिकी साम्राज्यवाद के साये में जाना भारत के आत्म-हित के अनुरूप नहीं था। …अमेरिका के साथ पारमाणविक संधि पर हस्ताक्षर करके कौन सा बड़ा आत्महित साध लिया गया । ”
इसपर जब संकरषण ठाकुर ने पूछा कि आज भारत में जो हो रहा है, उसके लिये क्या आप अपने को किसी भी रूप में जिम्मेदार मानते हैं ? सीताराम ने कहा कि “ मैं यह नहीं कहूंगा कि देश के हित को देखने की अकेले हमारी जिम्मेदारी नहीं थी। ...मैं अब भी नहीं समझ पा रहा हूं कि उस संधि को करने की कांग्रेस की क्या बाध्यता थी । ” उससे एक मेगावाट बिजली नहीं मिली, बल्कि उसकी मदद से नरेन्द्र मोदी ने भारत को प्रतिरक्षा से लेकर आर्थिक मामलों तक में देश को अमेरिका के छोटे सहयोगी का रूप दे दिया।
आगे सीताराम से बंगाल के बारे में कुछ सवाल-जवाब हुएं। उन्होंने कहा कि बंगाल की राजनीति सिर्फ चुनावी मसला नहीं है, वर्ग संघर्ष का मसला है। गांव में वाममोर्चा के समय में जिनके हितों को नुकसान पहुंचा उन्होंने पलट कर वार किया है।
आज वामपंथ के बजाय गरीबों के नेता के रूप में ममता बनर्जी, नरेन्द्र मोदी की छवि पर सीताराम ने कहा कि जैसे ट्रंप अमेरिका के मजदूर वर्ग का हितैषी है ! ब्रिटेन के दक्षिणपंथी ब्रेक्सिट के नाम पर मजदूर वर्ग का समर्थन पा गये । मार्क्सवादी के रूप में यह हमारे लिये चिंता की बात है। यह इसलिये संभव हुआ क्योंकि वामपंथ ने अपनी जगह छोड़ दी। मजदूरों में असंतोष है लेकिन हम अगर उनके बीच नहीं रहेंगे, तो ऊपर-ऊपर की राजनीति से कुछ नहीं होगा।
इसी में सीताराम ने बंगाल के प्रसंग में बताया कि वहां लगातार 35 साल के शासन के कारण कार्यकर्ता अधिक से अधिक प्रशासन पर निर्भर हो गया था। आज वहां ममता बनर्जी और भाजपा, दोनों सांप्रदायिक ध्रुवीकरण का खेल खेल रहे हैं। यह सिलसिला हर जगह दिखाई देता है जिसके कारण एक राष्ट्र के रूप में हम बहुत संकटजनक स्थिति में हैं। बंगाल के बारे में उन्होंने आगे यह भी कहा कि वहां कांग्रेस के साथ जाना हमारी नीतियों से मेल नहीं खाता था। तथापि सांप्रदायिक ताकतों से लड़ने के लिये हमारा कहना है कि एक व्यापक मंच की जरूरत है।
आगे की राजनीति के बारे में सीताराम ने कहा कि सबसे पहले हमें एक स्पष्ट धर्म-निरपेक्ष विचारों के व्यक्ति को राष्ट्रपति भवन में लाने की लड़ाई लड़नी है।
इसी साक्षात्कार के अंत में उन्होंने यह भी साफ किया कि अपनी पार्टी के नियम का पालन करते हुए वे अब फिर राज्य सभा के लिये नहीं खड़े होंगे।
हमने यहां अपनी कुछ टिप्पणियों के बावजूद कामरेड सीताराम के पूरे साक्षात्कार का सार-संक्षेप भरसक ईमानदारी से रखने की कोशिश की है।
सीताराम ने इस साक्षात्कार में जिन तमाम विषयों पर अपनी राय दी है, वे सभी आज वामपंथी राजनीति में दिलचस्पी रखने वाले लोगों के लिये समान रूप से चिंता के विषय हैं। कम्युनिस्ट पार्टी के संगठन से जुड़े सवाल हो या परमाणविक संधि की तरह का महत्वपूर्ण व्यवहारिक राजनीति का सवाल हो। कुछ दिनों पहले ही फेसबुक पर अपनी एक पोस्ट में हमने सीताराम के राज्य सभा में जाने के बारे में भी लिखा था कि आज की राजनीति में संसद के मंच के खास महत्व को समझते हुए सीताराम का वहां रहना उचित होगा।
लेकिन कामरेड सीताराम ने इस साक्षात्कार में राजनीति के कठिन सवालों को दरकिनार करते हुए किस प्रकार कुछ चालू विश्वासों या नियमों की बातों को दोहरा कर विवाद के तमाम विषयों को टालने की कोशिश की है, वह इसमें साफ दिखाई देता है। जिन विषयों को हम अतीव महत्व का मानते रहे हैं, उन्हें सीपीआई(एम) के महासचिव के द्वारा कोई खास तवज्जो न देना, यह बताने के लिये काफी है कि कैसे हम दो अलग-अलग जमीन पर खड़े हो कर अपनी बातें कह रहे हैं।
वे वामपंथ की सारी समस्या की जड़ों में मेहनतकशों के बीच उसकी उपस्थिति की बात पर बल दे रहे थे, और हम उस बात को किसी भी रूप में कमतर न समझते हुए भी राजनीतिक व्यवहार और विचार की भौतिक शक्ति पर भी समान बल देते रहे हैं। हांए इसमें भी, राष्ट्रपति चुनाव का एक विषय ऐसा दिखाई दियाए जिसमें हमें अपनी राय और कामरेड सीताराम की राय में कोई फर्क नहीं दिखाई दिया।
बहरहाल, कामरेड सीताराम और हम जैसे लोगों के बीच विचारों का यह फर्क किसी को जितना ही ऊपरी या उथला क्यों न दिखाई दे, यह उतना उथला है नहीं। बंगाल में पैंतीस साल के शासन से कार्यकर्ताओं के प्रशासन-आश्रित हो जाने की बात देश के दूसरे किसी भी हिस्से में, जहां वामपंथियों की कभी कोई सरकार नहीं रही है, जरा भी लागू नहीं होती है। इसके बावजूद, जब वामपंथ राजनीति में अपनी पूर्व भूमिका को गंवाता है तो कोई कैसे, उसे एक गहरा राजनीतिक विषय मानने से इंकार कर सकता है ? और जनता के बीच लगातार काम करते रहने के बावजूद किसी राजनीतिक पार्टी का कोई राजनीतिक शक्ति न बन पाना उसके सामने कैसे समान रूप से गहरे सांगठनिक सिद्धांतों का सवाल पैदा नहीं करता है ?
मार्क्सवाद के विज्ञान के तहत भारत में जनता का जनवाद स्थापित करने का सिद्धांत अपनाया गया, उस पर अमल के लिये पार्टी गठित हुई और काल-सापेक्ष एक कार्यनीति अपनाई गई। इन सब के साथ ही जुड़े होते हैं राजनीति के लगातार व्यवहारिक प्रयोग, समकालीनता के प्रयोग। यह सच है कि व्यवहार के ये पहलू कितने भी महत्वपूर्ण क्यों न हो, कभी भी किसी विज्ञान का स्थान नहीं ले सकते हैं। इन्हें बार-बार ठोस अनुभवों के आधार पर सिद्धांत की रोशनी में परखा जाता है। इसीलिये जहां एक समय में किसी भी वजह से लिये गये व्यवहारिक निर्णय पर ही अटक कर रहा नहीं जा सकता, वहीं उसे किसी आधिभौतिक सत्य की तरह परम मान कर दोहराने का भी कोई तुक नहीं होता, तब तो और भी नहीं जब उससे कोई वांछित परिणाम हासिल नहीं हो सका। इससे वह प्रयोग एक तात्कालिक राजनीति का सामयिक विषय न रह कर आगे के रास्ते की एक स्थायी बाधा साबित होने लगता है। यूपीए-1 के अनुभव से निकाले जा रहे ऐसे गलत निष्कर्षों के कारण ही सीपीआई(एम) के अंध-कांग्रेस विरोध में फंसने का खतरा पैदा होता है।
कामरेड सीताराम पार्टी के महासचिव हैं। उनकी कुछ सीमाओं को समझा जा सकता है। लेकिन फिर भी, यह जरूरी लगता है कि वे पार्टी के राजनीतिक व्यवहार की जड़ताओं को तोड़ने के लिये ही कहीं ज्यादा खुल कर पार्टी के अतीत के राजनीतिक और सांगठनिक व्यवहार से जुड़े विषयों पर चर्चा करें। जब किसी भी कोने से गंभीरता के साथ कुछ विषयों परए वे भले जनवादी केंद्रीयतावाद की तरह के विषय ही क्यों न हो, कोई सवाल उठे तो उसके जवाब में हम एक गहरे गतिरोध में फंसे दल के महासचिव से यह उम्मीद नहीं करेंगे की वह सवाल उठाने वालों को ही यह कह कर चुप कराने में ज्यादा दिलचस्पी लें कि हम आपकी बात को विचार के दायरे में लाकर आपको अनुगृहीत नहीं कर सकतेए जैसा पहले देखा जा चुका है ! हमने "गतिरोध” की चर्चा इसीलिये भी की क्योंकि खुद सीताराम ने यह स्वीकारा है कि हम समय की गति के साथ अपना ताल-मेल बैठाने में विफल रहे हैं।
बहरहाल, हम यहां कामरेड सीताराम के इस साक्षात्कार का लिंक मित्रों के साथ साझा कर रहे हैं :
https://www.telegraphindia.com/1170430/jsp/7days/story_148985.jsp
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