बुधवार, 26 अप्रैल 2017

राजनीति के सारे सवाल मोदी-शाह-संघ धुरी में सिमट गये हैं

(दिल्ली नगर निगमों के चुनाव परिणामों पर एक टिप्पणी)
-अरुण माहेश्वरी


दिल्ली नगर निगमों के चुनाव परिणाम अरविंद केजरीवाल या अजय माकन के लिये भले कोई रहस्य या पहेली हो, हमारे लिये इसमें कोई रहस्य नहीं था।

आज की भारतीय राजनीति में मोदी-शाह-संघ तिकड़ी ने अपार धनबल और मीडिया बल के जरिये भारतीय राजनीति को इस कदर सिमटा दिया है कि लोकसभा से लेकर मोहल्ला कमेटी और स्कूल कमेटी तक के चुनाव मोदी वनाम मोदी-विरोध के चुनाव बन कर रह गये हैं। अर्थात अब जीवन की छोटी से छोटी दैनंदिन समस्याओं का समाधान भी राजनीति के सबसे बड़े प्रश्नों के समाधान में सिमट जा रहा है। इसीलिये जब तक मोदी जी है, जनता के प्रति बिना किसी जवाबदेही के प्रत्येक स्तर पर संघ प्रचारकों की राजनीति का तांडव जारी रहेगा।

ऐसे में जब तक परिस्थितियां जनता के तमाम हिस्सों को इन अतियों के खिलाफ एकजुट नहीं करती और राजनीतिक दल अपनी कार्यनीति को इनके खिलाफ जनता को एकजुट करने की दिशा नहीं देते, यह जो चल रहा है, चलता रहेगा।

बिहार ने इनका मुकाबला करने का एक सामयिक महागठबंधन का रास्ता दिखाया था। लेकिन यूपी में उसे नहीं अपनाया जा सका। सभी भाजपा-विरोधी पार्टियों का महागठबंधन तो दूर की बात, अमित शाह इन पार्टियों की अपनी एकता के ही बड़ी आसानी से धुर्रे उड़ाते दिखाई दिये। दिल्ली में भी बिल्कुल यही हुआ।

हम नहीं जानते आगे गुजरात में क्या होगा। क्या कांग्रेस, केजरीवाल या अन्य कभी इस गुत्थी को समझ पायेंगे कि मोदी के खिलाफ जनता की एकता, खुद इन दलों की अपनी एकता को बनाये रखने के लिये जरूरी है!

बहरहाल, यह तय है कि जिस बिहार के महागठबंधन को हम इनके मुकाबले का एक सामयिक समाधान बता रहे हैं, उस पर भी यदि सभी स्तरों पर बढ़ा गया तो वह न सिर्फ विपक्ष के दलों को खुद की एकता को बनाये रखने का बल देगा, बल्कि अभी क्रमशः मोदी-शाह-संघ तिकड़ी की अपराजेयता का जो मिथ बनाया जा रहा है, उसके टूटने में देर नहीं लगेगी। वामपंथ के लिये भी अपनी प्रासंगिकता को फिर से हासिल करने का एक मात्र रास्ता मोदी-शाह-संघ तिकड़ी के खिलाफ जनता की एकता को बनाने में ही है।

दिल्ली के चुनाव परिणामों का यदि कोई सबक है तो वह यही है, जिसे यूपी के परिणामों से भी लिया जा सकता था।  

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