- गुजरात का संदेश
-अरुण माहेश्वरी
अहमद पटेल की जीत ही लाज़िमी थी । जिस सीट को जीतने के लिये 47 विधायकों की ज़रूरत थी, कांग्रेस के पास 57 विधायक थे । फिर भी, मोदी-शाह बदनाम जोड़ी ने अपनी अनैतिकताओं की पूरी ताकत ताकत झोंक कर इसे लाज़िमी-ग़ैर-लाज़िमी के बीच की सीधी टक्कर का रूप दे दिया । पूरी नंगई से विधायकों की खरीद-फ़रोख़्त में उतर गये । जनता के बीच पूरी ताकत के साथ एक ही बात फैलायी गई कि इसे ही 'संसदीय जनतंत्र' कहते है ।
कांग्रेस ने कैसे अहमद पटेल की इस जीत को सुनिश्चित किया, एनसीपी और जेडीयू के एक-एक विधायक ने उसे कैसे बल दिया, इस पूरी कहानी को सब जानते है । मोदी-शाह के गुंडों, पुलिस और वाघेला की तरह के घुटे हुए सत्ता के दलालों की मार से बचने के लिये उनके विधायकों को गुजरात को छोड़ कर बैंगलोर तक जाना पड़ा ।
इस सीट को लेकर गुजरात में अमित शाह ने जो किया और इधर सभी राज्यों में दूसरे दलों के जन-प्रतिनिधियों को दबाव में लाकर तोड़ने का जो काम मोदी-शाह गिरोह कर रहा है, उसकी गहराई में जाने पर यही कहा जा सकता है कि वे सचेत रूप से जनता में यह संदेश देना चाहते हैं कि संसदीय जनतंत्र में अब जनता की कोई भूमिका नहीं बची है । जनता किसी भी दल के प्रतिनिधि को क्यों न चुने, सबको अंबानी-अडानी की धन शक्ति और मोदी-शाह की राज-शक्ति का गुलाम बन कर ही रहना होगा !
इस प्रकार वास्तव अर्थों में वे राज्य में अपनी सर्वशक्तिमत्ता को स्थापित करके, जन-प्रतिनिधियों को ग़ुलामों में बदल कर पूरी संसदीय जनतांत्रिक प्रणाली को जनता की नज़रों में बिल्कुल लुंज-पुंज और निरर्थक बना दे रहे हैं । ढेर सारे जन-प्रतिनिधियों को सीबीआई, आयकर विभाग इत्यादि के दुरुपयोग से नाना मुक़दमों में फँसा कर उनकी संसदीय निरापदता को मज़ाक़ का विषय बना कर छोड़ दे रहे हैं और दावा कर रहे हैं कि भ्रष्टाचार से लड़ाई का मतलब यही है कि विपक्ष के जन-प्रतिनिधियों की कोई हैसियत नहीं रहनी चाहिए । जन-प्रतिनिधियों की साख को इस प्रकार सुचिंतित ढंग से गिराना पूरी संसदीय प्रणाली की साख को ही गिराने का एक ऐसा सुनियोजित काम है, जिसकी पृष्ठभूमि में मोदी-शाह-संघ की तिकड़ी अपनी हर प्रकार की असंवैधानिक, ग़ैर-कानूनी या माफ़ियाँ वाली हरकतों को बिना किसी रोक-टोक के धड़ल्ले से चला सके ।
अभी जिस प्रकार मोदी जी के रुतबे को बढ़ाने का अभियान चल रहा है, उसी अनुपात में जनता के सभी व्यक्तिगत प्रतिनिधियों के सम्मान को घटाने की भी समानान्तर प्रक्रिया चल रही है । जिस हद तक जन प्रतिनिधि बौने होते जायेंगे, संसद की अवहेलना करने के लिये कुख्यात एक कोरे लफ़्फ़ाज़ प्रधानमंत्री का व्यक्तित्व अधिक से अधिक विराट दिखाई देने लगेगा । हिटलर के आगमन की प्रतीक्षा में सालों से लाठियाँ भांज रहे आरएसएस के लोग अब उसी हद तक ढोल-मृदंग बजाते उसकी आरती की तैयारियों के लिये उन्मादित दिखाई देने लगे हैं । इनकी मदद के लिये 'सब चोर है, सब चोर है' का शोर मचाने वाले 'क्रांति वीरों' की एक गाल बजाऊ फ़ौज भी पहले से लगी हुई है ।
वे 2019 की तैयारी में ऐसे तमाम लोगों को अभी से डराने-धमकाने में लग गये हैं जिनमें स्वाधीनता का लेश मात्र भी बचा हुआ हो ताकि 2019 के तूफ़ान के साथ भारत में संसदीय जनतंत्र के पूरे तंबू को ही उखाड़ कर हवा में उड़ा दिया जाए ।
2019 के चुनाव में हर स्तर पर तमाम प्रकार की धाँधलियों के जरिये चुनाव को पूरी तरह से लूट लेने का मोदी-शाह कंपनी ने जो सपना देखना शुरू किया है, उत्तर प्रदेश की जीत के बाद बिहार में अपनी सरकार बनाने और भाजपा से बचे हुए बाकी सभी राज्यों में जनतंत्र के अपने यमदूतों को दौड़ाने का जो सिलसिला शुरू किया गया है, उसमें गुजरात की राज्य सभा की इस एक सीट को जीतने की कोशिश काफी तात्पर्यपूर्ण थी । वें कांग्रेस के उम्मीदवार की सौ फ़ीसदी निश्चित जीत को हार में बदल कर आम लोगों के बीच मोदी-शाह की अपराजेयता का एक ऐसा हौवा खड़ा करना चाहते थे ताकि आगे की उनकी और भी बड़ी-बड़ी जनतंत्र-विरोधी साज़िशों के विरुद्ध किसी प्रकार की कोई आवाज उठाने की कल्पना भी न कर सके और जनता भी इन षड़यंत्रकारियों को ही अपनी अंतिम नियति मान कर पूरी तरह से निस्तेज हो जाए ।
गुजरात में कांग्रेस दल की सक्रियता और अंतिम समय तक चुनाव आयोग के सामने भी उनकी दृढ़ता ने अमित शाह के इन मंसूबों पर काफी हद तक पानी फेरने का काम किया है । इसमें एनसीपी के एक सदस्य और जेडीयू के एक सदस्य ने भी उनका साथ दिया है । यह प्रतिरोध के एक नये संघर्ष के प्रारंभ का बिंदु साबित हो सकता है । जेडीयू के शरद यादव ने मोदी के दिये गये लालच को ठुकरा कर बिहार की सरज़मीन पर ही कौड़ियों के मोल बिकने वाले नीतीश कुमार को चुनौती देने का बीड़ा उठाया है ।
इधर दूसरे ग़ैर-भाजपाई प्रमुख दलों ने भी भाजपा के खिलाफ संयुक्त अभियान में कांग्रेस के नेतृत्व में एक नये अभियान के साथ अपने को जोड़ने की प्रतिबद्धता का ऐलान किया है । गुजरात की इस पराजय का चंद महीनों बाद ही इस राज्य में होने वाले विधान सभा के चुनावों पर निश्चित तौर पर गहरा असर पड़ेगा । वहाँ वैसे ही जनता के बीच से भाजपा की ज़मीन खिसकने के सारे संकेत मिल रहे हैं । वे इसी जनता की चेतना को कमज़ोर करके और मोदी के चमत्कार को बढ़ा-चढ़ा कर बता कर जीतने के फेर में हैं । कांग्रेस के 43 विधायकों ने अपनी दृढ़ता का परिचय देकर इनके जहाज़ में इतना बड़ा सुराख़ पैदा कर दिया है कि आने वाले गुजरात चुनाव को पार करना भी इसके लिये कठिन होगा ।
कहना न होगा, यहीं से भाजपा के जहाज़ के डूबने का जो सिलसिला शुरू होगा, 2019 का आम चुनाव निश्चित तौर पर मोदी-शाह का वाटरलू साबित होगा । आज के टेलिग्राफ़ में अहमद पटेल की जीत की खबर की बहुत सही सुर्खी लगाई है - 'अमित शाह आया, देखा और फुस्स हो गया' (Amit Shah came, saw & flopped) ।
-अरुण माहेश्वरी
अहमद पटेल की जीत ही लाज़िमी थी । जिस सीट को जीतने के लिये 47 विधायकों की ज़रूरत थी, कांग्रेस के पास 57 विधायक थे । फिर भी, मोदी-शाह बदनाम जोड़ी ने अपनी अनैतिकताओं की पूरी ताकत ताकत झोंक कर इसे लाज़िमी-ग़ैर-लाज़िमी के बीच की सीधी टक्कर का रूप दे दिया । पूरी नंगई से विधायकों की खरीद-फ़रोख़्त में उतर गये । जनता के बीच पूरी ताकत के साथ एक ही बात फैलायी गई कि इसे ही 'संसदीय जनतंत्र' कहते है ।
कांग्रेस ने कैसे अहमद पटेल की इस जीत को सुनिश्चित किया, एनसीपी और जेडीयू के एक-एक विधायक ने उसे कैसे बल दिया, इस पूरी कहानी को सब जानते है । मोदी-शाह के गुंडों, पुलिस और वाघेला की तरह के घुटे हुए सत्ता के दलालों की मार से बचने के लिये उनके विधायकों को गुजरात को छोड़ कर बैंगलोर तक जाना पड़ा ।
इस सीट को लेकर गुजरात में अमित शाह ने जो किया और इधर सभी राज्यों में दूसरे दलों के जन-प्रतिनिधियों को दबाव में लाकर तोड़ने का जो काम मोदी-शाह गिरोह कर रहा है, उसकी गहराई में जाने पर यही कहा जा सकता है कि वे सचेत रूप से जनता में यह संदेश देना चाहते हैं कि संसदीय जनतंत्र में अब जनता की कोई भूमिका नहीं बची है । जनता किसी भी दल के प्रतिनिधि को क्यों न चुने, सबको अंबानी-अडानी की धन शक्ति और मोदी-शाह की राज-शक्ति का गुलाम बन कर ही रहना होगा !
इस प्रकार वास्तव अर्थों में वे राज्य में अपनी सर्वशक्तिमत्ता को स्थापित करके, जन-प्रतिनिधियों को ग़ुलामों में बदल कर पूरी संसदीय जनतांत्रिक प्रणाली को जनता की नज़रों में बिल्कुल लुंज-पुंज और निरर्थक बना दे रहे हैं । ढेर सारे जन-प्रतिनिधियों को सीबीआई, आयकर विभाग इत्यादि के दुरुपयोग से नाना मुक़दमों में फँसा कर उनकी संसदीय निरापदता को मज़ाक़ का विषय बना कर छोड़ दे रहे हैं और दावा कर रहे हैं कि भ्रष्टाचार से लड़ाई का मतलब यही है कि विपक्ष के जन-प्रतिनिधियों की कोई हैसियत नहीं रहनी चाहिए । जन-प्रतिनिधियों की साख को इस प्रकार सुचिंतित ढंग से गिराना पूरी संसदीय प्रणाली की साख को ही गिराने का एक ऐसा सुनियोजित काम है, जिसकी पृष्ठभूमि में मोदी-शाह-संघ की तिकड़ी अपनी हर प्रकार की असंवैधानिक, ग़ैर-कानूनी या माफ़ियाँ वाली हरकतों को बिना किसी रोक-टोक के धड़ल्ले से चला सके ।
अभी जिस प्रकार मोदी जी के रुतबे को बढ़ाने का अभियान चल रहा है, उसी अनुपात में जनता के सभी व्यक्तिगत प्रतिनिधियों के सम्मान को घटाने की भी समानान्तर प्रक्रिया चल रही है । जिस हद तक जन प्रतिनिधि बौने होते जायेंगे, संसद की अवहेलना करने के लिये कुख्यात एक कोरे लफ़्फ़ाज़ प्रधानमंत्री का व्यक्तित्व अधिक से अधिक विराट दिखाई देने लगेगा । हिटलर के आगमन की प्रतीक्षा में सालों से लाठियाँ भांज रहे आरएसएस के लोग अब उसी हद तक ढोल-मृदंग बजाते उसकी आरती की तैयारियों के लिये उन्मादित दिखाई देने लगे हैं । इनकी मदद के लिये 'सब चोर है, सब चोर है' का शोर मचाने वाले 'क्रांति वीरों' की एक गाल बजाऊ फ़ौज भी पहले से लगी हुई है ।
वे 2019 की तैयारी में ऐसे तमाम लोगों को अभी से डराने-धमकाने में लग गये हैं जिनमें स्वाधीनता का लेश मात्र भी बचा हुआ हो ताकि 2019 के तूफ़ान के साथ भारत में संसदीय जनतंत्र के पूरे तंबू को ही उखाड़ कर हवा में उड़ा दिया जाए ।
2019 के चुनाव में हर स्तर पर तमाम प्रकार की धाँधलियों के जरिये चुनाव को पूरी तरह से लूट लेने का मोदी-शाह कंपनी ने जो सपना देखना शुरू किया है, उत्तर प्रदेश की जीत के बाद बिहार में अपनी सरकार बनाने और भाजपा से बचे हुए बाकी सभी राज्यों में जनतंत्र के अपने यमदूतों को दौड़ाने का जो सिलसिला शुरू किया गया है, उसमें गुजरात की राज्य सभा की इस एक सीट को जीतने की कोशिश काफी तात्पर्यपूर्ण थी । वें कांग्रेस के उम्मीदवार की सौ फ़ीसदी निश्चित जीत को हार में बदल कर आम लोगों के बीच मोदी-शाह की अपराजेयता का एक ऐसा हौवा खड़ा करना चाहते थे ताकि आगे की उनकी और भी बड़ी-बड़ी जनतंत्र-विरोधी साज़िशों के विरुद्ध किसी प्रकार की कोई आवाज उठाने की कल्पना भी न कर सके और जनता भी इन षड़यंत्रकारियों को ही अपनी अंतिम नियति मान कर पूरी तरह से निस्तेज हो जाए ।
गुजरात में कांग्रेस दल की सक्रियता और अंतिम समय तक चुनाव आयोग के सामने भी उनकी दृढ़ता ने अमित शाह के इन मंसूबों पर काफी हद तक पानी फेरने का काम किया है । इसमें एनसीपी के एक सदस्य और जेडीयू के एक सदस्य ने भी उनका साथ दिया है । यह प्रतिरोध के एक नये संघर्ष के प्रारंभ का बिंदु साबित हो सकता है । जेडीयू के शरद यादव ने मोदी के दिये गये लालच को ठुकरा कर बिहार की सरज़मीन पर ही कौड़ियों के मोल बिकने वाले नीतीश कुमार को चुनौती देने का बीड़ा उठाया है ।
इधर दूसरे ग़ैर-भाजपाई प्रमुख दलों ने भी भाजपा के खिलाफ संयुक्त अभियान में कांग्रेस के नेतृत्व में एक नये अभियान के साथ अपने को जोड़ने की प्रतिबद्धता का ऐलान किया है । गुजरात की इस पराजय का चंद महीनों बाद ही इस राज्य में होने वाले विधान सभा के चुनावों पर निश्चित तौर पर गहरा असर पड़ेगा । वहाँ वैसे ही जनता के बीच से भाजपा की ज़मीन खिसकने के सारे संकेत मिल रहे हैं । वे इसी जनता की चेतना को कमज़ोर करके और मोदी के चमत्कार को बढ़ा-चढ़ा कर बता कर जीतने के फेर में हैं । कांग्रेस के 43 विधायकों ने अपनी दृढ़ता का परिचय देकर इनके जहाज़ में इतना बड़ा सुराख़ पैदा कर दिया है कि आने वाले गुजरात चुनाव को पार करना भी इसके लिये कठिन होगा ।
कहना न होगा, यहीं से भाजपा के जहाज़ के डूबने का जो सिलसिला शुरू होगा, 2019 का आम चुनाव निश्चित तौर पर मोदी-शाह का वाटरलू साबित होगा । आज के टेलिग्राफ़ में अहमद पटेल की जीत की खबर की बहुत सही सुर्खी लगाई है - 'अमित शाह आया, देखा और फुस्स हो गया' (Amit Shah came, saw & flopped) ।
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