फेसबुक पर चली एक चर्चा का ब्यौरा
-अरुण माहेश्वरी
4 अगस्त को अपने 'चतुर्दिक' ब्लाग पर हमने लिखाः
“क्या सीपीएम में बहुमतवादियों ने पार्टी को फिर एक बार तोड़ने का निर्णय ले लिया है?“
“ऐसा लगता है कि सीपीआई(एम) में प्रकाश करात के नेतृत्व में बहुमतवादियों ने भाजपा के खिलाफ एकजुट प्रतिरोध में कांग्रेस को शामिल करने के मामले में चल रहे मतभेदों को उनकी अंतिम परिणति तक ले जाने, अर्थात पार्टी को तोड़ डालने तक का निर्णय ले लिया है ।
“पार्टी के मुखपत्र 'पीपुल्स डेमोक्रेसी' में, जिसके संपादक प्रकाश करात है, बिहार में नीतीश के विश्वासघात के प्रसंग में निहायत अप्रासंगिक तरीक़े से कांग्रेस को घसीट कर यह फैसला सुनाया गया है कि भाजपा के खिलाफ ऐसा कोई भी संयुक्त प्रतिरोध सफल नहीं हो सकता है जिसमें कांग्रेस दल शामिल होगा ।
“इसमें कांग्रेस को नव-उदारवादी नीतियों को लादने के लिये मुख्य रूप से ज़िम्मेदार बताते हुए कहा गया है कि भाजपा को हराने के लिये जरूरी है कि हिंदुत्व की सांप्रदायिकता के साथ ही नव-उदारवाद से भी लड़ा जाए ।
“हमारा इन 'सिद्धांतकारों' से एक छोटा सा सवाल है कि नव-उदारवाद से उनका तात्पर्य क्या है ? क्या यह इक्कीसवी सदी के पूँजीवाद से भिन्न कोई दूसरा अर्थ रखता है ? तब क्या फासीवाद-विरोधी किसी भी संयुक्त मोर्चे की यह पूर्व-शर्त होगी कि उसे पूँजीवाद-विरोधी भी होना पड़ेगा ? क्या मार्क्सवादी सिद्धांतकारों ने फासीवाद को पूँजीवाद के दायरे में भी एक अलग स्थान पर नहीं रखा था ? स्टालिन ने जब कहा था कि जनतंत्र के जिस झंडे को पूँजीवाद ने फेक दिया है, उसे उठा कर चलने का दायित्व कम्युनिस्टों का है, तब क्या वे प्रकारांतर से पूँजीवाद की ताक़तों के साथ संयुक्त मोर्चा बनाने की पैरवी ही नहीं कर रहे थे ?
“दरअसल, सीपीआई(एम) का यह बहुमतवादी धड़ा शुद्ध गुटबाज़ी में लगा हुआ दिखाई देता है जो एक सैद्धांतिक संघर्ष की आड़ में पार्टी की पिछली कांग्रेस में सीताराम येचुरी को महासचिव बनाये जाने की अपनी पराजय का आगामी कांग्रेस में प्रतिशोध लेना चाहता है । इसके लिये थोथी लफ़्फ़ाज़ी के जरिये वह अभी जो खेल खेल रहा है, कहना न होगा, वह पार्टी को अपने संकीर्ण स्वार्थों के लिये विभाजित कर देने तक की हद तक चले जाने के उन्माद की दशा में पहुंचता जा रहा है । पार्टी के अख़बारों का इस प्रकार की झूठी अंदरूनी सैद्धांतिक लड़ाई में खुल्लम-ख़ुल्ला प्रयोग करना कुछ इसी प्रकार के संकेत देता है ।
“इसे भूला नहीं जा सकता है कि प्रकाश करात ने ही पिछले दिनों इंडियन एक्सप्रेस में यह लिखा था कि वे अभी भाजपा को फासीवादी नहीं कहेंगे । इस पर भारी विवाद हुआ था, लेकिन किसी भी सवाल का जवाब देने के बजाय वे चुप्पी साध कर बैठे रहे थे ।“
हमने इसे फेसबुक पर भी साझा किया । स्वभाविक तौर पर हमारी इस टिप्पणी को कुछ और मित्रों ने भी साझा किया और कुछ मित्रों ने विषय को और भी खोलने के उद्देश्य से कुछ भी सवाल उठायें । खास तौर पर Santosh Kumar Jha जी के वाल पर ।
अच्युत ठाकुर जी ने कांग्रेस दल के बारे में कुछ वाजिब सवाल उठाते हुए लिखा कि “जहां तक सीपीआइम का प्रश्न है-उसमें नीचे से ऊपर तक सुदृहड़ आंतरिक प्रजातन्त्र है! राजनीतिक परिस्थियों के परिपेक्ष्य में- कार्ययोजना में सुधार हेतु स्वस्थ बहस को आप जैसे बौद्धिक-चिंतक का गुटबाज़ी कह कर प्रचारित करना, अनुचित ओर अस्वीकार्य है! शोषल मीडिया पर त्वरित प्रतिक्रिया देना मुझे आपके स्तर से इतर लगता है! हो सकता है मेरी समझदारी में कुछ कमी हो? लेकिन समीक्षा ओर आत्म आलोचना आवश्यक मानता हूं! आपकी विश्लेषणात्म वा विस्तृत टिप्पणी की प्रतीक्षा रहेगी!“
इसपर हमारा संक्षिप्त सा जवाब था कि “मेरे अनुसार सोशल मीडिया का इससे बेहतर इस्तेमाल नहीं हो सकता । आज किसी भी पार्टी का कोई भी विषय उसके कथित 'आंतरिक जनतंत्र' की सीमाओं का मुँहताज नहीं है ।
बाक़ी विषय पर मैं नहीं समझता कोई सफ़ाई देने की ज़रूरत है । हम भाजपा और कांग्रेस को समतुल्य नहीं मानते । इसीलिये दोनों से समान व्यवहार के किसी भी विचार को ग़लत मानते हैं । और जहाँ तक गुटबाज़ी का सवाल है, इस ग़लत समझ को पार्टी कांग्रेस में लिये गये फ़ैसले पर अमल के नाम पर ज़बर्दस्ती चलाने की कोशिश के पीछे दूसरी कोई मंशा नहीं हो सकती है ।“
इसके बाद Mukesh Aseem जी लिखते हैं - “प्रकाश करात तो नहीं कह रहे, कह भी नहीं सकते, लेकिन आज पूँजीवाद विरोध के बगैर फासीवाद से नहीं लडा जा सकता, यह सच है क्योंकि पूँजीवाद में आज ऐसी कोई शक्तियाँ शेष नहीं जो फासीवादी नीति से मूलतः असहमत हों। यही वजह है कि हर बुर्जुआ पार्टी की सरकार में फासीवादी शक्तियाँ सत्ता तंत्र में मजबूती से घुसपैठ करती रही हैं और आज हर सत्ता संस्था उनके कब्जे में है।“
हमने एक पंक्ति में लिखा — “जरा सोचिए, आपकी बात से कोई भी इसी नतीजे पर पहुँचेगा कि फासीवाद से लड़ा ही नहीं जा सकता है ।“
उनका तुरंत जवाब था — “हाँ, पूँजीपतियों के सहयोग से नहीं लडा जा सकता।“
हमने लिखा — “अब आपने पूंजीवाद को व्यक्ति का जामा पहना दिया है । किसी भी क्रांतिकारी लड़ाई में नाना प्रकार के स्वार्थ के चलते कितने तत्व इकट्ठा हो जाते है, इसे अलग से बताने की जरूरत नहीॆ है । ऐसे तत्व संघर्ष की तात्विकता को नहीं बदल सकते ।“
मुकेश जी फिर लिखते हैं — “व्यक्ति की बात नहीं है। लम्बे समय तक पूँजीपति वर्ग की सबसे विश्वस्त रही पार्टी के साथ फासीवाद से लडने की सोच पर सवाल है जबकि यह पार्टी वर्तमान में शासन करती फासिस्ट पार्टी की किसी नीति से कोई मूल असहमति नहीं रखती। इसका मजदूर वर्ग के आंदोलनों को बेरहमी से कुचलने और कार्यकर्ताओं की हत्यायें करवाने का भी लम्बा इतिहास है।“
तब थोड़ा और विस्तार देते हुए हमने लिखा — “आप के अनुसार वामपंथियों को किसी से हाथ नहीं मिलाना चाहिए । पार्टियों के बारे में लेनिनवादी समझ कहती है कि वे प्रत्येक किसी ख़ास वर्ग का प्रतिनिधित्व करती है । सीपीएम के अलावा जो भी पार्टी है, वह किसी न किसी रूप में सर्वहारा के हितों से समझौता कर रही है । फिर उनसे मिल कर संयुक्त मोर्चा की रणनीति का सोच बुनियादी रूप से ग़लत कहलायेगा । ऊपर ट्राटस्कीपंथी राजेश त्यागी की बातों से आपकी बात का देखिए कैसे मेल बैठ जाता है । गुटबाज़ी हमेशा इसीप्रकार की विचारधारात्मक शुद्धता की आड़ में सामने आती है । सीपीएम में शुद्ध रूप से यही हो रहा है ।“
इसी बीच Akhilesh Prabhakar जी ने टिप्पणी की — “ मोदी रथ को रोकने के नाम पर कांग्रेस और छोटी बुर्जुआ पार्टियों के साथ वामदलों का सहयोग इस बात पर निर्भर करता है कि ऐसे राजनीतिक दल दृढ़ता के ''हिंदुत्व-फासीवाद'' के खिलाफ लड़ाई में वामदलों के साथ जनांदोलनों में कितनी भागीदार होती है... सिर्फ चंद नेताओं द्वारा मीडिया में बयानबाजी करने से फासीवाद का मुकाबला नहीं किया जा सकता. प्रकाश करात के बारे में अरूण माहेश्वरी की प्रतिक्रिया का स्तर बहुत ही निम्न (ओछे) दर्जे का है जो भरम फ़ैलाने वाला है...“
हमने उन्हें सिर्फ इतना ही कहना उचित समझा — “जब हम इतनी ही साफगोई से मोदी, नीतीश या किसी के बारे में प्रतिक्रिया देते हैं, तब वह 'निम्न दर्जे ' की नहीं होती है !“
इसके बाद ही बंधुवर Ganesh Tiwari जी ने लिखा — “ज्यादा कुछ नहीं मालूम, लेकिन इतना जरूर जानते हैं कि हम 1980 से पार्टी में मैं इसलिए नहीं आया था कि कभी भाजपा तो कभी कांग्रेस के साथ वाम जाए। क्षेत्रीय दलों को मजबूत करने के लिए अपना अस्तित्व दांव पर लगा दे। विधानसभा चुनाव में कांग्रेस के साथ चुनाव लड़कर लेफ्ट और माकपा ने क्या हासिल कर लिया? अरुण माहेश्वरी से असहमत होते हुए एक बात साफ समझ में आती है वह सिर्फ यह है कि अपनी ताकत और विचारों पर दृढ़ रहे बिना कुछ भी नहीं किया जा सकता। कांग्रेस में होंगे धर्मनिरपेक्ष लोग, अभी सिर्फ लम्पटों और नव उदारवाद के समर्थकों का जमावड़ा है।“
हमने इस पर जरा विस्तार से टिप्पणी की — “यही वह समूह है जिसने यूपीए-1 से निकल कर वामपंथ के 'अभूतपूर्व विस्तार' की दिशा में छलाँग लगाई थी । इसके पहले के ज्योति बसु वाले प्रसंग को तो भूला ही नहीं जा सकता है जब केंद्रीय कमेटी में बहुमत जुटा कर भारतीय राजनीति में वर्चस्व की लड़ाई से वामपंथ को हमेशा के लिये अलग कर लिया गया था और प्रकारांतर से इसकी लगाम को भाजपा के सुपुर्द करने का महान कृत्य किया गया ।
"कोई भी दल सत्ता में हो, परिस्थिति अंतर्विरोधों से रहित नहीं रह सकती । उसकी दरारों में हमेशा बदलाव के लक्षणों को पाया जा सकता है । संसदीय राजनीति में जनवादी ताक़तों की कार्यनीति की भूमिका यह है कि उन दरारों का लाभ कैसे क्रमश: प्रगतिशील शक्तियों के पक्ष में उठाया जाए न कि प्रतिक्रियावादियों को उनका लाभ उठाने की अनुमति दी जाए । कार्यनीति कभी भी तथाकथित शुद्धतावाद की बहादुरी से तय नहीं की जाती है । शुद्धतावाद आपको पार्टी में गुटबाज़ी के लिये एक आड़ तो प्रदान कर सकता है, कभी किसी दल के साथ संयुक्त मोर्चा बनाने की अनुमति नहीं दे सकता । जैसा कि ट्राटस्कीपंथियों की लंबी-चौड़ी, लेकिन खोखली दलीलों में देखा जा सकता है ।
"कार्यनीति का मतलब ही है राजनीति में अपने वर्तमान के हित को साधो, अपने मित्रों के दायरे को बढ़ाओ । और जो अपने वर्तमान को नहीं साध सकते वे भविष्य के लिये भी किसी काम के नहीं रहते हैं । जिस महान नैतिकता के लक्ष्य के लिये ज्योति बसु को प्रधानमंत्री बनने से रोका गया और फिर भारत को साम्राज्यवाद से मुक्त करने के जिस महान लक्ष्य के लिये यूपीए-1 से समर्थन वापस लिया गया, भारतीय वामपंथ उन्हीं 'शौर्य गाथाओं' के खोखलेपन का भुक्त भोगी है । आज फिर सीपीएम में ये बहुमतवादी अपनी गुटबाज़ी के स्वार्थ में उसी प्रकार का थोथी वीरता के प्रदर्शन वाला डान क्विगजोटिक खेल खेल रहे हैं ।
"नव-उदारवाद से लड़ाई का जो अर्थ पश्चिम के विकसित साम्राज्यवादी देशों में है, भारत की तरह के विकासशील देश में नहीं है । अमेरिका में ओबामा केयर के लिये लड़ाई भी नव-उदारवाद के खिलाफ लड़ाई है । यह वहाँ विकसित हुए व्यापक सामाजिक सुरक्षा के नेटवर्क की रक्षा की लड़ाई है जिसके हवाले से पश्चिम के बुद्धिजीवी इन विकसित देशों को साम्यवाद से सिर्फ एक कदम पीछे बताने की तरह की व्याख्याएँ भी किया करते है। उस लड़ाई को गोरक्षा, लिंचिंग और राममंदिर में अटके हुए भारत की लड़ाई बताना स्वयं में एक बहुत बड़ी विच्युति है ।“
आगे Shiv Shanker Gehlot जी की स्वीकृतिमूलक टिप्पणी थी — “जी आपने सब बातों को खोल कर बयान कर दिया है। ये बड़े बड़े नाम मार्क्स, लेनिन, स्टालिन, ट्राटस्की और भारी भरकम टर्म्स बुर्जुआ, सर्वहारा, फासीवादी + पूंजीवादी के इस्तेमाल करके एक जर्जर और निष्फल राजनीति को महान दिखाने का प्रयास किया जा रहा है। मैने हरिकिशन सिंह सुरजीत को कभी ऐसी भारी भरकम भाषा या शब्दों का इस्तेमाल करते नहीं सुना पर उनके समय में वामपंथ की प्रासंगिकता बनी हुई थी। करात ने तो इसे अप्रासंगिक बनाया है। अभी भी सिद्धांत के नाम पर बड़ी बड़ी बातें करके वामपंथ को समूल नष्ट करने का काम करेंगें ये लोग ।“
हमने उनके कथन को और भी साफ करते हुए लिखा — “दुनिया के सारे छुद्र काम महत उद्देश्यों के नाम पर ही किये जाते हैं । मार्क्स दांते की इन पंक्तियों को उद्धृत किया करते थे - 'नरक का रास्ता नेक इरादों से पटा हुआ है ' ।
जनतंत्र पर तंज करता हुआ इक़बाल का यह मशहूर शेर है -
'जम्हूरियत इक तर्ज़-ए-हुकूमत है कि जिस में
बंदों को गिना करते हैं तौला नहीं करते'
सीपीएम के बहुमतवादी प्रकाश करात के नेतृत्व में पार्टी के अंदर इसी प्रकार के जनतंत्र को साधने में लगे हुए हैं। इन्हें ऐतिहासिक क्षणों में भी शुद्ध संख्याबल पर निर्णय लेने में कोई संकोच नहीं होता और उसे 'आंतरिक जनतंत्र' की जीत बता कर डुगडुगी बजाते हैं ।
चंद रोज पहले इन्होंने आरएसएस के बारे में सारे अध्येताओं के परिश्रम को धत्ता बताते हुए यह बयान दे दिया कि इन्हें नहीं लगता कि भाजपा को अभी फासीवाद कहा जाएँ ! यही तो है 'हार्वर्ड बनाम हार्ड वर्क' का वामपंथी संस्करण । जो दक्षिणपंथी समूह अपने जन्म काल से ही तात्विक संरचना में फासीवादी है, उसे प्रकाश जी ने अपनी अनुभूतियों के बल पर ग़ैर- फासीवादी बता दिया !
दुर्भाग्य की बात यह है कि इन्होंने ही इस 'क्रांतिकारी' पार्टी के बंद ढाँचे में एक लंबे अर्से से अपने पक्ष के लोगों की गिनती बढ़ा रखी है । पार्टी की पिछली कांग्रेस में इनकी यह गिनती उस हद तक कारगर नहीं हुई, इसका ग़म इन्हें सता रहा दिखता है । और, इसीलिये आगामी कांग्रेस के पहले फिर एक बार अपनी महान सैद्धांतिक लड़ाई के आवरण में अकूत संसाधनों से युक्त इस पार्टी को ये फिर से अपने क़ब्ज़े में लेना चाहते हैं । सिर्फ सदिच्छाओं से इस खेल को कभी नहीं समझा जा सकता है ।“
आज कांग्रेस के प्रवक्ता ने भी सीपीएम के इस कथित सैद्धांतिक संघर्ष को अंदुरूनी सत्ता संघर्ष कहा है, जिसे 'टेलिग्राफ' ने अपनी रिपोर्ट में सीपीएम में कालेजों के स्तर की बहस बताया है ।
सचमुच आज जो सीपीआई (एम) में चल रहा है, वामपंथी आंदोलन से हमदर्दी रखने वाले तमाम लोगों के लिये बेहद चिंताजनक है और बाकी लोगों के लिये हास्यास्पद ।
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