- अरुण माहेश्वरी
हर स्वयंसिद्ध सामान्य ज्ञान की बात साधारण, लकीर के फ़क़ीर, बौद्धिक दृष्टि से अधकचरे लोगों के लिये किसी ईश्वरीय सत्य से कम नहीं हुआ करती है । इसी प्रकार की एक स्वयंसिद्ध बात यह भी है कि 'क़ानून अंधा होता है' । इसीलिये क़ानून की मामूली जानकारी के आधार पर अक्सर ये लोग पूरे दंभ के साथ किसी भी मामले की परिणति के बारे में अंतिम राय दिया करते रहते हैं ।
लेकिन जीवन का अनुभव बार-बार यह साबित करता है कि जज की कुर्सी पर बैठा हुआ आदमी क़ानून की पोथियों से कितना ही बँधा क्यों न हो, वह अपनी राय उन पोथियों के अनुसार करने के बजाय अक्सर अपनी राय के पक्ष में पोथियों से समर्थन के संदर्भ ढूँढता है । इसे ही न्याय शास्त्र (jurisprudence) कहते हैं ।
यह जीवन के यथार्थ की तरह ही है । जैसे यथार्थ कभी स्थिर, एकायामी नहीं होता, उसी प्रकार इसमें शीलाचरण के नियम-क़ायदे भी हमेशा एक ही प्रकार के नहीं होते और एक से अर्थ नहीं देते । इसीलिये क़ानून के 'अंधेपन' की कितनी ही बात क्यों न की जाए, न्यायशास्त्र इसमें हमेशा नई-नई संभावनाओं को बनाये रखता है । अंधा क़ानून मृत क़ानून नहीं होता है ।
आज जब बलात्कारी गुरमीत को सीबीआई अदालत में सज़ा सुनाई गई, शुरू में यही बताया गया था कि उसे दस साल की जेल की सज़ा दी गई है । अन्य अनेक लोगों की तरह ही हमें भी लगा था कि इस अपराधी को इतनी सी सज़ा यथेष्ट नहीं है । हमने एक पोस्ट लगाई कि सीबीआई के वक़ील ने इस बलात्कारी के लिये अधिकतम सज़ा की माँग से सज़ा को दस साल तक सीमित करवा के उसे राहत दिलाई है ।
हमारी इस पोस्ट पर कुछ लोगों ने सच्ची भावना के साथ हमें क़ानूनी प्राविधानों की सीमा के बारे में बताने की कोशिश की, जिनसे पूरी तरह से वाक़िफ़ होने के बावजूद सिर्फ न्यायशास्त्र (jurisprudence) के मानदंडों पर हम उसे ग़लत मान रहे थे । लेकिन ख़ास तौर पर Kuldeep Kumar का तेवर तीखा और लांक्षणकारी था । वे बीड़ा उठा कर यह साबित करने लगे जैसे हम उन मूर्खों में हो जो तथ्यों के कथित 'विवेक' से चालित होने के बजाय कोरी भावनाओं के आधार पर चलते हैं । वे हमें सिखा रहे थे कि जिस मामले में इससे ज़्यादा (अर्थात दस साल से ज़्यादा) सज़ा संभव ही नहीं है, उसमें इस सज़ा को कम मान कर सीबीआई पर किसी प्रकार की लांक्षणा बेतुकापन है ।
लेकिन बाद में पता चला कि असलियत में ख़ुद अदालत ने उचित न्याय की ज़रूरत को समझते हुए ही उस बलात्कारी को एक से दो मामलों का दोषी मान कर दस के बजाय बीस साल की सज़ा सुनाई है ।
हमने कुलदीप कुमार को लिखा - "Kuldeep Kumar तथ्य-भक्ति भी भक्ति ही है । तथ्यों के परे जाकर ताक-झाँक करना किसी भी मायने में बुरा नहीं होता, बल्कि जरूरी होता है । कथित प्रकट तथ्यों की बेड़ी आख़िर बेड़ी ही होती है । वामपंथियों को इतना भी निर्बीज न माना जाना चाहिए । वैसे अभी-अभी पता चला है कि इस बलात्कारी को बीस साल की सज़ा सुनाई गई है । इसलिये मैंने उसे सीरियल रेपिस्ट मानते हुए दस साल की सज़ा को कम बताया था, जो अदालत के इस फैसले से पुष्ट हुआ है।"
सामान्य ज्ञान की अटलता पर टिका बौद्धिक अहंकार इसीलिये हमेशा कल्पनाशून्य और निर्बीज होता है ।
हर स्वयंसिद्ध सामान्य ज्ञान की बात साधारण, लकीर के फ़क़ीर, बौद्धिक दृष्टि से अधकचरे लोगों के लिये किसी ईश्वरीय सत्य से कम नहीं हुआ करती है । इसी प्रकार की एक स्वयंसिद्ध बात यह भी है कि 'क़ानून अंधा होता है' । इसीलिये क़ानून की मामूली जानकारी के आधार पर अक्सर ये लोग पूरे दंभ के साथ किसी भी मामले की परिणति के बारे में अंतिम राय दिया करते रहते हैं ।
लेकिन जीवन का अनुभव बार-बार यह साबित करता है कि जज की कुर्सी पर बैठा हुआ आदमी क़ानून की पोथियों से कितना ही बँधा क्यों न हो, वह अपनी राय उन पोथियों के अनुसार करने के बजाय अक्सर अपनी राय के पक्ष में पोथियों से समर्थन के संदर्भ ढूँढता है । इसे ही न्याय शास्त्र (jurisprudence) कहते हैं ।
यह जीवन के यथार्थ की तरह ही है । जैसे यथार्थ कभी स्थिर, एकायामी नहीं होता, उसी प्रकार इसमें शीलाचरण के नियम-क़ायदे भी हमेशा एक ही प्रकार के नहीं होते और एक से अर्थ नहीं देते । इसीलिये क़ानून के 'अंधेपन' की कितनी ही बात क्यों न की जाए, न्यायशास्त्र इसमें हमेशा नई-नई संभावनाओं को बनाये रखता है । अंधा क़ानून मृत क़ानून नहीं होता है ।
आज जब बलात्कारी गुरमीत को सीबीआई अदालत में सज़ा सुनाई गई, शुरू में यही बताया गया था कि उसे दस साल की जेल की सज़ा दी गई है । अन्य अनेक लोगों की तरह ही हमें भी लगा था कि इस अपराधी को इतनी सी सज़ा यथेष्ट नहीं है । हमने एक पोस्ट लगाई कि सीबीआई के वक़ील ने इस बलात्कारी के लिये अधिकतम सज़ा की माँग से सज़ा को दस साल तक सीमित करवा के उसे राहत दिलाई है ।
हमारी इस पोस्ट पर कुछ लोगों ने सच्ची भावना के साथ हमें क़ानूनी प्राविधानों की सीमा के बारे में बताने की कोशिश की, जिनसे पूरी तरह से वाक़िफ़ होने के बावजूद सिर्फ न्यायशास्त्र (jurisprudence) के मानदंडों पर हम उसे ग़लत मान रहे थे । लेकिन ख़ास तौर पर Kuldeep Kumar का तेवर तीखा और लांक्षणकारी था । वे बीड़ा उठा कर यह साबित करने लगे जैसे हम उन मूर्खों में हो जो तथ्यों के कथित 'विवेक' से चालित होने के बजाय कोरी भावनाओं के आधार पर चलते हैं । वे हमें सिखा रहे थे कि जिस मामले में इससे ज़्यादा (अर्थात दस साल से ज़्यादा) सज़ा संभव ही नहीं है, उसमें इस सज़ा को कम मान कर सीबीआई पर किसी प्रकार की लांक्षणा बेतुकापन है ।
लेकिन बाद में पता चला कि असलियत में ख़ुद अदालत ने उचित न्याय की ज़रूरत को समझते हुए ही उस बलात्कारी को एक से दो मामलों का दोषी मान कर दस के बजाय बीस साल की सज़ा सुनाई है ।
हमने कुलदीप कुमार को लिखा - "Kuldeep Kumar तथ्य-भक्ति भी भक्ति ही है । तथ्यों के परे जाकर ताक-झाँक करना किसी भी मायने में बुरा नहीं होता, बल्कि जरूरी होता है । कथित प्रकट तथ्यों की बेड़ी आख़िर बेड़ी ही होती है । वामपंथियों को इतना भी निर्बीज न माना जाना चाहिए । वैसे अभी-अभी पता चला है कि इस बलात्कारी को बीस साल की सज़ा सुनाई गई है । इसलिये मैंने उसे सीरियल रेपिस्ट मानते हुए दस साल की सज़ा को कम बताया था, जो अदालत के इस फैसले से पुष्ट हुआ है।"
सामान्य ज्ञान की अटलता पर टिका बौद्धिक अहंकार इसीलिये हमेशा कल्पनाशून्य और निर्बीज होता है ।
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