मंगलवार, 13 दिसंबर 2016

दाव पर लगी है मोदी जी की नैतिकता, न कि विपक्ष की !


-अरुण माहेश्वरी

नोटबंदी के आज 33वें दिन भी टेलिविजन चैनल एटीएम मशीनों पर भारी भीड़ के उमड़ने के दृश्य दिखा रहे हैं। मोदी जी के मांगे हुए पचास दिनों में अब सिर्फ सत्रह दिन बचे रह गये हैं। लेकिन स्थिति में सुधार के बजाय ऐसा लगता है जैसे मोदी जी ने पूरे राष्ट्र को एक अजीब से घुमावदार रास्ते पर उतार दिया है जिसमें 8 नवंबर को पचास दिन के बाद का जो स्वर्णिम काल बिल्कुल सामने दिखाई दे रहा था, अब जैसे-जैसे हम आगे बढ़ रहे हैं, वह और दूर, और दूर जाता दिखाई देने लगा है। जाहिर है, एक ऐसा सपना जो कभी पूरा नहीं होता ! 

गंतव्य जितना दूर हो रहा है, इसी अनुपात में जनसभाओं में मोदी जी की तालियां, उनका उछलना और कूट ढंग से हंसना बढ़ता जा रहा है। वे विरोधियों को नाना प्रकार की अजीबोगरीब नैतिक चुनौतियां दे रहे हैं। कहते हैं, हमारे इस अभियान का विरोध करने के पहले दस लोगों को कैसलेश होने की महत्ता के बारे में समझाओं। नहीं तो क्या हक है तुम्हें काला धन के हमारे अभियान के खिलाफ बोलने का ! पहले अपने गरेबां में झांको, अपनी आत्म-समीक्षा करो और फिर देश और समाज की नीतियों के बारे में कुछ कहने का हक हासिल करो। 

‘अंतहीन आत्म-समीक्षा’ के चक्रव्यूह में फंसा कर आदमी से किसी भी सार्वजनिक विमर्श में शामिल होने का हक छीन लेना, सभी आततायी शासकों का हमेशा का एक आजमाया हुआ फार्मूला है। जैसे, हम जानते हैं, कई पार्टियों का मध्यवर्गीय नेतृत्व अपने मध्यवर्गीय अनुयायियों को हमेशा टुटपुंजियापन से मुक्त होने ओर डीक्लास होने की एक अंतहीन नैतिक कसरत में उलझा कर रखता है। जैसे हिंदी साहित्य में मुक्तिबोध जीवन भर अपने आत्म-संघर्ष में उलझे रहे और बाद में जब लोगों ने उनके इस आत्म-संघर्ष को ही अपने संघर्ष की पताका बना लिया तो साहित्य जगत के नेता डा. रामविलास शर्मा ने उन्हें मध्यवर्ग की ‘दुर्बलता’ से उपजे अस्तित्ववाद से जोड़ कर अपनी कलम की निब तोड़ दी। उन्होंने यहां तक लिख दिया कि जिस दुर्बलता के चलते फ्रांस हिटलर का जरा सा भी प्रतिरोध नहीं कर पाया, वह इसी अस्तित्ववाद की पैदाईश थी।  

बहरहाल, आज विपक्ष के लिये जरूरत मोदी जी की किसी नैतिक चुनौती को जरा सा भी तवज्जो देने के बजाय इस सरकार को होश में लाने के लिये जोरदार आंदोलन की है। दाव पर लगी हुई है मोदी जी की नैतिकता। जरूरत है, आम लोगों की विपत्ति पर हंस रहे प्रधानमंत्री को सच का आईना दिखाने की है। बहस को किसी अंजाम तक पहुंचाने की, नोटबंदी के पक्षधरों को शर्मसार करने की है। यह समय तेज-तर्रार भाषणों से कहीं ज्यादा तेज और एकजुट कार्रवाइयों का है। मोदी जी रोज जन-सभाओं में एकतरफा भाषणों से अपने प्रकार का बहस-बहस वाला खेल खेल ही रहे हैं। इसका सही प्रत्युत्तर भी संसद के बाहर ही दिया जा सकेगा। 










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