-अरुण माहेश्वरी
28 नवंबर को लोकसभा में वित्त मंत्री ने एक आयकर संशोधन विधेयक पेश किया जिसमें कहा गया है कि स्वेच्छा से काला धन जमा कराने वाले लोग कर और पैनल्टी के बाबत लगभग पचास प्रतिशत राशि जमा कराके बाक़ी पचास प्रतिशत राशि को अपने पास रख सकते हैं । वित्त मंत्री की इस घोषणा के बाद ही सवाल उठता है कि अब इस नोटबंदी स्कीम की क्या उपयोगिता रह गयी है ? काला धन के मसले को वस्तुत: इसके दायरे के बाहर कर दिया गया है । ऐसे में, अब नोटबंदी की पूरी योजना को सिर्फ गाँव और शहरों में आम लोगों के घरों में पड़ी हुई बचत की नगद राशि को खींच कर बैंकों में लाने और उसे पूँजीपतियों को आसान शर्तों पर सुलभ कराने की स्कीम कहना उचित नहीं होगा ? और नकारात्मक दृष्टि से कहे तो यह स्कीम अब अपने आप में सिर्फ आम लोगों के जीवन को अस्थिर करने वाली, भारत की कृषि-अर्थ-व्यवस्था की रीढ़ को तोड़ने वाली एक स्कीम रह गई है ।
यह अकारण नहीं है कि भारत रत्न और नोबेलजयी प्रो. अमर्त्य सेन ने मोदी सरकार के विमुद्रीकरण के विचार और उस पर अमल, दोनों को ही नादिरशाही बताया है । उनके शब्दों में, यह सरकार के सर्वाधिकारवादी चरित्र का परिचायक है। उनकी दो-टूक राय थी कि सिर्फ एक तानाशाही सरकार ही निष्ठुरता के साथ आम जनता को ऐसी मुसीबत में डाल सकती है । उन्होंने इस पूरी स्कीम के अनैतिक पक्ष को उजागर करते हुए कहा कि "लोगों से अचानक यह कहना कि आपके पास जो सरकार का प्रतिज्ञा पत्र (नोट) है, उसमें की गई प्रतिज्ञा का कोई मायने नहीं है, क्योंकि वे काला धन के रूप में कुछ ग़लत लोगों के हाथ लग गये है, तानाशाही शासन की एक ज्यादा जटिल अभिव्यक्ति है । क़लम की एक नोक से इसने भारतीय मुद्रा को रखने वाले तमाम लोगों को तब तक के लिये अपराधी घोषित कर दिया है जब तक वे अपने को निर्दोष साबित नहीं करते हैं ।... इससे किसी भी प्रकार की भलाई की उम्मीद नहीं की जा सकती है । जो लोग काला धन रखने में सिद्ध-हस्त हैं उनको इससे ज़रा भी आँच नहीं आएगी, लेकिन मासूम लोग मारे जायेंगे ।...अच्छी नीतियाँ कभी-कभी पीड़ादायी होती है लेकिन पीड़ा देने वाली, वह कितनी भी क्यों न हो, सभी चीज़ें अच्छी हो, यह जरूरी नहीं होता है ।"
आज का यही सच है कि भारत के करोड़ों आम लोगों को, जो अपनी दैनंदिन जरूरतों को पूरा करने के लिये ही रोजाना बैंकों के सामने लाइन में खड़े हो कर निराश लौट जाते हैं, इस विषय पर मोदी जी की खिलखिलाहट रावण के अट्टहास से कम बुरी नहीं लगती है । जनतंत्र में किसी नेता से ऐसी अश्लीलता की कल्पना भी नहीं की जा सकती है । मोदी कहते हैं कि 'बड़ों को बड़ी तकलीफें हो रही है और छोटों को छोटी !' कोई भी उनसे यह साधारण सा सवाल कर सकता है कि मृत्यु से भी बड़ी क्या कोई तकलीफ़ है ? और, क्या एक भी बड़ा आदमी सड़कों पर बैंक के सामने लाईन लगाने की वजह से मरा है ? मोदी जी की ‘छोटी-छोटी तकलीफें' की बात जले पर नमक छिड़कने के समान है ।
पंजाब के बठिंडा शहर में आम लोगों को मोदी जी उपदेश दे रहे थे कि ‘नगदी के पीछे क्यों भागते हो, प्लास्टिक कार्ड का इस्तेमाल करो ! मोबाइल को अपना बैंक बना लो ! भारत के एक प्रधानमंत्री से ऐसी बातें सुन कर चिंता होती है कि क्या उनमें फ्रांस के सम्राट लुई 16 की दुल्हन मेरी अंतोनियत की प्रेतात्मा घुस गई है जिसने 1789 में वहाँ के लोगों से कहा था - रोटी क्यों माँगते हो, केक खाओ ! 1789 की फ़्रांसीसी क्रांति में अंतोनियत के इस महान उपदेश ने आग में घी का काम किया था । फ्रांसीसी क्रांति में तब उस पूरे राज परिवार का कत्ल कर दिया गया था। देश के समझदार लोग जब नोटबंदी से उत्पन्न स्थिति की तुलना एक भारी राष्ट्रीय विपदा से कर रहे हैं, तब नगदी की जगह प्लास्टिक कार्ड का प्रयोग करने की सलाह, और कई दिनों से बैंकों के सामने क़तार में खड़े परेशान लोगों को मोबाइल को बैंक बना लेने का उपदेश, कल्पना के बाहर है।
प्रमुख उद्योगपति रतन टाटा ने शुरूआत में नोटबंदी के कदम को एक ‘साहसी’ फैसला बताया था, जिससे काला धन और भ्रष्टाचार दूर होगा। उन्होंने ही बाद में इसे आम लोगों के लिये एक राष्ट्रीय आपदा करार दिया है। उन्होंने अपने एक ट्विट में कहा है कि ‘‘इस नोटबंदी से आम लोगों को भारी कठिनाई का सामना करना पड़ रहा है। खास तौर पर देश भर के छोटे शहरों में जिन लोगों को फौरन चिकित्सा की जरूरत है, ऑपरेशन कराने की जरूरत है और दवाएं चाहिए, वे बड़ी परेशानी में हैं। नगदी में कमी के चलते खाने-पीने की घर की न्यूनतम जरूरतों को पूरा करने में भी गरीबों को बहुत तकलीफ हो रही है।
‘‘सरकार अपनी ओर से ज्यादा से ज्यादा करेंसी नोट उपलब्ध कराने की कोशिश करे, लेकिन इसके साथ ही राष्ट्रीय आपदाओं के समय जिस प्रकार के राहत कार्य किये जाते हैं ताकि लोग अपनी दैनिक जरूरतों को पूरा कर सके, छोटे अस्पतालों में जरूरी चिकित्सा हासिल कर सके, उन सबको भी करने की जरूरत है। इस प्रकार के आपातकालीन कदमों से पीडि़त लोगों को लगेगा कि सरकार को उनका खयाल है, विमुद्रीकरण के महत्वपूर्ण कार्यक्रम पर अमल के दौरान वह आम लोगों की जरूरतों को भूली नहीं है।’’
इसीप्रकार, राज्य सभा में बोलते हुए पूर्व प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने नोटबंदी के कदम को एक संगठित लूट और कानूनी डाका बताया और कहा कि “प्रधानमंत्री ने लोगों से पचास दिन मांगे हैं। सवाल है कि हमारे देश के गरीब लोग क्या इन पचास दिनों को भी बर्दाश्त कर पायेंगे ? इसने इस सरकार की व्यवस्थाओं में पहाड़ समान कमियों को जाहिर किया है। प्रधानमंत्री कार्यालय, वित्त मंत्रालय, रिजर्व बैंक बेपर्द हुए हैं। किसान जनता की जरूरतों को पूरा करने वाले सहकारी बैंकों को पंगु बना दिया गया है। इससे जीडीपी को 2 प्रतिशत तक का नुकसान पहुंच सकता है।“
अर्थशास्त्री प्रभात पटनायक ने लिखा है कि तत्काल 500 और 1000 के नोटों के चलन को रोकने का यह फैसला आजाद भारत में लिया गया आज तक का सबसे बड़ा बेहूदा फैसला है। ‘‘करेंसी को नष्ट करने का अर्थ है उन गरीबों की खरीद की ताकत को नष्ट कर देना जो जीवन में नगदी का ही व्यवहार करते हैं।" इससे पैदा होने वाली भारी मंदी के प्रभावों को बताते हुए प्रभात ने इसे चंद काला धंधा वालों को तंग करने के नाम पर करोड़ों आम लोगों की नाक को काट डालना कहा है।
‘‘भारतीय आर्थिक नौकरशाही को काफी बुद्धिमान माना जाता है। विमुद्रीकरण के इस कदम के बेहुदापन और ऐसे कदम के पहले की जरूरी तैयारियों की भारी कमी से पता चलता है कि उसमें बुद्धि का कितना अभाव हो गया है।’’
एक ओर सभी प्रतिष्ठित अर्थशास्त्रियों, उद्योगपतियों की यह राय और दूसरी ओर एक अकेले प्रधानमंत्री की जिद, जिन्होंने अपने अढ़ाई साल के शासन में किसी भी क्षेत्र में एक भी ऐसा सकारात्मक काम नहीं किया जिससे राष्ट्र को वास्तव में लाभ हुआ हो। वे अब संसद तक से मुंह चुराने लगे हैं। संसद के शीतकालीन सत्र में एक बार आए लेकिन उसके पहले ऑन लाइन सर्वे के एक भारी झूठ का तुमार बांधते हुए कि देश की जनता मोदी जी के इस कदम से भारी खुश है। कहते है कि इटली के एकीकरण के कठिन काम में वहाँ के राजा की सेना के पहुँचने के पहले गैरिबाल्डी के लाल क़मीज़ वाले कार्यकर्ता और मैजिनी के पैंफ्लेट पहुँच कर सेना का रास्ता साफ़ करते थे । बिल्कुल उसी प्रकार, हमारी संसद में प्रधानमंत्री के कठिन प्रवेश के पहले गालियाँ उगलने वाले भक्त-नुमा लोग और टेलिविजन चैनलों से झूठे सर्वेक्षणों की रिपोर्टें पहुँचती हैं ।
कुल मिला कर यह मोदी जी के उन्माद का एक ऐसा खेल है जिसमें आदमी जिसे निशाना बनाने की बात करता है वह तो एक कोरा धोखा होता है, और इस उपक्रम में जो तमाम हरकतें कर बैठता है, उसके अकल्पनीय घातक परिणाम होने लगते हैं।
इन हालात में, आगे काफी लंबा ऐसा समय बिताना है जब बाजार में नगदी की स्थिति में कोई सुधार नहीं होगा। यहां तक अनुमान लगाया जा रहा है कि नगदी की स्थिति को सामान्य बनाने में अगर साल भर का समय भी लग जाए तो आश्चर्य नहीं होगा। अगर ऐसा होता है, तो यह तय है कि नोटबंदी का मोदी जी का यह फैसला सचमुच एक पूरी तरह से तुगलकी फैसला ही साबित होगा। यह भारतीय अर्थ-व्यवस्था के लिये किसी मौत के परवाने से कम नहीं होगा। तत्काल ऐसी हरचंद कोशिश की जानी चाहिए ताकि राष्ट्र को इस विपदा से बाहर निकाला जा सके। अन्यथा यह देश के करोड़ों कमजारे लोगों के जीवन के लिये भारी साबित होगा।
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