-अरुण माहेश्वरी
परिश्रमी छात्र
कार्ल जेनी के बचपन के साथी थे। लेकिन उसके प्रति उन्हें मोहब्बत का अहसास हुआ 1836 से, जब वे त्रायर छोड़ कर आगे की पढ़ाई के लिये बॉन आ गये थे। प्रेम में यह वियोग ही अक्सर उन प्रगाढ़ अनुभूतियों को पैदा करता है जिनसे कवि पैदा होता है। कहा जा सकता है कि मार्क्स के साथ भी कुछ ऐसा ही हुआ। वैसे कविता लिखना तो उन्होंने जिमनाजियम स्कूल के दिनों में ही शुरू कर दिया था, लेकिन बाकायदा एक कवि की पहचान उन्हें बॉन में मिली।
जिस बॉन विश्वविद्यालय को फ्रांसीसियों ने व्यवहारिक शिक्षा पर जोर देने के नाते बंद करा दिया था, उसे प्रशिया के राज में फिर से शुरू किया गया। प्रशियाई साम्राज्य की शिक्षा नीति में सांस्कृतिक विषयों पर, खास तौर पर प्रोटेस्टेंट धर्म से जुड़े विषयों पर बल दिया जाता था। बॉन विश्वविद्यालय में भी कैथोलिक के बजाय प्रोटेस्टेंट धर्म की कक्षाओं पर दुगुना खर्च किया जाता था, जब कि इनमें भर्ती होने वाले छात्रों की संख्या बहुत कम होती थी। (देखें, मिशाइल रोवे, पूर्वोक्त, पृष्ठ - 251)
यही वह काल था जब प्रशियाई साम्राज्य इस पूरे क्षेत्र में उत्तेजना फैलाने वालों के दमन का अभियान (Persecution of demagogues)चला रहा था। 1835 में ही हेनरिख हाइने, लुडविग बोर्न और कार्ल फर्दिनांद गुत्शकोव सहित कई लेखकों की किताबों पर प्रतिबंध लगा दिया गया था। इन पर अभियोग था कि ये सभी ‘यंग यूरोप’ की मैत्सिनियन क्रांतिकारी धारा की जर्मन शाखा ‘यंग जर्मनी’ के सदस्य थे। लेकिन यह प्रशासन का एक कोरा भ्रम ही था, जो ‘यंग यूरोप’ और ‘यंग जर्मनी’ में नाम की समानता की वजह से पैदा हुआ था।
स्टेडमैन जोन्स के ब्यौरे के अनुसार ‘यंग जर्मनी’ लेखकों का एक ढीला-ढाला संगठन था जो कुछ साहित्यिक पत्रिकाएं निकालते थे। सरकारी दमन से इस संगठन में आपसी दोषारोपण, दल-त्याग और परस्पर विद्वेष शुरू हो जाने से यह बिखर गया। जर्मन साहित्य के एक निहायत निर्जीव से माहौल में ‘यंग जर्मनी’ ने थोड़ी हलचल पैदा की थी। इसपर 1830 के उथल-पुथल मचाने वाले घटनाक्रम की छाप थी। इसके रोमांटिक लेखकों ने मध्ययुगीन पुरातनपंथी विचारों पर, गेटे ओर जर्मन शास्त्रीयता की अराजनीतिकता पर आघात किया था। इसके चलते एक समय में एंगेल्स और जेनी भी इसके प्रति आकर्षित हुए थे। (वही, पृष्ठ - 40)
इसी वजह से बॉन में भी प्रशासन की राजनीतिक जासूसी खूब थी। बॉन को छात्रों के गुप्त संगठनों का एक केंद्र माना जाता था। लेकिन कार्ल इस प्रकार की बागी गतिविधियों से अलग एक परिश्रमी छात्र ही थे। बॉन विश्वविद्यालय छोड़ते वक्त उन्हें जो सर्टिफिकेट मिला था, उसमें खास तौर पर यह उल्लेख था कि उन्हें ‘‘छात्रों के बीच प्रतिबंधित संगठनों में संदिग्ध भागीदार के रूप में नहीं पाया गया।’’
सच यह है कि तब बॉन में छात्रों के तो संगठन थे, लेकिन ब्रुनो बावर की तरह के विद्रोही शिक्षाविदों की नजर में बॉन एक बेहद ऊबाऊ जगह थी।
बहरहाल, मार्क्स में छात्र-सुलभ बेफिक्री का स्वभाव तो था, जिसे मार्क्स के नाम उनके पिता के पत्रों में की गई शिकायतों में भी देखा जा सकता है, लेकिन कुल मिला कर वे एक अध्ययनशील छात्र थे। उनके बॉन विश्वविद्यालय के सर्टिफिकेट ऑफ रिलीज से साफ है कि उन्होंने पहली अवधि की पढ़ाई के लिये जो छः विषय चुने थे, उन सबमें ही उन्हें काफी परिश्रमी और चौकस कहा गया था। उसी प्रकार 1836 की दूसरी अवधि के चार में से दो विषय में उन्हें परिश्रमी कहा गया और दो में तो अध्यापक की अचानक मौत हो जाने की वजह से परीक्षा ही नहीं हो पाई थी। इन विषयों में कानून से जुड़े विषयों केे साथ ही ग्रीक और रोमन माइथोलोजी, होमर और आधुनिक कला का इतिहास की तरह के विषय भी थे। (देखें, MECW, Vol. 1, page – 656-658)
वैसे मार्क्स के छात्र जीवन से ही उनके चरित्र की जो विशेषताएं कुछ-कुछ जाहिर होने लगी थी, उन्हें पिता के साथ उनके पत्राचार से भी एक अंश तक जाना जा सकता है। लेकिन आखिरकार, वह एक नौजवान के निर्माण का नितांत प्रारंभिक काल ही था। उससे पूरी तरह से परिपक्व मार्क्स के बारे में सारे संकेतों को खोजना बेवकूफी ही होगी।
परिश्रमी छात्र
कार्ल जेनी के बचपन के साथी थे। लेकिन उसके प्रति उन्हें मोहब्बत का अहसास हुआ 1836 से, जब वे त्रायर छोड़ कर आगे की पढ़ाई के लिये बॉन आ गये थे। प्रेम में यह वियोग ही अक्सर उन प्रगाढ़ अनुभूतियों को पैदा करता है जिनसे कवि पैदा होता है। कहा जा सकता है कि मार्क्स के साथ भी कुछ ऐसा ही हुआ। वैसे कविता लिखना तो उन्होंने जिमनाजियम स्कूल के दिनों में ही शुरू कर दिया था, लेकिन बाकायदा एक कवि की पहचान उन्हें बॉन में मिली।
जिस बॉन विश्वविद्यालय को फ्रांसीसियों ने व्यवहारिक शिक्षा पर जोर देने के नाते बंद करा दिया था, उसे प्रशिया के राज में फिर से शुरू किया गया। प्रशियाई साम्राज्य की शिक्षा नीति में सांस्कृतिक विषयों पर, खास तौर पर प्रोटेस्टेंट धर्म से जुड़े विषयों पर बल दिया जाता था। बॉन विश्वविद्यालय में भी कैथोलिक के बजाय प्रोटेस्टेंट धर्म की कक्षाओं पर दुगुना खर्च किया जाता था, जब कि इनमें भर्ती होने वाले छात्रों की संख्या बहुत कम होती थी। (देखें, मिशाइल रोवे, पूर्वोक्त, पृष्ठ - 251)
यही वह काल था जब प्रशियाई साम्राज्य इस पूरे क्षेत्र में उत्तेजना फैलाने वालों के दमन का अभियान (Persecution of demagogues)चला रहा था। 1835 में ही हेनरिख हाइने, लुडविग बोर्न और कार्ल फर्दिनांद गुत्शकोव सहित कई लेखकों की किताबों पर प्रतिबंध लगा दिया गया था। इन पर अभियोग था कि ये सभी ‘यंग यूरोप’ की मैत्सिनियन क्रांतिकारी धारा की जर्मन शाखा ‘यंग जर्मनी’ के सदस्य थे। लेकिन यह प्रशासन का एक कोरा भ्रम ही था, जो ‘यंग यूरोप’ और ‘यंग जर्मनी’ में नाम की समानता की वजह से पैदा हुआ था।
स्टेडमैन जोन्स के ब्यौरे के अनुसार ‘यंग जर्मनी’ लेखकों का एक ढीला-ढाला संगठन था जो कुछ साहित्यिक पत्रिकाएं निकालते थे। सरकारी दमन से इस संगठन में आपसी दोषारोपण, दल-त्याग और परस्पर विद्वेष शुरू हो जाने से यह बिखर गया। जर्मन साहित्य के एक निहायत निर्जीव से माहौल में ‘यंग जर्मनी’ ने थोड़ी हलचल पैदा की थी। इसपर 1830 के उथल-पुथल मचाने वाले घटनाक्रम की छाप थी। इसके रोमांटिक लेखकों ने मध्ययुगीन पुरातनपंथी विचारों पर, गेटे ओर जर्मन शास्त्रीयता की अराजनीतिकता पर आघात किया था। इसके चलते एक समय में एंगेल्स और जेनी भी इसके प्रति आकर्षित हुए थे। (वही, पृष्ठ - 40)
इसी वजह से बॉन में भी प्रशासन की राजनीतिक जासूसी खूब थी। बॉन को छात्रों के गुप्त संगठनों का एक केंद्र माना जाता था। लेकिन कार्ल इस प्रकार की बागी गतिविधियों से अलग एक परिश्रमी छात्र ही थे। बॉन विश्वविद्यालय छोड़ते वक्त उन्हें जो सर्टिफिकेट मिला था, उसमें खास तौर पर यह उल्लेख था कि उन्हें ‘‘छात्रों के बीच प्रतिबंधित संगठनों में संदिग्ध भागीदार के रूप में नहीं पाया गया।’’
सच यह है कि तब बॉन में छात्रों के तो संगठन थे, लेकिन ब्रुनो बावर की तरह के विद्रोही शिक्षाविदों की नजर में बॉन एक बेहद ऊबाऊ जगह थी।
बहरहाल, मार्क्स में छात्र-सुलभ बेफिक्री का स्वभाव तो था, जिसे मार्क्स के नाम उनके पिता के पत्रों में की गई शिकायतों में भी देखा जा सकता है, लेकिन कुल मिला कर वे एक अध्ययनशील छात्र थे। उनके बॉन विश्वविद्यालय के सर्टिफिकेट ऑफ रिलीज से साफ है कि उन्होंने पहली अवधि की पढ़ाई के लिये जो छः विषय चुने थे, उन सबमें ही उन्हें काफी परिश्रमी और चौकस कहा गया था। उसी प्रकार 1836 की दूसरी अवधि के चार में से दो विषय में उन्हें परिश्रमी कहा गया और दो में तो अध्यापक की अचानक मौत हो जाने की वजह से परीक्षा ही नहीं हो पाई थी। इन विषयों में कानून से जुड़े विषयों केे साथ ही ग्रीक और रोमन माइथोलोजी, होमर और आधुनिक कला का इतिहास की तरह के विषय भी थे। (देखें, MECW, Vol. 1, page – 656-658)
वैसे मार्क्स के छात्र जीवन से ही उनके चरित्र की जो विशेषताएं कुछ-कुछ जाहिर होने लगी थी, उन्हें पिता के साथ उनके पत्राचार से भी एक अंश तक जाना जा सकता है। लेकिन आखिरकार, वह एक नौजवान के निर्माण का नितांत प्रारंभिक काल ही था। उससे पूरी तरह से परिपक्व मार्क्स के बारे में सारे संकेतों को खोजना बेवकूफी ही होगी।
क्रमशः
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