-अरुण माहेश्वरी
राइनलैंड और फ्रांसीसी क्रांति
फ्रांसीसी क्रांति के इतिहास से परिचित सब जानते हैं कि थोड़े अर्से में ही जैकोबिन गणतंत्रवादियों की पांत में दरार पड़ गई। इसी का परिणाम था कि सन् 1804 में फ्रांस की सेना के विजयी सेनापति और गणतंत्र के प्रथम कौंसिल नेपोलियन के हाथ में फ्रांस की सत्ता आ गई। और, इस प्रकार फ्रांसीसी क्रांति का 1789 से शुरू हुआ चक्र पूरा हुआ।
गणतंत्र के जमाने में ही यूरोप की सबसे बड़ी आबादी वाले इस राज्य में नागरिकों की सेना, जनतांत्रिक संविधान और यहां तक कि एक नयी विश्वदृष्टि पर आधारित नागरिक संहिता का निर्माण यूरोप के सभी देशों पर एक भिन्न दबाव बनाने लगा था। राजा और उमरावों की परम सत्ता के अन्तर्गत चर्च, सैनिकों और कामगारों की जिन तीन अवस्थाओं (इस्टेट्स) के आधार पर फ्रांस की शासन प्रणाली सदियों से कायम थी, उसे खत्म करके तीसरे इस्टेट, कामगारों को ही राष्ट्र घोषित कर दिया गया था। अन्य दोनों इस्टेट, पुरोहितों और उमरावों के सारे विशेषाधिकारों और उनके स्वतंत्र अस्तित्व का अंत हो गया। बाद में नेपोलियन ने फ्रांस की क्रांति के इतिहास को दरअसल यूरोप के इतिहास में बदल दिया।
फ्रांसीसी क्रांति के इसी क्रम में, जैसा कि पहले ही बताया जा चुका है, यहूदियों का प्रश्न एक प्रमुख प्रश्न की शक्ल में सामने आ गया था। सन् 1792-93 में ही गणतंत्र की सेना जर्मनी के राइनलैंड में आ गई थी और सबसे पहले मार्क्स के जन्म स्थान त्रायर के करीब मींज में जैकोबिन गणतंत्र की स्थापना हुई 1794 में पूरा राइनलैंड फ्रांस के कब्जे में आ गया और जब तक 1815 में वाटरलू में नेपोलियन पराजित नहीं हुआ, यह पूरा क्षेत्र फ्रांस के अधिकार में ही रहा।
इस प्रकार, मार्क्स के जन्म के चंद साल पहले तक त्रियेर फ्रांस का अंग था जिस पर नेपोलियन के पहले साम्राज्य का ‘सार्विक अधिकारों का सिद्धांत’ (Doctrine of universal rights) लागू हो गया था। इसीलिये हमने शुरू में ही लिखा है कि कार्ल मार्क्स को अपने परिवार से जो वैचारिक विरासत मिली थी, उसका एक सीधा संबंध फ्रांसीसी क्रांति और नेपोलियन के शासन से था। फ्रांसीसी गणतंत्र के अधीन आने के पहले तक राइनलैंड में यहूदियों की कुल आबादी 22000 थी जिन्हें ईसाइयों के समान अधिकार नहीं मिले हुए थे। यही कहानी यूरोप के दूसरे सभी राज्यों की भी थी।
पोलैंड, आस्ट्रिया, प्रशिया, रूस - सब जगह यहूदी अपने महाजनी पेशे के कारण नफरत की नजर से देखे जाते थे। उन्हें शहरों के कुछ इलाकों में प्रवेश की भी अनुमति नहीं थी। उल्टे सुरक्षा देने के नाम पर एक प्रकार का जजिया कर भी वसूला जाता था। लेकिन इसी दौर में पूरे यूरोप में यहूदियों को समानता के अधिकार की मांगों ने तूल पकड़ना शुरू कर दिया था। कुछ तबकों ने ऐसी दलीलें भी दी कि यहूदियों पर लगी कानूनी पाबंदियां खत्म होने से उनमें देशभक्ति और राष्ट्रप्रेम की भावना भरी जा सकेगी और उनकी यहूदी अस्मिता का अंत हो जाएगा। लेकिन फ्रांसीसी क्रांति ने यहूदियों के उत्थान के विषय को समानता के सार्विक अधिकार का विषय बना दिया था।
सन् 1791 की मुक्ति की घोषणा ने परोक्ष रूप से मार्क्स के परिवार को किस प्रकार प्रभावित किया इसे क्रांति के कारण राइनलैंड के यहूदियों के सामाजिक जीवन में आए परिवर्तनों से कुछ हद तक समझा जा सकता है। जैकोबिन्स का रवैया इस क्षेत्र के प्रति विजेता भाव का था। उन्होंने बोन, कोलोन, मींज और त्रायर के विश्वविद्यालयों को बंद करा दिया था। लेकिन नेपोलियन का शिक्षा के प्रति अलग दृष्टिकोण था। उसने एक नेपोलियन संहिता के जरिेय पूरे साम्राज्य में नई शिक्षा प्रणाली शुरू की जिसमें वृत्तिमूलक शिक्षा, व्यवहारिक विज्ञान और विधिशास्त्र की तरह के विषयों को शामिल किया गया। सन् 1804 में नेपोलियन खुद त्रायर आया था और कोब्लेंस में उसने कानून की शिक्षा के एक स्कूल की स्थापना की थी।
9 फरवरी 1807 के दिन नेपोलियन ने पेरिस में यहूदी धर्म गुरुओं के साथ एक बैठक की जिसमें त्रायर से मार्क्स के पिता के भाई सैमुअल मार्क्स भी गये थे। उस सभा में यहूदी धर्म गुरुओं से उनके धर्म के बारे में कई कठिन सवाल करने के बाद उन्हें भी अन्य धर्म प्रचारकों की तरह सरकारी मुलाजिम बना लिया गया। यहूदियों के सूदखोरी के धंधे पर विशेष कर जारी रखते हुए उनसे कहा गया कि वे यहूदियों को दूसरे प्रकार के पेशों की दिशा में जाने के लिये प्रेरित करें। धंधा करने के लिये पंजीकरण की प्रणाली लागू की गई और इसके लिये जरूरत पड़े तो, कहा गया कि, यहूदी अपने नामों को बदल भी सकते हैं।
इसी काल में मार्क्स के पिता ने कानून का पेशा अपनाने का निर्णय लिया और 1814 में कोब्लेंस के कानून विद्यालय में तीन साल के कानून के कोर्स में भर्ती हो गये। कानून के पेशे के लिये पंजीकरण के लिये ही उन्हें अपना यहूदी नाम हर्शेल बदल कर हेनरिख कर लेना पड़ा।
क्रमशः
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