-अरुण माहेश्वरी
राइनलैंड की करवट
सन् 1812 में नेपोलियन की रूस पर चढ़ाई के बाद ही उसकी ताकत कमजोर होने लगी। रूस में उसे अपने तकरीबन 5 लाख 70 हजार सैनिकों को गंवाना पड़ा था। उसे दूसरा झटका लगा था लिपजिग की लड़ाई में। इस लड़ाई में नेपोलियन को आस्ट्रिया, प्रशिया, रूस और स्वीडेन की लगभग सवा तीन लाख सैनिकों की संयुक्त सेना से मात खानी पड़ी थी। सन् 1814 में राइन नदी के बायें तट के क्षेत्र पर इसी मित्र सेना का कब्जा हो गया था। 1815 में वाटर लू में नेपोलियन की निर्णायक पराजय के बाद ब्रिटेन ने प्रशिया को राइनलैंड के प्रशासन को संभालने का जिम्मा दिया।
प्रशिया अनेक कारणों से इस जिम्मेदारी से बचना चाहता था। इनमें एक कारण यह भी था कि इस क्षेत्र पर पिछले लगभग बीस सालों से फ्रांस का कब्जा था और वहां के प्रशासन में इस दौरान कुछ इतने बड़े परिवर्तन हो गये थे, जिनके साथ मेल बैठाना प्रशिया को कठिन लग रहा था। वहां की पूरी न्याय प्रणाली नेपोलियन संहिता पर टिकी हुई थी। फिर भी जब प्रशिया ने इस क्षेत्र का प्रशासन संभाला, उसने सुधारों की प्रक्रिया को जारी रखा। यहूदियों को प्रशिया का नागरिक मान लिया गया। इसके अलावा कानून में ऐसे परिवर्तन किये गये ताकि कोई भी यहूदी आसानी से अपना धर्म परिवर्तन कर सकता था। चूंकि प्रशियाई कानून में सरकारी नौकरियों में यहूदियों की नियुक्ति पर प्रतिबंध था, इसीलिये धर्म-परिवर्तन की ये सुविधाएं दी गई।
कार्ल मार्क्स के पिता हेनरिख मार्क्स ने प्रशिया की प्रांतीय सरकार को उन्हीं दिनों एक पत्र लिखा जिसमें मांग की गई थी कि नेपोलियन ने 17 मार्च 1808 के दिन यहूदियों के खिलाफ जो आदेश जारी किया था उसे वापस लिया जाना चाहिए। उनकी दलील थी कि समुदाय के चंद लोगों के सूदखोरी के धंधे का दंड पूरे समुदाय को दिया जाना उचित नहीं है। जरूरत इस बात की है कि सूदखोरी के खिलाफ एक स्पष्ट कानून बनाया जाए न कि समाज में समुदायों के बीच गैर-बराबरी को जारी रखा जाए। अपने पत्र में उन्होंने ईसाइयों की उदारता और सदाशयता का आह्नान भी किया था।
हेनरिख फ्रांसीसी सरकार के काल में सरकार के कानूनी सलाहकार (एटर्नी) के पद पर थे। प्रांतीय सरकार से उनकी अपील के पीछे अपनी एटर्नी की नियुक्ति की रक्षा करना भी एक कारण था और वे प्रशियाई प्रशासन की न्याय मंत्रालय से यह मनवाने में सफल हुए कि सिर्फ सरकार के बदल जाने पर किसी भी सरकारी अधिकारी की नौकरी पर कोई आंच नहीं आयेगी। लेकिन उनके सामने एक बात साफ हो गई थी कि यहूदी रहते हुए सरकारी काम करना कठिन होगा। इसीलिये अंत में अनुमान लगाया जाता है कि 1816-1819 के बीच में उन्होंने यहूदी धर्म (जुडाइज्म) को छोड़ कर ईसाई धर्म अपना लिया।
वैसे कुल मिला कर हेनरिख मार्क्स काफी खुले विचारों के प्रबुद्ध व्यक्ति थे। जब प्रांतीय सरकार को अपने पत्र में उन्होंने ईसाइयों की उदारता की प्रशंसा की थी, उसी से जाहिर था कि उनका रूझान ईसाई धर्म की ओर हो गया था। लेकिन पारिवारिक परंपराओं के चलते ही किसी के लिये अपना धर्म परिवर्तन करना उतना आसान नहीं होता है। वही हेनरिख के साथ भी शुरू में हुआ था। लेकिन बाद में जीवन की परिस्थितियों ने उनके निर्णय को आसान कर दिया।
कार्ल मार्क्स के दिल में भी सारी जिंदगी अपने पिता के प्रति गहरे सम्मान का भाव था। वे उनकी व्यक्तिगत ईमानदारी और उनकी कानूनी प्रतिभा के हमेशा कायल रहे। मार्क्स की बेटी एल्योनोरा ने तो अपने दादा के बारे में कहा था कि ‘वे एक सच्चे 18वीं सदी के फ्रांसीसी थे।’ उन्हें वाल्तेयर और रूसो कंठस्थ थे। (देखें - Mclellan : Karl Marx Interviews and recollections)
जैसा कि पहले ही बताया जा चुका है कि हेनरिख मार्क्स ने सन् 1814 में हालैंड के एक यहूदी परिवार की बेटी हेनरिट्ट प्रेस बर्ग से शादी कर ली थी। कार्ल का जन्म 5 मई 1817 के दिन त्रायर में हुआ। उनके जन्म के बाद, 1820 का काल हेनरिख मार्क्स की वकालत की प्रसिद्धी का काल था। इससे उनके जीवन में काफी समृद्धि आई, उनके अपने अंगूर के बगीचे हो गये और उनका शुमार राइनलैंड के चुनिंदा बड़े लोगों में होने लगा था।
सन् 1816 के बाद 1821 में हेनरिख ने सूदखोरी पर अपनी दूसरी रिपोर्ट लिखी और उसके बाद ही वे सरकारी वकील बन गये थे। राइनलैंड का पूरा क्षेत्र वन संपदाओं का क्षेत्र था। यहां की लकड़ी की पूरे देश में मांग थी। नेपोलियन के जमाने में लकड़ी के कारोबार में बड़े पैमाने पर निजी पूंजी के प्रवेश के बाद उस क्षेत्र में लकड़ी की चोरी की अपराध ही सबसे ज्यादा हुआ करते थे। कार्ल मार्क्स के प्रारंभिक दिनों के अखबारी लेखन में यह एक प्रमुख विषय भी बना था।
बहरहाल, 1789-1791 के फ्रांस के क्रांतिकारी भूचाल ने राइनलैंड के जीवन को जिनमें ईसाई और यहूदी, सभी शामिल थे, पूरी तरह से बदल दिया था। इसे हेनरिख मार्क्स की पीढ़ी के लोगों के जीवन में परिवर्तन का एक निर्णायक काल कहा जा सकता है।
राइनलैंड की करवट
सन् 1812 में नेपोलियन की रूस पर चढ़ाई के बाद ही उसकी ताकत कमजोर होने लगी। रूस में उसे अपने तकरीबन 5 लाख 70 हजार सैनिकों को गंवाना पड़ा था। उसे दूसरा झटका लगा था लिपजिग की लड़ाई में। इस लड़ाई में नेपोलियन को आस्ट्रिया, प्रशिया, रूस और स्वीडेन की लगभग सवा तीन लाख सैनिकों की संयुक्त सेना से मात खानी पड़ी थी। सन् 1814 में राइन नदी के बायें तट के क्षेत्र पर इसी मित्र सेना का कब्जा हो गया था। 1815 में वाटर लू में नेपोलियन की निर्णायक पराजय के बाद ब्रिटेन ने प्रशिया को राइनलैंड के प्रशासन को संभालने का जिम्मा दिया।
प्रशिया अनेक कारणों से इस जिम्मेदारी से बचना चाहता था। इनमें एक कारण यह भी था कि इस क्षेत्र पर पिछले लगभग बीस सालों से फ्रांस का कब्जा था और वहां के प्रशासन में इस दौरान कुछ इतने बड़े परिवर्तन हो गये थे, जिनके साथ मेल बैठाना प्रशिया को कठिन लग रहा था। वहां की पूरी न्याय प्रणाली नेपोलियन संहिता पर टिकी हुई थी। फिर भी जब प्रशिया ने इस क्षेत्र का प्रशासन संभाला, उसने सुधारों की प्रक्रिया को जारी रखा। यहूदियों को प्रशिया का नागरिक मान लिया गया। इसके अलावा कानून में ऐसे परिवर्तन किये गये ताकि कोई भी यहूदी आसानी से अपना धर्म परिवर्तन कर सकता था। चूंकि प्रशियाई कानून में सरकारी नौकरियों में यहूदियों की नियुक्ति पर प्रतिबंध था, इसीलिये धर्म-परिवर्तन की ये सुविधाएं दी गई।
कार्ल मार्क्स के पिता हेनरिख मार्क्स ने प्रशिया की प्रांतीय सरकार को उन्हीं दिनों एक पत्र लिखा जिसमें मांग की गई थी कि नेपोलियन ने 17 मार्च 1808 के दिन यहूदियों के खिलाफ जो आदेश जारी किया था उसे वापस लिया जाना चाहिए। उनकी दलील थी कि समुदाय के चंद लोगों के सूदखोरी के धंधे का दंड पूरे समुदाय को दिया जाना उचित नहीं है। जरूरत इस बात की है कि सूदखोरी के खिलाफ एक स्पष्ट कानून बनाया जाए न कि समाज में समुदायों के बीच गैर-बराबरी को जारी रखा जाए। अपने पत्र में उन्होंने ईसाइयों की उदारता और सदाशयता का आह्नान भी किया था।
हेनरिख फ्रांसीसी सरकार के काल में सरकार के कानूनी सलाहकार (एटर्नी) के पद पर थे। प्रांतीय सरकार से उनकी अपील के पीछे अपनी एटर्नी की नियुक्ति की रक्षा करना भी एक कारण था और वे प्रशियाई प्रशासन की न्याय मंत्रालय से यह मनवाने में सफल हुए कि सिर्फ सरकार के बदल जाने पर किसी भी सरकारी अधिकारी की नौकरी पर कोई आंच नहीं आयेगी। लेकिन उनके सामने एक बात साफ हो गई थी कि यहूदी रहते हुए सरकारी काम करना कठिन होगा। इसीलिये अंत में अनुमान लगाया जाता है कि 1816-1819 के बीच में उन्होंने यहूदी धर्म (जुडाइज्म) को छोड़ कर ईसाई धर्म अपना लिया।
वैसे कुल मिला कर हेनरिख मार्क्स काफी खुले विचारों के प्रबुद्ध व्यक्ति थे। जब प्रांतीय सरकार को अपने पत्र में उन्होंने ईसाइयों की उदारता की प्रशंसा की थी, उसी से जाहिर था कि उनका रूझान ईसाई धर्म की ओर हो गया था। लेकिन पारिवारिक परंपराओं के चलते ही किसी के लिये अपना धर्म परिवर्तन करना उतना आसान नहीं होता है। वही हेनरिख के साथ भी शुरू में हुआ था। लेकिन बाद में जीवन की परिस्थितियों ने उनके निर्णय को आसान कर दिया।
कार्ल मार्क्स के दिल में भी सारी जिंदगी अपने पिता के प्रति गहरे सम्मान का भाव था। वे उनकी व्यक्तिगत ईमानदारी और उनकी कानूनी प्रतिभा के हमेशा कायल रहे। मार्क्स की बेटी एल्योनोरा ने तो अपने दादा के बारे में कहा था कि ‘वे एक सच्चे 18वीं सदी के फ्रांसीसी थे।’ उन्हें वाल्तेयर और रूसो कंठस्थ थे। (देखें - Mclellan : Karl Marx Interviews and recollections)
जैसा कि पहले ही बताया जा चुका है कि हेनरिख मार्क्स ने सन् 1814 में हालैंड के एक यहूदी परिवार की बेटी हेनरिट्ट प्रेस बर्ग से शादी कर ली थी। कार्ल का जन्म 5 मई 1817 के दिन त्रायर में हुआ। उनके जन्म के बाद, 1820 का काल हेनरिख मार्क्स की वकालत की प्रसिद्धी का काल था। इससे उनके जीवन में काफी समृद्धि आई, उनके अपने अंगूर के बगीचे हो गये और उनका शुमार राइनलैंड के चुनिंदा बड़े लोगों में होने लगा था।
सन् 1816 के बाद 1821 में हेनरिख ने सूदखोरी पर अपनी दूसरी रिपोर्ट लिखी और उसके बाद ही वे सरकारी वकील बन गये थे। राइनलैंड का पूरा क्षेत्र वन संपदाओं का क्षेत्र था। यहां की लकड़ी की पूरे देश में मांग थी। नेपोलियन के जमाने में लकड़ी के कारोबार में बड़े पैमाने पर निजी पूंजी के प्रवेश के बाद उस क्षेत्र में लकड़ी की चोरी की अपराध ही सबसे ज्यादा हुआ करते थे। कार्ल मार्क्स के प्रारंभिक दिनों के अखबारी लेखन में यह एक प्रमुख विषय भी बना था।
बहरहाल, 1789-1791 के फ्रांस के क्रांतिकारी भूचाल ने राइनलैंड के जीवन को जिनमें ईसाई और यहूदी, सभी शामिल थे, पूरी तरह से बदल दिया था। इसे हेनरिख मार्क्स की पीढ़ी के लोगों के जीवन में परिवर्तन का एक निर्णायक काल कहा जा सकता है।
(क्रमशः)
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