रविवार, 22 सितंबर 2019

बाबरी मस्जिद-राममंदिर मामला भारत में चल रहे कानून के वास्तविक चरित्र को परिभाषित करेगा

—अरुण माहेश्वरी


सुप्रीम कोर्ट में बाबरी मस्जिद विवाद पर अभी लगातार सुनवाई चल रही है । इस देश में एनआरसी की जंग को छेड़ने वाले अभी के मुख्य न्यायाधीश की अगुवाई की पांच सदस्यों की संविधान पीठ इसमें लगी हुई है ।

मुख्य न्यायाधीश नवंबर महीने में सेवा-निवृत्त होने वाले हैं । वे इसके पहले ही इस मामले को निपटा देना चाहते हैं । इस मामले की सुनवाई में जिस प्रकार रात-दिन एक किया जा रहा है, उससे लगता है जैसे अब मामला न्याय से कहीं ज्यादा मुख्य न्यायाधीश की सेवा-निवृत्ति की तारीख से होड़ का हो गया है । वे चाहते हैं कि अक्तूबर तक सुनवाई पूरी हो जाए ताकि सुप्रीम कोर्ट छोड़ने और केंद्र सरकार की दी हुई कोई दूसरी चाकरी में लगने के पहले वे इस अभागे भारत पर अपनी कीर्ति की कोई महान छाप छोड़ जाए !

यह मामला जिस प्रकार अभी चलता दिखाई दे रहा है, और भाजपा के नेता सुप्रीम कोर्ट को लेकर जिस प्रकार के अश्लील से उत्साह से भरे हुए हैं, उनके एक सांसद ने तो साफ शब्दों में कहा भी है कि अभी सुप्रीम मोदी सरकार की मुट्ठी में है, इसे देखते हुए हमें अनायास ही रोमन साम्राज्य के कानून की बातें याद आती हैं ।

कार्ल मार्क्स के कानून के इतिहास के गुरू कार्ल वॉन सेविनी ने रोमन कानून में 'अधिकार/कब्जे के कानून' (लॉ आफ पोसेसन) पर एक महत्वपूर्ण किताब लिखी थी । इसमें रोमन कानून के इस पहलू के बारे में कहते हैं कि रोमन कानून किसी संपत्ति पर अधिकार को उस पर कब्जे का सिर्फ परिणाम नहीं मानता, बल्कि कब्जे को ही किसी अधिकार की आधारशिला मानता है । इस प्रकार, वे कानून की सारी नैतिकतावादी और आदर्शवादी अवधारणा को खारिज कर देते हैं । वे साफ बताते हैं कि कानून, खास तौर पर निजी संपत्ति की पूरी धारणा तर्क से पैदा नहीं होते हैं । यह इतिहास में खास विशेषाधिकार-प्राप्त लोगों के आचार और दस्तावेजों/भाषाओं अर्थात् विचारों में निहित 'कब्जे के भाव' से पैदा होती है ।
“सभी कानून जीवन की बदलती हुई जरूरतों और इन लोगों (विशेषाधिकार-प्राप्त लोगों) के बदलते हुए अभिमतों (मिजाज) पर निर्भर होते हैं, जिनके आदेशों को ही कानून मान कर लोग उनका पालन किया करते हैं ।”

इस प्रकार, सिद्धांत रूप में सेविनी कह रहे थे कि कानून बनाये नहीं जाते, कानून पाए जाते हैं । विवेक का कोई स्वतंत्र अस्तित्व नहीं होता है, जब तक वह भाषा और व्यवहार से नहीं जुड़ा होता है । देशकाल से स्वतंत्र विवेक का कोई अस्तित्व नहीं है । विवेक का इतिहास भाषा और संस्कृति से जुड़ा होता है और भाषा और संस्कृति समय के साथ अलग-अलग स्थान पर बदलते रहते हैं । इसीलिये न्याय के किसी भी औपचारिक मानदंड में विवेक को शामिल नहीं किया जा सकता है । (देखें, अरुण माहेश्वरी, बनना कार्ल मार्क्स का, पृष्ठ 63-64)

हमने अपनी उपरोक्त किताब में कार्ल मार्क्स के कानून का दर्शन संबंधी विचारों की पृष्ठभूमि को प्रकाशित करने के लिये इस विषय को थोड़ा विस्तार से रखा है । रोमन कानून एक साम्राज्य का कानून था, राजा और विशेषाधिकार-प्राप्त लोगों की इच्छा और स्वार्थों पर चलने वाले साम्राज्य का कानून । इसके विपरीत, जनतंत्र को जनता के कानून का शासन कहा जाता है, अर्थात् इसमें किसी तबके विशेष की इच्छा नहीं, कानून के अपने घोषित विवेक की भूमिका को प्रमुख माना जाता है । जिसकी लाठी उसकी भैंस जनतांत्रिक कानून की धारणा का एक प्रत्यक्ष निषेध है ।

तथापि, अभी हमारे यहां जनतंत्र पर ही राजशाही किस्म के शासन की जिस प्रणाली को लादने की कोशिशें चल रही है और एक के बाद एक सभी जनतांत्रिक और स्वायत्त संस्थाओं को इससे दूषित किया जा चुका है, उसे देखते हुए यह बाबरी मस्जिद से जुड़ा विवाद भारत के सुप्रीम कोर्ट के लिये किसी अम्ल परीक्षा से कम महत्वपूर्ण नहीं है । इससे पता चलेगा कि हमारे देश पर साम्राज्य के दिनों का कानून पूरी तरह से लौट चुका है, या 'वी द पिपुल' के द्वारा अंगीकृत समाजवादी, जनतांत्रिक, धर्मनिरपेक्ष और संघीय राज्य का कानून ।     

शुक्रवार, 20 सितंबर 2019

चाकर रहसूं, बाग लगासूं नित उठ दर्शन पासूं । श्याम ! मने चाकर राखो जी !


कॉरपोरेट भक्त सरकार की आर्त विनती
—अरुण माहेश्वरी

आज, यानी 19 सितंबर 2019 के दिन को भारतीय पूंजीवाद के इतिहास के ऐसे स्वर्णिम दिन के रूप में याद किया जायेगा जब भारत के कॉरपोरेट जगत ने अपनी ताकत का भरपूर परिचय दिया और 2014 और 2019 में महाबली मोदी के फूल कर कुप्पा हुए व्यक्तित्व में पिन चुभा कर उसे बौना बना के उसे उसकी सही जगह, कॉरपोरेट जगत के चौकीदार वाली जगह पर बैठा दिया, जिस काम के लिये सचमुच बुद्धि की कोई जरूरत नहीं होती है । मोदी कॉरपोरेट के चरणों में पड़े दिखाई दिये । चंद रोज पहले उन्होंने रिजर्व बैंक के हाथ मरोड़ कर उससे जो 1.76 लाख करोड़ झटके थे, लगभग उस पूरी राशि को कॉरपोरेट के चरणों में सौंप कर आज वे धन्य-धन्य हो गये !

दो महीने पहले, जब मोदी की अपनी शान शिखर पर थी, इन्हीं वित्त मंत्री निर्मला सीतारमण ने अपने बजट में कारपोरेट को किसी भी प्रकार की अतिरिक्त छूट न देने का बहादुरी का स्वांग रचा था । लेकिन उसके चंद दिनों बाद ही कॉरपोरेट के दबाव की पैंतरेबाजियां शुरू हो गई । ईश्वर ने भक्त को उसकी औकात में लाने का जाल रचना शुरू कर दिया । अर्थ-व्यवस्था का मूल संकट अपने कारणों से, नोटबंदी और जीएसटी की वजह से आम जनता की बढ़ती हुई कंगाली और मांग की भारी कमी से पैदा होने वाली मंदी के कारण था, लेकिन माहौल ऐसा बनाया जाने लगा जैसे कॉरपोरेट ने इस सरकार के खिलाफ हड़ताल की घोषणा कर दी हो और जो हो रहा है, उनके कोपभवन में जाने की वजह से ही हो रहा है । छोटे-बड़े, सारे औद्योगिक घराने खुले आम निवेश के मामले में फूंक फूंक कर कदम उठाने, बल्कि उससे विरत रहने के संकेत देने लगे । कॉरपोरेट की यह मामूली बेकरारी ही सेवक मोदी को नाकारा साबित करने के लिये काफी थी । चारो ओर से उनके निकम्मेपन की गूंज-अनुगूंज सुनाई भी देने लगी । कुल मिला कर, अंत में मोदी ने भगवान के सामने समर्पण कर ही दिया, अर्थात् अर्थ-व्यवस्था के सभी क्षेत्रों के संकट का कॉरपोरेट ने अपने हित में भरपूर लाभ उठाया और मोदी को दो महीने पहले के अपने तेवर को त्याग कर कॉरपोरेट के सामने साष्टांग लेट जाने के लिये मजबूर कर दिया ।

कॉरपोरेट के नग्न सेवक का यह सेवा भाव बैंकों और ऐनबीएफसी के मामलों के वक्त से ही टपकने लगा था और बैंकों को कहा गया था कि उन्हें महाप्रभु कॉरपोरेट को संकट से निकालने के लिये दिन-रात एक कर देने हैं । और अब आज, पिछले बजट के सारे तेवर को त्याग कर दास ने अपने को प्रभु के हाथ में पूरी तरह से सौंप देने का अंतिम कदम उठाया है । इसके बाद से भारत का कॉरपोरेट जगत किस प्रकार के अश्लील उल्लास से फट पड़ा है, इसे एक दिन में शेयर बाजार में 2000 प्वायंट के उछाल से अच्छी तरह से समझा जा सकता है । इसे कहते हैं पूंजीवाद में कारपोरेट की अंतिम हंसी !

निर्मला सीतारमण ने आज जो घोषणाएं की, उन्हें बिन्दुवार इस प्रकार समेटा जा सकता है —
1. कॉरपोरेट टैक्स में भारी कटौती ; कंपनियों पर कर की प्रभावी दर 25.17% होगी जो पहले 34.94 प्रतिशत थी ; दूसरी कोई छूट न लेने पर यह दर सिर्फ 22% होगी ; इस पर भी अतिरिक्त और सबसे बड़ी बात यह रही कि कंपनियों पर अब मैट जमा करने की कोई मजबूरी नहीं रही रहेगी ।
2. मैनुफैक्चरिंग में निवेश करने वाली नई कंपनी पर कॉरपोरेट टैक्स सिर्फ 17.01% होगा ।
3. MAT की दर को कम करके 15% कर दिया ।
4. जो कंपनियाँ बाजार से अपने शेयरों को वापस ख़रीदने में निवेश करना चाहती है, अभी तक के नियमों के अनुसार उनकी इस ख़रीद से होने वाले मुनाफ़े पर कोई उन्हें कोई कर नहीं देना पड़ेगा।
5. जो मोदी सरकार पिछले छ: सालों से औपनिवेशिक शासकों की तरह सिर्फ राजस्व वसूलने में लगी हुई थी जिसके कारण कृषि क्षेत्र की वास्तविक कंगाली के साथ ही कॉरपोरेट क्षेत्र भी अपने को कंगाल बताने लगा था, उसे तक़रीबन सालाना 1.45 लाख करोड़ की राजस्व की राहत दी दी गई ।

निर्मला सीतारमण की इन घोषणाओं से इस प्रकार के एक नतीजे पर भी पहुंचा जा सकता है कि मोदी ने एक प्रकार से भारत को कॉरपोरेट दुनिया के लिये आयकर-मुक्त देश बना दिया है । जो लोग उनकी MAT (Minimum Alternative Tax) संबंधी घोषणा के प्रभाव को नहीं समझ रहे हैं, वे शायद हमारी इस बात को पूरी तरह से नहीं समझ पायेंगे ।

आयकर कानून में मैट, अर्थात् मिनिमम अल्टरनेट टैक्स 1987 में तब लाया गया था जब कंपनियों में कंपनी लॉ के अनुसार अपने खाते तैयार करके मशीनों पर छीजत का लाभ उठा कर, मुनाफ़े को नये निवेश में दिखा कर टैक्स नहीं देने का रुझान बढ़ गया था । तब एक प्रकार के अग्रिम कर के रूप में ही मैट की व्यवस्था की गई ताकि मुनाफा करने वाली हर कंपनी सरकार के राजस्व में हर साल कुछ न कुछ योगदान करती रहे, भले उसके खातों में पुराना घाटा चल रहा हो अथवा तमाम प्रकार की छूटों का लाभ लेने पर उन्हें आयकर को पूरी तरह से बचाने का मौका मिल जाता हो । सिद्धांततः मैट के रूप में चुकाये गये रुपये का कंपनी आगे के सालों में अपनी आयकर की लागत से समायोजन कर सकती है, लेकिन इसमें समय सीमा आदि की कई बाधाओं के चलते आम तौर पर उसे हासिल करना संभव नहीं होता था । इसीलिये मैट अग्रिम आयकर कहलाने के बावजूद वास्तव में एक प्रकार का अतिरिक्त आयकर का ही हो गया था ।

बहरहाल, 1991 में भी, उदारवादी आर्थिक नीति के प्रारंभ में एक बार मैट की बाध्यता ख़त्म कर दी गई थी, लेकिन 1996 में इसे फिर से शुरू कर दिया गया था । अब फिर से एक बार मैट देने की बाध्यता को ख़त्म करके जाहिरा तौर पर पुरानी ज़ीरो टैक्स कंपनी की प्रथा के पनपने की ही जमीन तैयार कर दी गई है । सीतारमण ने साफ कहा है कि मुनाफे पर 22 प्रतिशत आयकर देने वाली कंपनियों पर मैट देने की बाध्यता ख़त्म हो जायेगी ; अर्थात् वे छीजत आदि का पूरा लाभ उठा कर बाकी के मुनाफे पर आयकर चुका पायेगी । इससे अब एक साथ पुराने जमा घाटे को मुनाफ़े के साथ समायोजित कर ज़ीरो टैक्स कंपनी बनने के नये अवसर पैदा कर दिये गये हैं ।

हम यहां फिर से दोहरायेंगे कि भारत के कॉरपोरेट जगत के सामने मोदी जी की सारी हेकड़ी ढीली हो गई है । पिछले कई दिनों से वित्त मंत्रालय में कॉरपोरेट के लोगों का जो ताँता लगा हुआ था, वह असरदार साबित हुआ है । पिछले बजट तक में कॉरपोरेट को कोई छूट नहीं देने का जो रौब गाँठा गया था, वह अब पानी-पानी हो चुका है । और, यह भी साफ हो गया है कि मोदी जी की हेकड़ी का चाबुक सिर्फ ग़रीब किसानों, मज़दूरों और अनौपचारिक क्षेत्र के कमजोर लोगों पर ही चलता है ।

ये चले थे कॉरपोरेट के आयकर-चोरों को जेल में बंद करने, लेकिन अब कॉरपोरेट पर आयकर को ही लगभग ख़त्म सा कर दिया है । अब आयकर वस्तुत: सिर्फ मध्यमवर्गीय कर्मचारियों और दुकानदारों के लिये रह गया है । कॉरपोरेट से आयकर वसूलने के सारे लक्ष्य त्याग दिये गये हैं । कहना न होगा, बहुत जल्द हमें कॉरपोरेट से वसूले जाने वाले आयकर के रूप में राजस्व की अकिंचनता और निरर्थकता के पाठ पढ़ाये जायेंगे । एक अर्से से ‘रोज़गार और संपदा पैदा करने वाले’ कॉरपोरेट का सम्मान करने की जो हवा बनाई जा रही थी, आज उस अभियान का वास्तविक मक़सद सामने आ गया है । भारत कॉरपोरेट के लिये वास्तव अर्थों में एक प्रकार का आयकर-मुक्त देश हो गया है ।

सीतारमण की आज की घोषणाओं में कॉरपोरेट की सामाजिक सेवा ज़िम्मेदारियों के दायरे को भी जिस तरह सरकारी सेवाओं के क्षेत्र में भी ले जाने की पेशकश की गई है, उससे साफ है कि सरकार ने जन-कल्याण के सारे कामों से अपने को पूरी तरह से अलग कर लेने का निर्णय ले लिया है । यह सरकार आर्थिक मंदी के मूल में कारपोरेट की खस्ता वित्तीय हालत और निवेश के प्रति उसकी कथित बेरुखी को देख रही है, जब कि वास्तव में इसके मूल में जनता की बढ़ती हुई कंगाली और आम आदमी की बाजार-विमुखता है । यही वजह है कि यदि कोई यह कल्पना कर रहा है कि सरकार के इन कदमों से अर्थ-व्यवस्था में जान आएगी तो वह मूर्खों के स्वर्ग में वास कर रहा है । यह कॉरपोरेट जगत को जरूर खुशी देंगे । जब तक बाजार में मांग पैदा नहीं होगी, मैनुफैक्चरिंग और उसी अनुपात में रोजगार में वृद्धि की कोई संभावना नहीं बनेगी । अब यह भी साफ पता चल रहा है कि हमारे देश को इस सरकार ने किस भारी संकट में डाल दिया है, इसका डर अब उसे भी सताने लगा है ।







गुरुवार, 19 सितंबर 2019

भाषा के प्रश्न को कभी भी किसी सत्ता के संरक्षण अथवा बंधन से जोड़ कर देखना सही नहीं है

हिंदी दिवस के अवसर पर अभिनंदन समारोह में अरुण माहेश्वरी का वक्तव्य




आज हिंदी दिवस है । इस दिन को इसलिये हिंदी दिवस के रूप में मनाया जाता है क्योंकि 14 सितंबर 1948 के दिन ही हमारे देश की संविधान सभा में भारतीय राज्य में हिंदी की स्थिति और भूमिका के बारे में कई फैसले लिये गये थे । उनमें एक प्रमुख फैसला यह था कि हिंदी को भारत की राजभाषा का, अर्थात् सरकारी काम-काज की भाषा का दर्जा प्रदान किया जायेगा । इसमें एक और प्रतिश्रुति भी शामिल थी कि क्रमशः हिंदी को भारत की राष्ट्र भाषा का रूप भी दिया जायेगा । इस मामले में कितना आगे बढ़ा गया, कितना नहीं, यह हमारी चिंता का विषय ही नहीं है ।

यहां हमारे कहने का तात्पर्य सिर्फ यह है कि हिंदी दिवस का यह आयोजन वस्तुतः हिंदी के सरकारी कामों में प्रयोग को मिली एक संवैधानिक स्वीकृति का आयोजन है । जो हिंदी राजस्थान से लेकर बिहार के मिथलांचल तक फैले एक विशाल भू भाग के लोगों की मातृ-भाषा के रूप में विकसित हो रही है और जिसमें ये लगभग पचास करोड़ से ज्यादा लोग अपनी साहित्य-संस्कृति से जुड़ी सूक्ष्मतर भावनाओं का आदान-प्रदान किया करते हैं, हिंदी दिवस का वास्तव में उस, हम सबकी विशेष पहचान और अस्मिता से जुड़ी भाषा से कोई खास संबंध नहीं है । खींच-तान कर कोई भी कुतर्क के जरिये कह सकता है कि भाषाओं की रक्षा और विकास में सरकारी संरक्षण की काफी भूमिका हुआ करती है । लेकिन हम व्यक्तिगत तौर पर इस मत के सर्वथा विरोधी है । बल्कि मानते हैं कि भाषाओं के क्षेत्र में राजसत्ता का दखल भाषा के साथ जुड़ी आदमी की नैसर्गिक स्वतंत्रता के क्षेत्र में दखलंदाजी की तरह है ।

भाषाएं किसी राजसत्ता, दरबार या सरकार के संरक्षण में न जन्म लेती है और न ही विकसित होती है । भाषा को उसके जन्म साथ ही उसकी विमर्श शक्ति से जोड़ कर देखा जाता है, अन्य के साथ संवाद की जरूरत से जोड़ कर देखा जाता है, और विमर्श हमेशा मुक्तिदायक होता है, वह तत्वत: मनुष्य की स्वतंत्रता का प्रतीक होता है ।
हमारे शास्त्रकारों के शब्दों में — “स्वातंत्र्यं हि विमर्श इत्युच्यते, स चास्य मुख्यः स्वभावः । (स्वातंत्र्य ही विमर्श कहलाता है और वह इसका प्रमुख स्वभाव है )

इसीलिये भाषा के प्रश्न को कभी भी किसी सत्ता के संरक्षण अथवा बंधन से जोड़ कर देखना सही नहीं है । यह पनपती, फलती-फूलती है आदमी के भावों की स्वतंत्र अभिव्यक्ति के क्षेत्र से, साहित्य से, स्वतंत्र विमर्श अर्थात् चिंतन से । अगर सत्ता ही भाषाओं के स्थायित्व का आधार होती तो न हम आज संस्कृत को, न पाली, प्राकृत और फारसी को, और यूरोप में ग्रीक और लैटिन के स्तर की भाषाओं को ही पोस्टमार्टम की मेज पर अध्ययन मात्र के विषय के तौर पर देख रहे होते और न अपभ्रंशों के नाना रूपों के विकास से उत्पन्न आधुनिक भारतीय भाषाओं के इतने बड़े खजाने से अपने देश की वैविध्यमय समृद्धि का उत्सव मना रहे होते ।

बहरहाल, हिंदी हमारी मातृभाषा, हमारे चित्त के प्रसार और हमारे अहम्, हमारे व्यक्तित्व से जुड़ी हमारी समग्र पहचान की भाषा है, इसीलिये इससे जुड़े किसी भी उत्सव में हम अपनी ही समृद्धि का उत्सव मनाने की तरह के सुख का अनुभव करते हैं ।

आप सबको हिंदी दिवस की आंतरिक बधाई देते हैं ।

आज यह अवसर हमारे लिये और भी खास इसलिये हो गया है क्योंकि हम कोलकाता के इस बहुत पुराने क्षेत्र के एक बेहद पवित्र और गौरवपूर्ण स्थल, माहेश्वरी पुस्तकालय में अपने ही लोगों के द्वारा प्रशंसित किये जाने के कार्यक्रम में उपस्थित हुए हैं । यह हमारे लिये किसी आत्म-प्रशंसा के कार्यक्रम से भिन्न कार्यक्रम नहीं है । खुद की खुद के ही लोगों के द्वारा प्रशंसा वृहत्तर अर्थ में आत्म-प्रशंसा ही कहलायेगी । यह क्षेत्र हमारी जन्मभूमि और कर्मभूमि, दोनों ही रहा है और आज तक भी हमारे सपनों में, अर्थात् हमारे अवचेतन में उभरने वाले दृश्यों की आदिम, मूल भूमि । यहां से हम सिर्फ अपने उस आत्म को ही पा सकते हैं, जिसे फ्रायड की तरह के मनोविश्लेषक व्यक्ति के चित्त और उसकी क्रियात्मकता की अभिव्यक्ति की भाषा का उत्स मानते हैं ।   

बहरहाल, आत्म-प्रशंसा, एक आत्मतोष जिसे मनोविश्लेषण की भाषा में एक प्रकार की आत्ममुग्धता भी कहा जाता है, आदमी की यदि एक प्रकार की कमजोरी है तो यही है जिसके जरिये आदमी अपने अहम् के निर्माण की प्रक्रिया में अपने लिये बहुत कुछ अलग से अर्जित भी किया करता है । फ्रायड कहते हैं कि “बच्चे की मोहकता के पीछे भी काफी हद तक उसकी आत्म-मुग्धता, उसका आत्म-तोष और किसी अन्य को अपने पास न आने देने का रुझान काम करता है । ... यहां तक कि साहित्य में आने वाले बड़े-बड़े अपराधी और विनोदी चरित्र भी, अपनी आत्म-मुग्धता के जरिये ही हमें अपनी ओर खींचते हैं, क्योंकि इसी के बल पर वे उन सब चीजों को अपने से दूर रखने में समर्थ होते हैं जो उनके अहम् पर चोट करती है । उनकी यह मौज, एक ऐसी उनमुक्तता जिसे हम काफी पहले गंवा चुके होते हैं, हमारी ईर्ष्या का और इसीलिये हमारे आकर्षण का भी पात्र बनते हैं ।”

लेकिन मजे की बात यह भी है कि अपनी इसी आत्म-मुग्धता के लिये आदमी को कम कीमत नहीं चुकानी पड़ती है । फ्रायड ही अपने 'Introduction to narcissism’ लेख में बताते हैं कि “अपने रूप के प्रति आत्ममुग्ध सुंदरी की मोहकता की वजह से ही अक्सर उसका प्रेमी उससे असंतुष्ट भी रहता है, क्योंकि उसके मन में उस सुंदरी ने उसे क्यों चुना इसके बारे में हमेशा एक संशय का भाव होता है जो उसे उसके प्रेम के प्रति भी शंकित करता है, उसे वह अपने लिये एक पहेली समझता है ।”

अतिशय आत्ममुग्धता, तमाम सामाजिक मानदंडों पर एक मनोरोग मानी जाती है । इसीलिये एक स्वस्थ और संतुलित जीवन के लिये इससे बचने की जरूरत होती है । सभ्य और भद्र आदमी का अकिंचन-भाव आत्म-मुग्धता का ही प्रति-भाव है । यह भी एक विचित्र कारण है जिसके चलते कला और साहित्य की रचनात्मक दुनिया में भद्रता को भी किसी आत्म-दंड से कम दमनकारी नहीं माना जाता है । इसी से कलाकारों के कुछ-कुछ असामाजिक प्रकार के व्यवहार की समझ मिलती है, जिसे समाज के संरक्षणवादी तत्त्व नापसंद करते है और दंड का अधिकारी मानते हैं । जबकि उन्हीं के कामों के जरिये आदमी का आत्मजगत अपने को किसी भी प्रकार की जड़ता से मुक्त करता हुआ मनुष्य के आत्म-प्रसार का रास्ता खोलता है । दुनिया का इतिहास इस बात का गवाह है कि जिस समाज में भी रूढ़िवाद प्रबल होता है, वह समाज खुद को ऐसी अंतरबाधाओं से जकड़ लेता है, जिसमें उसके विकास की संभावनाओं का क्रमशः अस्त होता जाता है ।

जो भी हो, आज संजय ने और माहेश्वरी पुस्तकालय के सभी कर्ता-धर्ताओं ने, जो इस क्षेत्र के इस सच्चे गौरव की रक्षा का भार उठाये हुए हैं, इस आयोजन के जरिये हमें जो मान दिया है, हमारे जीवन में यह अपने किस्म का पहला आयोजन ही है ।

हमारे कवि मुक्तिबोध रचनाधर्मिता और समारोह-धर्मिता को एक दूसरे का शत्रु मानते थे । आज हिंदी में पुरस्कारों की स्थिति से आप सब परिचित ही होंगे । हमने अपने एक लेख में इस तथ्य को नोट किया था कि 'वागर्थ' जैसी पत्रिका में छपने वाले लगभग प्रत्येक लेखक के सर पर एक नहीं, अनेक पुरस्कारों की कलंगी लगी रहती है, जबकि हिंदी के विशाल पाठक समुदाय में लोग उनके नाम से भी परिचित नहीं होते हैं, रचना तो बहुत दूर की बात । साहित्य समाज में जितना अप्रासंगिक होता जा रहा है, पुरस्कारों की संख्या उसी अनुपात में बढ़ती जा रही है । इसीलिये किसी भी प्रकार के पुरस्कार या सार्वजनिक प्रशंसा का लेखक की अपनी पहचान से कितना संबंध हो सकता है, यह बहुत गहरे संदेह का विषय है । तथापि आप तमाम, अपने ही लोगों के बीच उपस्थित होने का सुख ही हमारे लिये कम मूल्यवान नहीं है ।

आप सभी इस मौके पर हमारे साथ कुछ क्षण बिताने के लिये उपस्थित हुए, इसके लिये मैं आप सबके प्रति तहे दिल से आभार व्यक्त करता हूं । इस खुशी के मौके पर अपनी बहक में क्या-क्या बोल गया हूं, उसके लिये इसलिये क्षमाप्रार्थी हूं क्योंकि ये सारी बातें इस आयोजन की औपचारिकता के लिये अनुपयुक्त भी हो सकती है । लेकिन यह ज्ञान का एक सार्वजनिक केंद्र है । शैवमत के महागुरू हमारे अभिनवगुप्त का यह प्रसिद्ध कथन है —
“स्वतन्त्रात्यरिक्तस्तु तुच्छोऽ तुच्छोऽपि कश्र्चन ।
न मोक्षो नाम तन्नास्य पृथङनामापि गृह्यते ।।
(स्वतंत्र आत्मा के अतिरिक्त मोक्ष नामक कोई तुच्छ या अतुच्छ पदार्थ नहीं है । इसीलिये मोक्ष का अलग से नाम भी नहीं लिया जाता, (लक्षण आदि की चर्चा तो बहुत दूर की बात है )

हमारा धर्म ही हमें भैरवी स्वातंत्र्य के भाव को साधने की शिक्षा देता है । हम मोक्ष और वैराग्य के नैगमिक दर्शनों के मिथ्याचारों और दासता के भाव से अपने को जोड़ने के पक्ष में नहीं हैं । इसीलिये हम औपचारिकताओं के नहीं, अनौपचारिकताओं के समर्थक है ।

अंत में कवितानुमा चंद पंक्तियों के साथ मैं अपनी बात खत्म करूंगा —
साफ कहना

एक अनुभव है साफ कहना
जैसे हो नदी का बहना
ढलान में अलमस्त उतरना
पत्थरों की दरारों से
नया रास्ता बनाना
साफ मन का जैसे खुद को कहना ।

जब गुत्थियाँ सुलझती है
तो अंग-अंग बिखर जाते हैं
नदी के रास्ते में उगे शहर
दरारों में समा जाते हैं
सामने का इंद्रजाल
एक पल में
हवा हो जाता है
ज़र्रा-ज़र्रा बिखरा हुआ
एक कातर दृश्य
बनाता है ।

इसी में अभी मैं
ठिठका खड़ा,
आने वाला समय,
प्रतीक्षा में हूँ कि
व्यतीत को बस
उसका ठाव मिल जाए ।

सचमुच
मैं विगत की
राख में लिपटा दिखूँ
वह समय नहीं हूँ ।

इसीलिये साफ कहूँ
अबाध बहूँ
प्रेम का
खुद ही एक संसार बनूँ
यह वासना ही
मेरा ठोस रूप है ।

आप सबको इस आयोजन के लिये अशेष धन्यवाद ।     

गुरुवार, 12 सितंबर 2019

एनआरसी और न्याय का अघटन


-अरुण माहेश्वरी

नई दिल्ली के इंडियन सोसाइटी आफ़ इंटरनेशनल लॉ में इसी 8 सितंबर को एक ‘जन पंचायत’ बैठी जिसमें असम में नागरिकता के सवाल पर भारत के कई प्रमुख पूर्व न्यायाधीशों और क़ानून जगत के विद्वानों ने हिस्सा लिया । विचार का विषय था नागरिकता को लेकर इस विवाद की संवैधानिक प्रक्रिया और इसकी मानवीय क़ीमत । वहाँ सभी उपस्थित कानूनविदों ने एनआरसी के वर्तमान उपक्रम को न सिर्फ संविधान-विरोधी बल्कि मानव-विरोधी कहने में ज़रा भी हिचक नहीं दिखाई । इस विमर्श में सेवानिवृत्त जस्टिस मदन लोकुर, कूरियन जोसेफ़, ए पी शाह, प्रोफेसर फैजान मुस्तफ़ा, श्रीमती सईदा हमीद, राजदूत देब मुखर्जी, गीता हरिहरन आदि कई प्रमुख व्यक्तित्व शामिल थे ।

दरअसल, किसी भी कारण और क्रिया के बीच नियम की तरह कारक की भूमिका हुआ करती है, जो अदृश्य होने पर भी वास्तव में क्रिया के निरूपण में नियामक होता है । अदालत की इमारत और न्यायाधीश की सूरत मात्र न्याय विचार को कोई ठोस शक्ल नहीं देती है । न्याय की प्रक्रिया में ये सब होकर भी नहीं होते हैं । फिर भी,न्याय को किसी भी अघटन से सुरक्षित करने के लिये ही इस प्रक्रिया को एक सुनिश्चित सांस्थानिक रूप देने की कोशिश जारी रहती है। क़ानून यथार्थ के बहुरंगी स्वरूपों के प्रति संवेदनशील बना रहे, इसीलिये कारण और क्रिया के इस उपक्रम में कारक तत्व में लचीलापन काम्य होता है । पर यही लचीलापन कई बार न्याय की जगह अन्याय का हेतु भी बन जाता है ; प्रगति की जगह प्रतिक्रिया का । असम में एनआरसी के मामले में सुप्रीम कोर्ट की भूमिका भी कुछ ऐसी ही रही है ।

भारत में हर दस साल पर होने वाली जनगणना स्वयं में एक नागरिक रजिस्टर तैयार करने का ही उपक्रम है । 1951 की जनगणना के तथ्यों से ही असम में नागरिक रजिस्टर का जन्म हुआ था । असम में सन् 1971 के बांग्लादेश के मुक्ति युद्ध के काल में बड़ी संख्या में शरणार्थियों का आगमन हुआ था जो बांग्लादेश के उदय के साथ ही वापस अपने देश चले गये थे, लेकिन अपने पीछे वे असम की राजनीति में काल्पनिक आशंकाओं पर आधारित विवाद का एक स्थायी विषय छोड़ गए । इसने ग़रीबी और पिछड़ेपन से पैदा होने वाली ईर्ष्या और नफरत की तरह की अधमताओं कपर टिकी राजनीति को जन्म दिया । तभी असम में असमिया और बांग्ला भाषी लोगों के बीच भ्रातृघाती दंगों का ऐसा सिलसिला शुरू हुआ जिसने बांग्ला और असमिया भाषा तक को परस्पर के विरुद्ध खड़ा कर दिया था ।

असम गण परिषद इसी समग्र अधमता का एक प्रतीक रही है ।व्यापक रूप से यह झूठी धारणा बनाई गई कि वहाँ से बड़ी संख्या में शरणार्थी वापस नहीं गये और उन्होंने असम की आबादी के स्वरूप को बदल दिया है ; वे असम के सारे संसाधनों को हड़प ले रहे हैं । आरएसएस इस पूरे विवाद को हिंदू-मुस्लिम रूप देने की कोशिश में अलग से लगा रहा ।

1985 में केंद्र सरकार और असम के आंदोलनकारियों  के बीच एक समझौते के बाद ही असम गण परिषद के प्रफुल्ल कुमार महंता की पहली सरकार (1985-89) बनी । फिर 1991 से 1996 तक उनकी दूसरी सरकार भी बनी । लेकिन असम में विदेशी नागरिकों के बसने के बारे में वास्तव में कोई ठोस तथ्य सामने नहीं आएं । पर आरएसएस वालों ने इस झूठी अवधारणा को जरूर ज़िंदा रखा  । खास तौर पर मुसलमानों की आबादी के बारे में वे शेष भारत की तरह ही यहाँ भी लगातार झूठे तथ्य प्रचारित करते रहे ।

इसी बीच 2013 में, जब देश की राजनीति में सांप्रदायिक ताकतें उठान पर थी, नागरिक रजिस्टर के मसले पर अचानक ही सुप्रीम कोर्ट की एक खास भूमिका सामने आई । वर्तमान मुख्य न्यायाधीश रंजन गोगई और आर एफ नरीमन की दो जजों की बेंच ने एक मामले में केंद्र और राज्य सरकार को निर्देश जारी करके खुद की देख-रेख में पूरे असम में नागरिक रजिस्टर को अद्यतन बनाने का विशाल उपक्रम शुरू कर दिया । आज इस विषय पर जो भारी उथल-पुथल दिखाई दे रही है, यह सुप्रीम कोर्ट के उसी मनमाने फ़ैसले का परिणाम है ।

सुप्रीम कोर्ट की राय में सबसे बुरी टिप्पणी वह थी जिसमें लोगों के बाहर से आकर बसने की प्रक्रिया को राष्ट्र के खिलाफ आक्रमण तक कह दिया गया था । इससे असम में पहले से चली आ रही नफरत की झूठी राजनीति को भी बल मिला । आज जब एनआरसी की एक अंतिम सूची जारी की गई है, लगभग 19 लाख लोगों को सिर्फ नागरिकता की सिनाख्त की प्रक्रियाओं की त्रुटियों की वजह से राज्य-विहीनता की दुश्चिंता में डाल दिया गया है । इस पूरे प्रकरण में यदि असम की स्थानीय राजनीति और आरएसएस की राजनीति की भूमिका थी तो समान रूप से इसमें सुप्रीम कोर्ट की क़ानूनी भूमिका भी कम ख़राब नहीं रही है।

आज का सच यह है कि एनआरसी के पीछे के कारण कुछ भी क्यों न रहे हो, इस एक कदम ने कश्मीर के मसले से जुड़ कर भारत को दुनिया के सबसे घृणित जातीय संहारकारी राष्ट्रों की क़तार में खड़ा कर दिया है । यह लाखों मासूम लोगों को ज़लील और अपमानित करने का और देश में जातीय घृणा को सुनियोजित ढंग से फैलाने का एक जघन्य उपक्रम साबित हो रहा है । हमारे स्वतंत्रता आंदोलन की उदार विरासत पर इसने कालिख पोत दी है ।

सुप्रीम कोर्ट इस प्रक्रिया को उसके तार्किक अंजाम तक पहुँचाने के चक्कर में परिस्थिति को जटिल से जटिलतर करता जा रहा है । इसमें शामिल बाक़ी सारे तत्व आँख मूँद कर बस अदालत के आदेश के पालन में, अथवा अपना उल्लू सीधा करने में लगे हुए हैं । इन सबकों इसके अंतिम परिणामों का उसी प्रकार ज़रा भी ख़याल नहीं है जैसा हिटलर के आदेशों पर अमल करने वाले नौकरशाहों और सरकारी कर्मचारियों को नहीं था ।

विस्थापन और आप्रवासन की मानवीय त्रासदियों पर संयुक्त राष्ट्र के कई मूल्यवान अध्ययन उपलब्ध हैं । 2009 की मानव विकास रिपोर्ट में इसे मनुष्यों की गतिशीलता के सकारात्मक नज़रिये से देखा गया था। पूरा मानव इतिहास ही मनुष्यों की इसी गतिशीलता का इतिहास रहा है । इसके पीछे प्राकृतिक आपदा कारण हो सकती है और बेहतर अवसरों की तलाश भी । संयुक्त राष्ट्र ने अपनी रिपोर्ट में इस तथ्य को नोट किया था कि यदि इस प्रकार के आवागमन के प्रति अनावश्यक रूप में डर पैदा किया जाता है तो इसके परिणाम अत्यंत त्रासद और दुखजनक होते हैं । अन्यथा आप्रवासियों ने ही अब तक तमाम राष्ट्रों को आबाद और विकसित किया है, और आज भी कर रहे हैं ।

भारत में न्याय का प्रहरी ही न्याय के अघटन का कारण साबित हो रहा है ।

बुधवार, 4 सितंबर 2019

गलत राजनीति ही गलत अर्थनीति के मूल में है

—अरुण माहेश्वरी


मोदी जी समझते हैं कि वे जितना कहते हैं, लोग उतना ही समझते हैं । कहने वाले और सुनने वाले के बीच दूसरे ऐसे अनेक अनुभव काम करते रहते हैं जो कहे गये शब्द अपने अर्थ को प्राप्त करें, उसके पहले ही उनकी राह को भटका देते हैं । वे नहीं जानते कि कैसे राजनीतिक साजिशों, सरकारी तंत्र के बेजा प्रयोग से विरोधियों का दमन, हर मामले में स्वेच्छाचार का सिर्फ राजनीतिक नहीं, गहरा अर्थनीतिक संदर्भ भी बन जाता है । यह समग्र रूप से जिस डर के माहौल को तैयार करता है उसमें नागरिक अवसाद-ग्रस्त और बीमार होता है और उपभोक्ता वैरागी बन बाजार से मुंह मोड़ने लगता है । यह सब भारत के लोगों की आमदनी में गिरावट, अर्थात् उनकी बढ़ती हुई गरीबी के मूलभूत कारणों के अतिरिक्त है ।

कुल मिला कर डरा हुआ बीमार उपभोक्ता जहां आर्थिक मंदी का कारण बनता है, वहीं आर्थिक मंदी भी उपभोक्ता को बाजार से और ज्यादा दूर करती है । यह एक भयानक दुष्चक्र है । मौत के भंवर में खींच लेने वाला दुष्चक्र । जैसे मनोरोगी अवसाद में डूबता हुआ आत्म-हत्या के चरम तक जा सकता है, अर्थ-व्यवस्था का व्यवहार भी इससे ज्यादा भिन्न नहीं होता है । उपभोक्ता का डर उसे बाजार से दूर करता है और इससे उत्पन्न मंदी उसकी आमदनी को प्रभावित करती है ; वह बाजार से और दूर जाता है तथा अर्थ-व्यवस्था और गहरी मंदी में धसती चली जाती है । भारत के घरेलू बाजार से जुड़ी अर्थ-व्यवस्था की आज की यही असली कहानी है ।

आज की हालत यह है कि भारत में सकल संचय की दर में भी तेजी से गिरावट आने लगी है । मोदी जब सत्ता में आए थे, यह दर 35 प्रतिशत थी, जो 2017-18 में 30 प्रतिशत हो चुकी है । यहां तक कि पारिवारिक संचय में वृद्धि की दर 17 प्रतिशत पर उतर गई है जो पहले 23 प्रतिशत थी ।

जहां तक अन्तरराष्ट्रीय बाजार का सवाल है, उसके अपने संकट है । यह ट्रेडवार का एक विशेष जमाना है । इसमें किसी के लिये कोई अलग से रियायत नहीं है । जिसके पास रुपया है, ताकत है, वही राजा है । आज जिस दाम पर माल दुनिया के बाजार में बिक रहे हैं, भारत के पास उस दाम पर उनका उत्पादन करने की सिर्फ इसलिये सामर्थ्य नहीं है क्योंकि यहां मुनाफे के बटवारे के अनेक स्तर है । इसमें एक सबसे बड़ा हिस्सेदार तो खुद सरकार बनी हुई है । बैंकों पर सर्वाधिकार सरकार का है, और वे सरकारी दल के भ्रष्टाचार के मुख्य औजार बनी हुई है । इनके जरिये सरकार के करीब के लोगों के बीच रुपये लुटाये जाते हैं जो घूम कर भाजपा की आर्थिक मदद के कारक बनते हैं । भाजपा इसी लूट के भरोसे चुनावों में खरबों खर्च करती है । और भारत में चुनाव हर साल लगे ही रहते हैं, अर्थात् जनता के संचित धन से निवेश के बजाय एक प्रकार की शुद्ध निकासी का यह सिलसिला लगातार जारी रहता है । इसीलिये लाख जुबानी जमा-खर्च के बावजूद ऋणों पर ब्याज की दरें कम नहीं हो पाती है । रिजर्व बैंक की रेपो रेट में छूटों को भी बैंकें अपने घाटे की भरपाई के काम में लगाने की अभ्यस्त हैं । बैंकों की दुरावस्था के चलते ही उत्पादन के आधुनिकीकरण के सारे काम ठप पड़े हैं, जिनसे उत्पाद पर लागत को नियंत्रित किया जा सकता था ।  इसके कारण पड़ौसी छोटे-छोटे देश भी भारत को प्रतिद्वंद्विता में पछाड़ दे रहे हैं ।

बैंकों के हित के लिये ही सरकार ने एक नया कानून बनाया था इन्सोलवेंसी ऐंड बैंकरप्सी एक्ट । लक्ष्य था, सालों से कंपनियों में डूबे हुए धन का दस-बीस-तीस प्रतिशत जो भी हासिल हो जाए, शीघ्र हासिल करके बैंकों की नगदी की हालत को सुधारा जाए । कंपनियों को भी यह सब्ज बाग दिखाया गया कि इस कानून का लाभ उठा कर वे अपनी कंपनी की बेकार पड़ी छीज चुकी संपत्तियों को सलटा कर बैंकों के ऋण के बोझ से मुक्त हो जायेंगे । लेकिन कहना जितना आसान है, उसे करना उतना आसान नहीं होता है । इसमें शुरू से ही मोदी सरकार ने इस रास्ते पर बढ़ने वाली कंपनियों को बुरी नजर से देखना शुरू कर दिया ; बोली लगाने वालों पर नाना शर्तें लादी जाने लगी ; सरकार की मदद से बैंक अधिकारी भी मनमानी करने लगे । फलतः यह प्रक्रिया भी इसलिये फलवती नहीं हुई, क्योंकि इसकी सफलता का बुनियादी मानदंड था विवाद का जल्द निपटारा, और वही नौकरशाहों और राजनीतिज्ञों की बदौलत संभव नही था ।

आज सरकार कह रही है कि उसने इस रास्ते से अब तक साठ हजार करोड़ रुपये जुटाये हैं, लेकिन यह नहीं बता रही है कि वे कौन से ऋण हैं जिनका इस रास्ते से निपटारा किया गया है, और कितने का निपटारा नहीं किया जा सका है ! इन सबमें भी भ्रष्टाचार और राजनीतिक दखलंदाजी के सारे दाव-पेंच समान रूप से काम कर रहे हैं ।  सरकार का स्वेच्छचारी चरित्र इसमें भी निश्चित तौर पर अपनी भूमिका निभाता है ; कोई किसी पर विश्वास नहीं कर पाता है ।

सरकार के स्वेच्छाचार का सबसे बड़ा उदाहरण रिजर्व बैंक के आक्समिक कोष, आरक्षित कोष और मुनाफे की पूरी राशि को हड़प लेने के मामले में देखा गया । विमल जालान कमेटी की सिफारिश के नाम पर रिजर्व बैंक से जो 1 लाख 76 हजार करोड़ रुपया लिया गया है उसमें लगभग 53 हजार करोड़ तो किसी भी आपात काम के लिये आरक्षित कोष में से लिया गया है, लेकिन इसके साथ रिजर्व बैंक के मुनाफे का जो 1 लाख 23 हजार करोड़ लिया गया है, वह सबसे अधिक चौंकाने वाला है । रिजर्व बैंक 2009 से 2018 तक अपनी आमदनी से औसत सिर्फ 37290 करोड़ रुपया सरकार को दे पाया था, वह अचानक एक साल में बढ़ कर 1.23 लाख करोड़ रुपये कैसे हो गई, यह किसी के लिये भी रहस्यजनक हो सकता है । लेकिन इसके मूल में भी वही है, आम जीवन में और अर्थ-व्यवस्था में स्थिरता के साथ किया गया सौदा । 

रिजर्व बैंक अपने मुनाफे का एक अंश अपने आरक्षित कोष में रखता था ताकि किसी भी प्रकार की आर्थिक अस्थिरता, यहां तक कि किसी बैंक की डांवाडोल स्थिति में वह सामने आ कर उस स्थिति को संभाल सके । इस मामले में रिजर्व बैंक को 'बैंक आफ लास्ट रिसोर्ट' कहते हैं । जब रुपये की कीमत को स्थिर रखने के लिये, वित्त बाजार को संतुलित रखने के लिये कहीं से कोई मदद नहीं मिलती है, तब रिजर्व बैंक इसका इस्तेमाल करती है । अतीत में कई बार इसका उपयोग किया जा चुका है । रिजर्व बैंक अपने पास सोने-चांदी का भंडार भी इसी के बल पर बनाये रखती है ताकि आपात काल में अन्तरराष्ट्रीय बाजार में उसका इस्तेमाल किया जा सके । जालान कमेटी ने मुनाफे से निकाल कर रखी जाने वाली इस राशि के अनुपात को कम करके सिर्फ 5.5 प्रतिशत से 6.5 प्रतिशत तक रखने की सिफारिश की । मोदी जी के पिट्ठू गवर्नर ने एक कदम आगे बढ़ कर जालान कमेटी की सिफारिश के न्यूनतम 5.5 प्रतिशत को ही इसमें रखने का निर्णय लिया और सरकार को एक साथ 1.23 लाख करोड़ सौंप दिया ।

अर्थशास्त्री अभिरूप सरकार ने बिल्कुल सही कहा है कि हमारे यहां सरकारें तो पांच साल की अवधि के लिये काम करती है, लेकिन रिजर्व बैंक की तरह की संस्थाएं दीर्घकालीन दृष्टि के अनुसार चलती है । स्वेच्छाचारी शासन अपने तात्कालिक गलत कामों लिये राष्ट्र को दीर्घकालीन नुकसान पहुंचाने से बाज नहीं आता ।

इसीलिये, हम बार-बार कहते है कि राजनीति आज के भारत की अर्थ-व्यवस्था की सबसे बड़ी समस्या है । इसके कारण ही हर सरकारी नीति कभी भी अपने सही लक्ष्य तक भी नहीं पहुंच पाती हैं । अनेक काम तो शुद्ध राजनीतिक करामातों के लिये किये जाते हैं और भारी नुकसानदेही साबित होते हैं । मसलन् नोटबंदी और जीएसटी को लिया जा सकता है । यहां तक कि स्वच्छता अभियान आदि भी कोरे दिखावे की चीज बन कर रह गये हैं, क्योंकि यही इस सरकार की राजनीति है । कश्मीर के मसले को ही ले लीजिए । धारा 370 और राज्य के बटवारे को लेकर जो कुछ किया गया है, उन सबका विवेकसंगत कारण आज तक सामने नहीं आया है और इस समस्या से निकलने का इनके पास रास्ता क्या है, उसके भी कोई संकेत नहीं मिल रहे हैं ।

यह सब एक सर्वाधिकारवादी राजनीति के हित में किया जा रहा है और इस राजनीति की जो अर्थनीतिक कीमत है, उसे चुकाने के लिये हमारा देश अभिशप्त है । जब तक इस राजनीति को पराजित नहीं किया जाता है, अर्थनीति के वर्तमान संकट से निकलने का कोई रास्ता बन ही नहीं सकता है । अर्थव्यवस्था के संकेतकों के सही रूप को अगर जानना हो तो उसे अंतिम आकार देने में मध्यस्थता करने वाले राजनीति के संकेतों को आपको जरूर पढ़ना होगा ।