सोमवार, 31 जुलाई 2017

कार्ल मार्क्स : जिसके पास अपनी एक किताब है (20)


-अरुण माहेश्वरी
(फिर से नितांत निजी पारिवारिक कारणों से लगभग एक महीने के अंतराल के बाद)

दर्शनशास्त्र की ओर रुझान

कानून के बारे में बहसों की बारीकियों पर गौर करते हुए भी यह साफ नहीं हो पा रहा था कि मार्क्स कानून के अध्ययन की ओर बढ़ेंगे या नहीं । पिता को लिखे पत्र में उन्होंने कानून के प्रशासनिक पक्षों के बजाय न्याय शास्त्र के विषय पर अपनी रुचि जाहिर की थी । पिता को भी इसमें कोई आपत्ति नहीं थी । वे खुद न्यायशास्त्र को ही ज्यादा महत्व दे रहे थे । इसीलिये उन्होंने बेटे को लिखा कि उनका इस विषय में कुछ नहीं कहना है, ‘जिस विषय में तुम्हारी रुचि हो, उस दिशा में काम करो । गैन्स की कक्षाओं के अलावा इसी काल में ‘राइनिश जाइतुंग’ अखबार में लगातार तीन सालों तक उनके लेखों से भी यही पता चलता है कि उनका अधिक से अधिक बल एक न्याय विवेक की अवधारणा को विकसित करने पर ही रहता था ।

सन् 1839 तक आते-आते यह साफ हो गया था कि दर्शनशास्त्र मार्क्स के दिमाग पर छा चुका था । आगे डाक्टरेट के लिये उन्होंने इसे ही अपनाया । इसी बीच पिता की मृत्यु (10 मई 1838) हो गई । तत्कालीन प्रशिया के सांस्कृतिक और राजनीतिक घटना-क्रम बर्लिन के कैफे स्टेले में चलने वाली बहसों को साहित्य और कला से दर्शन, धर्मशास्त्र और राजनीति की बहसों की ओर मोड़ दिया था । मार्क्स की मानसिकता से भी यही जाहिर हो रहा था ।


'विचार को खुद उसमें देखों' का हेगेलीय प्रभाव तब उन पर छाया हुआ था । लेकिन समस्या विचार और यथार्थ को जिस प्रकार हेगेल एकमेव करके देखते थे, वैसा दिखाई नहीं देता था । 1831 में हेगेल की मृत्यु हुई, लेकिन उसके बाद का घटना-क्रम विचार की गति से उल्टा दिखाई देता था ।

हेगेल वे पहले व्यक्ति थे जिन्होंने जर्मनी की दुनिया को एक सार्वलौकिक भावना से जोड़ा था । 1803 में नेपोलियन की पराजय के बाद भी प्रशिया ने यदि उसके कामों को आगे बढ़ाया होता तब भी हेगेल की बात में सच्चाई नजर आती । उस लिहाज से देखें तो 1818 में बर्लिन विश्वविद्यालय में दर्शनशास्त्र की पीठ पर हेगेल की नियुक्ति को ही नेपोलियन के सुधारों की कड़ी में देखा जा सकता है ।


1820 में हेगेल ने अपने Philosophy of History के लेक्चर्स में कहा कि स्वतंत्रता के आधुनिक इतिहास में सुधार के दो समानांतर रास्तों को पाया जा सकता है । पहला जर्मन सुधारवाद से शुरू हुआ जिसमें लुथर ने धर्म को बाहरी नियंत्रण से मुक्त करके जर्मनों में आध्यात्मिकता के, मननशीलता के गुणों को विकसित किया । इसी से कांट के दर्शन का जन्म हुआ और आदमी परंपरागत तमाम विश्वासों से मुक्त हुआ । दूसरा रास्ता राजनीतिक था जिससे फ्रांसीसी क्रांति हुई । इसने अपनी सभी कमियों के बावजूद ऐसी परिस्थिति पैदा की जिसमें मनुष्य की आंतरिक और आत्मिक स्वतंत्रताओं को अब बाह्य राजनीतिक और सांस्थानिक रूपों में व्यक्त किया जा सकता था । हेगेल का मानना था कि अब इस आत्मिक और राजनीतिक स्वतंत्रता के योग को जर्मनी में रूपायित किया जा रहा है । प्रशिया में एक विवेकसंगत सुधार कार्यक्रम पर शांतिपूर्ण ढंग से अमल किया जा रहा है, जिसे फ्रांसीसी क्रांति में हिंसा और बल के प्रयोग से किया गया था ।

दरअसल, हेगेल के इस रुख के पीछे उऩके निजी कारणों की भी थोड़ी पड़ताल की जा सकती है । जैसा कि हम जानते हैं, हेगेल की जब बर्लिन विश्वविद्यालय में नियुक्ति हुई थी, प्रशिया में अभिव्यक्ति की आजादी, प्रकाशन की आजादी और संगठन बनाने की आजादी की स्थिति ज्यादा अच्छी नहीं थी । विश्वविद्यालय में हेगेल का विरोध करने वालों की कमी नहीं थी । प्रशियाई साम्राज्य के पूरे क्षेत्र में उत्तेजना फैलाने वालों के दमन का अभियान (Persecution of demagogues) की हम पहले ही चर्चा कर चुके हैं । हेगेल ने अपने Philosophy of Rights (1821) के प्राक्कथन में इसीलिये भविष्य में किसी नये कानून के निर्माण की कोई बात नहीं की, उल्टे तत्कालीन स्थितियों की ही पैरवी की थी । उन्होंने 1830 के जमाने में  यूरोप में चल रही तूफानी गतिविधियों के साथ अपने को नहीं जोड़ा था ।


हेगेल का एक प्रसिद्ध कथन था कि “यह चिंतन और तर्क का युग है । इस युग में जो आदमी हर चीज का, वह चीज चाहे जितनी खराम क्यों न हो, कोई अच्छा कारण नहीं बता सकता, उस आदमी की कीमत ज्यादा नहीं समझी जाती । दुनिया में जो भी गलत काम किया गया है, वह हमेशा सर्वोत्तम कारणों से किया गया है ।“


इसी दौर में प्रशिया में ईसाई धर्म में ईंजीलपंथी (Evangelical) धारा ने नये सिरे से सिर उठाया । बाइबल को ही किसी भी विषय में अंतिम मानने वाली इस धारा का मानना था कि प्रबोधन के विचार ही विवेकवाद और नास्तिकता के मूल में है और यही फ्रांसीसी क्रांति की भयावहता के रूप में जाहिर हुई थी । इस प्रकार साफ है कि 1815 के बाद की बर्लिन की दुनिया क्रांति और धार्मिक बहुलता के अस्वीकार की दुनिया थी, यह फ्रांसीसी क्रांति से पूरी तरह से अलग दुनिया थी । ऐसे समय में जब कांट ने परंपरागत धर्मशास्त्र और आधिभौतिकता पर प्रहार किया, उससे पुराणपंथी पोंगापंथियों की दुनिया में खलबली मची । इसी माहौल में ईसाई तत्ववाद और रूमानी मध्ययुगीनता के नवोदय की प्रवृत्तियों से टकराते हुए युवा हेगेलपंथ (Young Hegel) का गठन हुआ ।

(क्रमशः)


शुक्रवार, 28 जुलाई 2017

क्या अर्थ है सीपीआई(एम) की इस कोरी लफ्फाजी का ?


-अरुण माहेश्वरी

अखबारों में हैं कि सीपीएम की केंद्रीय कमेटी की बैठक में फिर इस बार लकीर के फकीर बहुमत ने पिछली पार्टी कांग्रेस के निर्णय के हवाले से भाजपा और कांग्रेस के साथ समान दूरी रख कर चलने पर बल दिया और उसी के नाम पर सीताराम येचुरी को कांग्रेस के समर्थन से राज्य सभा में जाने से रोक दिया ।

हम नहीं समझ पा रहे, ये कौन से लोग हैं जिनके लिये समय की सूईं किसी एक प्रस्ताव, एक सिद्धांत, एक नारे या किसी एक किताब में अटक जाया करती है ! यह क्रांतिकारी लफ्फाजी का एक निकृष्ट उदाहरण है । इनके बारे में अगर कुछ अच्छा सोचे तो लेनिन की शब्दावली में – “ये लोग नारे, शब्द, युद्धघोष दुहराते हैं, परंतु वस्तुगत यथार्थता का विश्लेषण करने से डरते हैं ।“

“क्रांतिकारी लफ्फाजी की बीमारी क्रांतिकारी पार्टी को बहुधा ऐसी परिस्थितियों में होती है, जब वे पार्टियां सर्वहारा और टुटपुंजिया तत्वों को प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप में सूत्रबद्ध, एकीकृत और उनका परस्पर गुंथन करती है और जब क्रांतिकारी घटना-प्रवाह बड़ी द्रुत गति से पड़ने वाली दरारें प्रदर्शित करता है । क्रांतिकारी लफ्फाजी का अर्थ है संबद्ध घड़ी में घटना-प्रवाह में पड़ने वाली दरार के दौरान, संबद्ध हालात के अंतर्गत वस्तुगत परिस्थितियों को ध्यान में रखे बिना क्रांतिकारी नारों को दोहराना । नारे श्रेष्ठ, मनमोहक, नशीले होते हैं, परंतु उनके लिये आधार-भूमि नहीं होती ; ऐसा है क्रांतिकारी लफ्फाजी का सार ।“

और अगर इन बहुमतवादियों के इधर के कई सालों के इतिहास को देखें तो कहना होगा, गुटबाजी का यह एक और नग्न उदाहरण भर है । मजे की बात यह है कि सीपीएम की इसी केंद्रीय कमेटी ने बंगाल पार्टी को निर्देश दिया कि वह सीताराम की जगह राज्य सभा के लिये कोई दूसरा ऐसा उपयुक्त निर्दल उम्मीदवार की तलाश करें जिसे कांग्रेस भी अपना समर्थन दे सके । अर्थात् पार्टी कांग्रेस का जो प्रस्ताव, कांग्रेस से समान दूरी बना कर चलने का प्रस्ताव, सीताराम के चयन के रास्ते की बाधा बना था, वह पार्टी-समर्थित निर्दलीय के रास्ते में बाधा नहीं बना !

यह सच है कि आज जिस प्रकार हर उपाय से मोदी-शाह कंपनी देश के हर कोने में अपनी सरकारें स्थापित करने में लगी हुई है, उस पर सिर्फ संसदीय जनतंत्र के दायरे में विचार करने पर ऐसा लग सकता है कि इसका एक स्वाभाविक परिणाम भारत में राष्ट्रपति प्रणाली की द्विदलीय व्यवस्था की स्थापना होगा । लेकिन यह अपने आप में एक कोरा सुधारवादी अनैतिहासिक नजरिया होगा । यह सबसे पहले तो आरएसएस नामक संगठन की तात्विक सचाई से आंख मूंदना होगा । दूसरा, भारत की तरह के एक पिछड़े हुए पूंजीवादी-सामंती देश में संसदीय जनतंत्र की अपनी ताकत को बढ़ा-चढ़ा कर देखना भी होगा ।

इसीलिये मोदी-शाह की रणनीति को संसदीय जनतंत्र के किसी नये रूप के विकास के तौर पर देखने के बजाय संसदीय जनतंत्र के अंत की हिटलरी रणनीति के तौर पर देखने की जरूरत है । और जैसे ही आप इस परिप्रेक्ष्य में चीजों को देखेंगे, भाजपा और कांग्रेस के साथ समान दूरी बना कर चलने की सीपीआई(एम) की घोषित नीति की निस्सारता को समझने में कोई चूक नहीं होगी और इस नीति से यथाशीघ्र मुक्ति की जरूरत को भी समझा जा सकेगा ।

इसीलिये जरूरी है परिस्थिति की यथार्थता को देखने की न कि किसी आकर्षक क्रांतिकारी नारे से चिपक कर रहने की । यह सब सीपीआई(एम) के बहुमतवादियों के अब तक के इतिहास को देखते हुए कोरी लफ्फाजी की ओट में शुद्ध गुटबाजी के अलावा और कुछ नहीं कहलायेगा ।

मंगलवार, 11 जुलाई 2017

कार्ल मार्क्स : जिसके पास अपनी एक किताब है (19)


-अरुण माहेश्वरी

सेविनी-गैन्स विवाद

राजनीति के व्यक्ति न होने पर भी सेविनी कानून के पंडित होने के नाते 1840 के दशक में प्रशिया के न्याय मंत्री हो गये । वे क्रांति के पहले के रोमन कानून में लौट जाने के हिमायती थे । उसमें संपत्ति और विरासत के कानून में कोई स्थिरता नहीं थी । हर जगह की परिपाटी के अनुसार उसमें अंतहीन स्थानीय विविधता को एक प्रकार की स्वीकृति थी । इसके अलावा, जैसा कि पहले ही रोमन कानून में कब्जा/अधिकार के कानून के संदर्भ बताया जा चुका है, इसमें मामला कब्जे के आधार पर तय होने के कारण सामंती ताकतें अपनी शक्ति के बल पर चला करती थी। इसके विपरीत राइनलैंड में नेपोलियन संहिता के लागू होने से समानता के आधार पर मामले चला करते थे।

इसी पृष्ठभूमि में गैन्स ने प्राकृतिक कानून और वास्तविक कानून को आपस में गड्ड-मड्ड करने की वजह से ऐतिहासिक स्कूल का आलोचना की । उनकी साफ राय थी कि कब्जे की वास्तविकता का कोई कानूनी मायने नहीं है । वकालत में जिसे अनाधिकार (Torts) कहते है, उसमें पहले से एक कानूनी अधिकार को मान कर चला जाता है, जिसका गलत ढंग से उलंघन किये जाने से ही कोई मामला अदालत का विषय बन सकता है ।
गैन्स का सेविनी पर यह आरोप था कि उसका ऐतिहासिक स्कूल कानून में एक विश्व भावना या विश्व इतिहास का रचनाशीलता और प्रगतिशीलता की अनदेखी करता है । इतिहास को एक विवेकशील प्रक्रिया के रूप में देखने के बजाय वह इसे सिर्फ ज्ञात घटनाओं की श्रृंखला के रूप में देखता हैं जबकि यही परंपरा में गुंथ कर जनता के जीवन और उसकी आत्मा, दोनों को व्यक्त करती है ।


इसी समझ के आधार पर गैन्स ने कहा कि वर्तमान अतीत के मातहत होता है । उन्होंने रोमन कानून के महत्व को एक अलग रूप में रखा । उन्होंने कहा कि इसका मूल्य इस बात में है कि इसने जस्टीनियन संहिता को लागू किया । जस्टीनियन संहिता 1, अर्थात बैजन्टाइन साम्राज्य के काल में तैयार की गई संहिता जिसे न्यायविदों की जस्टीनियन कमेटी ने अतीत के कानूनों को और महान रोमन न्यायविदों द्वारा दी गई रायों के सार-संक्षेप को शामिल करके तैयार किया था ।

इसके अलावा, उन्होंने रोमन कानून की सापेक्ष स्वायत्तता को भी उसके महत्व का एक कारण बताया था । रोमन कानून का लंबा इतिहास ही इस बात का साक्षी है कि कानूनी नियम कुछ हद तक राजनीतिक सत्ता से स्वतंत्र रह सकते हैं, और इस बात से ही पता चलता है कि इनकी पृष्ठभूमि में एक प्रकार के प्राकृतिक कानून की हमेशा उपस्थिति रहती है । (देखें -  Michael H. Hoffeimer, Eduard Gans and the Hege;ian Philosophy of Law, Academic Publishers, 1995, page 19-21)



गैन्स ने कांटवादियों और ऐतिहासिक स्कूल से अलग दर्शनशास्त्रीय अवधारणा और ऐतिहासिक तथ्यों के बीच मध्यस्थता की द्वंद्वात्मक प्रक्रिया की बात कही और इस प्रकार कानून के एक ऐतिहासिक और विवेकसंगत विकास पर बल दिया ।

मार्क्स ने 1836-37 के दौरान गैन्स के फौजदारी कानून के बारे में लेक्चर्स को सुना था । 1838 में प्रशिया के दीवानी कानून की उनकी कक्षाओं में भी वे शामिल हुए थे । पिता को अपने पत्र में गैन्स की बातों को ही वे रख रहे थे जब वे लिखते हैं - “वस्तु का तार्किक चरित्र खुद के अंतर्विरोधों के साथ विकसित होना चाहिए और खुद को संहत करना चाहिए ।“

(क्रमशः)


1. Code of Justinian, Latin Codex Justinianus, formally Corpus Juris Civilis (“Body of Civil Law”), the collections of laws and legal interpretations developed under the sponsorship of the Byzantine emperor Justinian I from AD 529 to 565. Strictly speaking, the works did not constitute a new legal code. Rather, Justinian’s committees of jurists provided basically two reference works containing collections of past laws and extracts of the opinions of the great Roman jurists. Also included were an elementary outline of the law and a collection of Justinian’s own new laws.

सोमवार, 10 जुलाई 2017

कार्ल मार्क्स : जिसके पास अपनी एक किताब है (18)


-अरुण माहेश्वरी


हेगेल से मिली पहली मदद


जैसा कि हमने कानून के बारे में सेविनी के चिंतन से उठे सवालों पर मार्क्स की उलझनों पर विचार और उनकी 300 पृष्ठों की पांडुलिपि पर चर्चा के क्रम में देखा कि यही वह समय था जब उन्होंने हेगेल का गहराई से अध्ययन किया था । रोमन कानून में विचारों के विकास के अध्ययन से वे इस नतीजे पर पहुंचे थे कि ‘एक अवधारणा के रूप में किसी विधेयात्मक कानून के विकास और कानून की अवधारणा के गठन में वास्तव में कोई फर्क नहीं है । पिता को पत्र में लिखा कि सेविनी में उन्होंने उस भूल को देखा जो वे खुद कर रहे थे — कानून की वस्तु और विकास को वे अलग-अलग करके देख रहे थे । इस विषय में न कांट के दर्शनशास्त्र से उन्हें कोई संतोषजनक उत्तर मिल पाया था और न सेविनी के इतिहासवाद से । मार्क्स ने जब ठोस रूप में निजी कानून को देखना शुरू किया, उनकी समस्या और बढ़ गई । क्योंकि इसमें व्यक्तियों और संपत्ति के केंद्रीय मुद्दों पर विचार करना था । तब तक उनके सामने एक बात तो साफ थी कि किसी भी चीज पर अधिकार, अर्थात उसके प्रयोग या त्याग के बारे में कब्जे की जो रोमन अवधारणा है, उसे लेकर किसी विवेक संगत प्रणाली को विकसित नहीं किया जा सकता है। लेकिन उन्हें इसके आगे का रास्ता नहीं मिल पा रहा था । यहां पर एक बार के लिये उन्होंने अपने प्रकल्प को स्थगित कर दिया था।

ब्रुनो बावर

अपने विचार में आए गतिरोध के इसी बिंदु पर मार्क्स को हेगेल ने आगे का रास्ता दिखाया । हेगेल के जरिये ही उन्होंने जाना कि ठोस तथ्य और अवधारणा के बीच अलगाव के बजाय उन्हें कानून के विकास को “विचारों के एक सजीव जगत की ठोस अभिव्यक्ति“ के रूप में देखना होगा । उन्होंने पिता को लिखा, “कांट और फिख्ते के भाववाद से वे खुद यथार्थ में ही विचारों को देखने लगे थे ।...पहले यदि ईश्वर का स्थान धरती के ऊपर था तो अब वह उसके केंद्र में, उसकी धुरी बन गया।“

मार्क्स को इस नई दिशा में बढ़ने में हेगेल के उनके स्वाध्याय के साथ ही डाक्टर्स क्लब के हेगेलपंथी मित्रों से उनको बड़ी मदद मिली । इसमें मार्क्स ने खास तौर पर ब्रुनो बावर का उल्लेख किया है, और बर्लिन के अपने एक दोस्त डा. एडोल्फ रोटेनबर्ग का भी ।


इसी प्रकार, बर्लिन विश्वविद्यालय में कानून के अन्य अध्यापक एदुआर्द गैन्स भी उनके लिये बहुत मददगार हुए थे, जिनके लेक्चर को सुनने मार्क्स अक्सर जाया करते थे । गैन्स हेगेल के जीवित काल में उनके घनिष्ठ मित्रों में एक थे । हेगेल की मृत्यु के बाद उन्होंने ही उनके महत्वपूर्ण ग्रंथ Philosophy of Rights और Philosophy of History को संपादित करके प्रकाशित कराया था । वे 1819 के बाद के सालों में हेगेल की तुलना में ज्यादा क्रांतिकारी थे । उनका पेरिस के सेंट साइमनपंथियों से सीधा संपर्क था । सामाजिक सवालों पर गंभीरता से अध्ययन करने वाले वे पहले जर्मन लेखक थे । खास तौर पर सेविनी के कानून के ऐतिहासिक स्कूल की आलोचना बहुत महत्वपूर्ण थी ।


तत्कालीन जर्मनी में राजनीतिक पार्टियां और प्रेस की स्वतंत्रता न होने की वजह से घरेलू राजनीति में किसी के हस्तक्षेप की तो गुंजाइश नहीं थी, लेकिन 1820-30 के जमाने में प्रशिया के भविष्य को लेकर सबसे महत्वपूर्ण लड़ाई रोमन कानून की प्रकृति के बारे में विवाद के नाम पर ही लड़ी गई थी ।


सेविनी भी राजनीति से सीधे जुड़े न होने पर भी नेपोलियन के युद्ध के अंत में उनका राजनीतिक रुझान साफ हो गया था । 1814 में जब कुछ हलकों से यह प्रस्ताव आया कि जर्मनी को अब नेपोलियन संहिता को छोड़ कर समान कानून संहिता को अपनाना चाहिए तभी सेविनी ने उस पर भारी विवाद किया था । उनका तर्क था कि नेपोलियन संहिता का प्रयोग राष्ट्र को बांधने के लिये किया गया था, जिससे सफलता के साथ उसने शासन चलाया था । सेविनी का कहना था कि इस समान संहिता का जन्म जब हुआ था, जब पूरा यूरोप सुधार के लिये अंधा हो गया था। इसने जर्मनी को तो कैंसर की तरह ज्यादा से ज्यादा कुतर दिया था । लेकिन अब सब जगह एक ऐतिहासिक जागरुकता पैदा हो गई है । अब उस प्रकार की छिछली आत्म-निर्भरता के लिये कोई जगह नहीं है ।

सेविनी

(क्रमशः)  







रविवार, 9 जुलाई 2017

कार्ल मार्क्स : जिसके पास अपनी एक किताब है (17)


-अरुण माहेश्वरी

शोध प्रबंध

इसके पहले कि हम कानून के दर्शन के जरिये डाक्टर्स क्लब के अपने साथियों की संगत में मार्क्स के क्रमशः दर्शनशास्त्रीय और धर्मशास्त्रीय चिंतन की अमूर्तताओं से ठोस व्यवहार की जमीन पर उतरने की कहानी कहे, यह जरूरी है कि हम थोड़ा विस्तार के साथ उनके ‘प्रकृति के बारे में डेमोक्रीटियन और एपीक्यूरियन दर्शन के बीच के फर्क’ (Difference between the Democritean and Epicurean Philosophy of Nature) के शोध प्रबंध और धर्म के बारे में उनके विचारों के विकास के पूरे इतिहास पर नजर डाले । इससे हमारे लिये मार्क्स की परवर्ती हेगेल के कानून के दर्शन संबंधी और 1844 की अर्थशास्त्रीय और दर्शनशास्त्रीय पांडुलिपि की तरह की उन महत्वपूर्ण कृतियों में प्रवेश का दरवाजा खुल पायेगा, जिन पर वास्तव अर्थों में उनकी उन सभी महान कृतियों के महल खड़े हैं, जो अपनी समग्रता में मार्क्सवाद के एक पूरे संकुल का निर्माण करते हैं ।


‘प्रकृति के बारे में डेमोक्रीटियन और एपीक्यूरियन दर्शन के बीच के फर्क’ शोध प्रबंध का पहला वाक्य है — “ऐसा लगता है कि यूनानी दर्शन एक ऐसी जगह पहुंच गया है जहां किसी अच्छे दुखांत का अंत ऊबाऊपन में नहीं होता है । मकदुनिया के युनानी दर्शन के सिकंदर अरस्तू और यहां तक कि स्टोइक्स की तरह के पुरुषार्थी भी वह नहीं कर पायें, जिसे स्पार्टन्स ने अपने मंदिरों में कर दिया, एथीना को हिराक्लस की जंजीरों से बांध दिया, ताकि वह उड़ न सके ।“ (देखें, MECW, vol. 1, page – 34)


हरक्यूलियस


यहां यह बता देना उचित होगा कि सिकंदर की मृत्यु ( 323 ईसा पूर्व) से रोमन साम्राज्य के उदय (31 ईसा पूर्व) के बीच के अरस्तू के बाद के युनान के प्राचीन काल को उसका क्लासिक हेलेनिक काल कहते है । इसी काल में यूनान के दो बड़े वैज्ञानिक दार्शनिक डेमोक्रिटस (460 ईसापूर्व से 370 ईसापूर्व) और एपीकुरस (341 ईसापूर्व से 270 ईसापूर्व) के अंध-विश्वासों के विरोधी अणुवादी विचारों का बोलबाला था । अर्थात एथीना (स्वर्ग) को शक्ति के देवता हरक्युलियस से बांध कर रख देने का जो काम अपने पुरुषार्थ पर भारी भरोसा रखने वाले स्टोइक नहीं कर सके, उसे इन स्पारटावासियों ने अपने मंदिरों में कर के दिखा दिया । इसीमें मार्क्स अरस्तू के बारे में कहते हैं कि ‘किसी भी नायक की मृत्यु सूरज के अस्त होने की तरह होती है, न कि फूल कर कुप्पा हुए जा रहे मेढ़क के फट जाने की तरह ।’ (वही, पृष्ठ – 35)


एपीक्युरस

कहना न होगा, डेमोक्रीटियन और एपीक्यूरियन दर्शन अस्त हो रहे अरस्तू के काल की चमक ही थी । मार्क्स ने एपीक्यूरियन दर्शन को डेमोक्रीटियन भौतिकी और कायरेन्को की सुखवादी नैतिकता (हेडोनिजम) का मिश्रण कहा था और एपीक्युरस को 'युनानी प्रबोधन का सर्वश्रेष्ठ प्रतिनिधि' ।

बहरहाल, अपने इस प्रबंध के अंत में उनका निष्कर्ष था कि “परमाणुवादी एपीक्युरस अपने सारे अन्तर्विरोधों के साथ आत्म चेतना के प्राकृतिक विज्ञान को पेश करते हैं । इस प्रकार वे परमाणुवाद को उसकी अंतिम परिणति, अर्थात अंत तक पहुंचा देते है, जो किसी भी सार्वकालिकता का सचेत विरोधी है । दूसरी ओर डेमोक्रिटस के लिये परमाणु समग्र प्रकृति के ठोस आकलन की सामान्य वस्तुवादी अभिव्यक्ति है । इसीलिये परमाणु उनके लिये एक शुद्ध और अमूर्त श्रेणी, एक अटकल है, अनुभव का परिणाम है, उसका सक्रिय सिद्धांत नहीं । यह अटकल इसीलिये कभी वास्तवायित नहीं हो सकी क्योंकि यह प्रकृति के वास्तविक अन्वेषण को तय करने में आगे और भूमिका अदा नहीं कर पाई ।“ (MECW, Vol.1, page – 73)

(क्रमशः)  

शनिवार, 8 जुलाई 2017

कार्ल मार्क्स : जिसके पास अपनी एक किताब है (16)


-अरुण माहेश्वरी

कानून के दर्शन की ओर

पिता के नाम 7 नवंबर 1837 के लंबे पत्र में ही मार्क्स ने सारे संकेत दे दिये थे कि कानून के दर्शन की समस्याओं ने अब उन्हें घेरना शुरू कर दिया है। उन्होंने पिता को लिखा सैविनी जिस प्रकार की भारी बौद्धिक चुनौती पेश करते हैं, उसे अच्छी तरह से पकड़ने के लिये मैं एक ठोस दर्शनशास्त्रीय आधार हासिल करना चाहती हूं । कांट और फिख्ते ने उनके राजनीतिक और नैतिक विचारों के निर्माण में जो प्रारंभिक भूमिका अदा की थी, इसे हम उनके ‘जिमनाजियम’ स्कूल के दिनों की चर्चा में देख चुके हैं। लेकिन अब मामला वास्तविक कानून का था, जिससे जुड़े सैद्धांतिक पक्षों को वे ठोस रूप में समझना चाहते थे ।


सेविनी कानून के इतिहास को रख रहे थे । उनका सबसे महत्वपूर्ण ग्रंथ था — ‘लॉ आफ पोसेसन’ (कब्जे/अधिकार का कानून) । इसमें वे बताते हैं कि रोमन कानून अधिकार को किसी कब्जे का सिर्फ परिणाम नहीं मानता, बल्कि कब्जे को किसी भी अधिकार की आधारशिला मानता है। इस प्रकार उन्होंने उस वक्त के बुद्धिवादी और आदर्शवादी, बल्कि कहा जा सकता है, नैतिकतावादी नजरिये के पूरी तरह से विरुद्ध, कानून के बारे में एक दूसरी अवधारणा पेश की । उनका कहना था कि कानून, खास तौर पर निजी संपत्ति की धारणा तर्क से उत्पन्न नहीं होती है । यह इतिहास में खास लोगों के तौर-तरीकों और दस्तावेजों / भाषाओं में निहित ‘उस पर कब्जे’ के तथ्यों से पैदा होती है ।


“सभी कानून जीवन की बदलती हुई जरूरतों और उन लोगों के बदलते हुए अभिमतों पर निर्भर होते हैं, जिनके आदेशों को ही कानून मान कर लोग उनका पालन किया करते हैं ।“ ( Friedrich Karvon Savigny, The History of the Roman Law during the Middle Ages, page – vi, xv और Von Savigny’s Treatise on Possession or The Jus possessionis of Civil Law, London, 1848, page – 3 ; Savigny’s – Roman Law – page – xii)


इस प्रकार, सेविनी कह रहे थे कि कानून ‘बनाये’ नहीं जाते, ‘पाये’ जाते है । उसी काल के जर्मन दार्शनिक और कवि जोहान गौटफ्राइड हर्डर ने कहा था कि कानून भाषा और संस्कृति से जुड़े होते हैं । हर्डर एक प्रकार से उस पूरे विवाद को प्रतिध्वनित कर रहे थे जो अठाहरवीं सदी के उत्तरार्द्ध में कांट की ‘विवेक’ की अवधारणा पर उठा था, जब 1783 में जे. जी. हम्मान ने उसे चुनौती देते हुए कहा था कि “विवेक का कोई स्वतंत्र अस्तित्व नहीं होता है, जब तक वह भाषा और व्यवहार से नहीं जुड़ा होता है । देश-काल से स्वतंत्र विवेक का कोई अस्तित्व नहीं है । विवेक का इतिहास भाषा और संस्कृति से जुड़ा होता है और भाषा और संस्कृति समय के साथ अलग-अलग स्थान पर बदलते रहते हैं । इसीलिये न्याय के किसी भी औपचारिक मानदंड में विवेक को शामिल नहीं किया जा सकता है ।“


वैसे सेविनी से भिन्न हर्डर यह मानते थे कि सभी राष्ट्रीय समाज पहले से विद्यमान परस्पर सौहार्द्र की परिस्थिति में साथ-साथ रहते हैं । (देखें — Frederick C Beiser, The Fate of Reason : German Philosophy from Kant to Fichte, Cambridge, Mass, Harvard University Press, 1987)
इस पूरे संदर्भ में एडमंड बुर्के ने अधिकारों को प्राकृतिक मानने के बजाय ऐतिहासिक मानते हुए भी परंपरा और क्रमिक परिवर्तन पर बल की बात को स्वीकारा लेकिन कहा कि “ कानून एक राष्ट्र का अंग होता है उसके अस्तित्व से जुड़ा हुआ और उसके अंत के साथ ही खत्म होता हुआ ।

कानून, राष्ट्र और उसके उद्भव और विकास से जुड़े इस लंबे और व्यापक विमर्श से उठे सवालों की पृष्ठभूमि में ही मार्क्स ने कानून के दर्शन पर लगभग तीन सौ पन्नों की एक पांडुलिपि तैयार की थी जिसमें उन्होंने रोमन कानून में विचारों के विकास का अध्ययन किया जिसकी सेविनी के ग्रंथ में जांच की गई थी ।
(क्रमशः)
 

शुक्रवार, 7 जुलाई 2017

कार्ल मार्क्स : जिसके पास अपनी एक किताब है (15)


-अरुण माहेश्वरी

कविता का नशा उतरा

अर्न्स्त ड्रोंक ने 1846 के बर्लिन के राजनीतिक जीवन का चित्र खींचते हुए लिखा है कि “बर्लिन में वास्तविक राजनीतिक जीवन के अभाव की पूर्ति राजनीतिक बहस-मुबाहिसों से की जाती थी। वहां हर सामाजिक वर्ग, नौकरशाहों, सेना के लोगों, और कारोबारियों के आपस में मिलने बैठने की अलग-अलग तयशुदा जगहें होती थी । शहर के प्रगतिशील बुद्धिजीवियों, रंगकर्मियों के बीच तब कैफे स्टेह्ली काफी लोकप्रिय था जहां कभी-कभी मोजार्ट और ईटीएफ हौफमैन भी आया करते थे।1836 के आस-पास यहां दर्शनशास्त्र, धर्मशास्त्र से जुड़े विषयों पर गर्मागर्म बहसें होने लगी थी।“


इसी कैफे में कानून की पढ़ाई के लिये बर्लिन आए कार्ल का सबसे पहले यंग हेगेलियन्स के डाक्टर्स क्लब के सदस्यों से परिचय हुआ और यहां की बहसों के बीच से ही उनके  शोध प्रबंध, ‘प्रकृति के बारे में डेमोक्रीटियन और एपीक्यूरियन दर्शन में फर्क पर’ (On the Difference between the Democritean and Epicurean Philosophy of Nature) का श्रीगणेश हुआ और 1841 में पूरा करके उसे उन्होंने विश्वविद्यालय में जमा भी करा दिया ।  इसी जगह चंद साल बाद, 1842-43 के समय से ‘फ्री’ के नाम से प्रसिद्ध हुए स्वतंत्र चिंतकों की बैठकें भी हुआ करती थी ।

विश्वविद्यालय में कानून विभाग के प्रमुख थे कार्ल वॉन सेविनी । कानून की ऐतिहासिक स्कूल के प्रवर्त्तक । इनके अलावा प्रसिद्ध हेगेलपंथी एदुआर्द गैन्स भी इस विभाग के अध्यापक थे । मार्क्स इन दोनों की कक्षाओं में जाया करते थे ।
कार्ल वॉन सेविनी                                           एदुआर्द गैन्स

जैसा कि हमने पहले ही विस्तार से बताया है कि मार्क्स जब बर्लिन में गये थे, उसके पहले ही वे जेनी के प्रेम में पूरी तरह से डूब गये थे। इसीलिये बर्लिन बहुत भारी मन से गये थे । अपने पिता को लिखे 10 नवंबर 1837 के लंबे पत्र में उन्होंने अपनी इस मनोदशा के बारे में लिखा था। वे प्रायः एक कवि की भाव दशा में रहते थे, और उन दिनों खूब कविताएं भी लिखी । कवि मार्क्स की चर्चा करते हुए हम उस पर थोड़ा विस्तार से लिख चुके हैं । लेकिन 10 नवंबर के उनके इसी पत्र से यह भी साफ होता है कि कानून और उसके दर्शन से जुड़े सवालों ने उन्हें घेरना शुरू कर दिया था ।
स्ट्रैलो गांव (19वींं सदी)


स्ट्रैलो (वर्तमान)

यही वह दौर था जब कवि मार्क्स की रातों की नींद उड़ी रहती थी। वे बीमार पड़ गये। तभी डाक्टर ने हवा-पानी बदलने की सलाह दी। मार्क्स कुछ दिनों के लिये बर्लिन के ही निकट, स्प्री नदी और रमेल्सबर्ग समुद्र के बीच जीभ के आकार की जमीन पर बसे स्ट्रैलो गांव में चले गये । यहां रहते हुए ही उन्होंने उन हेगेल का गंभीरता से अध्ययन किया, जिनके बारे में वे पहले कह चुके थे कि हेगेल की ‘विलक्षण ऊंची तान’ (the grotesque craggy melody) उन्हें आकर्षित नहीं कर रही है । हेगेल की आधुनिकता की अवधारणा में कला और कविता को दोयम स्थान दिया गया था । उनकी साफ राय थी कि क्यों कोई किसी प्रतीक या कथा या बिंब के चक्कर में पड़ेगा जब दर्शन शास्त्र ने परम ज्ञान का रास्ता खोल दिया है और उससे एक बहुत साफ और सार्वकालिक भाषा में सत्य का बयान किया जा सकता है ।

स्ट्रैलो में हेगेल के अध्ययन का मार्क्स पर क्या असर पड़ा, इसे उनके इन शब्दों में ही देखा जा सकता है, जब वे उस पर लिखते है, “ मेरी सारी पवित्रताएं तार-तार हो गई और उनका स्थान नये ईश्वरों ने ले लिया ।“ वे एक बार और कला और विज्ञान को मिलाने की भावनात्मक कोशिश में लिखते हैं, “ मेरा सबसे प्रिय सृजन, चांदनी की चमक जैसा, एक झूठी चेतावनी की तरह शत्रु के हाथ में सौंप देता है ।“ यह एक खीझ से भरी प्रतिक्रिया जैसी थी । वे अपने साहित्यिक मिजाज को छोड़ नहीं पा रहे थे, इसे उनकी इस बात में देखा जा सकता है जिसमें वे कहते है कि वे “स्प्री नदी के गदले पानी के बगल के बगीचे में पागल की तरह दौड़ रहे थे “, जो हाइने के शब्दों में, “आत्मा को धो देती है और चाय को पतला कर देती है ।“ वे बताते हैं कि कैसे इसके बाद ही वे अपने मकान मालिक के साथ शिकार पर निकल जाते है, ‘दौड़ कर बर्लिन जाते हैं और सड़क किनारे के हर ऐरे-गैरे से लिपट जाना चाहते हैं ’। (देखें, स्टेडमैन जोन्स, वही, पृष्ठ – 61-61)
हेगेल

(क्रमशः)

गुरुवार, 6 जुलाई 2017

कार्ल मार्क्स : जिसके पास अपनी एक किताब है (14)




-अरुण माहेश्वरी

(डेढ़ महीने से भी ज्यादा के अंतराल के बाद अब हम फिर से कार्ल मार्क्स की जीवनी की श्रृंखला शुरू कर रहे हैं । निहायत निजी कारणों से इसमें व्यवधान आया था । लगभग एक महीना तो कोलकाता में न रहने के कारण अपनी किताबों से दूर हो गया था । लौट कर आने के बाद भी विषय पर वापस आने में और समय लग गया । रोजमर्रे के दूसरे विषय वैसे ही घेरे रहते हैं । बहरहाल, उम्मीद है कि अब यह सिलसिला अविरत जारी रहेगा ।)

बर्लिन की नई दुनिया में मार्क्स

सन् 1836 के अक्तूबर महीने में बर्लिन विश्वविद्यालय में दाखिला लेकर कार्ल बर्लिन पहुंचे । यह बर्लिन के तेजी से विकास का समय था । 1816 से 1846 के बीच बर्लिन की आबादी 19.7 लाख से बढ़ कर 39.7 लाख हो गई थी । हर साल इस शहर में आने वाले लगभग दस हजार श्रमजीवियों के पास रहने को अपना घर नहीं होता था । वे रात किसी रैन बसेरे में गुजारते थे । दर्जियों, मोचियों की अधिकांश आबादी करों के दायरे से बाहर थी। समाजवादी पत्रकार अर्न्स्त द्रोंक के अनुसार तब शहर की हर सत्रह स्त्रियों में एक, जो घरेलू काम की तलाश में आती थी, वैश्या बनने के लिये मजबूर हो जाती थी ।


तब बर्लिन में गरीबों की सुध लेने वाला कोई नहीं था। कुछ बेहतर जीवन जीने वालों के जीवन में कोई आकर्षण नहीं था । बड़ी-बड़ी सड़कों के दोनों ओर एक कतार में एक जैसे घर ऐसे थे मानो सड़कों की पहरेदारी करने वाले सिपाही खड़े हो । एक अंग्रेज यात्री हेनरी विजेटेल्ली ने बर्लिन पर धूल के बादलों का जिक्र किया है – खुश्क मौसम में थोड़ी सी हवा चलते ही धूल के बादल आसमान को ढक लेते थे। हाइने ने बर्लिन को उत्तर का सैंडबाक्स कहा था ।


बर्लिन उस प्रशिया का राजधानी शहर, जिसकी न कोई राष्ट्रीय सभा थी, न स्वतंत्र न्यायपालिका । सन् 1815 में राजा ने जिस संविधान का वादा किया था उस वादे पर भी कभी अमल नहीं किया गया । स्वतंत्र प्रेस नाम की कोई चीज नहीं थी । अखबारों पर सेंशरशिप थी। तब वहां से सिर्फ दो अखबार निकलते थे जिनके बारे में एडगर बावर ने कहा था कि वे अपने समय के महत्वपूर्ण संकेतों को पकड़ने में असमर्थ थे ।


इस शहर में मध्यवर्ग के लोगों का शासन से कोई सीधा विरोध भी नहीं था। इसके बावजूद शहर में राजनीतिक उत्तेजना की कमी नहीं थी । वहां के विश्वविद्यालय, थियेटर, काफी हाउस, पब्स और बीयर हाल्स में काफी बौद्धिक गतिविधियां रहती थी। 1806 में नेपोलियन ने जब जेना की लड़ाई में प्रशिया को पराजित किया, उसके बाद ही 1810 में बर्लिन विश्वविद्यालय की स्थापना की गई थी । इसके पीछे उदारतावादी विचार काम कर रहे थे । जर्मन भाववादी दर्शन के संस्थापक माने जाने वाले दार्शनिक जोहेन गोतलिएप फिख्ते इसके पहले निदेशक थे । इसी वजह से यह एक उदारवादी संस्थान था जिसे उस समय के एक सर्वश्रेष्ठ विश्वविद्यालय का सम्मान प्राप्त था ।


एक साहित्यिक आलोचक और यंग हेगेलियन एदुआर्द मेन के अनुसार बर्लिन तब जर्मन संस्कृति और जर्मन जीवन का एक केंद्र-बिंदु था। बर्लिन तब भले पेरिस, लंदन न रहा हो, लेकिन 19वीं सदी के बड़े शहरों में एक था — कस्बाई शहरों की जीवन शैली और पूर्वाग्रहों से मुक्त एक आधुनिक शहर ।
(क्रमश:)
:


(Ernst Dronke, Berlin, 1846 ; Robert J Hellman, Berlin, the Red room and White beer : the free Hegelian Radicals in the 1840s ; Berlin under the New Empire; its institutions, inhabitants, industry, monuments, museums, social life, manners, and amusements by Vizetelly, Henry, 1820-1894)

बुधवार, 5 जुलाई 2017

फासीवाद ऐसे ही आता है


.अरुण माहेश्वरी


नोटबंदी के भूचाल के झटके अभी थमे भी नहीं है कि जीएसटी का भागमभाग ; अर्थनीति के क्षेत्र में व्यापक अराजकता से जीडीपी में तेज़ी से गिरावट, बैंकों से क़र्ज़ों में, अर्थात औद्योगिक क्षेत्र में निवेश में भारी कमी, ग्रामीण क्षेत्र तो क़र्ज़-माफ़ी के ज़रिये ज़िंदगी की भीख माँग रहा है ;  इसके अलावा, देश के कोने-कोने में सांप्रदायिक और जातिवादी हिंसा का विस्फोट ; इन सब पर सरहदों पर भारी तनाव  - पाकिस्तान की सीमाओं पर लगातार गोलीबारी, कश्मीर में आए दिन पाकिस्तानी मदद से आतंकवादियों के हमले और अब भूटान की सीमा पर चीन से ऐसी तनातनी कि चीन ने युद्ध तक की धमकी दे दी है ।

वस्तुत: नोटबंदी को अभी भी कानून की परीक्षा में पास होना है ! इसी 4 जुलाई 2017, अर्थात नोटबंदी के लगभग आठ महीने बाद, सुप्रीम कोर्ट ने नोटबदली के एक मामले में केंद्र सरकार से यह मांग की है कि जो लोग ‘सच्चे कारणों से’ अमान्य कर दिये गये नोट को बैंक में जमा नहीं करा पाए उन्हें इन रुपयों को जमा कराने का एक मौका दिया जाना चाहिए, क्योंकि कानून की पूरी प्रक्रिया का पालन किये बिना उनसे उनका रुपया छीना नहीं जा सकता है।

सुप्रीम कोर्ट के मुख्य न्यायाधीश के नेतृत्व में एक संविधान पीठ ने सालिसिटर जैनरल से कहा कि “कोई व्यक्ति विदेश में हो सकता है, या उस समय बीमार हो सकता है या जेल में हो सकता है। यदि मैं यह साबित कर देता हूं कि यह मेरा रुपया है तो आप मुझे अपनी संपत्ति से वंचित नहीं कर सकते हैं। वह गलत होगा। भले ही जांच के बाद आप ऐसे सभी दावों को खारिज कर दें, लेकिन इस वास्तविक समस्या का रास्ता आपको खोजना होगा।”

जीएसटी तो एक पहेली ही बनता जा रहा है ! इस पहेली को बुझाने के लिये हजारों रुपये की किताबें, सीडी और नाना प्रकार की सामग्रियों से बाजार पट गया है। कुछ ऐसे लोग भी बाजार में उतर गये हैं जो लोगों को जीएसटी के बारे में पूरा कोर्स करके उसकी डिग्रियां भी बांटने का काम करेंगे।

व्यापार से जुड़े लोगों की दशा यह है कि वे इस नये कर पर पर जितना दिमाग लगा रहे हैं, उतना ही यह मामला उनकी समझ के बाहर जाता जा रहा है। राज्य सरकारों ने अपने बिक्री कर, चुंगी आदि के दफ्तरों पर एक बार के लिये ताला लगा दिया है। पता नहीं राज्य और केंद्र के बीच इस कर की वसूली के बारे में यह कैसी समझ बनी है कि राज्य सरकारें अपने हिस्से के कर को लेकर पूरी तरह से निश्चिंत दिखाई देती हैं।

हम नहीं जानते कि क्या राज्य सरकारों को केंद्र से ऐसा कोई आश्वासन दिया गया है कि जीएसटी के मातहत करों की उगाही कम हो या ज्यादा, राज्यों को उनके पुराने हिसाब के अनुसार एक न्यूनतम राशि केंद्र सरकार अपने कोष से दे देगी ।अगर ऐसा है तो यह आने वाले दिनों में केंद्र और राज्यों के बीच वित्त के मामले में एक भयावह तनाव का कारण बन सकता है। सचमुच, अभी की अराजकता को देख कर कुछ भी समझ में नहीं आ रहा है।


ऊपर से प्रधानमंत्री को विदेश यात्राओं का नशा ! वे दुनिया में हथियारों के सबसे बड़े ख़रीदार बन कर तमाम हथियारों के सारे सौदागर से गलबहिया करते घूम रहे हैं । आरएसएस के लोग ख़ुश है कि यही तो है उनके ‘हिंदुओं के सैन्यीकरण’ का उनका इप्सित लक्ष्य !

लेकिन किसी भी विवेकवान व्यक्ति को इन सबके बीच भारत की पूर्ण तबाही के मंज़र दिखाई दे सकते हैं । आर्थिक दुरावस्था और देश के अंदर और देश की सीमाओं पर युद्ध - किसी भी राष्ट्र के लिये इससे बड़ा अशनि संकेत क्या हो सकता है । इनके साथ ही जुड़ कर आती है सभ्यता की बाक़ी सारी निशानियों के अंत की कहानी । जनतंत्र के, अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के, नागरिक अधिकारों के, आपसी भाईचारे के अंत की कहानी । अंध-राष्ट्रवाद की इसी आंधी से फासीवाद के आगमन की ध्वनि साफ सुनी जा सकती है ।




पड़ौसी मुल्क पाकिस्तान और अफ़ग़ानिस्तान के शासकों ने साम्राज्यवादी ताक़तों के साथ मिल कर कुछ इसी प्रकार उन देशों की बर्बादी की कहानियाँ लिखी थी । पूरा मध्य पूर्व इसी प्रकार, धीरे-धीरे, धरती के नक़्शे पर अभिशप्त क्षेत्रों की शक्ल लेता चला गया है । आज ट्रंप और नेतन्याहू जैसों के साथ मोदी जी जितना खिलखिलाते हुए गले मिलते है, हमारी रूह भारत के भविष्य को लेकर उतनी ही ज्यादा काँप उठती है ।



सोमवार, 3 जुलाई 2017

जीएसटी क्रमश: एक ऐसी पहेली के रूप में सामने आ रहा है, जिसके खतरनाक परिणाम हो सकते है


-अरुण माहेश्वरी



जीएसटी के बारे में प्रधानमंत्री जितनी बड़ी-बड़ी बातें कर रहे हैं, वह उतना ही रहस्यमय, एक अबूझ पहेली की शक्ल लेता जा रहा है ।

'एक देश, एक कर' - जिस बात पर संसद में आधी रात को भूतों की तरह का जश्न मनाया गया, अब यह साफ हो चुका है कि इसी बात का इस पूरे फसाने में कोई स्थान ही नहीं है । इसमें न एक राष्ट्र है और न एक कर ही ।

पेट्रोलियम पदार्थों, बिजली, शराब और रीयल इस्टेट की तरह के सबसे अधिक राजस्व पैदा करने वाले चार प्रमुख क्षेत्रों को इस जीएसटी से बाहर रखा गया है । अर्थात इन चारों चीज़ों पर प्रत्येक राज्य में करों की दर अलग-अलग होगी जिसे राज्य सरकारें अपनी मर्ज़ी से तय करेगी । अर्थात्, 'एक राष्ट्र' का दावा कोरा धोखा है ।

यही हाल है 'एक कर' के दावे का है । इसमें अब तक कर की दरों के सात स्लैब सामने आए हैं - 0%, 0.25%, 3%, 5%, 12%, 18% और 28%  ।

सरकार के लोग सरासर झूठ बोल रहे हैं कि आगे वे इन सब स्लैब्स को कम करके एक अथवा दो तक सीमित कर देंगे । इसके विपरीत सचाई यह है कि इसमें अधिकतम 28 प्रतिशत की दर को बढ़ा कर 40 प्रतिशत तक ले जाने की व्यवस्था रखी गई है ।

इसके अलावा आज जिस चीज पर जितना प्रतिशत जीएसटी लगाया गया है, कल उसे बदल कर दूसरे स्लैब में नहीं डाला जायेगा, इसकी कोई गारंटी नहीं है । 30 जून की आधी रात के चंद घंटों पहले तक कुछ चीज़ों को एक स्लैब से निकाल कर दूसरे स्लैब में डाला गया है ।

अर्थात, कर की दरों के मामले में भी हमेशा पूरी अराजकता की स्थिति बनी रहेगी ।

इसीलिये जीएसटी का भारी उत्सव मनाने के लिये जो तमाम बड़े-बड़े दावे किये जा रहे थे, वास्तविकता में उन बातों का कोई अस्तित्व ही नहीं है । जिस चीज का वैसा कोई अस्तित्व ही न हो, फिर भी उसका ढोल पीटा जाएँ, तो इसे धोखा या अबूझ पहेली नहीं तो और क्या कहा जायेगा ?



यही नहीं, जीएसटी प्रणाली में गरीब और अमीर एक दर से कर देंगे - यह कहना भी एक सफ़ेद झूठ है । थोड़ी सी गहराई में जाने से ही साफ हो जाता है कि इस व्यवस्था में गरीब ज़्यादा दर से कर देगा और अमीर कम दर से । सुपर मार्केट में चीज़ें सस्ती होगी, मोहल्ले की परचून की दुकान, यहाँ तक कि पटरी वाले की चीज़ें भी महँगी होगी । सुपर मार्केट वाले इनपुट क्रेडिट का भरपूर लाभ लेंगे, परचूनिया कुछ नहीं ले पायेगा । बड़े व्यापारी अपने कारोबार के विस्तार और आधुनिकीकरण के ख़र्च का एक हिस्सा भी इसी जीएसटी के इनपुट क्रेडिट से उठा लेंगे । परचूनिया जीएसटी की पूरी जमा राशि सरकार को देने के लिये मजबूर होगा ।

इसी सिलसिले में मोदी जी ने अर्थशास्त्र के क्षेत्र में एक अभिनव खोज की है । उन्होंने कहा है कि सीए, अर्थात् मुनीम अर्थनीति की सेहत की रक्षा करता है ! क्यों न उन्हें इस महान खोज के लिये अर्थनीति में नोबेल पुरस्कार का हक़दार माना जाएँ ! चार्टर्ड एकाउंटेंट्स के संस्थान के आयोजन को संबोधित करते हुए मोदी जी भारत में सीए लोगों को लाखों सेल कंपनियों के होने का राज कुछ इस प्रकार बता रहे थे, जैसे इन लोगों के लिये यह कोई रहस्य रहा हो !

व्यापार से जुड़े तमाम लोग मोदी के अर्थ-रक्षकों, इन सीए की भूमिका को वैसे ही जानते हैं, जैसे आरएसएस के गो रक्षकों की वास्तविक भूमिका को जानते हैं । ये ही तो कर चोरी की अनीतियों की जड़ में हैं ।

संघ के प्रचारकों की मनोवैज्ञानिक सचाई यह भी है कि वे हमेशा दुकानदारों की सोहबत में रहते आए हैं । इसीलिये उनके प्रति इनमें एक स्वाभाविक ईर्ष्या दबी रहती है । इसी प्रकार, संघ वालों में भारत की आजादी की लड़ाई में शामिल न होने का एक अपराध बोध भी है , जिसके कारण अब वे हर रोज एक आजादी की जंग लड़ते रहते हैं । इन्होंने राममंदिर आंदोलन को आजादी की दूसरी जंग कहा था, फिर नोटबंदी को और अब प्रधानमंत्री जीएसटी को भी आजादी की जंग बता रहे हैं ।

नोटबंदी से लेकर जीएसटी तक इनकी नीतियों के इन मनोवैज्ञानिक पहलुओं की उपेक्षा नहीं की जानी चाहिए ।

नोटबंदी के दिनों की तरह ही भाजपा के नेताओं के सुर में सुर मिला कर टेलिविजन चैनलों ने चीख़ना शुरू कर दिया है कि जीएसटी चीन को चकनाचूर कर देगा; पाकिस्तान को ख़त्म; विदेशों में जमा काला धन देश में आ जायेगा । प्रधानमंत्री भी इसे नोटबंदी की तरह ही काला धन को ख़त्म करने से जुड़ी अपनी एक और मुहिम बता रहे हैं ।




सच कहा जाए तो आज भारत के प्रधानमंत्री की बातों का दो कौड़ी का भी मूल्य नहीं रह गया है । शायद ही कोई उनकी कही बातों पर यक़ीन करता होगा ! वे क्रमश: विज्ञापनों के प्रवंचक प्रचारक भर दिखाई देने लगे हैं ।  मोदी-मोदी का प्रायोजित शोर इस सच को नहीं छिपा सकता है ।

भारत के सर्वोच्च पदाधिकारी की विश्वसनीयता में इस प्रकार तेज़ी से गिरावट हमारे जनतंत्र के लिये बहुत घातक साबित हो सकती है । इनकी नीतियों से सामाजिक जीवन में फैल रही अराजकता विकल्प के अभाव में बर्बर तानाशाही का भी रास्ता भी प्रशस्त कर सकती है ।

शनिवार, 1 जुलाई 2017

तद्भव का नया अंक : इतिहास के त्रिभागी काल विभाजन पर हरबंस मुखिया की एक टिप्पणी पर टिप्पणी


-अरुण माहेश्वरी

आज ही ‘तद्भव’ पत्रिका का मई 2017 का अंक मिला। हमेशा की तरह बहुत सारी महत्वपूर्ण सामग्रियों से भरा हुआ। इसमें एक उल्लेखनीय लेख है हरबंस मुखिया का -‘इतिहास लेखन के लिये काल विभाजन अनिवार्य है ?’
इस लेख में जिस महत्वपूर्ण नुक्ते को चर्चा का विषय बनाया गया है वह है ‘आधुनिकता’ का नुक्ता। पश्चिमी आधुनिकता ने अपनी इयता को साबित करने के लिये कैसे अपने पीछे प्राचीन काल और मध्ययुग के दो अन्य युगों की परिकल्पना पेश की, इसी पर केंद्रित है यह लेख। प्राचीन काल अर्थात मनुष्यता के शैशव को स्वर्णिम काल मान लिया गया और आधुनिक काल के पहले की कई सदियों को अंधकारमय मध्ययुग। इस अंधेरे के बिना आधुनिकता का उजलापन दिखाना कठिन जो था !

अभी हाल में ‘लहक’ पत्रिका में प्रकाशित अपने एक लेख ‘औपनिवेशिक दंश का शिकार हिंदी आलोचना’ में हमने कमोबेस इसी प्रकार की समस्या की चर्चा की है कि कैसे सर विलियम जोन्स सहित सभी ब्रिटिश भारतविदों ने सुचिंतित ढंग से 11वीं सदी के पहले के प्राचीन भारत की संस्कृति को भारतीय संस्कृति का स्वर्णिम काल बताया, 11वीं सदी से 18वीं सदी के काल को मध्ययुगीन अंधेरे का काल बता कर ब्रिटिश औपनिवेशिक काल को प्रगतिशील और आधुनिक काल के रूप में पेश किया। ब्रिटिश भारतविदों के इसी ढांचे को उस काल के भारतीय भाषाओं के विद्वानों ने भी अपना लिया और इसके चलते हिंदी सहित भारतीय भाषाओं में साहित्य आलोचना एक भारी स्मृतिभ्रंश की शिकार हुई। हिंदी में रामचंद्र शुक्ल से लेकर परवर्ती मार्क्सवादी और गैर-मार्क्सवादी आलोचना भी इस बीमारी से मुक्त नहीं हो पाई। जबकि, भारत की जिस बहुलता को आज भारत की शक्ति माना जाता है, वह इसी 11वीं सदी से 18वीं सदी के काल की देन है जब इस्लाम के प्रवेश के साथ भारतीय संस्कृति के तमाम क्षेत्रों में एक अलग प्रकार की अन्तरक्रिया का प्रारंभ होता है। (देखें: https://chaturdik.blogspot.in/2017/06/blog-post_24.html )

बहरहाल, हरबंस मुखिया ने अपने लेख में इतिहास के इस दोषपूर्ण काल-विभाजन की ओर इशारा करते हुए इतिहास में निरंतरता के तत्व पर बल दिया है और इतिहास के अध्ययन के लिये यह प्रस्तावित किया है कि ‘‘इतिहास के इस त्रिभागी काल विभाजन से जरा दूर हट कर समय या काल की मूल्य रहित इकाइयों का प्रयोग करें ; जैसे, विश्व इतिहास पांचवीं सदी से आठवीं सदी तक, या भारत का इतिहास ग्यारहवीं सदी से सोलहवीं सदी तक आदि।’’

मुखिया ने त्रिभागी प्रकार के काल विभाजन में एक और अतिरिक्त समस्या भी देखी है - इसमें निहित एकलता (singularity)  की ।उनके अनुसार इसके चलते ही वे सारी विकृतियां पैदा होती है जो एक सत्य के नाम पर आदमी-आदमी को एक दूसरे के खून का प्यासा बना देती है। ‘‘एकलता में एकाधिकार छिपा होता है और प्रत्येक अन्य दृष्टिकोण के साथ अन्तर्विरोध का संबंध हो जाता है।’’

हरबंस मुखिया ने जिस ‘एकलता’ की समस्या को त्रिभागी काल विभाजन के साथ जोड़ कर देखा, उसे आज के प्रमुख मार्क्सवादी दर्शनशास्त्री स्लावोय जिजेक उस प्रकार से नहीं देखते हैं जैसा मुखिया ने देखा है। जिजेक की एक अत्यंत महत्वपूर्ण किताब है - Absolute Recoil । इसे उन्होंने द्वंद्वात्मक भौतिकवाद को एक नये आधार पर स्थापित करने के अपने  प्रकल्प की तरह पेश किया हैं। वे इतिहास में द्वंद्वात्मकता को किसी एक द्वंद्व के बजाय ग्रीक के dialektika से अर्थात द्वंद्वों से, द्वंद्व के बहुवचन से जोड़ते है। ऐतिहासिक द्वंद्वात्मकता को वहां कोई एक सर्वकालिक द्वंद्व पर स्थिर होने के बजाय द्वंद्वों के एक असंगतिपूर्ण मिश्रण, inconsistent (non-All) mixture पर स्थिर बताया गया है।

यहां सबसे महत्वपूर्ण गौर करने लायक बात यह है कि हरबंस मुखिया जिस प्रकार इतिहास में टकराहट के बजाय निरंतरता पर बल देते हैं, उससे इतिहास के एक प्रकार के सार-संग्रहवाद में तब्दील हो जाने का खतरा पैदा हो जाता है। जबकि जिजेक के द्वंद्वों के असंगतिपूर्ण मिश्रण के साथ ही उनका हेगेल से लिया हुआ Absolute Recoil (परम प्रत्यावर्तन) का पद भी जुड़ा हुआ है, जिसमें इतिहास को किसी निरंतरता में नहीं, बल्कि लगातार परिवर्तनों के संयोगों से होने वाले प्रत्यावर्तन की कड़ियों की श्रृंखला में दिखाया गया है। यथार्थ परिस्थिति के हर वृत्त के विस्तार के अंदर से ही संक्रमण के संयोग का बिन्दु आता है और उस वृत्त से अलग यथार्थ का पूरी तरह से एक नया वृत्त जन्म लेता है जिसका अपना अतीत, वर्तमान और भविष्य होता है। यह कुछ-कुछ वैसा ही है जैसे गर्भवती मां एक अवधि के बाद एक बच्चे को जन्म देती है । इतिहास को उन्होंने समग्र रूप से इन्हीं वृत्तों की एक श्रृंखला बताया है। इसप्रकार, हर वृत्त में निहित भविष्य के बीज न सिर्फ अपने एक वर्तमान को, बल्कि अतीत को भी नये रूप में लिखते हैं। अर्थात इतिहास भी अतीत के कुछ निश्चित मान लिये गये तथ्यों का संकलन भर नहीं होता है। भविष्य के द्वारा वह भी निरंतर परिवर्तनशील वर्तमान के साथ नये सिरे से लिखा जाता रहता है। (देखें - Absolute Recoil, Introduction)

इसीलिये, हरबंस जी को जिस बात की चिंता है कि क्या हम अपने आज के युग को कभी कोई मध्ययुग कहलाना सही मानेंगे, तो हमारा यही कहना है कि आने वाली पीढ़ी हमारे वर्तमान युग को मध्ययुग कहे या न कहे, कोई मायने नहीं रखता। लेकिन यह तय है कि हम अपने वर्तमान को जिस रूप में देखते है, आगत पीढ़िया जरूरी नहीं कि अपनी अतीत को उसी रूप में देखें।

इसी सिलसिले में हम और एक दिलचस्प बात का उल्लेख करना चाहेंगे। भारतीय योगसाधना में यह मान कर चला जाता है कि मन विकल्पात्मक होता है, अविकल्प नहीं। जिजेक अपनी इस सबसे महत्वपूर्ण किताब ‘Absolute Recoil’ में आदमी के मनन की प्रक्रिया में चीजों के बनने-बिगड़ने के तमाम पक्षों के सम्मिश्रण के इस विकल्पात्मक महाभाव का भी विवेचन करते दिखाई देते हैं। चीजों के बारे में आदमी के ज्ञान में कितने प्रकार के पहलू काम करते है, जो द्वंद्वात्मक प्रक्रिया के बीच से ही आदमी के हस्तक्षेप से भौतिक दुनिया को बदलते हैं, इसके तमाम पक्षों को उन्होंने इस उपक्रम में उजागर किया है। मार्क्सवादी चिंतक एलेन बदउ के शब्दों को उधार लेते हुए वे कहते सच्चे भौतिकवाद को ‘‘बिना भौतिकवाद वाला भौतिकवाद’’ (materialism without materialism) कहा जा सकता है।

जैसे भारत के कश्मीरी शैवमत के 11वीं सदी के दार्शनिक अभिनवगुप्त 'तंत्रालोक' में कहते हैं कि जब हम विषय के अन्तर्विरोधों (विकल्पों) पर अपना ध्यान केंद्रित करते हैं, अन्तर्विरोधों का संस्कार, शोधन और परिमार्जन शुरू हो जाता है और वह अन्त में स्फुटतम अवस्था पर पहुंच जाता है, एक निश्चित अर्थ देने लगता है। इस प्रकारए कहा जा सकता है कि द्वंद्वात्मकता से एक अद्वैत ज्ञान तक की यात्रा तय होती है। ‘विश्वभावैकभावात्मकता’ तक की। (विश्व में जितने भी नील-पीत, सुख-दुख आदि भाव है, उन सबका एक भावरूप में, सर्व को समाहित करने वाले महाभाव रूप में, आत्मरूपता का अविकल्प भाव से साक्षात्कार के सर्वश्रेष्ठ स्वरूप तक की) यह ‘द्वंद्वों का असंगत मिश्रण’ ही प्रत्यभिज्ञा का सामस्त्य भाव है। (श्रीमदभिनवगुप्तपादाचार्य विरचित: श्रीतंत्रालोक:, प्रथममाकिम् .।।141।।)

हाल में लहक में मुक्तिबोध पर लिखे गये अपने एक लंबे लेख में हमने इस प्रसंग की अलग से चर्चा की है। (देखें: https://chaturdik.blogspot.in/2017/03/recontextualisation.html )

बहरहाल, ‘तद्भव’ के इसी अंक में रवीन्द्र कालिया पर ममता कालिया जी के संस्मरण को भी एक सांस में पढ़ गया। किसी भी समग्र जीवन में एक कड़ी की अचानक अनुपस्थिति से कैसे जीवन की एक पूरी तरह नई संरचना का उद्भव होता है, इसके संकेतों को इस संस्मरण में बखूबी देखा जा सकता है।

इसके अलावा इस अंक में एक लंबी कहानी है अलका सरावगी की - ‘कुलभूषण का नाम दर्ज कीजिए’। इसे पढ़ने की कोशिश की, लेकिन उनका कोरी बतरस वाला रोग इस लंबे वृत्तांत को लगभग एक असंभव पाठ बना देता है।

इसमें एक और उल्लेखनीय सामग्री है चार पत्रकारों के उपन्यासों - प्रियदर्शन के ‘जिंदगी लाइव’, शाजी जमां के ‘अकबर’, सूर्यनाथ सिंह के ‘नींद क्यों रात भर नहीं आती’ और हृदयेश जोशी के ‘लाल लकीरें’ - की शशिभूषण द्विवेदी की समीक्षा। इसके जरिये इधर के इन चार उपन्यासों के कथानकों से अच्छा परिचय हो गया।

बाकी सामग्री अभी पढ़ नहीं पाया हूं, लेकिन एक नजर में माधव हाड़ा का ‘मीरां की कविता का लोकपाठ और देश भाषा’ , मधु कांकड़िया का यात्रा वृत्तांत ‘जो नहीं हो सके पूर्णकाम’ भी उल्लेखनीय लगते हैं।

कृष्णा सोबती और इंद्रनाथ चैधुरी के लेखों का महत्व तो उनके होने में ही है।

जीएसटी भारत के लोगों के लिये सर्वनाशी साबित हो सकता है


-अरुण माहेश्वरी

भारत की तरह के एक विफल राज्य में बहुत सारे लोग छोटे-मोटे धंधों से जीवन यापन करते हैं । जीएसटी आम आदमी के लिये जीविका के इस स्वतंत्र चयन को बुरी तरह से प्रभावित और बाधित करेगा । अब बनिये की दुकानदारी पहले की तरह कोई आसान चीज नहीं होगी । दुकान में ही सुबह से शाम तक जीवन काटने की ख़ास बनिया संस्कृति का भी नाश होगा । व्यापार पर अधिक पूँजी वाले संगठित क्षेत्र का एकाधिकार होगा । आज का दुकानदार या उसकी संततियां, अगर वे भाग्यशाली हुए तो, बड़े व्यापारियों की गुमाश्ता सेना में शामिल होंगे । वैसे इसकी भी संभावना कम है । मनुष्यों का काम छीनने के लिये मशीनें, रोबोट पहले से तैयार है ।
दुनिया के सामने रोज़गार-विहीन विकास आज की सबसे विकट सचाई है । पश्चिम के देशों में बड़े-बड़े मॉल में सिर्फ पाँच-दस कर्मचारियों की उपस्थिति भावी भारत की तस्वीर पेश कर रही है ।

बड़े और संगठित क्षेत्र के विक्रेता का सामान गली की परचून की दुकान से हर हाल में सस्ता होगा, क्योंकि वह जीएसटी के इनपुट का लाभ सरकार से वसूल कर पायेगा और वसूले गये जीएसटी की चोरी के बावजूद एक अंश ग्राहक को भी देने में समर्थ होगा । इसीलिये हर परचूनी के ज़िंदा रहने की संभावना को अब ख़त्म माना जा सकता है ।

मार्क्स ने कहा था - 'पूँजी का संचय सर्वहारा की वृद्धि है ।' कुल मिला कर यह पूँजीवाद का वही विजय रथ है जो अपने पीछे न जाने कितनी लाशों, कितनी बर्बादियों और मनुष्य के ख़ून और पसीने का कीचड़ छोड़ता जाता है ।
इसीलिये हमने कहा है कि जनता से अधिकतम कर वसूलने की नई कर-प्रणाली पर जश्न, लाश के चारों ओर प्रेतों के नृत्य की तरह है ।

रोमन इतिहासकार टैसितस ने बताया है कि रोम के सम्राट नीरो ने अपनी दावत के लिये बग़ीचे को रौशन करने की ख़ातिर अपने कुछ बंदियों को ज़िंदा जला दिया था । हमारे पत्रकार पी साईनाथ ने लिखा है कि सालों से मैं यह नहीं समझ पाया कि नीरो की ऐसी दावत के अतिथि कैसे लोग रहे होंगे ? तीस जून की रात दिल्ली के जश्न में शामिल लोगों में नीरो के अतिथियों की एक सूरत देखी जा सकती है ।

आगे मोदी जी जीएसटी को लेकर पर फिर एक बार नोटबंदी वाली मुद्राओं के साथ देश भर में घूमेंगे ; और उसी तरह शहरों-क़स्बों में उजड़ते हुए लोगों की जाने जायेगी । भाजपा और आरएसएस के लोग इन मरते लोगों को फिर से एक बार लड्डू खिलाये जायेंगे ।

कुछ ऐसे अर्थशास्त्री बाजार में उतरे हुए दिखाई देंगे जिनका दावा होगा कि जीएसटी से बाजार का विस्तार होगा और इससे मंदी में फंसे हुए बाजार में सचलता आजायेगी । करों से न बाज़ार का विस्तार होता है और न संकुचन । बाजार निर्भर करता है आम लोगों की क्रय शक्ति पर । और किसी भी वजह से आमदनी में कटौती से बाजार नहीं बढ़ सकता । जीएसटी ही बाजार की गति का कोई मूल मंत्र होता तो दुनिया के जिन तमाम देशों में जीएसटी है, वहाँ मंदी या कोई भी आर्थिक संकट कभी पैदा ही नहीं होना चाहिए था । जो कहते हैं, देश भर में समान कर से बाजार का विस्तार होगा, वे या तो अर्थनीति के बारे में कुछ नहीं जानते या प्रवंचकों के दल के हैं ।
जो लोग कह रहे हैं कि जीएसटी से जीडीपी में एक प्रतिशत की वृद्धि होगी, उनके बारे में ख़ुद इस सरकार के नीति आयोग के सदस्य बिबेक देबराय तक ने बहुत साफ शब्दों में कहा है कि यह बात कोरी बकवास है । देबराय ने मोदी सरकार के जीएसटी के पूरे ढाँचे को ही दोषपूर्ण घोषित कर दिया है ।

इसी प्रकार, महज कर-प्रणाली में बदलाव से भ्रष्टाचार को ख़त्म करने का दावा भी शुद्ध प्रवंचना है । नोटबंदी के वक़्त भी यही सब कहा गया था । रोज़गार-विहीन लोग समाज में तमाम प्रकार की अराजकताओं के, लूट-खसोट के भी कारण बनेंगे । ब्राज़ील, नाइजीरिया की तरह के देश इसके सबसे ज्वलंत उदाहरण है । यह कर वसूलने वाली नौकरशाही के भ्रष्टाचार में एक नई छलाँग का कारण बनेगा ।

जीएसटी का सबसे प्रतिकूल प्रभाव पड़ेगा पिछड़े हुए क्षेत्रों के विकास पर । इससे क्षेत्रीय असमानता स्थायी हो जायेगी । करों में छूट से कई पिछड़े हुए इलाक़ों का विकास संभव हुआ था । वह संभावना अब ख़त्म होगा ।
इस प्रकार, जीएसटी के इन सभी प्रभावों को समझते हुए इनसे बचने के उपयुक्त उपायों के बिना इसे लागू करना हमारी अर्थ-व्यवस्था के लिये सर्वनाशी साबित होगा । बड़े-बड़े पूँजीपति जरूर इससे लाभान्वित होंगे ।