मंगलवार, 31 मार्च 2020

मोदी की नीतियों पर अमेरिकी छाया का विषय किसी कांसपिरेसी थ्योरी की उपज नहीं है


—अरुण माहेश्वरी


कोरोना और भारत में लॉक डाउन के अमेरिकी पहलू पर हमारे लेख पर कुछ नजदीकी मित्रों ने हमसे कहा कि आप कब से इस प्रकार की कांसपिरेसी थ्योरी पर विश्वास करने लगे है !

यह सच है कि हम बीजेपी के सुब्रह्मण्यम स्वामी की तरह किसी भी सरकार या राजनीतिक दल के हर नीतिगत निर्णय के पीछे किसी न किसी साजिश का संधान करने के नजरिये के सख्त विरोधी रहे हैं । इस बात को समझते हुए भी कि दुनिया में चल रहे कौन से विमर्श और खास तौर पर प्रभुत्वशाली देशों की सरकारों के क्रियाकलाप हमारे देश की राजनीति की किस धारा को किस प्रकार से प्रभावित करते हैं, हमने हमेशा उन सबकों समग्र रूप से अपने ही राजनीतिक परिवेश के अंग के रूप में देखा हैं, हमें न किसी भी सार्वभौम सरकार के आर्थिक-राजनीतिक फैसलों के पीछे शुद्ध रूप से किसी बाहरी ताकत के निर्देश का पालन नजर आता है और न ही हर दल के राजनीतिक फैसलों के पीछे देश के ही किसी वर्ग विशेष की सीधी हुक्म फरमानी ।

पर इससे कौन इंकार कर सकता है कि जीवन के हर क्षेत्र की तरह ही राजनीति के क्षेत्र में भी विचारधाराओं के नाना रूपों की एक सक्रिय उपस्थिति होती है । उनके अनुसार नई संभावनाओं को साकार करने अनेक प्रकार के प्रयोग किये जाते हैं । वामपंथी हो या दक्षिणपंथी ताकतें, सब काल और स्थान के अपने अनुमानों के अनुसार आगे के रास्तों की तलाश में रहते हैं । जीवन के प्रत्येक क्षेत्र में हमेशा इसी प्रक्रिया के जरिये एक गतिशीलता बनी रहती है । सफलताओं और विफलताओं के रोज नये किस्से लिखे जाते रहते हैं ।

यही वजह है कि जब सुब्रह्मण्यम स्वामी की तरह के साजिश संधानी भारत की आर्थिक नीतियों के पीछे विश्व बैंक और अमेरिका स्थित अफसरों की भूमिका की अपने ढंग से चर्चा करते हैं, तो हम उससे यह नहीं समझते कि उन अधिकारियों के जरिये अमेरिकी सरकार भारत सरकार को चला रही है, भारत सरकार अमेरिका की गुलाम बन चुकी है, बल्कि उससे हम सिर्फ इतना ही ग्रहण करते हैं कि अमेरिका में शासन-नीतियों के प्रभुत्वशाली हलकों में सामाजिक-आर्थिक विषयों पर अभी जो चर्चाएं चल रही है, वहां से प्रशिक्षित हो कर आए अधिकारियों के जरिये उन चर्चाओं से बनने वाली सारी अवधारणाएँ किसी न किसी रूप में यहां की शासकीय नीतियों पर भी अपनी छाया डाल रही है, और निश्चित तौर पर भारत के अपने काल और स्थान के यथार्थ बोध को प्रभावित कर रही है ।

बस, इसी हद तक हम अमेरिका हो या कोई दूसरा देश हो, हमारे देश के शासन की नीतियों पर उनके प्रभाव को देखते हुए उसे अपने विवेचन का विषय बनाते हैं ।

हम इस बात से कभी इंकार नहीं कर सकते हैं कि दुनिया के पैमाने पर सामाजिक-आर्थिक-राजनीतिक विषयों पर तमाम स्तरों पर जो विचार-विमर्श चल रहे हैं, उनसे पूरी तरह आंख चुरा कर तो कोई एक कदम भी नहीं चल सकता है । वह तो एक प्रकार का जीवन से पलायन का सुख लेने वाला शुद्ध ‘बाबावाद’ होगा । इसमें देखने की जरूरत सिर्फ इतनी है कि किस हद तक हम अपने देश के सच को सामने रखते हुए वैश्विक विमर्शों से सामने आने वाली किन्हीं नीतियों को ग्रहण करते हैं या उनसे अस्वीकार करते हैं ।

इस मामले में हम मोदी शासन की सबसे बड़ी कमजोरी यह पाते हैं कि उसने आने के साथ ही सरकार की आंख और कान के रूप में काम करने वाली सारी सांख्यिकी संस्थाओं के कामों में बाधा डालनी शुरू कर दी जिनके चलते शासन के पास भारतीय जीवन के यथार्थ की ही सच्ची और तथ्यमूलक तस्वीर पहुंचनी बंद होने लगी । उसने अपने तात्कालिक राजनीतिक लाभ के लिए अर्थनीति के तथ्यों को विकृत करना और सामाजिक सचाई को सामने लाने वाले अध्ययनों को छिपाना शुरू कर दिया । रोजगार और मानव विकास सूचकांक के तथ्यों तक से छेड़छाड़ शुरू कर दी । मोदी जी ने आंकड़ों और तथ्यों का अपना ही एक अलग कल्पित संसार बना लिया, जिसमें भारत की दुनिया की पांचवी सबसे बड़ी अर्थ-व्यवस्था, एक विशाल सैन्य शक्ति, अंतरीक्ष में डग भरने वाली वैज्ञानिक उपलब्धियों वाली चमकती हुई छवि ही प्रमुख हो गई, यहां की गरीब जनता का सच एक सिरे से गायब होता चला गया ।

गरीब लोगों को उनकी जिंदगी में सुधार के बजाय धर्म और सांप्रदायिक उत्तेजना के जरिये वोट के समय अपने पक्ष में करके इसने जनतंत्र के अर्थ को ही बदलना शुरू कर दिया । जनतंत्र एक ऐसा शासन, जिसमें सत्ताधारियों को उस जनता के जीवन में उन्नति के लिये काम करना होता है जो अपने हितों के बारे में पूरी तरह से सचेत नहीं होती है, उसे मोदी ने जनता को सिर्फ उत्तेजित करके एक प्रकार की मूर्च्छना की दशा में डाल कर उस पर अपना प्रभुत्व कायम करने के औजार में बदल डाला । जैसे राजा की अमूर्त उपस्थिति ही उसके प्रति प्रजा में निष्ठा का भाव पैदा किया करता था, मोदी ने उसी फार्मूले का प्रयोग शुरू किया । आधुनिक दुनिया में इसके सबसे बुरे उदाहरण हिटलर और मुसोलिनी के रहे हैं जिन्होंने अपने लोगों को युद्ध में उतार कर करोड़ों लोगों को मौत के घाट उतार दिया था । आरएसएस के इतिहास से परिचित लोग जानते हैं कि इसका गठन ही किस प्रकार हिटलर और मुसोलिनी के विचारों की प्रेरणा से किया गया था ।
 
बहरहाल, ये ही वे प्रमुख कारण रहे हैं, जिनके चलते मोदी ने अपने इन छः सालों के शासन में जो भी फैसले किये, उनमें उन्होंने कभी भी भारत की व्यापक गरीब जनता के हितों को सामने रख कर विचार करने की कोई जरूरत नहीं महसूस की । उनके सामने हमेशा एक अमेरिकी मॉडल रहता है, क्योंकि उससे गहराई से परिचित लोग ही उनके सलाहकारों में अधिक से अधिक हैं । वहां के अकादमिक जगत में विभिन्न आर्थिक विषयों पर जिस प्रकार की चर्चाएँ चलती हैं, वे ही प्रच्छन्न रूप में सरकार की नीतियों में प्रवेश कर जाती है ।

जिस समय मोदी ने नोटबंदी का कदम उठाया उस समय उनके शासन के दो साल बीत चुके थे और हासिल के नाम पर वे नया कुछ भी नहीं दिखा पाए थे । इसकी वजह थी कि वे सत्ता के गलियारों में पहुंचने के पहले तक उस आरएसएस के प्रचारक थे जिसमें भारत की आर्थिक-सामाजिक नीतियां किसी गहरे विमर्श का विषय नहीं बना करती है । वे सांस्कृतिक राष्ट्रवाद को, उसमें भी हिंदू-मुस्लिम संघर्ष को ही भारतीय समाज की धुरि मानते रहे हैं । इसीलिये देश की केंद्रीय सत्ता पर आने के बाद उनके लिये पुराने काल की लीक से हट कर कुछ भी नया करने की कोई दृष्टि ही नहीं थी । उल्टे उनके आने के बाद, बैंकों और निवेश का संकट और भी तेजी से बढ़ने लगा था । ऐसे में, तेजी से बीतते समय की हड़बड़ी में मोदी ने अपने कुछ चार्टर्ड एकाउंटेंट अर्थशास्त्रियों और खुद के सीमित ज्ञान, हिटलर की नाजी अर्थनीति की समझ के साथ अभी पश्चिम की दुनिया में नगदी पर नियंत्रण के बारे में चलने वाले विमर्शों के सूत्र को पकड़ कर नोटबंदी के उद्भट कदम से एक तीर से दो शिकार करने का अभिनव रास्ता अपनाया — बैंकों का पूंजी का संकट दूर होगा और काला धन सामने आने से आगे राजस्व और निवेश में भी कमी नहीं आएगी । न उन्होंने भारत में नगदी के प्रचलन के बारे में तथ्यों को टटोला, न इससे अनौपचारिक क्षेत्र और उसके मजदूरों पर पड़ने वाले प्रभावों पर जरा भी विचार किया । ऐसा लगता है कि अर्थ-व्यवस्था में इन क्षेत्रों के योगदान के विषयों पर उनमें न्यूनतम समझ का भी अभाव था ।  सत्ता के मद में नोटबंदी की घोषणा करके वे सीधे जापान चले गए और वहां बैंकों के सामने रोते-बिलखते लोगों पर महाबली रावण की मुद्रा में ठठा कर हंसने लगे ।
इसी प्रकार जीएसटी के कदम के पहले भी उन्होंने न अपनी सरकारी मशीनरी का कोई जायजा लिया और न इसके अन्य तात्कालिक और दूरगामी प्रभावों पर विचार किया । मनमोहन सिंह सरकार जीएसटी के बारे में दो साल से विचार ही कर रही थी, लेकिन महाबली ने उसे एक झटके में लागू कर दिया ।

और अब आया है यह कोरोना का संकट । यह एक वैश्विक संकट है और इसके तेजी से संक्रमण के सच को समझते हुए सारी दुनिया के चिकित्सक, जब तक इसका कोई इलाज या टीका नहीं निकल जाता, इससे लड़ने के लिए सोशल डिस्टेंसिंग को अनिवार्य बता रहे हैं । चिकित्सकों की बात एक वैज्ञानिक सच है । लेकिन फिर भी उतना ही बड़ा सच यह भी है कि राजनीतिशास्त्र चिकित्साशास्त्र नहीं है ।

जिस दिन डब्लूएचओ ने कोरोना महामारी की रोकथाम के बारे में अपनी असहायता को व्यक्त किया था, उसके दूसरे दिन ही 2 मार्च को हमने फेसबुक पर इसके सभ्यता की गति पर पड़ने वाले परिणामों का अनुमान लगाते हुए अपनी एक पोस्ट में लिखा था —
“डब्बूएचओ ने कहा है कि कोरोना वायरस को रोकने की संभावनाएँ कम होती जा रही है । मक्का में विदेशी हज यात्रियों का प्रवेश रोक दिया गया है । वेनिस में कार्निवल का कार्यक्रम स्थगित । ईरान में जुम्मे की नमाज़ के लिये मस्जिदों में इकट्ठा होना रोक दिया गया है । ब्रिटेन में सरकार अपने हाथ में कुछ आपातकालीन अधिकार ले रही है ताकि नागरिकों के आने-जाने को नियंत्रित कर सके । अर्थात् नागरिकों के लिये अभी एक नई संहिता बनने जा रही है । लोग भीड़ और मेलों से बचे ; ग़ैर-ज़रूरी यात्राएँ न करे; एक प्रकार की आत्म-अलगाव की स्थिति को अपनाएँ । जो भी सरकार लोगों में खुद ऐसी चेतना पैदा नहीं करेगी, वह इस महामारी से लड़ने में विफल रहेगी । जनतंत्र के इस काल की सरकारों के सामने यह एक सबसे बड़ी चुनौती होगी । कोरोना वायरस एक नई विश्व आचार-संहिता का सबब बनता दिखाई दे रहा है । यह अब तक के विश्व वाणिज्य संबंधों को भी एक बार के लिये उलट-पुलट देगा । यह शिक्षा, स्वास्थ्य नीतियों पर भी गहरा असर डाल सकता है । स्कूलों-कालेजों और अस्पतालों के स्वरूप पर भी क्रमश: इसका असर पड़ सकता है ।"

राजनीति का लक्ष्य समग्र रूप से जनता के हितों की रक्षा करना है और उसमें चिकित्साशास्त्र की हिदायतों की कत्तई अवहेलना नहीं की जा सकती है । दुनिया की सभी सरकारों ने चिकित्सकों की इस सिफारिश का पूरा सम्मान किया, लेकिन इसके बावजूद सभी सरकारों ने सोशल डिस्टेंसिंग के उपायों को भी अपने गहन विचार का विषय बनाया ।

चीन ने वुहान और उसके आस-पास के क्षेत्र में सफलता से लॉक डाउन किया, पूरे देश को नहीं । दक्षिण कोरिया ने लॉक डाउन करने के बजाय शासन और जनता के बीच संपर्क पर बल देकर लोगों को सोशल डिस्टेंसिंग के प्रति जागरूक किया । इटली और स्पेन में जब इसकी टेस्टिंग हुई, इसके पहले ही वह काफी लोगों में फैल गया था । बाद में लॉक डाउन आदि के उपाय करने पर भी उन देशों को काफी नुकसान उठाना पड़ा । ब्रिटेन सब जगह के अनुभवों को सामने रखते हुए पूर्ण लॉक डाउन के बजाय अन्य सभी उपायों से सोशल डिस्टेंसिंग को लागू करवा रहा है । सभी सरकारों ने सोशल डिस्टेंसिंग के साथ ही टेस्टिंग और उपचार के साधनों पर समान रूप से जोर देना शुरू कर दिया ।

इसी बीच अब अमेरिका कोरोना का सबसे बड़ा एपीसेंटर बन गया । भारत में भी सभी क्षेत्रों से कोरोना के संक्रमण की खबरें आने लगी । अमेरिका ने टेस्टिंग और इलाज पर जोर दिया, सोशल डिस्टेंसिंग को सामाजिक जागरुकता के जरिये हासिल करने का रास्ता अपनाया । पर भारत में तो तो मोदी ने एक दिन के कथित जनता कर्फ्यू के बाद एक झटके में पूरे तीन हफ्तों के लिये पूरे देश में लॉक डाउन कर दिया । टेस्टिंग और उपचार के साधनों के विषय में वह दुनिया में सबसे पीछे की कतार में रहा ।

गौर करने की बात रही कि भारत में लॉक डाउन के हफ्ते भर के अनुभव के बाद भी अमेरिका ने अपने देश की संगीन परिस्थिति में भी बिल्कुल उलटी घोषणा कर दी कि वह लॉक डाउन का रास्ता नहीं अपनाएगा ।

भारत में देश-व्यापी लॉक डाउन के कारण जिस प्रकार की भारी सामाजिक अफरा-तफरी मची है, राष्ट्रीय हाइवे पर भूखे लोगों के सैलाब दिखाई देने लगे हैं, उसकी खबरें आज सारी दुनिया में फैल गई है। इस स्तर की सामाजिक अव्यवस्था भी दुनिया के देशों के लिए एक बड़ा सबक है और इसीलिए भारतीय उपमहादेश के ही बांग्लादेश, पाकिस्तान, नेपाल ने भी पूर्ण लॉक डाउन का रास्ता अपनाने से इंकार कर दिया है ।

कहना न होगा, मोदी जी ने सही इरादे से उठाए गए अपने गलत कदम से भारत को दुनिया के लिये गिनि पिग बना दिया, जैसा उन्होंने नोटबंदी के वक्त भी किया था । आज नोटबंदी की न मोदी कभी चर्चा करते है और न कोई और ।

यहीं पर आकर हम यह देख पाते हैं कि अमेरिका से आए हुए मोदी के सलाहकार या उनकी राजनीति के साथ मूलभूत रूप से जुड़ी हुई अमेरिका-परस्ती किस प्रकार मोदी शासन की नीतियों को भारतीय यथार्थ से काट देते हैं । कैसे वे भारत के लिये बेहद विनाशकारी साबित हो रही है । हमने जब मोदी सरकार की नीतियों और क्रियाकलापों पर अमेरिकी प्रभाव के पहलू का ऐतिहासिक तथ्यों के साथ विश्लेषण करते हुए टिप्पणी की, तो उसमें कोई कांसपिरेसी थ्योरी नहीं, शुद्ध रूप से राजनीतिक क्रियाकलापों के पीछे विचारधारा की भूमिका की बात ही कही गई हैं ।   

रविवार, 29 मार्च 2020

भारत में मोदी की अब तक की पूरी भूमिका का अमेरिका से क्या संबंध है ?


-एक बेहद परेशान करने वाला सवाल


- अरुण माहेश्वरी


मोदी के इन छ: सालों में हो रही तमाम बर्बादियों के इतिहास को देखते हुए अब इस बात की खोज करने की ज़रूरत है कि आख़िर इस सरकार का असली सूत्रधार कौन है ? आरएसएस ही आखिर क्या है ?

हमने 1992 में बाबरी मस्जिद को ढहाए जाने के बाद ही आरएसएस पर एक शोध किया था, जो ‘आरएसएस और उसकी विचारधारा’ शीर्षक से किताब के रूप में प्रकाशित हो चुका है और अब तक उस किताब के कई संस्करण निकले हैं ।


उसमें आरएसएस के स्थापनाकर्ताओं और दूसरे कार्यकर्ताओं के अपने लिखे हुए प्राथमिक स्रोतों के अलावा पचास के दशक में सीआईए की एक वैश्विक संस्था ‘Institute of Pacific Relations’ के द्वारा आरएसएस और भारत में उसकी संभावित भूमिका के बारे में कराये गये एक शोध का भी काफ़ी इस्तेमाल किया गया था । वह शोध हमें दिल्ली के जवाहरलाल नेहरू म्यूज़ियम लाइब्रेरी से मिला था । शोधकर्ता थे -जे. ए. क़ुर्रान, जूनियर । उस शोध का शीर्षक था —‘Militant Hinduism in Indian Politics : A study of the R. S. S. ।

उस शोध की एक जेराक्स कॉपी आज भी मेरी लाइब्रेरी में सहेज कर रखी हुई है । बहुत ही मूल्यवान सामग्री है उसमें आरएसएस के बारे में ।



जिस समय अमेरीकियों ने वह शोध कराया था, तब जन संघ का गठन हुआ नहीं था । उसकी तैयारियाँ चल रही थी । 1951 में वह शोध प्रकाशित हुआ और उसी साल जन संघ की भी स्थापना हुई । उस शोध से जो एक सबसे अहम् बात खुल कर सामने आई थी, वह यह थी कि भारत में आरएसएस की राजनीतिक गतिविधियों को सीधे तौर पर भारतीय राजनीति में एक अमेरिकी हस्तक्षेप कहा जा सकता है । उस शोध के अंतिम अंश में यही निष्कर्ष था कि भारत में कांग्रेस के कमजोर पड़ने की स्थिति में यदि कम्युनिस्टों के प्रभाव के विस्तार को रोकना है तो आरएसएस अमेरिका के लिये सबसे अधिक भरोसेमंद हो सकता है ।

मोदी पिछले छ: साल से इस देश की सत्ता पर है । इनके एक भी काम ने न इस देश की अर्थ-व्यवस्था को बल पहुँचाया है और न इसके सामाजिक ताने-बाने को मज़बूत किया है । इन्होंने न सिर्फ़ अर्थ-व्यवस्था की कमर तोड़ दी है, बल्कि राष्ट्रीय एकता पर, यहाँ के तमाम धर्मों और जातियों के बीच एकता को लगभग तहस-नहस सा कर दिया है । सांप्रदायिक ज़हर को तो हमारे सामाजिक परिवेश का जैसे एक स्थाई अंग बना दिया है ।

यह बिल्कुल वही रास्ता है जो अफ़ग़ानिस्तान में तालिबानियों का रास्ता था । वहाँ रूस के प्रभाव को रोकने के लिये अमेरिकियों ने पाकिस्तान के ज़रिये तालिबानियों को खड़ा किया और तालिबानियों ने सत्ता पर आकर पूरे अफ़ग़ानिस्तान को एक खंडहर में बदल दिया । अमेरिकी हथियारों का बाज़ार चमकता रहा ।

हुबहू उसी रास्ते पर यहाँ मोदी को सत्ता पर लाया गया है । इसमें भी पाकिस्तान की परोक्ष रूप से मदद ली गई है । जे ए कुर्रान ने अपने सत्तर साल पहले के शोध में यह लिखा था कि भारत में आरएसएस का भविष्य भारत-पाक संबंधों की स्थिति पर निर्भर करेगा । ये संबंध जितने बिगड़ेंगे, आरएसएस का प्रभाव उतना ही बढ़ेगा ।

कोई भी यह देख सकता है कि मोदी किस प्रकार बार-बार अपनी राजनीतिक ताक़त को बढ़ाने के लिये पाकिस्तान से दुश्मनी का इस्तेमाल किया करते हैं ।

जहां तक मोदी के ज़रिये भारत की बर्बादी की कहानी का सवाल है, हमने नोटबंदी के बाद भी उस पर अपनी किताब के प्राक्कथन में इसके बारे में ठोस तथ्यों का विस्तार से उल्लेख किया था कि कैसे अमेरिकियों ने मोदी से वह भयावह आत्मघाती काम करवाया था, ताकि भारत को बलि का बकरा बना कर मुद्रा नीति के सामाजिक-आर्थिक प्रभावों के बारे में वे गहराई से जाँच पड़ताल कर सके ।

अभी, कोरोना में लॉक डाउन के प्रसंग को भी इसी सच्चाई की रोशनी में कुछ-कुछ देखा जा सकता है । भारत में इक्कीस दिन के दुनिया के सबसे बड़े लॉक डाउन के भयावह सामाजिक अस्थिरता के परिणाम आज दुनिया के सामने हैं । आज ही इसे देख कर अमेरिकी राष्ट्रपति ट्रंप ने यह साफ़ घोषणा कर दी है कि वे कोई लॉक डाउन नहीं करने वाले हैं , जबकि आज दुनिया में कोरोना से प्रभावित लोगों की सबसे बड़ी संख्या अमेरिका में हैं।हम नहीं जानते उनका फ़ैसला कितना सही है ।  चीन ने भी इतने भारी संकट के बावजूद पूरे देश को इस प्रकार लॉक डाउन नहीं किया था ।

भारत में इन छ: सालों का मोदी के द्वारा की गई तबाहियों का दर्दनाक इतिहास आज फिर से भारतीय राजनीति में अमेरिकी हस्तक्षेप के रूप में आरएसएस की भूमिका की सच्चाई की याद दिला रहा है । पता नहीं, हमारे देश को इस दुर्योग से कैसे मुक्ति मिलेगी ?

शनिवार, 28 मार्च 2020

अथातो चित्त जिज्ञासा 4


(जॉक लकान के मनोविश्लेषण के सिद्धांतों पर केंद्रित एक विमर्श की प्रस्तावना)

—अरुण माहेश्वरी


जाक लकान
(13 अप्रैल 1901 — 9 सितंबर 1981)

(4)

मनोविश्लेषण का अपना नया सामाजिक संदर्भ


मानव जीवन के समग्र सांस्कृतिक परिदृश्य में अधुनातन यंत्रों के प्रयोग से आए मूलभूत परिवर्तनों का हमें पूरा अंदाज है । उत्पादन के साधनों के स्वरूप उत्पादन-संबंधों और सभी सामाजिक-आत्मिक संबंधों को भी ढालने में एक अहम् भूमिका अदा करते हैं । आज के काल में कोई भी नई विचार पद्धति सामंती काल में जमीन की स्थिरता से जुड़े हजारों साल के स्थिर जीवन के अवलोकन पर टिकी हुई सिर्फ इसीलिये नहीं होती है क्योंकि यह उत्पादन के साधनों में हर दिन क्रांतिकारी परिवर्तनों के कारक, पूंजीवाद का काल है, जिसमें सैकड़ों सालों की दूरी चंद घंटों में तय की जाती है । इसीलिये जिन नतीजों पर भारतीय तंत्रशास्त्र को पहुंचने में हजारों साल लगे, उनके गहन संकेतों के प्रति पूरे सम्मान के बावजूद यह कहने में कोई संकोच नहीं हो सकता है कि आज के काल में आदमी के चित्त से जुड़ी कोई भी विश्लेषण पद्धति उस रफ्तार से नहीं चल सकती थी । उत्पादन के आधुनिक साधनों ने आदमी की मनोरचना, उसके व्यक्तिगत व्यवहार तक को इस कदर बदल दिया है कि इसके बारे में पुराने अधिकांश अवलोकन अब किसी काम के नहीं रह गए हैं । आदमी की मूर्च्छना से उसके मनोसंसार में प्रवेश की बातें आज महज एक टोना-टोटका, कुंडलिनी साधना का मिथ्याचार और चीलम खींच कर सामयिक तौर पर संसार से बाहर हो जाने का मनोविकार रह गया है, जिसके लक्षण पुराने समय के तमाम सैद्धांतिक विकारों के बीच से भी जाहिर हो चुके थे । 


बहरहाल,  आज जिस काल में हम मनोविश्लेषण के विषय की चर्चा कर रहे हैं , इस युग को माध्यमीकृत (mediatized) संस्कृति का युग कहा जाता है । दृश्य माध्यमों और उनके द्वारा लगातार तैयार किए जाने वाले संकेत चिन्हों से निर्मित होने वाले आदमी के मनोसंसार, उसकी संस्कृति का युग । जब भी आप आदमी के आत्म के विषय में बात कर रहे होते हैं तो इसका अर्थ होता है, आप उसकी संस्कृति की ही बात कर रहे होते हैं, उसके शरीर मात्र से परे उसके भाषाई और काल्पनिक बिंबों के संसार की बात कर रहे होते हैं ।


‘आधुनिक संस्कृति की विचारधारा’ के लेखक जॉन बी थामसन की 1995 में प्रकाशित एक प्रसिद्ध किताब हैं — The Media and Modernity (A social theory of Media) । इसके विश्लेषणों से ही पता चलता है कि कैसे यह माध्यमीकरण सर्वाधुनिक जीवन की एक दुधारी प्रक्रिया की तरह है जिसमें एक ओर मीडिया खुद अपने ही तर्कों पर चलने वाले एक स्वतंत्र संस्थान के रूप में सामने आता है, जिसके साथ बाकी सभी सामाजिक संस्थाओं को अपना सामंजस्य बैठाने के लिए मजबूर होना पड़ता है । दूसरी ओर, मीडिया, साथ ही साथ, राजनीति, उत्पादन कार्यों, परिवार, और धर्म के जगत का भी एक अभिन्न अंग बन जाता है । इन सभी संस्थाओं के अधिकांश काम अन्तरक्रियामूलक मीडिया और जन माध्यमों के जरिये ही संपन्न किये जाते हैं । मीडिया के अपने तर्क से तात्पर्य है मीडिया की सांस्थानिक और तकनीकी कार्यपद्धति,  जिसमें वह लगातार तमाम ठोस और प्रतीकात्मक संसाधनों का समाज में वितरण करता रहता है और इस काम में सभी औपचारिक तथा अनौपचारिक कायदे-कानूनों का अपने ढंग से इस्तेमाल किया करता है । अर्थात आदमी के भाषाई और प्रतीकात्मक जगत, उसके चित्त में इस दृश्यमूलक माध्यम की एक अनिवार्य और सक्रिय भूमिका बनी रहती है ।

 

फ्रायड के जीवन से परिचित तमाम लोग जानते हैं कि उन्हें मनोविश्लेषण की अपनी धारा को चिकित्सा के क्षेत्र में स्वीकृति दिलाने के लिये मनुष्यों के रोग के निदान में शरीर विज्ञान की धारा को ही अंतिम मानने वालों से कैसा दुर्धर्ष संघर्ष करना पड़ा था । तब प्रबोधन काल के वैज्ञानिक विश्वासों के उदय के काल में चिकित्सा के क्षेत्र में आदमी के व्यवहार में हर प्रकार की अस्वाभाविकता को शरीर में किसी न किसी रसायनिक क्रिया का परिणाम ही माना जाता था । जाक लकॉन की सबसे प्रामाणिक जीवनीकार एलिसाबेथ रुडिनेस्को ने फ्रायड को उनके अपने समय और आज के संदर्भ में देखते हुए एक शानदार किताब लिखी है — Freud in his time and ours ।


ऐसे में हमारे सामने यह स्वाभाविक सवाल पैदा होता है कि इस दृश्यमूलक, भाषामूलक संस्कृति के अधुनातन जटिल युग की वे कौन सी लाक्षणिकताएं फ्रायड से लेकर लकान तक के जरिये उभर कर सामने आई हैं जिनके चलते आज के तत्व-मीमांसा और ज्ञान-मीमांसा के केंद्र में फ्रायड और लकान को पाया जाता है और नया दार्शनिक और बौद्धिक विमर्श मार्क्स के द्वंद्वात्मक भौतिकवाद के साथ ही इनके इर्द-गिर्द भी केन्द्रित होता चला जा रहा है ? जो सैद्धांतिकी सामाजिक रूपांतरण की प्रक्रियाओं को समझने में सहायक होती है, वही मनुष्यों की क्रियात्मकता के सभी स्तरों को कैसे व्याख्यायित और परिवर्तित भी करती है, इसकी समझ मनोविश्लेषण की फ्रायडीय-लकानियन धारा से कैसे मिलती है ?


यहां हम जॉक लकान पर ही अपने को केंद्रित करेंगे, क्योंकि उनके जरिये फ्रायड की स्थापनाएँ अपने आप ही हमारे विचार का विषय बनती चली जायेगी । सिगमंड फ्रायड का काल (1856 – 1939) फ्रांसीसी क्रांति के बाद समाजवाद के उदय और फासीवाद के द्वारा जनतंत्र तक को मिल रही चुनौतियों का वह काल था जब यूरोपीय समाज में से मध्ययुगीन अंधकार पूरी तरह से छटा नहीं था । स्त्री का दमन उसे भारी रहस्य बनाए हुए था तो पुरुष की जुनूनियत के सारे तत्त्व मौजूद थे । मनोरोग में हिस्टीरिया और जुनून के सारे आदिम लक्षणों और उनके उपचारों के लिये मूर्च्छना पर टिकी  पद्धतियां, डायन, पंचाट, माध्यमों पर मृतात्माओं को बुलाने के ढंग के साथ ही आधुनिक चिकित्सा के नित नये प्रयोग भी किये जा रहे थे । फ्रायड खुद बाकायदा एक चिकित्सक भी थे, इसीलिये चित्त के जगत में हस्तक्षेप करने के तमाम जैविक और मानसिक उपायों से पूरी तरह वाकिफ थे । यही वजह है कि मनोचिकित्सा के क्षेत्र में मुर्च्छना से मनोविश्लेषण तक की उनकी खुद की यात्रा में स्वाभाविक तौर पर उन सभी आयामों के संकेत मौजूद थे जो मनोविश्लेषण के आगे के कामों के लिये ठोस आधार बन सकते थे । यही वजह है कि लकान खुद अपने विश्लेषणों से नि:सृत अपनी हर स्थापना को किसी न किसी रूप में फ्रायड की स्थापना के प्रमाण और विस्तार के रूप में ही देखा करते थे ।


ज्यां मार्तिन शार्कौ (1825-1893)
फ्रायड 1885-86 में फ्रांस की यात्रा पर गए थे जहां उनकी मुलाकात प्रसिद्ध स्नायुविशेषज्ञ ज्यां मार्तिन शार्कौ और हिप्पोलाइत ब्लेनह्म से हुई थी । शार्कौ तब शारीरिक और हिस्टेरिक पंगुता में फर्क पर काम कर रहे थे । हिस्टीरिया में स्नायुओं को कोई नुकसान नहीं होता है पर अंगों का बोध खत्म हो जाता है । हिस्टीरिया के लक्षणों को दूर करने के लिये वे मूर्च्छना की पद्धति का प्रयोग कर रहे थे । पर उन्होंने पाया कि मूर्च्छित रोगी को जागने पर कुछ याद नहीं रहता कि किस क्षण उसके साथ क्या घटित हुआ था । इसीलिये मनोविश्लेषण की सारी समस्याएं उस विस्मृत क्षण को पुनर्जाग्रत करने पर टिक गई । कैसे रोगी को उसके अंतर के संसार, उसके चित्त में स्थित सब कुछ को उलीच देने के लिए प्रेरित किया जाए । और इसी क्रम में आदमी के चित्त के गठन के तंतुओं की संरचना और प्रक्रियाओं से जुड़ा एक आधुनिक मनोशास्त्र का जन्म होता है । चित्त के चेतन, अचेतन, पूर्वचेतन और अवचेतन के अलग-अलग खानों और उन्हें संचालित करने वाले आत्मगत आनंद सिद्धांत, विचार और अवधारणाएं, पूर्ण अवचेतन के आंशिक स्फोट, आदमी की सोच के भावात्मक अर्थ, उसके बाहर के स्वतंत्र सत्य के साथ इसके संपर्क, अचेतन और अवचेतन के साथ संपर्क के सूत्रों में सपनों की भूमिका, आदमी की काम वासनाएँ, उसकी स्वातंत्र्य कामना से जुड़ी ऐन्द्रिकता, सामाजिक बंधन, कुछ न कर पाने की असहायता का बोध, उसका अहम्, किसी की परवाह न करने का विद्रोही भाव, मन की दुविधाएं, कामनाओं के दमन के शारीरिक परिणाम आदि, आदि तमाम विषय उनके विवेचन में शामिल होते चले जाते हैं । इसमें अनायास ही आदमी के शरीर के साथ ही उससे स्वतंत्र किंतु उससे अभिन्न भाषाई संसार के तमाम पहलू अतीव महत्व के साथ विमर्श के विषय के तौर पर आते हैं ।      

हिप्पोलाइत ब्लेनह्म (1840-1919)

हमने आज के समय की चर्चा माध्यमों के युग के रूप में की है, दृश्य-प्रधान युग के रूप में । दृश्य से ही जुड़ा हुआ है संस्कृत का शब्द — दृष्ट, अर्थात ज्ञात,  हमारे सांख्य दर्शन का 'प्रत्यक्ष प्रमाण' । साक्षात् दिखाई देने वाला, गोचर । यही प्रसिद्ध जर्मन दार्शनिक हाइडेगर के चिंतन का एक प्रस्थान बिंदु है — Dasein । (देखें, मार्टिन हाइडेगर, Being and Time ; “All research … is an ontical possibilty of Dasein”)  भाषा के विखंडन के दार्शनिक सिद्धांतकार जाक दरीदा इसे भाषा के ही अवमूल्यन और जीवन में संकेतों की स्फीति से जोड़ते हैं । (The devaluation of word ‘language’ itsel, and how, in the very hold it has upon us, it betrays a loose vocabulary, the temptation of a cheap seduction, the passive yielding of to fashion, the consciousness of avant-garde, in other words – ignorance- are evidences of this effect. This inflation of sign ‘language’ is the inflation of sign itself, absolute inflation, inflation itself. – Jacques Derrida, Of Grammatology, The End of the Book and the Beginning of Writing) 


फ्रायड के योग्य शिष्य जॉक लकान इसी मायने में फ्रायड के मनोविश्लेषण के सिद्धांतों के आगे की कड़ी है क्योंकि उन्होंने उनके सिद्धांतों के इसी दृष्ट आयाम को, आज के काल के दृश्य कलाओं के सर्व-व्यापी आक्रामक दौर में नाना रूपों, बिंबों, छवियों और कला के आयामों पर आधारित करके विकसित किया था । हमारे यहां अभिनवगुप्त ध्वन्यालोक की टीका में काव्य की आत्मा के दो भेद बताते हैं — वाच्यार्थ और प्रतीयमानार्थ । काव्य के अभिधेय तथा प्रयोजन । इसमें जिस प्रतीयमान अर्थ का निरूपण करना होता है, वाच्यार्थ को उसी भुवन की निर्विवादित नींव बताया गया है । ( ध्वनिस्वरूपे प्रतीयमानाख्ये निरूपयितव्ये निर्विवादसिद्धवाच्याभिभानं भूमिः) अर्थात् दृष्ट की जमीन पर निर्मित प्रतीयमानता का संपूर्ण भुवन ।


हाइडेगर के Dasein की तरह ही लकान मनोविश्लेषण के मूल में विभ्रमों के प्रकट लक्षणों, अर्थात उनके दृष्ट रूपों, वाच्यार्थों के प्रति जितना अधिक आग्रही थे, उतना ही प्राणीसत्ता (being) की तात्विकता की तरह उसके अदृष्ट, परा-तत्व, प्रतीयमान, फ्रायड के ' अचेतन और अवचेतन' के भी अक्लांत संधानी रहे। लकान की इसी विशेषता ने न सिर्फ उनके कामों को, बल्कि मनोविश्लेषण की पूरी धारा को ही दर्शनशास्त्र के आगे की कड़ी के रूप में स्थापित किया है । इस उत्तरण को भारतीय संदर्भ में हम अभिनवगुप्त में भी काफी हद तक देखते हैं ।
(क्रमशः)

सोमवार, 23 मार्च 2020

अथातो चित्त जिज्ञासा 3


(जॉक लकान के मनोविश्लेषण के सिद्धांतों पर केंद्रित एक विमर्श की प्रस्तावना)

—अरुण माहेश्वरी


जाक लकान
(13 अप्रैल 1901 — 9 सितंबर 1981)

(3)

जो भी हो, यहां हमारा विषय दर्शनशास्त्र, समाजशास्त्र या क्रांति का विज्ञान भी नहीं है । भारतीय तंत्र की चर्चा यहां अनायास ही मन की समस्याओं की चर्चा के संदर्भ में, एक प्रकार से मंगलाचरण के रूप में ही आई है । इसे कोई यहां प्रयोजन का प्रयोजन भी कह सकता है । तंत्र में चर्चित आत्म ही वह विषय है जिसके अनुसंधानात्मक निरूपण पर पश्चिम के मनोविश्लेषण (Psychoanalysis) की पूरी इमारत खड़ी है और जिसकी आधुनिक काल में एक बहुत ही पुख्ता नींव तैयार करने वाले और कोई नहीं, आस्ट्रिया के स्नायुतंत्र के प्रसिद्ध विशेषज्ञ सेगमंड फ्रायड (6 मई 1856 — 23 सितंबर 1939) थे । मनोरोगियों से संवाद के जरिये मनोविश्लेषण और मनोचिकित्सा की उनकी पद्धति ने स्वयं में उसी प्रकार के एक शास्त्र की रचना कर दी कि जिसे भारतीय दर्शन की परम अमूर्तनता से उत्पन्न गतिरोध की स्थिति में तंत्र की तरह ही पश्चिमी दर्शनशास्त्र के गतिरोध को तोड़ने के भी एक नये मार्ग का खुलना माना जाता है । यह आधुनिक विज्ञान के युग में गुरू के द्वारा महाजाल के प्रयोग से समस्त अध्वाओं (मन के अंदर की परत-दर-परत बाधाओं, ग्रंथियों और गांठों) के मध्य से 'प्रेत के चित्त' को, फ्रायड के अवचेतन को खींच कर बाहर स्थित करने की एक अनोखी सैद्धांतिकी है ।


यद्यपि भारतीय तंत्रशास्त्र को तीन भागों में, आगम, स्पंद और प्रत्यभिज्ञा में बांटा जाता है, जिसमें आगम शैवमत के आचार-विचार से संबंधित ग्रंथ हैं, तो स्पंद में सिद्धांत चर्चा ही प्रमुख है और प्रत्यभिज्ञा इसका दार्शनिक रूप, त्रिक दर्शन कहलाता है । अर्थात जीवन के सिद्धांत और व्यवहार तथा उनके विचारधारात्मक सूक्ष्म निष्कर्षों तक का पूरा दायरा इनमें शामिल है । फिर भी यह मूलतः 'परमशिव' के स्वातंत्र्य पर आधारित होने के कारण चित्त के प्रवाह का दृष्टा, अर्थात् व्याख्याता भर रहा, इसमें मनुष्यों के अपने कर्तृत्त्व के लिये कोई खास जगह नहीं छोड़ी गई थी । यह स्वात्म में विश्रांति के परम भाव से चालित है । ‘स्वात्मनः स्वातमनि स्वात्मक्षेपो वैसर्गिकी स्थितिः’ । (अपने अंदर अपने द्वारा अपना क्षेप ही विसर्ग है ) (श्रीतंत्रालोकः, तृतीयमाहिन्कम्, 141) जबकि पश्चिम का आधुनिक मनोविश्लेषण मनुष्य के चित्त की उस आंतरिक संरचना का अध्ययन है जिसे उसकी सामाजिक क्रियात्मक भूमिका में एक प्रमुख कारक माना जाता है, क्योंकि चित्त का निर्माण मूलतः एक सामाजिक परिघटना ही है ।


यहीं से मनुष्य के क्रियामूलक उपायों का वह रास्ता खुलता है जिसे तंत्र की भाषा में संविद, अर्थात् चेतना शक्ति में प्रवेश का मार्ग कहा जाता है । शैवदर्शन में इस चेतना शक्ति को स्वप्रकाश और कर्ता को प्रकाशित करने वाली शक्ति माना गया है । इसमें अगर प्रकाश नहीं होगा, अंधेरा होगा तो वह मनुष्य की क्रियात्मकता को भी अंधेरे में भर देगी । संवित् के स्वातंत्र्य के अनेक शक्तियों में पर्यवसन को इसमें माना गया है ।



कहना न होगा, मनोरोग इसी पर्यवसन, प्रकाश में अंधेरे के कोनों की उपज है । पश्चिमी मनोविश्लेषण ने मन के इस अंधेरे के असंख्य रूपों के अपने विवेचन के सर्वकालिक सिद्धांतों की खोज की । इसमें तमाम प्रकार के स्फोटों, अर्थात चमत्कारों और आकस्मिकताओँ की संभावनाओँ को समझते हुए उनके संयोगों को भी पकड़ने के सूक्ष्मतर विवेचन का रास्ता खोला । एक वाक्य में कहे तो कह सकते हैं कि इसने भारतीय तंत्रशास्त्र के कामों को आधुनिक काल में एक नई भौतिक ऊंचाई प्रदान की और तंत्र को भी अद्वैतवादी पर्यवसन से निकाल कर उसके मूल द्वैताद्वैतवादी, भेदाभेद पर आधारित परा-अपरा-परापरा के ढांचे में विवेचन के विकास से जोड़ने का आधार तैयार किया है । तंत्रशास्त्र मूलतः अपने इसी भेदाभेदमूलक आधार की वजह से ही बौद्ध, वेदांती और वैयाकरणी सामग्री से भिन्न और पूरी तरह से स्वतंत्र और दो कदम आगे भी रहा है । लेकिन भारतीय दर्शन में अद्वैतवाद के बोलबाले ने अंत में इसे दबा देने में सफलता पाई, और तंत्रशास्त्र आधुनिक मनोवैज्ञानिक दर्शन का आधार नहीं बन सका । वह कोरा कर्मकांड, पंचमकार जैसी व्यक्तिमूलक विकृतियों में भटक गया । 

      ऐलेन बाद्यू (17 जनवरी 1937)

बहरहाल, फ्रायड की परंपरा को ही आगे बढ़ाते हुए फ्रांस में मनोविश्लेषण की दुनिया में जॉक लकान (13 अप्रैल 1901 — 9 सितंबर 1981), जिनका उल्लेख ऊपर आया है, के रूप में एक और ऐसे व्यक्तित्व का उदय हुआ जिसके साथ आज की दुनिया के ऐलेन बाद्यू और स्लावोय जिजेक के स्तर के सर्वाधिक चर्चित और दर्शनशास्त्र की दुनिया के अंधेरे में एक नई रोशनी के साथ आगे बढ़ने का रास्ता दिखाने वाले मार्क्सवादी दार्शनिक अपने को जोड़ कर गौरवान्वित महसूस करते हैं ।


तंत्र में आगम, स्पंद और दर्शन के योग के संदर्भ की तरह ही अभी  पश्चिम में मनोविश्लेषण, दर्शन और गणित के बीच के संबंधों के बारे में एक सघन विमर्श चल रहा है । ऐलेन बाद्यू इस धारा के एक प्रमुख व्यक्तित्व हैं । आज के दर्शनशास्त्री खुद को मनोविश्लेषक भी बताने से परहेज नहीं करते । इसी प्रकार वे दर्शन और मनोविश्लेषण की नियति को गणितीय नियमों में भी देखते हैं । स्लावोय जिजेक और एलेन बाद्यू इसीके सबसे ज्वलंत उदाहरण है । 


जॉक लकान ने खुद अपने एक सेमिनार में मनोविश्लेषण के ऐतिहासिक विकास की चर्चा करते हुए इसे वस्तु के साथ, हेतु, जीवन के लक्ष्य (object) के साथ आदमी के संबंध का विषय बताया था । फ्रायड के हवाले से वे कहते हैं कि यह विश्लेषण विश्लेषण में मौजूद दो व्यक्तियों, विवेच्य(analysand) और विवेचक (analyst) के बीच के संबंधों के एक जटिल ढांचे में सम्पन्न होता है । इसी में वे अपने सेमिनारों के उन तीन साल के विषयों का क्रमवार जिक्र करते हैं जिनमें पहले साल उन्होंने मनोचिकित्सा के तकनीकी प्रबंधों की बातों को बताया था, दूसरा साल फ्रायड के अनुभवों और अवचेतन की उनकी खोज की बुनियाद पर केंद्रित किया था जिसके चलते फ्रायड ने अपने उन सिद्धांतों के बिल्कुल विपरीत सिद्धांतों को पेश किया जो उनकी पुस्तक 'Beyond the Pleasure Principle' में रखे गये थे । यह फ्रायड की आनंदवाद से, चित्त के उद्वेलन (jouissance) के आत्मवाद से निकल कर 'अन्य' के साथ संबंध (अर्थात् सामाजिक संबंधों के ताने-बाने के परिप्रेक्ष्य) के विषय पर आधारित अवचेतन की द्वंद्वात्मकता के सिद्धांत की ओर यात्रा थी । लकान ने अपने सेमिनार के अंतिम तीसरे साल में चित्त के तमाम प्रतीकात्मक तंतुओं, प्रतीकवाद (symbolism) से उनके संकेतक (signifier) तत्वों को, लक्षणों को अलग करके देखने की सबसे बड़ी जरूरत को पेश किया था ताकि “मनोरोग की अवस्था में मन में जो भी भयजनित बाधा या गांठ हो, उसे समझा जा सके ।” (The seminar of Jacques Lacan, Book IV, Edited by Jacques-Alain Miller, The object Relation 1956-1957, Page – 1-2)


यह कुछ वैसी ही बात है जिसका तंत्र के संदर्भ में हमने ऊपर भी जिक्र किया है —  'महाजाल के प्रयोग से समस्त अध्वाओं के मध्य से 'प्रेत के चित्त' को खींच कर बाहर स्थित करने की पद्धति' । (क्रमशः)

शनिवार, 21 मार्च 2020

कोरोना वायरस के प्रभाव का वर्तमान वैश्विक और भारतीय परिदृश्य


(‘इकोनोमिस्ट’ पत्रिका की टिप्पणियों पर आधारित ) 


अरुण माहेश्वरी



अब समय आ गया है जब यहां कोरोना और उसके खतरे के बारे में बहुत साफ ढंग से बात करने की जरूरत है । हमारा दुर्भाग्य है कि हमारे यहां एक ऐसे दल की सरकार है जो वैज्ञानिक तथ्यों पर आधारित सच्चाई पर विश्वास नहीं करती है । आज काफी देर बाद, जब सारी दुनिया में इस महामारी के तमाम रूप खुल कर सामने आने लगे हैं, प्रधानमंत्री से लेकर नीचे के स्तर तक सारे लोग घरों में रहने, सोशल डिस्टेंसिंग की बात तो करने लगे हैं, लेकिन वे अपने अंदर ही अंदर इतने गहरे अंधविश्वासों में फंसे हुए हैं कि उन्हें खुद इससे निपटने के लिये जरूरी वैज्ञानिक उपायों पर जैसे भरोसा नहीं हैं । इसीलिये इनके तमाम लोग कहीं चरम अपराधी वृत्ति का परिचय देते हुए लोगों को गाय का पेशाब पिला रहे हैं, तो कहीं लोगों से सांसों के व्यायाम के जरिये इसकी जांच के झूठे उपाय सुझा रहे हैं । इनमें से अधिकांश इस झूठ के प्रचार में भी लगे हुए हैं कि भारत में यहां के लोगों की खान-पान की आदतों के कारण ही इसका फैलाव नहीं होगा, तो कुछ हमारे देश की पांच ऋतुओं की विशेषताओं को गिनाते हुए लोगों को आश्वस्त कर रहे हैं । इनकी अवैज्ञानिक करतूतों में एक नया योगदान करतल और घंटा-घड़ियालों की ध्वनि से वायरस को भगाने के सिद्धांत का भी हुआ है । देश-विदेश से प्रधानमंत्री के लिये ‘महामानव’ के तमगे इकट्ठा करके प्रचारित किया जा रहा है । 

हमारे यहां लगता है कि जैसे सरकार सहित कोई भी दुनिया के अनुभवों से सीखते हुए आपात गति से आपके दरवाजे पर आ खड़ी हुई इस महामारी से निपटने के उपायों में अपना सब कुछ झोंक देने की उस मानसिकता का परिचय देने के लिये तैयार नहीं है, जैसा कि दुनिया के बाकी देश देने के लिए मजबूर हुए हैं । प्रधानमंत्री ने टेलिविजन पर एक भाषण में लोगों को सोशल डिस्टेंसिंग का एक जरूरी संदेश तो दिया, लेकिन सरकार इस रोग से पीड़ित लोगों के उपचार के लिये क्या कुछ कर रही है, उसके लिये कितना संसाधन अलग से रख दिया जा रहा है, उसका जिक्र तक नहीं किया । इसके बारे में भारत में किसी भी प्रकार के शोध व अनुसंधान की पहल, प्रतिषेधक और दवाओं की खोज की कोशिश का भी रत्ती भर संकेत नहीं दिया । इन विषयों में उनका रवैया अपनी कोरी असहायता को व्यक्त करने का रहा । वे कुल मिला कर यही कहते रह गये कि जब दुनिया के दूसरे देश इसका कोई उपचार खोज लेंगे, तब हम भी उनसे वह पा लेंगे, अर्थात् हमारे देश को इस मामले में उनका आश्रित बताने में उन्हें जरा भी शर्म नहीं आई ।

बहरहाल, जैसा कि हमने पहले ही कहा, यह हमारा दुर्भाग्य है । यहां ऐसे तमाम जाहिल लोग मौजूद है जो प्रधानमंत्री के ‘जनता कर्फ्यू’ के आह्वान को ही एक ईश्वरीय पैगाम मान कर उनके लिये ‘धन्य-धन्य’ के नारे दे रहे हैं । किसी को यह नहीं दिखाई दे रहा है कि इन प्रधानमंत्री को ही कल के दिन तक पार्लियामेंट का सदन चलाने में जरा भी हिचक इसलिए नहीं हुई, क्योंकि उसे दिखा कर उन्हें मध्य प्रदेश में शक्ति परीक्षण के लिए सुप्रीम कोर्ट से आदेश लेना था । अब जो तथ्य आ रहे हैं, उनसे पता चलता है कि इस संसद के कई सदस्य पिछले दिनों ऐसे लोगों से मिल चुके हैं जिन्हें अभी कोरोना पोजिटिव पाया जा चुका है और संसद के अधिवेशन में उपस्थित रहने के बाद उन्होंने अपने को अब क्वारंटाइन कर लिया है ।

जो भी हो, इन सब बातों के परे, यहां हमें कोरोना के पूरे वैश्विक और भारतीय परिदृश्य के बारे में, बिना किसी आवेग के, किंचित स्थिरता के साथ कुछ बाते रखनी है । दुनिया की सबसे प्रतिष्ठित पत्रिका ‘इकोनोमिस्ट’ के ताजा 21 मार्च के अंक में इसके बारे में कुछ लेख प्रकाशित हुए हैं । इनमें एक लेख इसकी वर्तमान वैश्विक परिस्थिति के बारे में है और दूसरा लेख भारत की स्थिति के बारे में ।

पृथ्वी नक्षत्र की तस्वीर पर क्लोज्ड की तख्ती टंगी है और लिखा है — वैश्विक महामारी को रोकने की कीमत : कोविद-19 ने बंद कर दिया । (Closed by covid-19 : Paying to stop the pandemic) ।
इस लेख में कहा गया है कि “पृथ्वी नक्षत्र बंद हो रहा है । कोविद-19 से निपटने के लिए एक के बाद एक देश अपने नागरिकों से यह मांग कर रहे है कि वे समाज से कट जाए । इससे होने वाली आर्थिक दुर्गति से बदहवास सरकारें कंपनियों और उपभोक्ताओं की सहायता और उनके कर्ज की गारंटी के लिए खरबों डालर अपने खजाने से दे रही है । यह भी कितना कारगर होगा, कोई नहीं जानता । 
“किंतु अवस्था और भी खराब है । नई खोजों से पता चल रहा है कि इस महामारी को रोकने के लिए बार-बार सट-डाउन करने होंगे । फिर भी, अब यह साफ हो चुका है कि ये रणनीति अर्थव्यवस्था को गंभीर — शायद असहनीय — नुकसान पहुंचाएगी ।”

अभी इस महामारी के बारे में मिली पहली सूचना को सिर्फ बारह हफ्ते बीते हैं । दुनिया इसकी भारी कीमत अदा करने लगी है । अभी तक इससे अढ़ाई लाख से ज्यादा लोग पीड़ित हो चुके हैं । हर दिन हजारों की संख्या में नए लोग इससे पीड़ित हो रहे हैं । जितने लोग अभी वास्तव में इससे ग्रसित दिखाई दे रहे है, उनसे कई गुना ज्यादा लोग हैं जिनका रोग सामने नहीं आया है । इस प्रेत के आतंक में सारी दुनिया में लोगों पर ऐसी-ऐसी पाबंदियां लगाई जा रही है, जिनकी चंद हफ्तों पहले तक कोई कल्पना नहीं कर सकता था । टाइम स्क्वायर पर जैसे भूत मंडरा रहे हैं, लंदन में सन्नाटा पसर गया है, फ्रांस, इटली, स्पेन के सदा चहकते रहने वाले कैफे और बार आज बंद पड़े हैं । हवाई अड्डों तक पर सन्नाटा दिखता है, स्टैडियम खाली हैं ।

‘इकोनोमिस्ट’ लिखता है कि पहले सोचा गया था कि चीन की अर्थ-व्यवस्था में पिछले साल से 3 प्रतिशत की गिरावट आएगी, वह अब 13.5 प्रतिशत कही जा रही है । खुदरा बिक्री में कमी का अनुमान 4 प्रतिशत के बजाय 20.5 प्रतिशत हो गया है । अचल संपत्तियों में निवेश में अनुमान से छः गुना ज्यादा 24 प्रतिशत की कमी आ चुकी है । इसने सारी दुनिया में आर्थिक विकास के अनुमानों को गड़बड़ा दिया है । सामने जीवन की सबसे निर्दयी मंदी को खड़ा देख कर तमाम सरकारों ने 2007-09 की भी तुलना में कई गुना ज्यादा आर्थिक राहत देने के पैकेज तैयार करने शुरू कर दिये हैं ।

यह है वह पृष्ठभूमि जिसमें इस महामारी से निपटने के रास्ते निकालने हैं । ‘इकोनोमिस्ट’ बताता है कि लंदन के इम्पीरियल कालेज में कुछ लोगों ने मिल कर इससे लड़ने के लिये दुनिया के नीति नियामकों के सामने जो एक खाका पेश किया है, वह निराशाजनक है । उनका कहना है कि इसके प्रति पहला रवैया तो इसके शमन (mitigation) का है, इसके उर्ध्वमुखी विकास को नीचे समतल बनाने (flattening the curve) का है । दूसरा इसे व्यापक कदमों के जरिये दबाने (suppression) का है, जिनमें हर किसी को घर में बंद करके रख देना होगा, सिवाय उनके जो घर में रह कर काम नहीं कर सकते हैं । सारे संस्थानों को बंद कर देना होगा । शमन से महामारी घटेगी, दमन से उस पर रोक लगेगी । उन्होंने यह पाया है कि इसे यदि इसी प्रकार छोड़ दिया जाता है तो इससे अकेले अमेरिका में 22 लाख लोगों की मृत्यु हो जाएगी, ब्रिटेन में 5 लाख की । उनका यह निष्कर्ष है कि तीन महीनों तक इसके शमन, जिसमें इससे पीड़ित तमाम लोगों को दो हफ्तों के लिए सबसे अलग-थलग रखना शामिल है, इससे सिर्फ इनमें से आधे लोगों को बचाया जा सकेगा । इसमें भी इंटेंसिव चिकित्सा की जो मांग पैदा होगी, वह ब्रिटेन में उपलब्ध सुविधाओं से तकरीबन आठ गुना ज्यादा होगी । इससे भी मरने वालों की संख्या में काफी वृद्धि होगी । इसी अनुमान से बाकी यूरोप में भी, मसलन् जर्मनी की तरह के अधिक सुविधाओं वाले देश में भी, स्वास्थ्य सेवाएं कम पड़ेगी । इसीलिये सरकारें महामारी को दबाने के ज्यादा कड़े कदम अपना रही है । ऐसे कदमों का सुफल चीन में देखने को मिल चुका है । आज इटली में चीन से ज्यादा लोगों की मौतें हो चुकी है । इसी समूह का कहना है कि यदि इस वायरस को यूं ही छोड़ दिया जाता है तो यह ब्रिटेन और अमेरिका की आबादी के 80 प्रतिशत लोगों को रोगग्रस्त कर देगा ।

इसमें और भी खतरनाक बात यह कही गई है कि चूंकि यह वायरस दुनिया के कोने-कोने में फैल चुका है, इसीलिये दबाने पर भी इसके अवशेष बचे रहेंगे । इसके कारण पाबंदियां हटने के चंद हफ्तों बाद भी यह महामारी फिर से लौट कर आएगी । और हर बार, इसको दबाने के लिए सभी देशों को काफी समय लॉक डाउन में लगाना पड़ेगा । यह लॉक डाउन का उठना और फिर से लागू होना तब तक जारी रहना होगा जब तक यह आबादी में ही इसके प्रतिरोध की ताकत न पैदा हो जाए या इसका प्रतिषेधक तैयार न हो जाए ।

‘इकोनोमिस्ट’ ने ही इसे एक खाका भर कहा है जो ठोस जानकारियों के आधार पर तैयार किया जाता है । उसने चीन पर नजर रखने की बात पर भी बल दिया है कि वहां कैसे जिंदगी कैसे सामान्य होती है । आज अच्छी बात यह है कि महामारियों के विस्तार की तत्काल पहचान करने की पद्धतियां विकसित हो चुकी है । इसमें नई दवाएं भी मददगार हो सकती है, मसलन्, जापान का एंटी-वायरल कंपाउंड जिसे चीन ने प्रभावशाली पाया है । लेकिन यह भी एक आशा ही है, आशा नीति नहीं होती है । कटु सत्य यह है कि शमन से बहुत सारी जिंदगियों का अंत होगा, और दमन का आर्थिक भार असहनीय होगा । कुछ बार के बाद सरकारों के पास अपना और आम लोगों का काम चलाने जितनी क्षमता ही नहीं होगी । इस विपत्ति को आम लोग तो बर्दाश्त ही नहीं कर पाएंगे । इन दोनों उपायों को आजमा कर देखने की जरूरत होगी । चीन, दक्षिण कोरिया और इटली ने इनका परीक्षण शुरू कर दिया है । कौन संक्रमित है, इसे आप जितना साफ तौर पर जान पायेंगे, उतना ही अधिक आप मनमानी पाबंदियों को टाल पायेंगे । प्रतिषेधकों के प्रयोग में भी सुविधा होगी ।

क्वारंटाइन के लिये तकनीकी उपकरणों की सहायता भी ली जा रही है । चीन ने यह काम शुरू कर दिया है । लोगों के मेडिकल रेकर्ड को हासिल करने की कानूनी व्यवस्थाएं भी की जा रही है ।

‘इकोनोमिस्ट’ की इस टिप्पणी के अंत में कहा गया है कि अंत में सबसे जरूरी यह है कि सरकारें चिकित्सा सेवाओं में ज्यादा से ज्यादा निवेश करे । इसके तत्काल लाभ न मिले, फिर भी करें । इससे हर समय रोग के शमन और दमन, दोनों में सुविधा होगी ।

‘इकोनोमिस्ट’ का कहना है कि —
“इसके बावजूद लोगों को इसके बारे में कोई भ्रम नहीं पालना चाहिए । इन तमाम कदमों के बावजूद यह वैश्विक महामारी भारी कीमत ले सकती है । आज सरकारें हर कीमत पर इसके दमन में लगी हुई है । लेकिन यदि इस रोग पर जल्द विजय नहीं पाई जाती है तो वे शमन का रास्ता पकड़ेगी, भले ही उससे काफी ज्यादा मौतें होगी । इसीलिये आज कोई भी सरकार उस ओर बढ़ने पर नहीं सोच रही है । पर बहुत जल्द ही उनके सामने दूसरा कोई उपाय नहीं रह जाएगा ।”

कोरोना का भारतीय परिदृश्य




यह तो हुआ कोरोना महामारी के सामाजिक-आर्थिक आयामों का एक  वैश्विक परिदृश्य । अब हम आते हैं, इसके संभावित प्रभावों के बारे में अनुमान के भारतीय परिदृश्य पर जिस पर ‘इकोनोमिस्ट’ का ही दूसरा लेख है — अरब लोगों का सवाल ; यदि कोविद-19 भारत में आ जाता है तो संख्या विकट होगी । (The billion-person question ; If covid-19 takes hold in India the toll will be grim)

इसके बाद ही, उप-शीर्षक के तौर पर कहा गया है — “भारत गरीब है, भीड़ से भरा हुआ, डाक्टरों और उपकरणों की कमी है और बीमारियों के प्रकोप से भरा हुआ है ।” (It is poor, crowded, short of doctors and equipment and rife with exacerbating diseases)

इस लेख का शीर्षक ही आगे की कहानी का एक अनुमान देने के लिए काफी है ।

लेख की शुरूआत 1918-19 के स्पैनिश इन्फ्लुएँजा को याद करते हुए की गई है जिसमें भारत में तकरीबन एक करोड़ 80 लाख लोगों की मृत्यु हुई थी, तब की भारत की आबादी का छठवा हिस्सा खत्म हो गया था । उसकी एक सदी के बाद जब भारत में भीड़ बहुत ज्यादा बढ़ गई है, इस बात की आशंका की जा रही है कि शायद कोरोना की सबसे बड़ी कीमत इसी देश को चुकानी पड़ सकती है ।

इस मामले में भारत अब तक भाग्यशाली रहा है । नाना कारणों से भारत में चीन, ईरान और इटली से लोगों की आवाजाही बहुत कम है । इसी कारण अब तक काफी कम लोग इससे ग्रसित हुए है और जो ग्रसित पाए भी गए हैं, वे बाहर से आए हुए लोग है । भारत की राज्य सरकारें और केंद्र सरकार यात्रियों को रोकने के बारे में सक्रिय हो चुकी है । सभी टेलिविजन चैनलों से इसके बारे में लोगों को लगातार जागरूक किया जा रहा है । मोबाइल फोन पर भी संदेश दिये जा रहे हैं । स्कूल, कालेज, सार्वजनिक कार्यक्रम रोक दिये गये है । केरल जैसे राज्य में जहां जन स्वास्थ्य व्यवस्था दूसरे किसी भी राज्य से काफी बेहतर है, लोगों के घरों तक स्कूल का भोजन पहुंचाया जा रहा है, सड़क किनारे बेसिन लगा कर हाथ धोने के प्रबंध किये गये हैं । लोग घरों में क्वारंटाइन के आदेश का सख्ती से पालन करे, इसके लिए महाराष्ट्र सरकार लोगों के हाथ पर स्टांप लगा दे रही है । केरल में एक समय निपा वायरस पाए जाने पर जो सांस्थानिक व्यवस्थाएं विकसित की गई थी, वे भी कारगर ढंग से काम कर रही है ।

पर भारत में परीक्षण के सही आंकड़ें ही नहीं मिल रहे हैं । परीक्षण महंगा है और उसकी उतनी व्यवस्था भी नहीं है, इसीलिए अब तक बमुश्किल पंद्रह हजार लोगों का परीक्षण किया जा सका है जबकि दक्षिण कोरिया जैसे छोटे देश में तीन लाख का परीक्षण हो चुका है । इसके अलावा चूंकि परीक्षण सिर्फ विदेश यात्रा से लौटे लोगों का किया जा रहा है, इसीलिए यह मान लिया जा रहा है कि यह संक्रमण सिर्फ विदेश से आए लोगों में ही हुआ है । प्रिंसटन विश्वविद्यालय के डा. रमानन लक्ष्मीनारायण का कहना है कि यदि इससे बीस गुना लोगों का परीक्षण किया गया होता तो मरीजों की संख्या भी अभी से बीस गुना ज्यादा पाई जाती । उनकी निजी राय में अब तक भारत में दस हजार से ज्यादा लोग संक्रमित हो चुके हैं ।

अब जब वायरस ने भारत में पांव पसार लिये है तो इसका कोई कारण नहीं नजर आता कि इसका व्यवहार यहां दूसरे देशों से अलग होगा । बस इतना है कि यह भारत में अमेरिका की तुलना में दो हफ्ते बाद और इटली की तुलना में एक महीने बाद बड़े रूप में सामने आएगी । यही पर खतरे की घंटी है । दुनिया के मानदंडों पर भारत इसके लिये इतना कम तैयार नजर आता है कि किसी के भी रौंगटे खड़े हो सकते हैं । जन स्वास्थ्य सुविधाओं में कई दशकों से निवेश में भारी कमी, जीडीपी का महज 1.3 प्रतिशत, इस व्यवस्था को इतना कमजोर और खोखला बना चुका है कि थोड़े से दबाव में ही यह चरमरा कर ढह सकती है । देश के 130 करोड़ लोगों पर साधारण दिनों के लिये ही न पर्याप्त संख्या में डाक्टर है, न बेड और न ही जरूरी उपकरण । और जो संसाधन उपलब्ध हैं वे भी सब जगह समान रूप में नहीं है । मुंबई, दिल्ली में कुछ बेहतरीन अस्पताल है, जो काम कर सकते हैं । लेकिन 2017 में ही गोरखपुर में सिर्फ आक्सीजन की कमी के कारण 63 बच्चों की जानें चली गई थी । भारत भर में कुल एक लाख इंटेंसिव केयर के बेड साल भर में तकरीबन पचास लाख लोगों के काम आ पाते हैं, उतने मरीज तो यहां एक महीने में तैयार हो सकते हैं ।

‘इकोनोमिस्ट’ लिखता है कि भारत के लोग भी उतने जागरूक नहीं हैं । खास तौर पर ऐसे रोगी जिनकी पहले से ही कुछ हालत खराब हो, उनमें फेफड़ों को प्रभावित करने वाली इस बीमारी को वे समझ ही नहीं पायेंगे । इसके साथ ही प्रदुषण और टीबी, स्थिति को और बदतर बना देते हैं । दुनिया के शुगर से पीड़ित रोगियों की संख्या में 49 प्रतिशत भारत में हैं । व्यापक गरीबी न सिर्फ इस बीमारी को बढ़ाती हैं, बल्कि इसके चलते लोग अपना काम छोड़ कर घर पर भी नहीं बैठ सकेंगे । अनेक जगह तो अच्छी तरह से साफ-सफाई भी मुमकिन नहीं है । 16 करोड़ लोगों तक स्वच्छ पानी भी उपलब्ध नहीं है ।

इन सबके कितने डरावने परिणाम हो सकते हैं, उसे कोई भी देख सकता है । डा. लक्ष्मीनारायण का कहना है कि भारत में लोगों में किसी भी बहाने, शादियों, त्यौहारों, राजनीतिक रैलियों में भीड़ इकट्ठा करने की विशेष योग्यता है । यहां ऐसे लोग भी है जो समझते हैं कि भारत की कड़ाके की गर्मी कोरोना वायरस को भगा देगी । सड़कों पर ऐसी उटपटांग बातें कहने वालों की भी कमी नहीं है कि भारत के लोग पहले से ही मुसीबतों के चलते इतने पक गये हैं कि उन्हें यह वायरस प्रभावित नहीं कर पायेगा । इसके अलावा नाना प्रकार के जादू-टोने वाले तो भरे हुए हैं । हाल में दिल्ली के एक आयोजन में एक समूह के लोगों ने गाय के पेशाब के गुणों का उत्सव मनाया था । अखिल भारतीय हिंदू महासभा के राजीव कुमार ने जोश के साथ कहा था कि गाय के पेशाब को “भारत आने वाले सभी पर्यटकों को पिलाया जाना चाहिए ।” एक हिंदू संगठन कह रहा है कि “हम इसके एक छोटे से पैकेट को राष्ट्रपति ट्रंप के पास भी भेजेंगे, ताकि उनकी कोरोना से रक्षा हो सके ।”

‘इकोनोमिस्ट की इस टिप्पणी के बाद कोरोना वायरस के संदर्भ में भारत के डरावने सच के बारे में शायद कहने को विशेष कुछ नहीं रह जाता है । यहां तमाम लोग करतल और घंटा ध्वनि से भी इस वायरस को भगाने के सपने में खोए हुए हैं ।

देखिए, आगे क्या होता है ! 

शुक्रवार, 20 मार्च 2020

अथातो चित्त जिज्ञासा (2)


(जॉक लकान के मनोविश्लेषण के सिद्धांतों पर केंद्रित एक विमर्श की प्रस्तावना)

—अरुण माहेश्वरी


जाक लकान
(13 अप्रैल 1901 — 9 सितंबर 1981)

(2)


मनस्तात्त्विक विश्लेषण की शास्त्रीय पृष्ठभूमि


जब भी हम आदमी के मन या चित्त की कल्पना करते हैं, हमें उसका शुद्ध रूप एक अनादि, अनंत, अपौरुषेय शून्य ही जान पड़ता है । पूरी तरह से बोधमूलक । शास्त्रों में वेद को भी अनादि, अपौरुषेय और बोधात्मक कहा गया है । हमारे करपात्री जी महाराज तो वेद की नित्यता की चर्चा करते हुए भी उसे किसी घटना विशेष, इतिहास से जोड़ कर देखने की जरा सी कोशिश के भी सख्त विरोधी थे ।1(अनन्तश्रीस्वामिकरपात्रमहाराजाः, वेदार्थपारिजात:, खंड 2, पृष्ठ — 909) इस तरह उनके अनुसार मनुष्य के शुद्ध चित्त और वेद को एक दूसरे का पर्याय कहा जा सकता है । आदमी के चित्त की तस्वीर उसमें ज्ञान, इच्छा और क्रिया के जिस क्रम के योग से बनती है उसके प्रथम बिंदु ज्ञान, अर्थात् जानकारी के बारे में हमारे वाक्यपदीयकार भृतहरि कहते हैं कि —

“न सोऽस्ति प्रत्ययो लोके य शब्दानुगमादृते” ।
अनुविद्धमिव ज्ञान सर्व शब्देन भासते ।।”
(अर्थात् लोक में ऐसा कोई भी ज्ञान नहीं जो बिना शब्द की सहायता से हो सकता है । सारा ज्ञान शब्द के द्वारा प्रकाशित होता है ।)2(The Vakyapadiya, K Raghavan Pillai, Motilal Banarsidass, 1971, page – 28)



करपात्री जी महाराज वेद की नित्यता और अपौरुषेयता की जितनी भी चर्चा कर लें, वास्तविकता यही है कि वेदों की चर्चा भी इसी प्रकार अतीन्द्रीय शब्दात्मक सूक्ष्म ज्ञान विशेष के तौर पर ही की जाती है, भले ही वे वाचित हो या अवाचित (आम्नात या अनाम्नात), अखंड वेद के अंश के अनुकार मात्र ही हो । गौर करें —'शब्दात्मक सूक्ष्म ज्ञान', शब्दों में निरूपित सूक्ष्म ज्ञान । इसमें यह मान कर चला जाता है कि मनुष्य के लिये जगत उसके चित्त के अक्श के बाहर नहीं होता, जो शब्दाकार होता है और इसी वजह से अपौरुषेय अनादि प्राकृतिक ध्वनि के शब्दाकार को ही इस जगत का स्रष्टा कहा गया हैं । ‍ॐ — जब इस धरती पर कुछ नहीं था, उस परम आदिम शून्य की ध्वनि का शब्दाकार, अर्थात्, मान्यताओं के अनुसार जगत का स्रष्टा ।



वाक्यपदीयकार भर्तृहरि कहते हैं —'शब्द ही ब्रह्म है' ; अर्थात आदमी के संदर्भ में उसके चित्त की संघटनकारी शब्दाकार निर्मितियों और जगत के निर्माण की प्रक्रिया में कोई भेद नहीं है । ब्रह्मांड यदि निरंतर विस्तारवान है तो मनुष्य का आत्म भी सदा विस्तार की एक अनंत प्रक्रिया में होता है । लेकिन फिर यह सवाल शेष रह जाता है कि अगर विस्तार है तो संकुचन भी है, तो फिर ठहराव भी होगा ही — इस प्रक्रिया के असंख्य रूप हो सकते हैं । यह सारा व्यापार किसी निश्चित लकीर से बंधा नहीं होता है । विघ्न के अतिरिक्त भटकाव भी होते हैं । तो आखिर इन सब अनंत भेदों की वजह क्या है ? और यह सवाल भी शेष रह जाता है कि सुनिश्चित आकारों. अर्थात् छवियों के चौखटों में बद्ध जगत निरंतर विस्तारवान, अर्थात गतिशील कैसे होता है ?



बहरहाल, भारतीय परंपरा में इसी चित्त को व्याख्यायित करने और उसे साधने के उपायों वाले शास्त्र का नाम है — तन्त्र । तन्त्र का अर्थ है विस्तार, आत्म के विस्तार की एक निश्चित क्रमिक प्रक्रिया । लोककल्याणकारी परम शिव (सत्य) के महाव्योम में आत्म के अंतहीन विस्तार का उपक्रम । परंतु जब आत्म के विस्तार की प्रक्रिया तय है, तब फिर संकुचन को भले आप परमशिव की स्वेच्छया स्वातंत्र्य क्रिया कह लें, लेकिन वह विस्तार की प्रक्रिया में एक वास्तविक रुकावट अथवा गतिरोध तो है ही । यहां तक कि इस प्रक्रिया में स्खलन और इसमें भटकाव की वास्तविकता से भी इंकार नहीं किया जा सकता है । इसीलिये, तंत्र यदि मनुष्य को उसके आत्म के विस्तार के पथ का दिग्दर्शन कराता है तो इसी क्रम में यह स्वाभाविक है कि वह उसके आत्म में ठहराव और भटकाव के बिंदुओं का संधान भी देता है । अर्थात तंत्र में मन है, मन का संकुचन और विस्तार है तो मन का भटकाव, और आधुनिक परिभाषा में, 'मनोरोग' (Psychosis) भी है।



भारतीय तंत्रशास्त्र ने हजारों साल के सूक्ष्म अवलोकनों से मन की इन सारी गतियों पर बेहद गहराई से दृष्टिपात करते हुए इसे परमार्थिक संदर्भों से जोड़ कर अपने आगम ग्रंथों से दर्शनशास्त्र के उन ऊंचे शिखरों तक पहुंचा दिया था, जहां से कश्मीरी शैवमत के शीर्षस्थ पुरुष अभिनवगुप्त (सन् 950-1016) ने विपुल आगम साहित्य पर टिके शैवदर्शन से हजारों सालों की अन्य सभी भारतीय दर्शन की धाराओं को बौना कर दिया था । यह एक प्राचीन तांत्रिक परंपरा का दार्शनिक उत्तरण है । विभिन्न धाराओं के तांत्रिक व्यवहारों और सिद्धांतों से पेश होने वाली चिंतन की समस्याओं का एक तार्किक दार्शनिक समाधान ।


तंत्र की तरह ही पश्चिम में मनोविश्लेषण का भी एक चिंतन के रूप में विज्ञान, राजनीति और दर्शनशास्त्र से गहरा नैसर्गिक संबंध है । चिंतन की इन अलग-अलग धाराओं के व्यवहारिक रूपों में कितना ही भेद क्यों न हो, पर इनमें एक गहरा अन्तरसंबंध है, बल्कि कहीं कहीं तो ये स्पष्ट तौर पर परस्पर की सीमाओं का उल्लंघन करते हैं । जैसे तंत्र का पूरा महल शैवागमों, स्पंद और प्रत्यभिज्ञादर्शन को मिला कर ही तैयार होता है, उसी प्रकार चिंतन की एकान्विति के अन्तरगत लिखने के क्षण, परिवर्तन के क्षण या अनुभव के क्षण के बीच एक संबंध हमेशा देखा जा सकता है । ये चिंतन की अलग-अलग श्रेणियां हैं । इनमें अलगाव है तो एकसूत्रता भी हैं ।



मसलन्, विज्ञान और राजनीति को ही लिया जाए । ये दोनों पूरी तरह से अलग-अलग चिंतन-क्षेत्र हैं, इसलिये क्योंकि भौतिकी के प्रयोगों का अंत ऐसी कृत्रिम निर्मितियों में होता है, जिन्हें दोहराया जा सकता है । गणितीय लेखन भी इसी प्रकार प्रयोगों से मेल खाता है जिसमें किसी भी समीकरण का हमेशा एक ही परिणाम होता है । गणितीय समीकरणों में यह समानता उसमें शुरू से ही अन्तरग्रथित होती है । लेकिन राजनीति में लेखन और प्रयोग के बीच संबंध इससे बिल्कुल भिन्न होता है । कोई भी राजनीतिक परिस्थिति हमेशा स्वयं में अलग और अनोखी होती है । उसे कभी हूबहू दोहराया नहीं जा सकता है । इसीलिये राजनीतिक लेखन, उनकी दिशा और निर्देश, अपनी सीमा में ही सही होते हैं, हर राजनीतिक घटना का अपना निजी भुवन होता है, इसमें कभी किसी अन्य घटना का दोहराव नहीं हुआ करता है । जब भी किसी राजनीतिक लेखन में दोहराव दिखाई देता है, वह कोरा शब्दाडंबर और खोखला दिखाई देने लगता है । यह स्वयं में एक कसौटी भी है जिसके आधार पर सच्चे राजनीतिक कार्यकर्ताओं और राजनीतिक नेताओं के बीच फर्क किया जा सकता है । सच्चे राजनीतिक कार्यकर्ता यह मान कर चलते है कि कोई भी परिस्थिति दोहराई नहीं जा सकती है, जबकि चालू प्रकार के राजनीतिक नेता मान्य बातों का पिष्टपेषण करते हुए ही भाषणबाजी किया करते हैं । सच्चे राजनीतिक कार्यकर्ता हमेशा एक अलग परिस्थिति के बारे में सोचते है । फलत: राजनीतिक चिंतन वैज्ञानिक चिंतन से पूरी तरह अलग होता है । राजनीति एक खास और न दोहराई जा सकने वाली संभावना की बात करती है । विज्ञान एक जरूरत से पैदा होता है, उसके समाधान के सूत्र तैयार करता है और उसके दोहराव के उपकरणों का निर्माण करता है ।

मनोविश्लेषणात्मक चिंतन के बारे में भी यही बात लागू होती है कि उसमें होने वाली अनुभूति विज्ञान की तरह की नहीं होती है । यह अलग-अलग आदमी के विश्लेषण और चिकित्सा के अनुभव पर टिका होता है और कोई भी आदमी दूसरे की प्रतिलिपि नहीं होता । मनोविश्लेषणात्मक चिंतन में सैद्धांतिक लेखन और चिकित्सकीय परिस्थिति के बीच संबंध में दोहराव की तरह की कोई कृत्रिम बात नहीं होती है । इस अर्थ में कह सकते हैं कि मनोविश्लेषण वैज्ञानिक चिंतन के बजाय राजनीतिक चिंतन के ज्यादा करीब है । मनोविश्लेषण और राजनीति के बीच समानता का एक और सूत्र है ज्ञान के सामूहिक संकलन की जरूरत । राजनीति के लिये संगठन जरूरी है, इसी प्रकार विश्व में मनोविश्लेषकों के भी हमेशा एसोशियेसन रहे हैं । इन क्षेत्रों के अनुभवों की अद्वितीयता की जांच हमेशा अन्यों के साथ मिल कर एक प्रकार से मनुष्यों के ही आत्मगत स्तर पर की जा सकती है । दोनों में विषय की सामूहिक समझ महत्वपूर्ण होती है ।


बहरहाल, जैसे चिंतन के रूप में राजनीति का लक्ष्य चिंतन मात्र के सिवाय कुछ नहीं होता है ; अर्थात् अद्वितीय परिस्थितियों के रूपांतरण को चिंतन का विषय बनाना, इसमें सिद्धांत और व्यवहार के बीच के भेद को दूर करना । विज्ञान में भी न्यूटन और आइंस्टीन का लक्ष्य विचार की समस्याओं के समाधान के अलावा और कुछ नहीं था । किसी भी बड़े कलाकार का लक्ष्य चिंतन को ही एक कृति का रूप देना होता है, और कुछ नहीं । राजनीति का लक्ष्य राजनीति की समस्याओं का समाधान करना होता है, उन समस्याओं का जिन्हें राजनीति खुद अपने सामने खड़ा करती है । उसी प्रकार एक स्तर पर जा कर मनोविश्लेषण का लक्ष्य भी निःस्वार्थ चिंतन हो जाता है ।


इस लिहाज से पश्चिम में मनोविश्लेषण की आधुनिक धारा के जनक सिगमेंड फ्रायड और उनके श्रेष्ठ शिष्य जॉक लकान के कामों का लक्ष्य भी अन्ततः सिर्फ रोगी के रोग का निदान नहीं रह गया था । उनका मूल लक्ष्य समग्र मनुष्य के बारे में बिल्कुल अलग से विचार करने का था : वह मनुष्य जो एक तरफ भाषा से, अपने सांस्कृतिक परिवेश के दबावों से जूझता है और दूसरी ओर खुद की वासनाओं, ऐंन्द्रिक इच्छाओं और कामुकता से भी जूझता है । अर्थात् भाषा और शरीर दोनों से । मनोविश्लेषण जब मनोरोगी के लक्षणों को दूर करने तक सीमित रहने के बजाय मनुष्य की नई संभावनाओं की तलाश की दिशा में बढ़ जाता है, वह अपने कथित भुवन की सीमा को लांघ कर चिंतन के भुवन में प्रवेश कर जाता है ; आदमी की संरचना की ‘सामान्य’ क्रियाशीलता का अध्ययन बन जाता है । और चिंतन के इन दो स्तरों की, बल्कि दो विधाओं के बीच संबंध की समस्या हमेशा एक तीसरी, दर्शनशास्त्र की जमीन पर ही समाधित होती है ।


इसी बिंदु पर हम कह सकते हैं कि जैसे शैवागमों और स्पंद के सिद्धांत और व्यवहार की एक सहज अन्विती प्रत्यभिज्ञा दर्शन में दिखाई देती है, उसी प्रकार भारतीय तंत्र के शास्त्र के साथ पश्चिमी मनोविश्लेषण के बीच भी एक सादृश्यता देखी जा सकती है ।


शैव दर्शन को भोग और मोक्ष दोनों, अर्थात मनुष्य के बाह्य क्रियाकलापों और अन्तर के कार्यों, दोनों से जोड़ कर वस्तुतः उस जमीन को तैयार कर दिया गया था जिसे पश्चिमी दर्शनशास्त्र की दीर्घ परंपरा के उपरांत हम कार्ल मार्क्स (5 मई 1818 — 14 मार्च 1883) के जरिये द्वंद्वात्मक भौतिकवाद के रूप में चरितार्थ होते देखते हैं । सच्चा भौतिकवाद । यह न पदार्थ की प्राथमिकता पर टिका है और न ही पदार्थ को प्रथम सिद्धांत मानने पर । इस भौतिकवाद की सच्चाई भौतिक वस्तु की, यथार्थ की स्वतंत्र उपस्थिति से प्रमाणित नहीं होती है । बल्कि, यह अन्तर और बाह्य के द्वंद्व, उनके बीच की दरारों और इनसे बनने वाले यथार्थ के अवभास की धारणा पर टिकी है । इसका संबंध यथार्थ में दिखाई देने वाली उन दरारों के साथ होता है, जिनके बीच से यथार्थ लगातार बदलता रहता है । जीवन परिवर्तनशील है, और जीवन की गति की यह सच्चाई इन दरारों के स्फोटों से ही निरंतर आकार लेती है । द्वंद्वात्मक भौतिकवाद इसी परिवर्तनशील यथार्थ का दर्शन है । यह मनुष्य के अन्तर-बाह्य का दर्शन है ; इतिहास के संदर्भ में पौर्वापर्य विवेचन की विचारधारा, वस्तु के आगे और पीछे, दोनों को समेट कर चलने वाले, अर्थात उसके गतिशील रूप का विवेचन करने वाली विचारधारा । तंत्र में उत्पलदेव का प्रत्यभिज्ञा दर्शन अर्थात् त्रिक दर्शन शैवमत की क्रम और कुल की विवेचन-धाराओं से इसी प्रकार अविभाज्य है ।



किसी भी परिघटना में क्रम की एक श्रृंखला तैयार होती है । उस श्रृंखला की हर कड़ी के अंदर के सूक्ष्म छिद्रों, दरारों से हमेशा किसी चमत्कार, सर्जनात्मक स्फोट अथवा ऐतिहासिक परिवर्तन की घटना के क्रांतिकारी बिंदु प्रकाशित होते हैं । इन्हें लक्षण (symptom) कहा जाता है । मार्क्स ने उन्हें पकड़ कर ही सामाजिक संबंधों के एक महाजाल और उसमें परिवर्तन के तत्वों की सिनाख्त करके उसके नियमों का एक ऐसा क्रमवार सिद्धांत पेश किया जिसमें तमाम आकस्मिकताओं की भूमिका को भी साफ देखा जा सकता है । इसीलिये मार्क्स को फ्रांसीसी मनोविश्लेषक जॉक लकान ने बिल्कुल सही लक्षणों का आविष्कारक कहा है । जॉक लकान ने अपने सेमिनार XX में फ्रायड-लकान के संबंध की तुलना मार्क्स-एंगेल्स के बीच संबंध से की हैं । उनका संकेत साफ था कि इस प्रकार से दो चिंतन क्षेत्रों के बीच तुलना करना संभव है, बल्कि, इससे वे परस्पर को शिक्षित और समृद्ध भी कर सकते हैं ।


मंगलवार, 17 मार्च 2020

कोरोना की वैश्विक चुनौती के विचारधारात्मक आयाम



—अरुण माहेश्वरी



यूरोप में द्वितीय विश्व युद्ध के काल में जब मनुष्यता के अस्तित्व पर ख़तरा महसूस किया जाने लगा था, तब बौद्धिक जगत में प्लेग और हैज़ा जैसी महामारियों से जूझते हुए इंसान के अस्तित्वीय संकट के वक़्त को याद किया गया था । क़ामू और काफ़्का का आज अमर माना जाने वाला लेखन उन्हीं भय और उससे जूझने की व्यक्तिगत और सामूहिक अनुभूतियों की उपज था ।

नई मानवता के अस्तित्ववादी दर्शन का जन्म भी उसी पृष्ठभूमि में हुआ था जिसमें अपने अस्तित्व की रक्षा के लिये जूझते मनुष्य में श्रेष्ठतम नैतिक मूल्यों के उदय को देखा गया था । साफ़ कहा गया था कि मनुष्य की प्राणीसत्ता अपने अस्तित्व की रक्षा के क्रम में ही नए मानव मूल्यों का सृजन करने के लिए प्रेरित होती है । व्यक्ति के आत्मबल को ही समाज और पूरी मानवता के आत्मबल के रूप में देखा गया था।

तब उस समय के मार्क्सवादियों ने नये मनुष्य के निर्माण में उसकी अन्त: प्रेरणा के तत्व को प्रमुखता देने के कारण इस दर्शन की आलोचना की थी । इसे सामाजिक अन्तर्विरोधों पर आधारित परिवर्तन के सत्य का परिपंथी माना था। और, इसी आधार पर इसे वर्ग-संघर्ष पर टिके समाजवाद के लिये संघर्षों का विरोधी बताते हुए मानव-विरोधी तक कहा गया । जनवादी लेखक संघ जैसे संगठन के घोषणापत्र में भी कोई इस प्रकार के सूत्रीकरण को देख सकता है ।

लेकिन ज़्याँ पॉल सार्त्र सहित तमाम आधुनिक अस्तित्ववादियों ने अपने जीवन और राजनीतिक विचारों से भी बार-बार यह साबित किया कि हर प्रकार के अन्याय के खिलाफ संघर्ष की अग्रिम पंक्ति में शामिल होने से उन्होंने कभी परहेज़ नहीं किया । वियतनाम युद्ध से लेकर अनेक मौक़ों पर वे वामपंथी क्रांतिकारियों के भी विश्वस्त मित्र साबित हुए थे ।

यह मानव-केंद्रित एक ऐसा सोच था जिसमें जीवन को बनाने में मनुष्यों के आत्म की भूमिका को प्रमुखता प्रदान की गई थी । इसके प्रणेता माने गये किर्केगार्द आदमी के अपने आत्म को ही उसके जीवन के लिये मुख्य रूप से ज़िम्मेदार मानते थे । हाइडेगर और नित्शे, जिनके विचारों में हिटलर के व्यक्तिवाद की प्रेरणा देखी जाती थी, वे भी प्राणीसत्ता की तात्त्विकता पर बल देने के नाते अस्तित्ववादी माने गये । सार्त्र इस धारा के सबसे मुखर सामाजिक प्रतिनिधि हुए ।

बहरहाल, आज कोरोना वायरस के इस काल में अस्तित्ववादी सोच का महत्व कुछ अजीब प्रकार से सामने आ रहा है । वायरस मानव शरीर की आंतरिक प्रक्रियाओं की उपज होता है ;  मनुष्य के अपने शरीर के अंदर के एक प्राकृतिक उत्पादन-चक्र का परिणाम । शरीर के भौतिक अस्तित्व से उत्पन्न चुनौती । इसके कारण किसी बाहरी कीटाणु में नहीं होते हैं। इसकी संक्रामकता के बावजूद अक्सर इसका शरीर के अंदर ही स्वत: शमन हो जाता है ।

लेकिन जब किसी भी वजह से यह शरीर की प्रतिरोध-शक्ति को परास्त करने लगता है, तब यह जानलेवा बन जाता है । कोरोना एक ऐसा ही वायरस है जिसका संक्रमण कल्पनातीत गति से हो रहा है और यह अनेक लोगों के लिए प्राणघाती भी साबित हो रहा है।

कोरोना के चलते आज जो बात फिर एक बार बिल्कुल साफ़ तौर पर सामने आई है वह यह कि आदमी का यह भौतिक शरीर अजर-अमर नहीं है । बल्कि यह अपने स्वयं के कारणों से ही क्षणभंगुर है । इसीलिये सिर्फ़ इसके भौतिक अस्तित्व के भरोसे पूरी तरह से नहीं चला जा सकता है, बल्कि इसकी रक्षा के लिये ही जितनी इसकी अपनी प्रतिरोधक क्षमता को साधने की ज़रूरत है, उतनी ही एक भिन्न प्रकार के आत्म-बल की, मनुष्यों के बीच परस्पर सहयोग और समर्थन की भी ज़रूरत है । यह मनुष्य के प्रयत्नों के एक व्यापक सामूहिक आयोजन की माँग करता है, जैसा कि अब तक चीन, वियतनाम, क्यूबा ने दिखाया है । चीन के डाक्टरों के जत्थे इटली की मदद के लिये चल पड़े हैं, तो क्यूबा अपने तट पर इंग्लैंड के कोरोना पीड़ित जहाज़ के यात्रियों की सहायता कर रहा है । सारी दुनिया में कोरोना के परीक्षण की मुफ़्त व्यवस्था है । दुनिया के कोने-कोने में हर रोज़ ऐसे तमाम प्रेरक उदाहरण सामने आ रहे हैं । इसने एक भिन्न प्रकार से, मानव-समाज के आत्म बल को साधने की, अस्तित्ववादी दर्शन की सामाजिक भूमिका को सामने रखा है ।

आज हम एक बदली हुई, परस्पर-निर्भर, आपस में गुँथी हुई दुनिया में रह रहे हैं । इसमें सभी मनुष्यों के सामूहिक सहयोगमूलक प्रयत्नों के बिना, जब तक इसका प्रतिषेधक तैयार नहीं हो जाता, इस प्रकार के वायरस का मुक़ाबला संभव नहीं है । और क्रमश: यह भी साफ़ है कि इससे मुक़ाबले का कहीं भी और कोई भी प्रतिषेधक विकसित होने पर वह सारी दुनिया के लोगों को मुफ़्त में ही उपलब्ध कराया जाएगा ।

अमेरिका में जो ट्रंप वहाँ की जन-स्वास्थ्य व्यवस्था को ख़त्म करने पर उतारू था, कोरोना ने उसके अमानवीय मूर्खतापूर्ण सोच की सीमाओं को बेपर्द कर दिया है । डेमोक्रेटिक पार्टी के राष्ट्रपति पद के उम्मीदवार बर्नी सैन्डर्स की यह माँग कि मुफ़्त सार्वजनिक स्वास्थ्य सुविधाओं का सिर्फ़ राष्ट्रीय नहीं, अन्तर्राष्ट्रीय ढाँचा तैयार किया जाना चाहिए, कोरोना की चुनौती के सम्मुख मानव समाज की एक सबसे ज़रूरी और प्रमुख माँग दिखाई पड़ती है ।

कोरोना की चुनौती ने सचमुच राष्ट्रीय राज्यों के सीमित सोच की व्यर्थता को उजागर कर दिया है । यह न धनी-गरीब में भेद करेगा, न हिंदू, मुसलमान, बौद्ध और ईसाई में । महाकाय अमेरिकी बहु-राष्ट्रीय निगम भी अमेरिका को इसके प्रकोप से बचाने में असमर्थ है । इसने मनुष्यों के अस्तित्व की रक्षा के लिये ही पूरे मानव समाज की एकजुट सामूहिक पहल की ज़रूरत को रेखांकित किया है । इसीलिये जो भी ताकतें स्वास्थ्य और शिक्षा की तरह के विषय की समस्याओं का निदान इनके व्यवसायीकरण में देखती है, वे मानव-विरोधी ताकते हैं । हमारे शास्त्रों तक में न्याय, शिक्षा और स्वास्थ्य को पाशुपत धर्म के तहत, मनुष्य का प्रकृतिप्रदत्त अधिकार माना गया है । आज कोरोना से पैदा हुआ अस्तित्व का यह संकट शुद्ध रूप से निजी या संकीर्ण राष्ट्रीय स्वार्थों के लिये भी आपसी खींचतान की व्यर्थता को ज़ाहिर करता है ।

आदमी का अपने भौतिक अस्तित्व की चुनौतियों से जूझना ही द्वंद्वात्मक भौतिकवाद है और इसी संघर्ष की आत्मिक परिणतियों का एक नाम अस्तित्ववाद है । सच्चा द्वांद्वात्मक भौतिकवाद आदमी के आत्म को भी उसकी भौतिक सत्ता से अभिन्न रूप में जोड़ कर देखता है । जीवन का सत्य इन दोनों स्तरों पर ही, शरीर और भाषा दोनों पर अपने को प्रकट किया करता है ।

सोमवार, 16 मार्च 2020

अथातो चित्त जिज्ञासा


(जॉक लकान के मनोविश्लेषण के सिद्धांतों पर केंद्रित एक विमर्श की प्रस्तावना)

—अरुण माहेश्वरी



जाक लकान
(13 अप्रैल 1901 — 9 सितंबर 1981)

(1)


अभी की एक गहरी चिंता और अवसाद से भरी विमर्श के गतिरोध की चुनौतीपूर्ण वैश्विक परिस्थितियों में नितांत तात्कालिक प्रसंगों को थोड़ा किनारे रखते हुए हम यहां एक किंचित भिन्न प्रकार के तात्विक क्षेत्र में प्रवेश का प्रस्ताव करना चाहते हैं, ताकि कम से कम घनघोर अंधेरे से निकलने के लिए जरूरी भले एक प्रकार की छटपटाहट का ही एक सिलसिला दिखाई दे। भटकते हुए ही क्यों न हो, सकारात्मक विमर्श के कुछ नए रास्तों के संधान की कोशिश की जा सके ।

हाल ही में एक ऐसी ही छोटी सी कोशिश के तहत हमने इलाहाबाद की ‘अनहद’ पत्रिका के लिए एक लेख लिखा है — ‘आलोचना के किसी सर्वकालिक ढांचे की तलाश में —’, जो शायद पत्रिका के अगले अंक में प्रकाशित होगा । हमारे उस लेख के प्रारंभ में एक छोटी सी भूमिका है, जिसे हम यहां भी दोहराना चाहेंगे :

“1989 में सोवियत समाजवाद के पतन और उसके बाद के पिछले तीस सालों ने न सिर्फ मार्क्सवाद के एक खास सोवियत समाजवादी क्रियात्मक स्वरूप का अंत कर दिया है, बल्कि इसके साथ ही मार्क्सवादी चिंतन का भी एक पूरा ढांचा अपनी चमक को खोकर पूरी तरह से अनुपयोगी बन चुका है । इस सच को जितना जल्द स्वीकारा जायेगा, मार्क्सवादी दर्शन के सर्वकालिक प्रकाश से उतनी ही जल्द आगे के नये चिंतन और व्यवहारिक प्रयोगों की संभावनाओं को हासिल किया जा सकेगा । यह काम अब तक के विचारधारात्मक पूर्वाग्रहों के एक विशाल क्षेत्र को लांघ कर आगे आने के कठिन सैद्धांतिक और आलोचनात्मक प्रयत्न की अपेक्षा रखता है । किसी समय में सिर्फ सोवियत समाजवाद की बौद्धिक श्रेष्ठता को बनाये रखने के लिये वैचारिक क्षेत्र की अन्य सभी उपलब्धियों को मार्क्सवाद का, और सोवियत व्यवस्था का विकल्प ढूंढने की प्रतिक्रियावादी कोशिश कह कर खारिज किया गया था । आज जरूरत उन सबको गंभीरता से टटोलने की है । किसी भी अवधारणा और उसके पीछे के विचार के बीच के वास्तविक तत्त्वमीमांसक संबंधों को समझने की जरूरत है ।

“विगत तीस वर्षों के अनुभव इस बात के भी साक्षी है कि पश्चिम में समय-समय पर उठने वाले जिन विचारों और वैचारिक आंदोलनों की पहले भर्त्सना की गई थी, परवर्ती काल में खुद मार्क्सवादी ही उन भर्त्सनाओं के प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप में शिकार बने हैं ; विमर्श की संभावनाओं को कम करते हुए वे अपने वैचारिक गतिरोध से निकलने के रास्तों को बंद करते चले गये और वे विचार मार्क्सवाद के सत्य के बारे में उनके अंदर ही नाना प्रकार की उलझनों के सबब बन गये । खुद मार्क्सवादी अपने अनुभवों से यह जानते हैं कि मार्क्सवाद के शत्रुओं ने मार्क्स की बातों को कितने विकृत रूप में लगातार पेश किया है । इससे वे मार्क्सवाद का कितना नुकसान कर पाए, और कितना खुद का किया, इसे दुनिया देख रही है । इसी प्रकार फ्रायडियन मनोविश्लेषण, अस्तित्ववाद, और उत्तर-आधुनिकता के सभी रूपों को तोड़-मरोड़ कर रखने से मार्क्सवादियों का खुद के अलावा किसी अन्य का कोई नुकसान नहीं हुआ है । इन सब विचारधाराओं के उदय के पीछे निश्चित विचारधारात्मक और ऐतिहासिक कारण रहे हैं । इनके जरिये मनुष्यों की विचारयात्रा के कुछ ऐसे उपेक्षित सूत्रों को पकड़ा जा सका है जिनके बिना सत्य की आगे कोई जांच संभव नहीं थी । इनके पीछे के ठोस ऐतिहासिक कारणों की समझ ही इन विचार सरणियों की ओर एक प्रकार की प्रामाणिक वापसी का प्रस्थान बिंदु बन सकती है । इसी प्रकार इनकी तारीफ के पुल बांधना भी इन्हें निरर्थक बनाने से कम बुरा नहीं है ।

“कुल मिला कर, किसी भी विषय की विकृत समझ आपकी अपनी पूरी समझ को नष्ट करती है । लेकिन एक कठिन वैज्ञानिक संधान के जरिये इनका विश्लेषण करके इन कमियों को सामने लाया जाए, इसके लिये भी काफी वैचारिक खुलेपन की जरूरत होती है । यह एक कष्टसाध्य, सैद्धांतिक अकेलेपन को भोगने के लिये तैयार रहने की तपस्या की मांग करता है ।
   
“बहरहाल, यह सच है कि सिद्धांत या व्यवहार के किसी भी पुराने ढांचे से मुक्ति तभी संभव होती है जब आदमी को दूसरे किसी ठोस वैकल्पिक ढांचे का आधार मिलता है । बिना विकल्प के किसी भी प्रकार के विद्रोह का कोई अर्थ नहीं होता है । क्रांति के बाद क्या ? — इस सवाल का जवाब या उसका जवाब पाने की कोशिश ही क्रांति को वास्तव में चरितार्थ कर सकती है ।

जब हम सोवियत-समाजवादोत्तर मार्क्सवाद की इन नई संभावनाओं की तलाश की दिशा में बढ़ते हैं तो इस तलाश में हम इतिहास में उपेक्षित छोड़ दिये गये से उन सवालों को टटोलते हुए आगे बढ़ सकते हैं जो किसी भी मायने में सभ्यता के विकास से जुड़े कम महत्वपूर्ण और बुनियादी मुद्दे नहीं रहे हैं, बल्कि मानव-मुक्ति के सबसे प्रमुख पहलू रहे हैं, लेकिन जिन्हें सोवियत समाजवाद के काल में पूरी तरह से उपेक्षित किया गया । इसमें एक सबसे बड़ा और प्रमुख तात्त्विक पहलू है — स्वतंत्रता का पहलू । स्वतंत्रता, समानता और भाईचारे के फ्रांसीसी क्रांति के नारे में सोवियत समाजवाद के काल में समानता पर तो पूरा बल दिया गया और उसे मानव कल्याण की लगभग हर समस्या के निदान की कुंजी मान लिया गया, लेकिन स्वतंत्रता स्वयं में मानव कल्याण का एक प्रमुख और आधारभूत कारक तत्व है, शासन और राजसत्ता की जरूरतों के सामने उसे अनदेखा किया गया ।
“मार्क्स के 'कम्युनिस्ट पार्टी का घोषणापत्र' की अंतिम पंक्ति है — “सर्वहाराओं के पास अपनी बेड़ियों के सिवाय खोने को कुछ नहीं है । जीतने के लिये उनके सामने सारी दुनिया है ।”

इसमें मार्क्स ने बहुत साफ शब्दों में कहा था कि “राजनीतिक सत्ता, इस शब्द के असली अर्थ में, केवल एक वर्ग की दूसरे वर्ग का उत्पीड़न करने की संगठित शक्ति का नाम है । पूंजीपति वर्ग के खिलाफ अपने संघर्ष के दौरान, परिस्थितियों से मजबूर होकर, सर्वहाराओं को यदि अपने को एक वर्ग के रूप में संगठित करना पड़ता है, यदि क्रांति के जरिए वह स्वयं अपने को शासक वर्ग बना लेता है, और इस तरह, उत्पादन की पुरानी अवस्थाओं का बलपूर्वक अंत कर देता है, तो उन अवस्थाओं के साथ-साथ वह वर्ग-विरोधों के अस्तित्व और, आम तौर पर, खुद वर्गों के अस्तित्व की अवस्थाओं का खातमा कर देता है ओर इस प्रकार वह, एक वर्ग के रूप में, स्वयं अपने प्रभुत्व का भी खातमा कर देता है ।”

“कहने का मतलब यही है कि कम्युनिस्ट घोषणापत्र का एक, और अंतिम लक्ष्य था — प्रभुता और दासता के हर रूप का अंत । “जब व्यक्ति की स्वतंत्र प्रगति समष्टि की स्वतंत्र प्रगति की शर्त होगी ।” अर्थात्, एक प्रकार की परम स्वतंत्रता । सर्वहारा का वर्गीय शासन महज एक छोटे से काम, क्रांति को संपन्न करने तक सीमित होगा, असली काम, क्रांति के बाद का काम, प्रत्येक व्यक्ति की अधिकतम स्वतंत्रता को सुनिश्चित करने, राजसत्ता की दमनकारी उपस्थिति को खत्म करते चले जाने का होगा । लेकिन सोवियत समाजवाद अनेक अन्तर-बाह्य कारणों से दमनकारी राजसत्ता का एक और स्वरूप भर बन कर रह गया । जिस क्रांति का लक्ष्य एक राज्यविहीन समाज का गठन था, काल-क्रम में उसमें सिर्फ राज्य ही रह गया, मनुष्य गौण होता चला गया । मनुष्य के जैविक अस्तित्व को राज्य की विचारधारात्मक सत्ता ने खत्म कर दिया । जो सत्य शब्दों और विचारों के बाहर उत्पादन के ठोस भौतिक संबंधों के स्वरूप में वास करता है, उसे ही एक सिरे से खारिज कर दिया गया । वह सर्वहारा पार्टी में और पार्टी के सर्वोच्च नेतृत्व की प्रभुता में सिमटता चला गया ।

कहते हैं कि क्या ईश्वर किसी इतनी भारी चट्टान को भी तैयार कर सकता है, जिसके बोझ को वह खुद नहीं उठा सकता है ! मनुष्यों की परम स्वतंत्रता के लक्ष्य की ओर प्रेरित समाजवादी क्रांति की यह परिणति कुछ इसी प्रकार के सवाल मन में पैदा करती है । असल में इस सवाल का हां या ना में जवाब नहीं हो सकता है । यह ईश्वर की शक्ति पर सवाल उठाने की तरह है, स्वयं में एक प्रकार की तार्किक असंभवता की तरह । ईश्वर के यहां असंभवता या असमर्थता के लिये कोई जगह नहीं मानी जाती है । लेकिन हमारे अभिनवगुप्त ने प्रत्यभिज्ञा दर्शन में इसका बिल्कुल साफ शब्दों में जवाब दिया था कि हां, ईश्वर ऐसी चट्टान पैदा कर सकता है जिसके बोझ को वह खुद नहीं उठा सकता है । दरअसल यह विषय ज्ञान के क्रियात्मक रूप का विषय है । स्वातंत्र्य भी ज्ञान की शक्ति का ही अंग है । शिव का स्वातंत्र्य ही असंभव को संभव बनाता है । शिव के स्वातंत्र्य से असंभव को साधने की प्रवृत्ति से स्फोट, सृजन होता है । और जिसे शिव का स्वैच्छिक संकोच कहा जाता है, उसी की वजह से ईश्वर अपने द्वारा पैदा की गई चट्टान का ही बोझ नहीं उठा पाता है । जरूरत इसी स्वैच्छिक संकोच के सच को, उसके कारकों को पहचानने की है, उसे अपनी आत्म-बाधा के प्रेतों से मुक्त कराने की है । स्वातंत्र्य से ही शिव में गति आती है अन्यथा परम ब्रह्म के अद्वैत की तरह वह मृत रहेगा । सोवियत समाजवाद में समाजवाद का स्वैच्छिक संकोच, जो उसे एक कम्युनिस्ट पार्टी में सीमित करता है, उसकी भूमिका के स्वरूप को समझ कर ही उसे अपनी आत्मबाधाओं से आजाद किया जा सकता है ।

“इसी पृष्ठभूमि में अपनी पुस्तक ‘समाजवाद की समस्याएं’ और ‘वाम राजनीति की समस्याएँ’ में हमने ‘एक देश में समाजवाद’ से लेकर कम्युनिस्ट पार्टियों के लगभग जड़ीभूत सार्वलौकिक सांगठनिक ढांचे को नाना प्रकार से विचार का विषय बनाया है । यह इस समस्या का एक अहम राजनीतिक पहलू है । यह विचारों की व्यवहारिक संकीर्ण परिणतियों की त्रासदी का पहलू है । आज जरूरत है किसी भी विषय की व्याख्या के सैद्धांतिक स्वरूप की संरचना पर इस प्रकार के भौतिक संकुचन के प्रभाव को टटोलने की, इसके सार्वलौकिक स्वरूप को निरूपित करने की । स्वातंत्र्य का पहलू हर वस्तु के साथ व्यक्ति के, व्यक्ति-व्यक्ति के बीच के संबंधों को किस प्रकार निरूपित करता है, इसकी अगर एक समग्र समझ विकसित की जाए तो ‘ईश्वर के स्वैच्छिक संकुचन’ से पैदा होने वाली वैचारिक समस्याओं से निपटने के एक सर्वकालिक संरचनात्मक पथ को शायद तैयार किया जा सकता है ।”

जो भी हो, ‘अनहद’ के लिए लिखे गए उस लेख में हमारे सामने विषय विश्लेषण की एक खास विधा से जुड़ा हुआ है । लेकिन हमारी मूल चिंता का विषय एक समग्र दार्शनिक विषय है, भौतिक और आत्मिक दुनिया के ठोस, भाषाई और परा संसार तक फैला हुआ विषय । द्वंद्वात्मक भौतिकवाद के परापरा विमर्श का विषय । भारतीय तंत्र की भाषा में ‘यथा पिंडे तथा ब्रह्मांडे’ की तरह पिंड से ब्रह्मांड के सूत्र तलाशने का विषय । आदमी के चित्त का विषय ।

पश्चिम में मनोविश्लेषण के महागुरू सिगमंड फ्रायड के सबसे योग्य शिष्य फ्रांस के मनोविश्लेषक जॉक लकान ने अपने विश्लेषणों से उनके चिंतन को एक बिल्कुल नई तत्वमीमांसक ऊंचाई प्रदान की है । पिछले कुछ सालों से भारतीय तंत्रशास्त्र की श्रेष्ठतम कृति तंत्रालोक के प्रणेता अभिनवगुप्त और जॉक लकान को पढ़ते हुए अपनी अनेक टिप्पणियों में हम गाहे-बगाहे इन गुरुओं की बातों का जिक्र करते रहे हैं । अब इस श्रृंखला के जरिये हमारी एक कोशिश होगी कि यहां हम इनकी बातों को क्रमश: विधिवत रूप में समझने, समझाने की एक कोशिश करें, ताकि, जैसा कि हम चाहते हैं, यहां एक किंचित नए विमर्श का बीजारोपण किया जा सके, सैद्धांतिक-विचारधारात्मक विमर्श के क्षेत्र में प्रकट रूप से जमी हुई बर्फ अगर कुछ पिघल सके, तो पिघले !

इसी संक्षिप्त से एक प्राक्कथन के साथ आगे हम अपनी चित्त विषयक, मनोविश्लेषण की भाषा में आदमी के प्रतीकमूलक जगत (symbolic order) की, संकेतकों (signifiers), संकेतों (signs) और संकेतितों (signifieds) से संघटित भावजगत की यात्रा के लिए प्रस्थान करेंगे ।     (क्रमशः)       

रविवार, 15 मार्च 2020

सार्क देशों में समन्वय के प्रयत्नों की शिक्षा


-अरुण माहेश्वरी




सार्क के मंच को नष्ट करने का नुक़सान शायद मोदी जी को अब समझ में आ रहा होगा ।

पर, सार्क देशों के बीच समन्वय बनाने के पहले क्या यह ज़रूरी नहीं था कि भारत के सभी राज्यों के बीच भी समन्वित कार्रवाई का एक सांस्थानिक ढाँचा विकसित किया जाता, जो अभी कहीं नज़र नहीं आ रहा है ।

सार्क के कोरोना कोष में उदारता से एक करोड़ डालर डालने वाली सरकार क्या बताएगी कि उसके गृह मंत्रालय ने राज्य विपदा कोष से कोरोना से लड़ने के लिए खर्च करने की जो अनुमति दी थी, उसे क्यों रद्द कर दिया ? इसमें कोरोना से पीड़ित रोगियों के इलाज के लिये अस्पताल का खर्च उठाने और इससे मरने वालों के परिजनों को चार लाख रुपयों का मुआवज़ा देने की बात कही गई थी ।

एक और महत्वपूर्ण सवाल है कि सार्क देशों के प्रधानों के साथ वार्ता में भी प्रधानमंत्री ने भारत में कोरोना से लड़ने की तैयारियों के बारे में ग़लत बातें क्यों कही ? क्यों उन्होंने कहा कि भारत में जनवरी महीने के मध्य से ही हवाई अड्डों पर जाँच की व्यवस्था शुरू कर दी गई थी, जबकि ऐसी जाँच काफ़ी बाद में शुरू हुई है ? चंद रोज़ पहले तक विदेशी नागरिक भी यहाँ बिना जाँच के प्रवेश कर पा रहे थे । मोदी जी ने भारत में रैपिड रिस्पांस फ़ोर्स की बात की, जब कि भारत के लोगों को ही ऐसी किसी फ़ोर्स की कोई जानकारी नहीं है । विशेषज्ञों का मानना है कि कोरोना से पीड़ित देशों में भारत में ही तुलनात्मक रूप से सबसे कम जाँच की व्यवस्था है ।

अचानक, बिना पूर्व तैयारी के सार्क देशों के प्रमुखों से वार्ता की इस पहल का जो परिणाम निकलना था, वही निकला । पाकिस्तान ने कश्मीर के मुद्दे को उठा कर भारत की इस पूरी पहल पर ही सवाल उठा दिया ; एक जन-स्वास्थ्य के विषय को राजनीतिक रंग देने से परहेज़ नहीं किया । समन्वय हो, क्षेत्रीय समन्वय और सारी दुनिया के देशों के बीच समन्वय हो, इससे आज कोई भी आदमी इंकार नहीं कर सकता है । ऐसी किसी भी पहल का हर कोई स्वागत करेगा । लेकिन समन्वय के नाम पर किसी भी प्रकार का मिथ्याचार, ख़ास तौर पर कूटनीतिक जगत में छिपता नहीं है । पर हमारे मोदी जी लाचार है !

बहरहाल, क्षेत्रीय सहयोग के मंचों की अहमियत को नज़रंदाज़ करके पिछले दिनों भारत ने अपने पड़ौसी देशों के साथ जिस प्रकार संबंध बिगाड़े हैं, आज की विपदा की घड़ी में इन्हें फ़ौरन सुधारने की ज़रूरत है । ऐसे समय में पाकिस्तान के रुख़ का तुर्की दर तुर्की जवाब बुद्धिमत्ता नहीं कहलाएगी । कभी-कभी ग़म पीना भी कूटनीति के लिये ज़रूरी होता है ।

पुन:, सार्क देशों के बीच समन्वय से कम महत्वपूर्ण नहीं है, भारत के सभी राज्यों के बीच समन्वय क़ायम करना । ऐसे समय में राजनीतिक अस्थिरता पैदा करने वाली सारी गतिविधियाँ, विधायकों को गाय-बैल की तरह बसों में लाद कर एक राज्य से दूसरे राज्य में घुमाना केंद्र और राज्य के बीच समन्वय को बनाने के बजाय उसे तोड़ने की नग्न कोशिश है । अफ़सोस की बात यह है कि केंद्रीय गृह मंत्रालय अभी ऐसे बुरे कामों में ही मुब्तिला है ।

राष्ट्र के अस्तित्व पर संकट के अशनि संकेत


सारे संकेत बता रहे हैं कि सरकार के पास दैनंदिन खर्च के लिये पैसों की कमी पड़ सकती है, अन्यथा आज के काल में मोबाइल और पेट्रोल जैसी इफ़रात में उपलब्ध और आम लोगों के रोज़मर्रा के प्रयोग तथा आर्थिक गति की मूलभूत सामग्रियों से ज्यादा से ज़्यादा कर वसूलते जाने की कल्पना भी नहीं की जाती ।

कल अचानक ही कोरोनावायरस के रोगियों और इससे मरने वालों के परिवार को दी जाने वाली राहतों को केंद्र सरकार ने विपदा से निपटने के कदमों की अधिसूचना से चुपके से हटा लिया है ।

सरकार का विदेशी मुद्रा कोष अपने चरम पर लगभग पाँच सौ बिलियन डालर पर चला गया है ।

यह सब एक बुरी तरह से डरी हुई सरकार का संकेत है जो अपने आपातकाल के लिये पागल की तरह सिर्फ धन इकट्ठा कर रही है ; जनता को राहत देने के और अर्थ-व्यवस्था को चंगा रखने के लिए खर्च करने से परहेज़ कर रही है ।

अर्थनीति में यह मनोदशा धन को अंतत: कोरी अस्थि का रूप देने का कारण बनती है । तमाम निवेश रुक जाते हैं, जो आगे आमदनी में कमी का कारण बन कर संकट को और तीव्र और गहरा करता है । इससे संकट से मुक्ति में मदद की कल्पना भी नहीं की जा सकती है ।

पता नहीं क्यों, यह स्थिति हमें तो अजीब सी अराजकता का कारण बनती दिखाई दे रही है । ख़ास तौर पर तब और भी जब सरकार का ध्यान सांप्रदायिक ध्रुवीकरण पर केंद्रित है ।

ऐसा ही चला तो वह समय दूर नहीं होगा, जब समूचा विपक्ष व्यापक जनता के साथ मिल कर सड़कों पर इस सरकार को हटाने की मुहिम शुरू कर देगा । उत्तर प्रदेश में योगी और उनके मंत्रियों को आतंकवादी बताने वाला जवाबी बैनर, अलीगढ़ में मोहम्मद तारीक की भाजपा के नेता विनय वार्ष्णेय के द्वारा हत्या पर जन रोष की तरह की घटनाएँ भी इसी बात का संकेत दे रही है ।

ऐसे समय में आरएसएस के लोगों के द्वारा ‘देशद्रोहियों’ के सफ़ाए का उत्तेजक प्रचार देश के सर्वनाश का कारण बनता हुआ नज़र आता है ।

15.03.2020