शनिवार, 17 जुलाई 2021

रोमिला थापर के नब्बेवें जन्मदिन की अग्रिम सूचना पर



तीन महीने बाद, 30 नवंबर के दिन भारत की अद्वितीय इतिहासकार रोमिलाथापर नब्बे की उम्र में प्रवेश करेगी  उनके नब्बेवें जन्मदिन की अगुवाई मेंगोपालकृष्ण गांधी का आज के ‘टेलिग्राफ’ की लेख  ‘प्राचीन भारतीय अध्ययनकी साम्राज्ञी : इतिहास की वाग्देवी’ हम जैसे किसी भी रोमिला थापर केप्रशंसक के लिए एक दिलचस्प और आह्लादकारी अनुभव है। 


इस लेख के अंतिम अंश में किसी भी महफ़िल में रोमिला जी की अनुपेक्षणीय भास्वर उपस्थिति के ब्यौरे के अलावा उनकी तीव्र पसंद-नापसंद का रोचक किस्सागोई की तरह का प्रसंग उसी तरह इस लेख की मूल भावना के साथ  संगति में एक गौण प्रसंग है जैसे रोमिलाजी के इतिहास लेखन में अशोक के जीवन के विस्तृत विवरण उसके काल के सामाजिक जीवन के विवरणों के परिप्रेक्ष्य में गौण होजाते हैं  इतिहास लेखन बिना किसी पूर्वाग्रह के यथासंभव ठोक-बजा कर चुने गए प्रामाणिक तथ्यों के ब्यौरों के साथ ही तभी मानीखेजहोता है जब उन तथ्यों को व्यापक सामाजिकस्वयं के ऐतिहासिक परिप्रेक्ष्य का संसर्ग मिलता हैअर्थात् वे युगीन सत्य के संकेतों कोधारण करते हैं  


रोमिला जी का महत्वपूर्ण काम ‘भारत का प्रारंभिक इतिहास’ के अलावा ‘अशोक और मौर्य साम्राज्य का पतन’ विषय पर था  अशोक के बारे में भारत में सन् 1837 से चर्चा शुरूहो गई थी जब जेम्स प्रिन्सेप ने उनके शिलालेखों के आधार पर कई लेख लिखे थे  विन्सेंट स्मिथ ने 1901 में अशोक पर पहली पुस्तकप्रकाशित की औपनिवेशिक 1925 में अशोक के शासन के बारे में डी आर भंडारकर के कर्माइकल भाषणों  के प्रकाशन के साथ हीभारतीय इतिहासकारों का ध्यान भी अशोक और मौर्यों की ओर गया और क्रमशमौर्य साम्राज्य से जुड़े नाना विषय आगे की चर्चा केविषय बनते चले गए  इसी क्रम में अशोक के साथ बौद्ध धर्म के संबंध का पहलू भी उभर कर सामने आया  


अशोक संबंधी एक लंबी इतिहास चर्चा की पृष्ठभूमि में रोमिला थापर का 1960 में प्रकाशित काम इसलिए बहुत महत्वपूर्ण था क्योंकिउन्होंने इस दौरान इकट्ठा हुई इस विषय की सामग्री की पुनर्व्याख्या करके उस पूरी चर्चा को प्राचीन भारत की खोज के आधुनिक प्रयत्नोंके लिए समीचीन बनाया  


उन्होंने इसे ख़ास तौर पर चिन्हित किया कि अशोक ऐसे पहले भारतीय राजा थे जिन्होंने देहात के लोगों के महत्व को समझा थाउनकेअलगाव की सच्चाई को पकड़ा था और उनसे गहरे संपर्क स्थापित किए थे  रोमिला जी कहती है कि यदि अशोक ने देहात केलोगों को अछूता रख दिया होता तो उनका धम्म कभी भी सफल नहीं हो पाता  


अपने (शासन और धर्म), दोनों लक्ष्यों को पाने के लिए व्यापक यात्राओं और जनता के बीच लगातार आने-जाने से बेहतर कोई उपायनहीं होता है  “  


यहाँ हमारे कहने का सिर्फ़ इतना सा तात्पर्य है कि रोमिला जी के अध्यवसाय से प्राप्त उनकी गहरीसधी हुई इतिहास दृष्टि ने उन्हें वहस्पृहणीय व्यक्तित्व प्रदान किया है जो किसी भी महफ़िल में हमेशा अपनी उपस्थिति दर्ज कराता है  दूसरी सभी पदवियाँ और आभूषणइसके सामने कोई अर्थ नहीं रखते हैं  


तथापिहमें गोपालकृष्ण गांधी के प्रति आभार व्यक्त करने की ज़रूरत महसूस हो रही है क्योंकि उन्होंने इस लेख के ज़रिए रोमिला जीके नब्बे साल में प्रवेश के प्रति लोगों को पहले से सूचित करके वह मौक़ा तैयार किया है जब हमें प्राचीन भारत के बारे में उनके कामों को पुनर्संदर्भित करनेऔर अपनी इतिहास दृष्टि के पुनर्नवीकरण का अवसर मिलेगा  


-अरुण माहेश्वरी 


हम यहाँ गोपालकृष्ण गांधी के इस लेख को मित्रों से साझा कर रहे हैं :   


https://www.telegraphindia.com/opinion/the-empress-of-ancient-indian-studies/cid/1822892


शुक्रवार, 16 जुलाई 2021

प्रशांत किशोर और कांग्रेस के बारे में अटकलबाज़ी पर एक नोट

 



  • अरुण माहेश्वरी 


प्रशांत किशोर के कांग्रेस में शामिल होने की चर्चा गर्म है  कोई नहीं जानता कि सचमुच ऐसा होगा  इस संशय के पीछे प्रशान्त किशोरका अपना इतिहास ही एक बड़ा कारण है  अब तक वे कई पार्टियों के चुनाव प्रबंधक रह चुके है जिनमें बीजेपी का नाम भी शामिल है कांग्रेससपा और जेडीयू के प्रबंधक के रूप में उनकी भूमिका को तो सब जानते हैं  इसी वजह से उनकी वैचारिक निष्ठा के प्रति कोईनिश्चित नहीं हो सकता है  इसीलिए तमाम चर्चाओं के बाद भी सबसे विश्वसनीय बात आज भी यही प्रतीत होती है कि वे किसी भीहालत में कांग्रेस की तरह के एक पुराने संगठन में शामिल नहीं होंगे  


यदि इसके बावजूद यह असंभव ही संभव हो जाता है तब उस क्षण को हम प्रशांत किशोर के पूरे व्यक्तित्व के आकलन में एक बुनियादीपरिवर्तन का क्षण मानेंगे  उसी क्षण से हमारी नज़र में वे महज़ एक पेशेवर चुनाव-प्रबंधक नहींविचारवान गंभीर राजनीतिज्ञ हो जाएँगे 


प्रशांत किशोर चुनाव-प्रबंधन का काम बाकायदा एक कंपनी गठित करके चला रहे थे  अर्थात् यह उनका व्यवसाय था  इसकी जगहकांग्रेस में बाकायदा एक नेता के तौर पर ही शामिल होनातत्त्वतएक पूरी तरह से भिन्न काम को अपनाना कहलाएगा  आम समझ मेंराजनीति और व्यवसायइन दोनों क्षेत्रों के बीच एक गहरे संबंध की धारणा है  लेकिन गहराई से विश्लेषण करने पर पता चलेगा कि इनदोनों के बीच सहज विचरण कभी भी संभव नहीं है  इनके बीच एक संबंध नज़र आने पर भीइनकी निष्ठाएँ अलग-अलग हैंइनकेविश्वास भी अलग है  कोई भी इनमें से किसी एक क्षेत्र को ही ईमानदारी और निष्ठा के साथ अपना सकता है  


कम्युनिस्ट विचारक अंतोनिओ ग्राम्शी ने इसी विषय पर अपनी ‘प्रिजन नोटबुक’ में एक बहुत सारगर्भित टिप्पणी की है  इसमें एकअध्याय है ‘बुद्धिजीवी और शिक्षा इस अध्याय में वे बुद्धिजीवी से अपने तात्पर्य की व्याख्या करते हैं  वे बुद्धिजीवी की धारणा कोलेखक-दार्शनिक-संस्कृतिकर्मी की सीमा से निकाल कर इतने बड़े परिसर में फैला देते हैं जिसमें जीवन के सभी आर्थिक-सामाजिक-राजनीतिक क्षेत्र में बौद्धिक स्तर पर काम करने वाले लोग शामिल हो जाते हैं  बुद्धिजीवी कौन है और कौन नहीं हैइसी सवाल कीउधेड़बुन में पन्ना-दर-पन्ना रंगते हुए वे क्रमशअपनी केंद्रीय चिंता का विषय ‘राजनीतिक पार्टी’ पर आते हैं और इस नतीजे तक पहुँचते हैंकि राजनीतिक पार्टी का हर सदस्य ही बुद्धिजीवी होता हैक्योंकि उनकी सामाजिक भूमिका समाज को संगठित करनेदिशा देने अर्थात्शिक्षित करने की होती है  इसी सिलसिले में वे टिप्पणी करते हैं कि “एक व्यापारी किसी राजनीतिक पार्टी में व्यापार करने के लिएशामिल नहीं होता है उद्योगपति अपनी उत्पादन-लागत में कटौती के लिए उसमें शामिल होता है कोई किसान जुताई की नई विधियोंको सीखने के लिए  यह दीगर है कि पार्टी में शामिल होकर उनकी ये ज़रूरतें भी अंशतपूरी हो जाए ” इसके साथ ही वे यहविचारणीय बात कहते हैं कि यथार्थ में “राजनीति से जुड़ा हुआ व्यापारीउद्योगपति या किसान अपने काम में लाभ के बजाय नुक़सानउठाता है , और वह अपने पेशे में बुरा साबित होता है  … राजनीतिक पार्टी में ये आर्थिक-सामाजिक समूह अपने पेशागत ऐतिहासिकविकास के क्षण से कट जाते हैं और राष्ट्रीय तथा अंतरराष्ट्रीय चरित्र की सामान्य गतिविधियों के माध्यम बन जाते हैं ” 


जब हम प्रशांत किशोर के कांग्रेस की तरह के एक स्थापित राजनीतिक संस्थान में शामिल होने की गंभीरता पर विचार करते हैं को हमारेज़ेहन विचार का यही परिदृश्य होता है जिसमें राजनीति का पेशा दूसरे पेशों से पूरी तरह जुदा होता है और इनके बीच सहजता सेपरस्पर-विचरण असंभव होता है  


अब यदि हम पूरे विषय को एक वैचारिक अमूर्त्तन से निकाल कर आज के राजनीतिक क्षेत्र के ठोस परिप्रेक्ष्य में विचार करें तो यह कहनेमें जरा भी अत्युक्ति नहीं होगी कि आज किसी का कांग्रेस में शामिल होने का राजनीतिक अर्थ है खुद को दृढ़ बीजेपी-विरोधी घोषितकरना  चुनाव प्रबंधन का ठेका लेने के बजाय कांग्रेस पार्टी का हिस्सा बनना भी इसीलिए स्वार्थपूर्ण नहीं कहला सकता है क्योंकि अभीकांग्रेस में शामिल होने से ही तत्काल कोई आर्थिक लाभ संभव नहीं है  प्रशांत किशोर अपने लिए पेशेवर चुनाव प्रबंधक से बिल्कुलअलग जिस बृहत्तर भूमिका की बात कहते रहे हैंउनका ऐसा फ़ैसला उनके इस आशय की गंभीरता को पुष्ट करेगा  यह उनके उसवैचारिक रुझान को भी संगति प्रदान करता है जिसके चलते उन्होंने नीतीश कुमार से अपने को अलग कियापंजाब में कांग्रेस का साथदेनेउत्तर प्रदेश में सपा-कांग्रेस के लिए काम करने के अलावा बंगाल में तृणमूल के लिए काम करने का निर्णय लिया  इसके अलावाउनका कांग्रेस जैसे विपक्ष के प्रमुख दल को चुनना भी उनके जैसे एक कुशल व्यक्ति के लिए निजी तौर पर उपयुक्त चुनौती भरा औरसंतोषजनक निर्णय भी हो सकता है  

बहरहालअभी तो यह सब कोरा क़यास ही है  प्रशांत किशोर के लिए अपनी योग्यता और वैचारिकता के अनुसार काम करने के लिएकांग्रेस का मंच किसी भी अन्य व्यक्ति को कितना भी उपयुक्त क्यों  जान पड़ेऐसे फ़ैसलों में व्यक्ति के अहम् और संगठनों की संरचनाआदि से जुड़े दूसरे कई आत्मगत कारण है जो अंतिम तौर पर निर्णायक साबित होते हैं  मसलनआज यदि हम दृढ़ बीजेपी-विरोध केमानदंड से विचार करें तो किसी के भी लिए कांग्रेस के अलावा दूसरा संभावनापूर्ण अखिल भारतीय मंच वामपंथी दलों का भी हो सकता है लेकिन वामपंथी पार्टियों का अपना जो पारंपरिक सांगठनिक विन्यास और उसकी रीति-नीति हैउसमें ऐसे किसी बाहर के योग्यव्यक्ति की प्रभावी भूमिका की बात की कोई कल्पना भी नहीं कर सकता है  वामपंथी पार्टियों के सांगठनिक ढाँचे की यह विडंबना ऐसीहै कि इसमें जब बाहर के व्यक्ति के भूमिका असंभव हैतब बाहर के अन्य लोगों के लिए भी वामपंथी पार्टियों की ओर सहजता सेझांकना संभव नहीं होता है  इसके लिए कथित संघर्ष की एक दीर्घ प्रक्रिया से गुजरना अनिवार्य होता हैभले वह संघर्ष पार्टी के अंदरका संघर्ष ही क्यों  हो  अर्थात् उसके लिए वामपंथी मित्रों के सहचर के रूप में एक लंबा समय गुज़ारना ज़रूरी होता है  अनुभव साक्षीहै कि यह अंतरबाधा एक मूल वजह रही है जिसके चलते अनेक ऐतिहासिक परिस्थितियों में भी वामपंथ अपने व्यापक प्रसार के लिएउसका लाभ उठा पाने से चूक जाता है या अपनी भूमिका अदा करने के लिए ज़रूरी शक्ति का संयोजन नहीं कर पाता है  जब 1996 मेंज्योति बसु को प्रधानमंत्री बनाने का प्रस्ताव आया था तो कुछ ऐसी ही अपनी अन्तरबाधाओं की वजह सेजो सीपीएम के संविधान कीएक धारा 112 के रूप में प्रकट हुई थीवामपंथ अपनी भूमिका अदा करने में विफल हुआ  


बहरहालयहाँ अभी विषय प्रशांत किशोर के अनुमानित निर्णय का है  हम पुनयही कहेंगे कि अव्वल तो यह बात पूरी तरह से अफ़वाहसाबित होगी  प्रोग्राम यह बात सच साबित होती है तो मानना पड़ेगा कि प्रशांत किशोर अपनी भिन्न और बृहत्तर सामाजिक भूमिका केबारे में सचमुच गंभीर और ईमानदार है