शनिवार, 25 फ़रवरी 2017

मोदी-उत्तर भारत पर विचार का एक सूत्र :


अमेरिका की डेमोक्रेटिक पार्टी के नये अध्यक्ष बने टौम पेरेज
(क्या भारत के राजनीतिक संस्थान अभी के अमेरिकी घटना-क्रम से कुछ सीखेंगे ! )

-अरुण माहेश्वरी
कीथ एलिसन
टौम पेरेज

हिलैरी क्लिंटन की पराजय के बाद अमेरिका की डेमोक्रेटिक पार्टी में यह स्वाभाविक सवाल उठ खड़ा हुआ था कि डेमोक्रेटिक नेशनल कमेटी (DNC) का नेतृत्व आगे किसके पास होगा । उनके संविधान के अनुसार DNC के अध्यक्ष के पास यह नेतृत्व होता है, जिसके चुनाव की अपनी एक प्रक्रिया है ।

कल (25 फ़रवरी को) वहाँ के अटलांटा में यह चुनाव संपन्न हुआ जिसमें टौम पेरेज दो राउंड के मतदान के बाद डीएनसी के चेयरमैन चुने गये और उन्होंने वाइस-चेयरमैन पद के लिये कीथ एलिसन के नाम का प्रस्ताव रखा जिसे सर्व-सम्मति से स्वीकार लिया गया ।

डीएनसी के अध्यक्ष के चुनाव की प्रक्रिया के नियम के मुताबिक़ इसके 447 सदस्यों में से कम कम से कम 20 सदस्यों की सिफ़ारिश से कोई भी इस पद के लिये खड़ा हो सकता है । इसमें मतदान के एक के बाद एक चक्र उस समय तक चलते रहते हैं, जब तक किसी एक को 224 मत नहीं मिल जाते है । इस बार इस पद के लिये वहाँ कुल आठ नाम आए थे ।

इस बार के चुनाव में पेरेज को ही ओबामा और हिलैरी क्लिंटन का परोक्ष समर्थन मिला हुआ था । लेकिन इसमें जो सबसे महत्वपूर्ण बात थी, वह यह कि डेमोक्रेटिक पार्टी में वामपंथी और मजदूर वर्ग के प्रतिनिधि के रूप में ख्यात बर्नी सैंडर्स ने इसमें अपना खुला समर्थन कीथ एलिसन को दिया था । सैंडर्स ने एलिसन का समर्थन करते हुए जो महत्वपूर्ण बातें कही हैं, उनकी वजह से ही हमारे जैसों के लिये डेमोक्रेटिक पार्टी की डीएनसी के इस चुनाव में अतिरिक्त आकर्षण पैदा हो गया था ।

बर्नी सैंडर्स ने एलिसन का समर्थन करते हुए यह पहला सीधा सवाल उठाया था कि " क्या हम विफल हुए यथा-स्थितिवाद के साथ चिपके रहेंगे या डेमोक्रेटिक पार्टी के मूलभूत पुनर्विन्यास की दिशा में कदम उठायेंगे? (Do we stay with a failed status-quo approach or do we go forward with a fundamental restructuring of the Democratic Party?” )

सैंडर्स ने जिन एलिसन को अपना समर्थन दिया वे मिनेसोटा राज्य के लिये कांग्रेस के सदस्य चुने गये हैं । उन्हें एक करोड़ बीस लाख सदस्यों के ट्रेडयूनियनों के संघ एएफएल-सीआईओ का समर्थन प्राप्त है । अगर सैंडर्स द्वारा समर्थित एलिसन का इस पद के लिये चुनाव होता को निश्चित रूप से अमेरिका की डेमोक्रेटिक पार्टी की यह एक ऐतिहासिक घटना होती ।

यहाँ सबसे महत्वपूर्ण, ग़ौर करने लायक बात यह है कि अमेरिका के आज के मुस्लिम-विरोधी माहौल में एलिसन  पहले मुसलमान है जो अमेरिकी कांग्रेस के सदस्य के अलावा कांग्रेस के प्रगतिशील गुट के सह-सभापति भी है । वहाँ के अश्वेत जातीयतवाद के साथ उनके मधुर संबंध रहे हैं और उनके अपने शहर डेट्रायट में स्थापित 'नेशन आफ इस्लाम' के नाम से राजनीतिक-धार्मिक आंदोलन के प्रदर्शनों में भी उन्होंने हिस्सा लिया है ।

सैंडर्स इसीलिये एलिसन को एक मजदूर नेता के अलावा अमेरिका के सभी अल्प-संख्यक समुदायों में उनकी लोकप्रियता को देखते हुए, उनकी अध्यक्षता को डेमोक्रेटिक पार्टी के यथास्थितिवादी से निकल कर एक मूलभूत पुनर्विन्यास के लिहाज से बहुत जरूरी बता रहे थे ।

यह सच है कि सैंडर्स फिर एक बार भले अपने मंसूबे में सफल नहीं हुए हैं, लेकिन डेमोक्रेटिक पार्टी के उपाध्यक्ष के पद के लिये सर्व-सम्मति से एलिसन का चुना जाना भी एक कम महत्वपूर्ण घटना नहीं है । इससे पता चलता है कि अमेरिका की सारी प्रगतिशील ताक़तें ट्रंप युग का आगे मुक़ाबला करने के लिये किस प्रकार अपने को नये रूप में तैयार करके गोलबंद हो रही है । वे ट्रंप के मुसलमान-विरोधी और आप्रवासी-विरोधी फोबिया से ज़रा भी आतंकित नहीं हैं ।

भारत के सभी वामपंथी, जनतांत्रिक और धर्म-निरपेक्ष राजनीतिक दलों के लिये इसमें बहुत कुछ ऐसा है जिससे वे शिक्षा लेकर अपने पुनर्विन्यास और नयी गोलबंदी की दिशा में आगे कदम उठा सकते हैं । मोदी-उत्तर भारत के नये भविष्य के लिये इस पर ग़ौर करने की ज़रूरत है ।

शिवरात्रि के मौक़े पर शैवमत में स्वातंत्र्य के भैरव भाव पर एक सोच


-अरुण माहेश्वरी




दरअसल, ठहर कर गंभीरता से इस बात की जाँच करने की ज़रूरत है कि भारत के धर्मों के इतिहास में शैवमत से हमारा तात्पर्य क्या है । क्या यह हिंदू धर्म का ही एक भिन्न पंथ है, अपने दायरे में एक स्वतंत्र धर्म या अलग प्रकार के आदर्शों, विश्वासों, कर्मकांडों की एक और धारा जिसमें शिव शब्द के किसी न किसी रूप में प्रयोग के ज़रिये ही एक प्रकार की संहति क़ायम की गई है?

बहरहाल, भारतीय ज्ञान परंपरा की इस शैव मत की धारा के जिस पहलू में हमें एक प्रकार का अनोखा दर्शनशास्त्रीय आकर्षण दिखाई देता है, वह है कश्मीरी शैवमत में प्रत्यभिज्ञा की पूरी अवधारणा में  । वैदिक-औपनिषदिक दर्शन की धारा की सापेक्षता में शैवमत कितना उस पर निर्भरशील है और कितना स्वतंत्र, इसे साफ तौर पर रेखांकित करने वाला पद है यह प्रत्यभिज्ञा विमर्श का पद । भेद-भेदाभेद-अभेद पर टिका भाववादी अद्वैत । इसके प्रयोग के अनंत आयाम हो सकते हैं । यह अनेक द्वंद्वों की उपस्थिति के साथ एक निश्चित दिशा में गतिशीलता की पूरी अवधारणा पेश करता है । विविधता में एकता की भारतीयता की तात्विकता । इसमें हेगेल की भाँति ही शिव के स्वातंत्र्य भाव, उसके भैरव रूप की साधना की जाती है । यही है जो सत्य के साथ शिव के योग से सौन्दर्य के स्फुरण का एक संपूर्ण विचार पेश करता है ।

प्राचीन हिंदू दर्शन की धारा पर विचार करने वाले तमाम विद्वानों ने वैदिक-वैष्णव परंपरा को जो मान दिया है, शैवागमों के इस प्रत्यभिज्ञा विमर्श की उतनी ही उपेक्षा की है । इसके चलते शंकर के बाद भारतीय दर्शन के उत्कर्ष के एक सबसे मूल्यवान पहलू से हम वंचित रहे हैं । यह कमी भारतीय दर्शन के इतिहासकार एस एन दासगुप्ता, उनके शिष्य देवीप्रसाद चट्टोपाध्याय की भी है । पाँच खंडों के अपने 'भारतीय दर्शन का इतिहास' में दासगुप्त ने कश्मीर के शैवमत के बारे में अंतिम खंड के अंत में सिर्फ पाँच पन्ने ख़र्च किये हैं, जबकि सिर्फ उत्तरी शैवमत की धारा में पड़ने वाला तंत्र साहित्य अपनी विपुलता में वैदिक साहित्य से कम नहीं है ।  गोपीनाथ कविराज ने तंत्र साहित्य की जो एक सूची भर तैयार की है वही लगभग साढ़े सात सौ पृष्ठों की है ।

आज दुनिया में हेगेल के द्वंद्वात्मक भाववाद और मार्क्स के द्वंद्वात्मक भौतिकवाद की श्रृंखला में स्लावोय जिजेक की तरह के दार्शनिक जब द्वंद्वात्मक भौतिकवाद को एक नई आधारशिला पर रखने की अपनी प्रस्तावना पेश कर रहे है तब वे अपने इस प्रकल्प के शुरू में ही द्वन्द्वात्मकता को निश्चयात्मक रूप से संश्लेषण (synthesis) की किसी इकहरी प्रक्रिया में देखने के बजाय द्वंद्वों के एक असंगत मिश्रण के गतिशील रूप में देखते हैं । (not as a universal notion, but as “dialectical [semiotic, political] matters,” as an inconsistent (non-All) mixture.)

गौर करने की बात यह है कि भारतीय योगसाधना में भी यह मान कर चला जाता है कि मन विकल्पात्मक होता है, अविकल्प नहीं। जिजेक अपनी इस सबसे महत्वपूर्ण किताब ‘Absolute Recoil’ में आदमी के मनन की प्रक्रिया में चीजों के बनने-बिगड़ने के तमाम पक्षों के सम्मिश्रण के इसी विकल्पात्मक महाभाव का विवेचन करते दिखाई देते हैं। चीजों के बारे में आदमी के ज्ञान में कितने प्रकार के पहलू काम करते हैं, जो द्वंद्वात्मक प्रक्रिया के बीच से ही आदमी के हस्तक्षेप को प्रेरित करते हुए भौतिक दुनिया को बदलते हैं, इसके तमाम पक्षों को उन्होंने इस उपक्रम में उजागर किया है। माक्‍​र्सवादी चिंतक एलेन बदउ के शब्दों को उधार लेते हुए वे कहते हैं कि सच्चे भौतिकवाद को ‘‘बिना भौतिकवाद वाला भौतिकवाद’’ (materialism without materialism) कहा जा सकता है।

कश्मीरी शैवमत के 11वीं सदी के दार्शनिक अभिनवगुप्त ‘तंत्रालोक’ में कहते हैं कि जब हम विषय के अन्तर्विरोधों (विकल्पों) पर अपना ध्यान केंद्रित करते हैं, अन्तर्विरोधों का संस्कार, शोधन और परिमार्जन शुरू हो जाता है और वह अन्त में स्फुटतम अवस्था पर पहुंच जाता है, एक निश्चित अर्थ देने लगता है। इस प्रकार, कहा जा सकता है कि द्वंद्वात्मकता से एक अद्वैत ज्ञान तक की यात्रा तय होती है। ‘विश्वभावैकभावात्मकता’ तक की। (विश्व में जितने भी नील-पीत, सुख-दुख आदि भाव है, उन सबका एक भावरूप में, सर्व को समाहित करने वाले महाभाव रूप में, आत्मरूपता का अविकल्प भाव से साक्षात्कार के सर्वश्रेष्ठ स्वरूप तक की) यह ‘द्वंद्वों का असंगत मिश्रण’ ही प्रत्यभिज्ञा का सामस्त्य भाव है। (श्रीमदभिनवगुप्तपादाचार्य विरचित: श्रीतंत्रालोक:, प्रथममाकिम् -।।141।।)

कहना न होगा, शैवमत के प्रत्यभिज्ञा दर्शन के इस सामस्त्य भाव को पूरी तरह से उपेक्षित करके, स्वातंत्र्य के भैरव भाव को कुचल कर, सनातन धार्मिक परंपरा में उसे विलीन करके शिव को मात्र पूजा की विषय-वस्तु बना कर भारतीय चिंतन में गहराई तक निहित चिंतन के स्वातंत्र्य भाव का हरण किया गया है । महा शिवरात्रि के उत्सव के वक़्त क्या विचार का यह अभी एक महत्वपूर्ण विषय नहीं हो सकता है ?

गुरुवार, 23 फ़रवरी 2017

संकट में नागरिक की निजता : एक सोच


-अरुण माहेश्वरी

एक काल था जब वामपंथ समाज के कुलीन तबक़ों के खिलाफ आम लोगों की भावनाओं को आकर्षित करता था ।

सारी दुनिया में नागरिक चेतना कुलीनता का प्रतीक है और अभी दक्षिणपंथ उसके खिलाफ भीड़ की भावना को आकर्षित करने में सफल हो रहा है ।

इसके कारणों की तह में जाने की ज़रूरत है ।

विज्ञान और तकनीक की उन्नति का अभी एक ऐसा दौर चल रहा है जब काम के लिये आदमी की उपयोगिता कम हो रही है । तकनीक के विकास से दुनिया में सामाजिक सुरक्षा के लाभ किसी न किसी प्रकार से समाज के अधिकतम तबक़ों तक पहुँचने लगे हैं । चिकित्सा, खाद्य, शिक्षा और आवास की सुविधा का भी सारी दुनिया में आबादी में वृद्धि की तुलना में तेज़ी से विस्तार हुआ है ।

पहले जब आदमी के जीवन में अपेक्षाकृत कम आपाधापी थी, कुंडलियाँ मिला कर परिवारों में शादियाँ तय होती थी, मुहूर्त देख कर लोग घरों से निकलते थे, खान-पान के साथ धार्मिक विश्वास जुड़े होते थे और संतानोत्पत्ति तक को ईश्वर की देन माना जाता था । व्यक्ति का अपना कुछ नहीं था । सोचने-विचारने वाले स्वतंत्र जनों के संत-दार्शनिक नामक अलग-थलग समुदाय होते थे ।

विज्ञान ने मनुष्य जीवन के नियंता इन सामूहिक विश्वासों को चुनौती देना सिखाया और आम मनुष्यों के निजी व्यक्तित्व को, नागरिकता की चेतना को प्रतिष्ठित करने का आधार प्रदान किया ।

अब पुन: तेज़ी के साथ कुंडलियों का स्थान अखबारी विज्ञापनों और व्यक्ति की आमदनी के ब्यौरों तथा मेडिकल रिपोर्टों ने लेना शुरू कर दिया है क्योंकि प्रेम के लिये आदमी के पास समय की कमी है । यात्राएँ मौसम की गूगल भविष्यवाणियों से तय होने लगी हैं ; खान-पान भी छोटी-मोटी बीमारियों के आधार पर डाक्टरी नुस्ख़ों से निर्धारित हो रहा है । संतानोत्पत्ति में डाक्टरी तकनीक की भूमिका बढ़ती जा रही है ।

सर्वोपरि, पहले का आदमी जिस प्रकार धार्मिक कर्मकांडों की अ-यथार्थ दुनिया में अपना अधिक से अधिक समय बिताता था, वह अब टेलिविजन और मनोरंजन के दूसरे आभासी संसार में ज्यादा समय बिताता है ।

कह सकते हैं कि वैज्ञानिक विश्वासों के इस युग में पुन: व्यक्ति की निजता संकट के सम्मुखीन हो रही है । व्यक्ति की निजता का सीधा संबंध उसकी ख़ास, कुलीन कही जा सके, मानसिकता से होता है । धर्म के युग में विज्ञान ने व्यक्ति की प्रतिष्ठा की और इस विज्ञान के विश्वासों के युग में जहाँ भी संभव हो, शुद्ध भीड़ की आक्रामकता से निजता का हनन हो रहा है । जबकि और आगे के लिये तो एकल परिवार नहीं, बल्कि अकेले सामाजिक मनुष्य की अस्मिता के ठोस चित्र दिखाई दे रहे हैं ।

इसी तरह प्रगति की ओर उठा हुआ हर कदम आगे की ओर उठे दूसरे कदम में पीछे का कदम साबित होने लगता है । दुनिया में हिटलर की संततियों के नये उभार से कुछ इस प्रकार के पाठ भी पढ़े जा सकते हैं । नागरिक देवी प्रसाद मिश्र की पिटाई भी ऐसी ही कुछ बात कहती सी लगती है । 

मंगलवार, 21 फ़रवरी 2017

ग़ैर-ईमानदारी का वर्गीकरण : संदर्भ ट्रंप और मोदी


-अरुण माहेश्वरी


भाषाशास्त्री जॉन्सन के नाम के 'इकोनॉमिस्ट' के ताज़ा (18-24 फ़रवरी 2017 के) अंक के स्तंभ में इस बार 'गैर-ईमानदारी का वर्गीकरण' शीर्षक से ट्रंप की अनर्गल और मिथ्या बातों को पत्रकारों को किस प्रकार लेना चाहिए, उसके बारे में लिखा है ।

स्तंभ में लिखा गया है कि डोनाल्ड ट्रंप के बारे में कहा जाता है कि वे कुछ भी बोले और उसमें साफ तौर पर कुछ असत्य बातें न हो, यह मुमकिन नहीं है । 'न्यूयार्क टाइम्स' उसे 'कुटी' कहता है । ट्रंप ने जब कहा कि तीस लाख लोगों ने ग़ैर-क़ानूनी ढंग से मतदान किया है तो 'टाइम्स' ने इस पर तीखी टिप्पणी की - 'ट्रंप ने सिनेटरों के सामने आम लोगों के मतदान के बारे में झूठ की रट लगाई ।' अमेरिकी मीडिया में अभी ट्रंप की बातों के बारे में झूठ, मिथ्या, असत्य की तरह के शब्द बार-बार दोहराये जा रहे हैं ।

इसी पर स्तंभ में लिखा गया है कि "मिथ्या और झूठ के बीच फर्क होता है । आक्सफोर्ड इंग्लिश डिक्शनेरी में कहा गया है कि झूठ वह मिथ्या बयान है जो किसी को धोखा देने के लिये कहा जाता है । मिथ्या असत्य बात को कहते है । झूठ का मतलब है जानबूझकर कर धोखाधड़ी के लिये कही गई असत्य बात । अर्थात, आप जानते है कि जो कह रहे हैं, वह असत्य है, फिर भी सामने वालों को बेवक़ूफ़ बनाने के लिये कहते जा रहे हैं ।"

स्तंभ में सवाल उठाया गया है कि "कोई ट्रंप के अंदर की बात को कितना जान सकता है ? राष्ट्रपति को अपनी पीठ थपथपाने से कौन रोक सकता है ? कुछ लोग उन्हें आत्म-मुग्धता का शिकार भी कहते हैं ।" जॉन्सन कहते हैं कि "कोई भी दूर से ट्रंप की मनोदशा के बारे में तो कुछ नहीं कह सकता है । लेकिन ऐसा लगता है कि पत्रकार झूठ शब्द का इस्तेमाल बहुत धड़ल्ले से, मिथ्या और झूठ के बीच के सूक्ष्म अंतर को बिना समझे कर रहे हैं ।"

इसी में आगे स्तंभ में  तथ्यपरक क्रिया पदों के प्रयोग का प्रसंग उठाते हुए कहा गया है कि इनका प्रयोग तभी किया जा सकता है जब जिस सूचना के बारे में बात की जा रही है, वह सत्य हो । अगर कोरा मज़ाक़ न करना हो तो कोई यह नहीं कह सकता है कि उसने यह मान लिया है कि चाँद सोरे से बना हुआ है ; या उसे पता चला है कि संयुक्त राष्ट्र पीने के पानी में ज़हर मिलाता है ।

झूठ के बारे में वे लिखते हैं कि झूठ एक ख़ास प्रकार की ग़ैर-तथ्यात्मक क्रिया है । इसमें दी जाने वाली सूचना सिर्फ ग़लत नहीं होती है, बल्कि उसके साथ यह जानकारी भी निहित होती है कि वह बात कहने वाला आदमी जानता है कि वह असत्य बोल रहा है । आदमी अपने झूठे विश्वास के कारण भी झूठ बोलता चला जाता है ।

स्तंभ में लिखा गया है कि सरासर झूठ बोलने वाला आदमी अक्सर अपनी झूठ के पीछे कुछ सुराग़ छोड़ जाता है । मसलन, ट्रंप के सुरक्षा सलाहकार माइकल फ़्लिन ने  कई ईमेल छोड़ दिये थे जिनसे प्रमाणित हो गया कि उसने रूस के राजदूत से अमेरिकी पाबंदियों के सिलसिले में चर्चा की थी, जबकि उसने कहा था कि उसने ऐसी कोई बात नहीं की । इसकी तुलना में, सचाई के बिल्कुल विपरीत, ट्रंप का यह कहना कि ओबामा के काल में हत्या की दर दुगुना हो गई थी, उसका एक कोरा भ्रम हो सकता है, जो कुछ ख़ास प्रकार की वेब साइट्स पर उसके अतिरिक्त भरोसे के कारण पैदा हुआ हो ।

स्तंभ में लिखा गया है कि यह भी मुमकिन है कि ट्रंप को किसी भी बात के झूठ-सच की कोई परवाह नहीं है । वे अनर्गल ढंग से जो मन में आता है बोलते जाते हैं ।


स्तंभ की राय में राष्ट्रपति की ऐसी बातों को झूठ के बजाय कोरी बकवास (bullshit) कहना चाहिए । "ट्रंप की झूठी बात को रंगे हाथ पकड़ लेने पर प्रेस उसके बारे में बिलकुल सही शब्द का प्रयोग करें तो वह ज्यादा प्रभावशाली होगा । संवाददाता धीरज रख सकते हैं और बिल्कुल सटीक रह सकते हैं । राष्ट्रपति का कार्यकाल अभी सयाना नहीं हुआ है ।"


इकोनोमिस्ट के स्तंभ की इस पूरी चर्चा को कुछ हद तक हमारे प्रधानमंत्री मोदी जी पर भी लागू करके देखा जा सकता है । इसमें एक बड़ा फर्क यह जरूर है कि मोदी जी का कार्यकाल अब अपनी आधी उम्र पार कर अपने उत्तरार्द्ध में प्रवेश कर चुका है और इस दौरान उन्होंने पूरी बेपरवाही के साथ ग़लत तथ्यों और मिथ्या अवधारणाओं के आधार पर नोटबंदी की तरह का एक ऐसा जघन्य काम कर दिया है जो देश की पूरी अर्थ-व्यवस्था पर प्राणघाती हमले से कम नहीं है । इसमें वे इसलिये एक झूठे व्यक्ति भी कहे जा सकते हैं क्योंकि इस नोटबंदी से देश के ग़रीबों और किसानों की रोजीरोटी पर पड़े प्रतिकूल प्रभाव के सारे तथ्यों को जान कर भी वे लगातार इसे काला धन वालों पर किया गया हमला बताते जा रहे हैं, जबकि काला धन पर इसके प्रभाव के आज तक कोई तथ्य नहीं मिले हैं ।

यहाँ हम स्तंभ की उपरोक्त टिप्पणी को मित्रों के साथ साझा कर रहे है :

http://www.economist.com/news/books-and-arts/21717019-press-should-call-out-politicians-when-they-lie-lying-isnt-same-talking?frsc=dg%7Ce

सोमवार, 20 फ़रवरी 2017

गदहापन के बारे में



-अरुण माहेश्वरी

अखिलेश यादव ने गुजरात के गदहों वाले अमिताभ बच्चन के विज्ञापन का उल्लेख क्या कर दिया, चारों ओर भारी तूफ़ान खड़ा हो गया है । शुचिता-प्रेमी सारे लोग दुखी हैं । इसे प्रधानमंत्री मोदी के गाँव-गाँव में श्मशान बनवाने के उद्घोष का प्रत्युत्तर मान कर घटियापन की प्रतिद्वंद्विता का उदाहरण बता रहे है

हिंदी में कहावत है - वज्र मूर्ख । गांधारी ने अपने पुत्र दुर्योधन से कहा था कि मेरे सामने पूरी तरह से निर्वस्त्र होकर आओ तो तुम्हारे पूरे शरीर को वज्र बना दूँगी । अर्थात आदमी जब अपने को अंतर के ज्ञान के लेश मात्र से भी मुक्त कर लेता है, उसका सब कुछ बाहर ही बाहर होता है, तभी वह वज्र बन सकता है ।

मनोविश्लेषक दार्शनिक स्लावोय जिजेक के प्रसिद्ध गुरु लाकान की फ़्रेंच भाषा की पत्रिका का नाम था - L'Âne -अर्थात गदहा । आदमी के अंदर जब कुछ नहीं होता है, सब कुछ बाहर ही बाहर होता है, इसी सफ़ाचट मनोदशा पर चर्चा करते हुए जिजेक ने इसका उल्लेख किया है । जिजेक के अनुसार चरम निर्बुद्धिपन की इसी दशा से आदमी सिद्धि पाता है ।
(In this full acceptance of the externalization in an imbecilic medium, in this radical refusal of any initiated secrecy, this is how I, at least, understand the Lacanian ethics of finding a proper worth. - "Connections of the Freudian Field to Philosophy and Popular Culture"  - Slavoj Zizek)

इसलिये गदहेपन से जुड़ी आदमी की वज्रता की इस सिद्धि पर इतना बवाल क्यों है ? कोरी लाठी भाँजने की महा- सिद्धि वज्रता  की ही सिद्धि होती है, जिसे मनोविश्लेषक गदहेपन की विशेषता बताते हैं ।

शुक्रवार, 17 फ़रवरी 2017

मोदी-शाह-आदित्यनाथ सबको इतना डराते क्यों है ?

मोदी-शाह-आदित्यनाथ सबको इतना डराते क्यों है ?
-अरुण माहेश्वरी

मोदी-शाह और उनके तमाम लोगों के चुनावी भाषणों पर ग़ौर कीजिए, उनका अधिक से अधिक ज़ोर लोगों में अपनी वर्तमान स्थिति के प्रति एक भयंकर डर पैदा करने का होता है । देश के प्रधानमंत्री होने के बावजूद मोदी जी  जहाँ जाते है, उस जगह के हालात का ऐसा भयानक चित्र पेश करते हैं जैसे आदमी सिर्फ और सिर्फ चोरों, उचक्कों, गुंडों, बदमाशों, बलात्कारियों और हत्यारों से घिरा हुआ है । हिंदुओं में ये ऐसा ख़ौफ़ पैदा करेंगे कि बस अब वे अपने घरों में चंद दिनों के ही मेहमान हैं । वे दिन दूर नहीं जब सबक़ों पलायन करना होगा । पलायन करके लोग कहाँ जायेंगे, इस पर ये सब चुप्पी साधे रहते हैं । नवयुवतियों के लिये उनका एक ही संदेश रहता है, या तो बलात्कार के लिये तैयार रहो या किसी विधर्मी के झाँसे के लिये ।

ऊपर से ये इसमें नोटबंदी का डर, आयकर वालों का डर, पुलिस और सेना का डर जोड़ कर एक पूरी तरह से संत्रस्त राष्ट्र का ऐसा मंज़र तैयार कर रहे हैं जिसमें चारों ओर सिर्फ भयभीत आदमी के जमावड़े दिखाई दें और मोदी नामक मसीहा इन डरे हुए लोगों के हुजूम को चीख़-चीख़ कर सांत्वना दें । सेना प्रमुख भी कश्मीर में किसी को भी राष्ट्र-द्रोही घोषित करके उसे दंडित करने का अधिकार को डरावने ढंग से अपने हाथ में लेने की बात कह रहे हैं ।

कोई राजनीति नहीं, कोई विचारधारा नहीं । डर के आधार पर लोगों को इकट्ठा करो और उन्हें अपनी रक्षा के लिये किसी माफ़िया सरदार की शरण में डाल दो !

मोदी जी कहते है, देखों, गुजरात को, 2002 के नायकों ने वहाँ कैसी शांति बना रखी है ! देखो मध्य प्रदेश को व्यापमं के हत्यारे भ्रष्टाचारियों ने आईएसआई वालों का जाल बिछवा कर कैसा महान शासन क़ायम किया है । देखो राजस्थान को, राजा-रजवाड़ों की परंपरा को ज़िंदा करके वहाँ कैसा जनतंत्र क़ायम किया गया है ! महाराष्ट्र में तो अभिव्यक्ति की आजादी का ऐसा राज चल रहा है जिसमें मुख्यमंत्री और शिवसेना प्रमुख खुल कर एक दूसरे की धन-संपत्ति के बारे में सवाल उठा रहे है ! इनकी ये सभी नोटबंदी की तरह की नायाब कीर्तियां ! हमारी शरण में आए, चुटकियों से भ्रष्टाचार, काला धन और माफ़ियाओं से मुक्ति दिला देंगे !

सचमुच, क्या मायने है विचारधारा-विहीन शुद्ध डर की इस राजनीति का ? जब राजनीति के पास कोई भविष्य दृष्टि नहीं होती, कोई आदर्श या बड़ा लक्ष्य नहीं होता तो सिवा सत्ता और प्रशासन के राजनीति के पास शेष क्या रह जाता है ? और ऐसे में जिसे राजनीति का रोमांच कहते हैं, लोगों को अंदर तक प्रभावित करने वाला तत्व, उसे पैदा करने का इनके पास एक ही तरीक़ा बचता है - लोगों को डराओ, उन्हें आतंकित करो ताकि आदर्शों की धुन में खोने के बजाय मारे डर के लोग अपना होश खो बैठे । एक नागरिक को प्रशासन के इशारों पर चलने वाले आत्मशून्य मनुष्य रूपी जीवों में तब्दील करने वाली अराजनीति की राजनीति । मानो शारीरिक तौर पर जीवित रहने के अलावा आदमी के जीने का दूसरा कोई मकसद ही न होता हो !

कहना न होगा, जब आप मानवीय संवेदनाओं से शून्य होंगे, जब आपमें कमज़ोर आदमी के प्रति कोई सहानुभूति नहीं होगी तो आप आसानी से राज्य द्वारा दी जाने वाली किसी भी यंत्रणा या यातना के समर्थक बन जायेंगे । आप सहर्ष फासीवाद की कामना करने वाले भक्तों की फ़ौज में एक रंगरूट के तौर पर शामिल हो जायेंगे ।

वैसे भी राजसत्ता के प्रति वफ़ादारी में हमेशा सत्ता के दमनकारी कामों, युद्ध आदि में विध्वंस और सामूहिक हत्या की उसकी भूमिका के प्रति एक प्रकार की सहमति का तत्व निहित होता है । लेकिन एक संत्रस्त और संवेदनहीन आदमी में तो साजिशाना ढंग से की जाने वाली व्यक्ति हत्याओं के प्रति भी कोई चिंता-उत्कंठा शेष नहीं रहती है । राज्य के द्वारा दी जाने यातनाओं के जघन्य इतिहास में ऐसी दवाओं की खोज का जिक्र मिलता है जो आदमी की धड़कनों को बढ़ा कर उसे एक प्रकार की स्थाई बेचैनी में डाल देती है । ऊपर से भला-चंगा दिखने वाला आदमी अंदर से बुरी तरह घबड़ाया हुआ, डर से कांपता हुआ आदमी होता है ।

मोदी जी ने यूपी के चुनाव में एक भी मुसलमान को टिकट नहीं दिया । गुजरात में रहते वक़्त भी उनको यह कहते सुना गया था कि सरकार से आप अपने लिये सुविधाएं जरूर लें, लेकिन हमसे सटने की कोई कोशिश न करें । संघ का लव जेहाद आदि का सारा अभियान भी अंतर-धार्मिक संबंधों से लोगों को दूर रखने का ही अभियान है ।

सवाल उठता है कि ऐसा क्यों ? ऐसा सिर्फ इसलिये क्योंकि जिसके बारे में आप जितना ज्यादा जानेंगे, उतना ही कम आप उससे नफरत कर पायेंगे ; और जितना कम जानेंगे, उतना ज्यादा आप उसके दुख-दर्दों के प्रति उदासीन रह पायेंगे । साहित्य इसीलिये अपनी प्रकृति से प्रगतिशील होता है क्योंकि वह पाठक को दुनिया-ज़हां के लोगों के जीवन की कथाओं से परिचित कराके उसमें अन्यों के प्रति संवेदनशीलता पैदा करता है ।

इस पूरी चर्चा के संदर्भ में साहित्यकारों, बुद्धिजीवियों के खिलाफ मोदी जी के अभियान से शुरू करके, सोशल मीडिया पर ट्रौलर्स की फ़ौज को उतारने और हर जगह इनके द्वारा पैदा किये जाने वाले डर और आतंक के माहौल के अभियानों के पीछे की सचाई को आसानी से समझा जा सकता है । आज डराना ही इनकी राजनीति है, इनकी विचारधारा और इनका आदर्श है । ये किसी महान राष्ट्र के नहीं, सिर्फ डरे हुए, संत्रस्त और दब्बू राष्ट्र के ही निर्माता हो सकते हैं ।


सोमवार, 13 फ़रवरी 2017

वैलेंटाइन डे के अवसर पर सभी मित्रों को हार्दिक प्रेम के साथ रवीन्द्रनाथ की चंद उक्तियों का उपहार :

 -अरुण माहेश्वरी




आज प्रेम के अन्तरराष्ट्रीय महोत्सव ‘वैलेंटाइन डे’ के अवसर पर हम यहां हमारे कवि गुरू रवीन्द्रनाथ की प्रेम के बारे में चंद उक्तियों को दे रहे हैं। प्रेम क्या है, इसमें उपहारों का अर्थ क्या है, इसके अभाव में आदमी में सिवाय विद्वेष के कुछ नहीं रहता। देखिये रवीन्द्रनाथ के शब्दों में -

‘‘संबंध पूर्णता पाता है प्रेम द्वारा ही। प्रेम में भेद-भाव नहीं रहता और उस पूर्णता को पाकर मानव-आत्मा अपना चरम लक्ष्य पा लेती है; तब-तब वह अपनी सीमाओ को पार करके असीम को स्पर्श करने लगता है। प्रेम ही मनुष्य को यह ज्ञान देता है कि वह अपनी सीमाओं से बाहर भी है और यह कि वह विश्व की आत्मा का भाग है।’’

‘‘जिसे भी हम प्रेम करते हैं उसमें अपनी आत्मा का रूप देखते हैं। ...अपने से बाहर आत्मीयता की तलाश का यह पहला कदम होता है।...अहंभाव का झूठा अभिमान आत्मा के पूर्ण विकास में रुकावट डालता है।’’

‘‘जब मनुष्य की आत्मा अपने ‘अहं’ के पर्दे को उतार कर अपने प्रेमी प्रभु के सम्मुख आती है तो वह विधाता को नई-नई रचनाओं में लीन पाती है। उसका प्रेमी कलाकार है। अपनी काल में वह नए-नए रूपों में स्वयं प्रकट होता है, और हर रूप में उसका सौंदर्य बढ़ता जाता है। हमारी प्रेमी आत्मा इस नित्य नए रूप् को मुग्ध भाव से देखती रहती है।’’
(उपरोक्त सारी उद्धृतियां रवीन्द्रनाथ के लेख ‘आत्म बोध से हैं।)


‘‘जब फूल मनुष्य के हृदय को मोह लेता है तो उसका उपयोगितामय जीवन विलासी जीवन में बदल जाता है। वही फूल जो असीम कार्य-व्यग्रता की मूर्ति था, अब सौंदर्य और शांति की मूर्ति बनता है।’’

‘‘फूल भी हमारे महान प्रेमी का यही संदेश लेकर आता है।...फूल हमारे प्रभु का संदेश लेकर आता है और हमारे कानों में धीरे से कहता है, ‘मैं आ गया हूं। उसने भेजा है। मैं उस सौंदर्य-देवता का दूत हूं जिसकी आत्मा प्रेम से पूर्ण है। वह तुम्हें भूला नहीं है, जल्दी ही लेने आएगा। स्वर्ण-नगरी के ये मायाजाल तुम्हें देर तक अपने बंधनों में नहीं रख सकेंगे।

‘‘सचमुच वह सुुंदर होता है। यही तो हमारें प्रेम की निशानी है। तब हमारे सब संशय छिन्न-भिन्न हो जाते हैं। केवल उस मधुर स्मृति-चिन्ह का स्पर्श हमें दिव्य प्रेम से विभोर कर देता है। हमें साफ अनुभव होने लगता है कि इस स्वर्ण-नगरी में हमारे लिए कोई आकर्षण नहीं, हमारा घर इससे दूर, बहुत दूर है।’’

‘‘यह आनंद - जिसका दूसरा नाम प्रेम भी है - स्वभाव से ही द्वित्वमय है। प्रत्येक कलाकार द्वित्वमय होता है। गायक गीत गाते हुए श्रोता भी होता है। श्रोताओं में भी उसका यह अंश विस्तीर्ण होता है। प्रेमी अपनी प्रिय वस्तु में अपनी ही छाया देखता है।’’

‘‘प्रेम का अभाव भी एक मात्रा में विद्वेष का ही एक रूप है, क्योंकि प्रेम चेतना का पूर्ण रूप है। प्रत्येक वस्तु का, जो भी अस्तित्व रखती है, प्रयोजन प्रेम में ही पूरा होता है। अत:, प्रेम केवल एक भावना नहीं है, वह सत्य है ; यह वह आनंद है जो प्रत्येक वस्तु के निर्माण का मूल स्रोत है।’’

‘‘प्रेम में लाभ-हानि एकसम हो जाते हैं। इसके मूल्यांकन में आय और व्यय के अंक एक ही स्तंभ में लिखे जाते हैं। उपहारों की गणना लाभ के साथ होती है। सृष्टि के इस आश्चर्यजनक उत्सव में, आत्मदान के इस ईश्वरीय महायज्ञ में, प्रेमी को निरंतर आत्माहुति देनी पड़ती है। इस आत्मदान से ही वह प्रेम पाता है। प्रेम ही ऐसा यज्ञ है जिसने आदान और प्रदान समवाई भाव से संबद्ध हैं।’’

(उपरोक्त उद्धृतियां रवीन्द्रनाथ के लेख ‘प्रेम-साधना से प्रभु-प्राप्ति तक’ से हैं)





शुक्रवार, 10 फ़रवरी 2017

ट्रौल की भूमिका में प्रधानमंत्री

-अरुण माहेश्वरी

अभी हफ्ता भर भी नहीं बीता हैं। हमने अपने ब्लाग ‘चतुर्दिक’ पर स्वाती चतुर्वेदी की किताब ’I am a Troll' की एक समीक्षा की थी जिसमें तमाम तथ्यों के आधार पर यह बताया गया है कि प्रधानमंत्री मोदी ‘ऑनलाइन गुंडे’ कहे जाने वाले ट्रौल्स के एक गिरोह का खुद बाकायदा नेतृत्व कर रहे हैं। उनका यह गिरोह सोशल मीडिया पर किसी प्रकार की बातें चलाया करता है, इसके ढेरों उदाहरण के साथ ही इसमें एक ट्रौल साधवी खोसला की आत्म-स्वीकृति भी शामिल है जिसमें वे बताती है कि वे सोनिया गांधी और उनके परिवार के बारे में किस प्रकार की झूठी कहानियों को गढ़ कर प्रचारित करती रही है।

वे बताती है कि नरेन्द्र मोदी के इशारों पर काम करने वाले अरविंद गुप्ता ने राजीव गांधी के खिलाफ हिंदू-विरोधी सोनिया गांधी की साजिशों, प्रियंका गांधी में तुनकमिजाजी की बीमारी, पति राबर्ट वाडरा से उनके अलग हो जाने और राहुल गांधी के नशीली दवाएं लेने और एक गैर-हिंदू औरत से उनकी शादी और उस रखैल से राहुल गांधी के बच्चों तक की झूठी कहानियां इंटरनेट पर चलवाई थी। राहुल गांधी का मजाक उड़ाते रहो, यह उनका हमेशा का एक लक्ष्य है।

कहना न होगा, अरविंद गुप्ता भाजपा के कथित आईटी सेल का प्रमुख व्यक्ति है जो सीधे प्रधानमंत्री के संपर्क में रहता है।

कल उत्तर प्रदेश में मोदी जी राहुल गांधी पर छींटाकशी करते हुए कह रहे थे कि 'ये ऐसे नेता है, जिनके बारे में गूगल पर आपको सबसे ज्यादा चुटकुले मिल जायेंगे !'

प्रधानमंत्री अपनी सभा में लोगों से यह बताना भूल गये कि राहुल गांधी और सोनिया गांधी आदि के बारे में सारी गंदी बातें जिन कारखानों में तैयार होती है, उनके निदेशक और कोई नहीं, किसी न किसी प्रकार से वे खुद हैं।

आज के ‘टेलिग्राफ’ में ट्रौल की भूमिका में प्रधानमंत्री के बारे में जो रिपोर्ट प्रकाशित हुई है, उसे हम यहां साझा कर रहे हैं। और इसके साथ ही ’I am a Troll” किताब की हमने जो समीक्षा लिखी थी, ब्लाग के उस लिंक को भी यहां दे रहे हैं।

  https://chaturdik.blogspot.in/2017/02/blog-post_8.html

  https://www.telegraphindia.com/1170211/jsp/nation/story_135240.jsp#.WJ6Zf1V97IU

बुधवार, 8 फ़रवरी 2017

सोशल मीडिया की गुंडा वाहिनी


-अरुण माहेश्वरी

भारतीय राजनीति के हर युग की तरह इंटरनेट के इस युग में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ का एक सबसे मौलिक अवदान है - सोशल मीडिया की गुंडा वाहिनी।

आरएसएस अपनी नब्बे साल से ज्यादा की उम्र में भारतीय राजनीति में शुरू से इस प्रकार के मौलिक योगदान करता रहा है। इसका जन्म जिस हिंदुत्व की विचारधारा से हुआ, उसके पहले प्रवर्त्तक वीर सावरकर का योगदान था सशस्त्र क्रांतिकारी से अंग्रेजों की गुलामी में प्रत्यावर्तन का योगदान। 1913 में ही उन्होंने कालापानी से अंग्रेज सरकार के नाम माफीनामा लिख कर सदा-सदा के लिये उनकी खिदमत करने का प्रण लिया था। 14 नवंबर 1913 की तारीख में लिखा हुआ उनका यह पत्र राष्ट्रीय शर्म के एक ज्वलंत दस्तावेज के तौर पर आज भी भारतीय अभिलेखागार में मौजूद है।

फिर ऐसा ही एक बड़ा योगदान किया था राष्ट्रीय स्वयंसेवक के स्थापनाकर्ता बलीराम केशव हेडगवार ने छल की राजनीति का। वे 1920 में गांधीजी के असहयोग आंदोलन में एक बार सिर्फ दिखावे के लिये जेल गये ताकि छल से वे समाज में अपने लिये विश्वसनियता हासिल कर सके। उनके संघी जीवनीकार भिशीकर ने अपनी पुस्तक ‘केशव : संघ निर्माता’ में (पृष्ठ-31) और बाद में आरएसएस के प्रथम महासचिव जी एम हुद्दर ने विशेष तौर पर लिखा है कि ‘‘हेडगेवार 1920 में जेल गए, यह सच है, लेकिन इससे यह नहीं पता चलता कि उन्हें उस जन-आंदोलन में विश्वास था। वह तो यह दिखाने के लिए था कि जिस तरह जन-आंदोलन में विश्वास करने वाले देशभक्त जेल जा सकते हैं, उसी तरह वे भी जेल से नहीं डरते।’’(इलस्ट्रेटेड वीकली आफ इंडिया, 7 अक्तूबर, 1979)

इसके बाद उसी दौर में इन्होंने मुखबिरी का उदाहरण पेश किया। अटल बिहारी वाजपेयी ने 1 सितंबर 1942 के दिन, जब पूरा देश भारत छोड़ो आंदोलन में उत्ताल था,  ग्वालियर में सेकेंड क्लास मजीस्ट्रेट के सामने धारा 164 के तहत आंदोलनकारी ककुआ उर्फ लीलाधर और महुआ के खिलाफ मुखबिरी का बयान दिया था।

फिर आजादी के ठीक बाद इनका सबसे बड़ा योगदान गांधीजी की हत्या की साजिश के रूप में रहा है। उसकी वजह से आरएसएस पर सरकार ने प्रतिबंध लगाया और उसके सरसंघचालक गोलवलकर को जेल में बंद कर दिया। इस हत्याकांड में सावरकर को तो अभियुक्त भी बनाया गया था, लेकिन निहायत तकनीकी कारणों से वे बच गये। आरएसएस भी अपने पर से प्रतिबंध उठवाने में सफल हो गया।

सन् ‘47 के बाद, 1951 में जनसंघ नाम से अपना अलग से राजनीतिक दल बनाने के बाद भी लगभग 16 सालों तक यह समाज में सिर्फ तमाम प्रकार की पोंगापंथी बातों के प्रचार-प्रसार में जरूर लगा रहा, लेकिन कोई राजनीतिक शक्ति नहीं बन पाया। सन् ‘67 में कांग्रेस के शासन से व्यापक मोहभंग की पृष्ठभूमि में जब कई राज्यों में गैर-कांग्रेसी सरकारों का गठन हुआ तब उत्तर प्रदेश और बिहार की संविद सरकारों में जनसंघ भी शामिल हो गया। वह जयप्रकाश के बिहार आंदोलन के साथ भी रहा, लेकिन जब 1975 में इंदिरा गांधी ने आंतरिक आपातकाल लगाया तो जेलों में आरएसएस के लोगों ने थोक के भाव माफीनामें लिखे थे। समाजवादी नेता बाबा आधव और मधुलिमये ने इसके बारे में लिखा है कि तत्कालीन सरसंघचालक बाबा साहब देवरस ने इंदिरा गांधी से काफी पत्राचार किये थे और संघ के लोग जेलों में भी ‘‘संजय गांधी के कम्युनिस्ट-विरोधी, व्यक्तिवादी और अधिनायकवादी विचारों का स्वागत करते थे।’’ अर्थात तब भी राजभक्ति की पुरानी परंपरा बदस्तूर जारी थी।

सन् ‘77 के बाद जनता पार्टी की सरकार में शिरकत करके उसे गिराने में भी इनकी बड़ी भूमिका रही। और नब्बे के दशक में इन्होंने उत्तर प्रदेश में अपनी पार्टी की सरकार का लाभ उठा कर जिस प्रकार सैकड़ों साल पुरानी बाबरी मस्जिद को ढहा दिया, वहां से इनके विध्वंसक कारनामों का एक नया इतिहास शुरू हुआ।
इसके बाद सन् 2002 में गुजरात का जनसंहार इनकी अब तक की कीर्तियों के शीर्ष पर माना जाता है, जिसके नायक नरेन्द्र मोदी जी आज देश के प्रधानमंत्री बने हुए हैं।

भारतीय राजनीति में विदेशी शासकों की गुलामी, राष्ट्रीय मुक्ति आंदोलन के साथ छल, धोखा, हत्या, और जनसंहार के इनके इन तमाम मौलिक अवदानों के साथ तानपुरे के सहायक नाद की तरह इनके सारे कार्यों की पृष्ठभूमि में मुसलमान-द्वेष का स्वर तो बराबर जारी रहता है। ये घोषित तौर पर भारत की हर मुसलमान बस्ती को लघु पाकिस्तान बताते रहे हैं और इन्हें उजाड़ना अपना एक पावन कत्र्तव्य !

इस प्रकार, नकारात्मकता और पश्चगामिता के अपने अब तक के इस लंबे इतिहास में, सन् 2014 के लोकसभा चुनाव में भारतीय राजनीति में इनका एक और मौलिक अवदान रहा - सोशल मीडिया पर एक इंटरनेट गुंडा वाहिनी के गठन का अवदान, जिसने पूरे सोशल मीडिया को गंदी से गंदी गालियों और धमकियों के एक सड़े हुए क्षेत्र का रूप देने की भरसक कोशिश की है। आरएसएस की गोपनीय अंधेरी प्रयोगशाला में संवाद के इस उदीयमान आभासी क्षेत्र के लिये किस प्रकार के विषाणुओं को तैयार किया जाता है, इसका एक जीवंत ब्यौरा हमें मिलता है - स्वाती चतुर्वेदी की सद्य प्रकाशित किताब ‘I am a Troll’ में।



स्वाती चतुर्वेदी एक खोजी पत्रकार है जो अभिव्यक्ति की आजादी को ही अपनी रोजी-रोटी बताती है। अब तक उनके खिलाफ सरकारी गोपनीयता कानून के तहत भारत सरकार की ओर से कई मुकदमें दायर हो चुके हैं। स्वाती ने अपनी किताब में सोशल मीडिया के ट्रौल्स को ऑनलाइन गुंडे बताया है, जो भड़काऊ बातों अथवा तस्वीरों के जरिये लोगों से पंगा लिया करते हैं, गाली-गलौज करके सामने वाले के मिजाज को खराब करते हैं। खुद स्वाती आरएसएस और भारतीय जनता पार्टी के ऐसे गुंडों की शिकार बनती रही है, जो स्वाती के बारे में न जाने कितने प्रकार कामुक कहानियां बना-बना कर, गंदी से गंदी बातों की झड़ी लगाते रहे हैं। अपने अलावा टीवी के एंकर बरखा दत्त और राजदीप सरदेसाई की तरह के लोगों के खिलाफ इनके द्वारा चलाये गये अभियानों का बयान करते हुए स्वाती ने बताया है कि कैसे इस प्रकार के काम में बौलीवुड के गायक अभिजीत की तरह के लोग भी शामिल होते हैं।


स्वाती ने अभिजीत के गंदे और धमकी भरे ट्विट सहित ढेर सारे अन्य ट्विट को अपनी किताब में संकलित किया है। इसमें एक महत्वपूर्ण कहानी आरएसएस की इंटरनेट शाखाओं के बारे में है। और उसमें सबसे ज्यादा उल्लेखनीय तथ्य यह है कि खुद हमारे प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी इस पूरी गुंडा वाहिनी के सरगना की तरह काम करते हैं। भाजपा के इस आईटी सेल का प्रमुख है -अमेरिका से आया हुआ अरविंद गुप्ता, जो सीधे नरेन्द्र मोदी के संपर्क में रहता है। 2014 के चुनाव के वक्त वह हर रोज रात के समय नरेन्द्र मोदी से बात करके यह तय करता था कि कल किसके खिलाफ घिनौना अभियान चलाना है और दूसरे दिन ट्विटर, फेसबुक और व्हाट्सअप पर लगी हुई सैकड़ों लोगों की अपनी सेना को वह पूरी कहानी बना कर उस पर लग जाने के लिये दे देता। इन संवादों में वे अपने शिकार के खिलाफ गंदी से गंदी बातों, गालियों आदि का प्रयोग करते थे और खास तौर पर यदि शिकार कोई स्त्री हो तो इनका रूप और भी वीभत्स हो जाता था। फोटो शॉप पर उस स्त्री की गंदी से गंदी तस्वीर तैयार करके किस प्रकार पोस्ट की जाती थी इसकी पूरी कहानी तमाम तथ्यों के साथ स्वाती ने अपनी इस किताब में दर्ज की है।

बीजेपी का यह सेल उसके 11 अशोक रोड स्थित सदर दफ्तर से मुख्य रूप से काम करता था और फिर सदर दफ्तर से भेजे गये संदेशों को देश भर में उनके लोग दिन भर दोहराते रहते थे। खुद नरेन्द्र मोदी इन सभी ट्विटर हैंडल को फॉलो करते है, जिसका इन ट्विटर अकाउंटों पर बाकायदा उल्लेख भी होता है।

इस किताब में एक कहानी है साधवी खोसला नामक एक स्त्री की, जिसने अपने को एक भाजपा का ट्रौल बताया है और साथ ही यह भी बताया है कि किस प्रकार अरविंद गुप्त और उसके लोगों ने एक देशभक्त कांग्रेसी परिवार से आई इस शिक्षित महिला की भावनाओं का गलत ढंग से उपयोग करके इंटरनेट पर उससे वे सारे गंदे काम करवायें जिनके लिये आज उसे बेहद अफसोस हो रहा है। उसने यह बताया है कि किस प्रकार अरविंद गुप्त ने उनके जरिये बरखा दत्त के अनेक मुस्लिम पतियों की कहानी बनवाई, चिदंबरम को बदनाम करने का अभियान चलवाया। नरेन्द्र मोदी के इशारों पर काम करने वाले अरविंद गुप्ता ने राजीव गांधी के खिलाफ हिंदू-विरोधी सोनिया गांधी की साजिशों, प्रियंका गांधी में तुनकमिजाजी की बीमारी, पति राबर्ट वाडरा से उनके अलग हो जाने और राहुल गांधी के नशीली दवाएं लेने और एक गैर-हिंदू औरत से उनकी शादी और उस रखैल से राहुल गांधी के बच्चों तक की झूठी कहानियां इंटरनेट पर चलवाई थी। राहुल गांधी का मजाक उड़ाते रहो, यह उनका हमेशा का एक लक्ष्य है।


साधवी खोसला को बाद में तब होश आया, जब उसे यह लगा कि स्मृति इरानी की तरह की नेता और अरविंद गुप्ता भी उसके साथ गुलामों की तरह का सलूक कर रहे हैं। खोसला ने आरएसएस के इस गुह्य संसार में उसके नेता राम माधव की भूमिका का भी उल्लेख किया है। 2014 के बाद भी जब उसने पाया कि इस कथित आईटी सेल का काम सिर्फ और सिर्फ अफवाहें फैलाना और सामाजिक सौहार्द्र को नष्ट करना है, तब उसके कान खड़े होने लगे। खास तौर पर जब अरविंद गुप्ता ने उनसे फिल्म अभिनेता शाहरुख खान के खिलाफ जहर उगलने के लिये कहा तो खोसला को लगने लगा कि वह कौन से गंदे संसार में शामिल हो गई है !

इस किताब की सबसे बड़ी खूबी है कि इसमें ऐसे ऑनलाइन गुंडों को तैयार करने की आरएसएस की सारी गतिविधियों का खुलासा किया गया है। और साथ ही यह बताया गया है कि किस प्रकार खुद प्रधानमंत्री ऐसे गुंडों को अपने निवास स्थान पर बुला कर उन्हें दावत देते हैं, उनके कामों के लिये उनकी हौसला-अफजाई करते हैं।

इस किताब के पूरे बयान को पढ़ कर अनायास ही राणा अयूब की किताब ‘गुजरात फाइल्स’ की याद ताजा हो जाती है, जिसमें गुजरात में मोदी-शाह के गुजरात शासन के पूरे तंत्र के खुंखार चेहरे की एक पहचान मिलती है। आज प्रधानमंत्री के सामने यह सवाल उठाने की जरूरत है कि वे क्यों ऐसे अनेक लोगों के ट्विवटर अकाउंट फ़ॉलो करते हैं जिनमें खुले आम दूसरों के लिये माँ-बहन की गालियों का प्रयोग किया जाता है, स्त्रियों को बलात्कार की और जान से मार देने की धमकियाँ दी जाती है ? यह सवाल इसलिये, क्योंकि उन ट्विटर अकाउंटों में बाक़ायदा यह लिखा हुआ है कि उन्हें प्रधानमंत्री का आशीर्वाद मिला हुआ है और प्रधानमंत्री उन्हें फ़ॉलो करते हैं । कुछ ने तो बाक़ायदा प्रधानमंत्री से हाथ मिलाते हुए अपनी तस्वीरें भी लगा रखी हैं ।

स्वाति चतुर्वेदी की किताब में गीतिका नामके एक ट्विटर का जिक्र है । इसके 80000 फ़ॉलोवर है जिनमें हमारे प्रधानमंत्री जी भी शामिल है । गीतिका ने 9 जुलाई 2016 को एक ट्विट किया जिसमें कश्मीर के बुरहान वानी के जनाज़े की तस्वीर के साथ यह लिखा गया था कि जनाज़े में शामिल लोगों पर बम मार कर इसमें शामिल सभी बीस हज़ार लोगों को स्थायी आजादी दे दी जानी चाहिए थी । एबीपी के न्यूज़ एडिटर अभिसार शर्मा ने सवाल किया कि क्या देश के एक संवेदनशील राज्य में जनसंहार की बात करने वाले ट्विट हैंडल को प्रधानमंत्री को फ़ॉलो करना चाहिए ?क्या प्रधानमंत्री से नहीं पूछा जाना चाहिए कि क्यों वे ऐसे लोगों के साथ अपने को जोड़े हुए हैं ?


इस किताब से फिर एक बार साफ होता है कि भारत में आरएसएस नामक ‘हिदुत्व’ के प्रचार में लगा एक ऐसा गोपनीय संगठन है जिसके पास समाज को देने के लिये कोई स्वस्थ मूल्य नहीं है। यह आज भी अपने पुराने छल, छद्म, धोखाधड़ी, साजिश, हत्या और सांप्रदायिक नफरत के कामों में लगा हुआ है। नई तकनीक का प्रयोग करके इस काम को इसने नई गति दी है।

सोमवार, 6 फ़रवरी 2017

अमेरिकी वित्तीय पूंजीपतियों की सलाह पर मोदी जी ने नोटबंदी का अपराध किया था ;

अब मोदी बतायें उनके साथ क्या सलूक किया जाए !
-अरुण माहेश्वरी



भारत में नोटबंदी के बारे में जो तमाम तथ्य सामने आ रहे हैं, उनसे पता चलता है कि मोदी जी को यह घातक कदम उठाने की सलाह सीधे अमेरिका से दी गई थी । इन तथ्यों के बाद यह प्रमाणित करने की ज़रूरत नहीं है कि मोदी जी ने भारत को दुनिया की वित्तीय पूँजी के आगे के रास्ते की खोज के लिये बली का बकरा बनाया है । ग्लोबल रिसर्च के 3 जनवरी के अंक में नौरबर्ट हेरिंग का का एक लंबा शोधपूर्ण लेख छपा है - A Well-Kept Open Secret: Washington Is Behind India’s Brutal Demonetization Project ।

इस लेख में कहा गया है कि यद्यपि इस तथ्य पर पड़ा पर्दा काफी झीना है, फिर भी आश्चर्यजनक रूप से इस सच की अभी कोई चर्चा नहीं कर रहा है। इसमें बताया गया है कि किस प्रकार USAID ने नवंबर महीने में भारत के लोगों पर किये गये इस हमले की तकरीबन एक महीना पहले ही Catalyst नामक एक संस्था की स्थापना की थी जिसे कहा गया था ‘‘Catalyst : Inclusive cashless Payment Partnership” । इसका उद्देश्य बताया गया था - भारत में कैशलेस भुगतान की दिशा में एक लंबी छलांग लगाना (a quantum leap in cashless payment in India) के लिये। 14 अक्तूबर 2016 के एक संवाददाता सम्मेलन में इसे USAID और भारत के वित्त मंत्रालय की साझेदारी का एक अगला चरण बताया गया था ताकि सार्विक वित्तीय भागीदारी को सुगम बनाया जा सके। हेरिंग के लेख में कहा गया है कि USAID के वेबसाइट से रहस्यमय ढंग से अभी इस प्रेस बयान को हटा लिया गया है। 8 नवंबर के मोदी के नोटबंदी के फैसले से पता चलता है कि वित्तमंत्रालय और USAID के इस साझा उपक्रम Catalyst का असली मतलब क्या था।

इस विषय की पूरी कहानी को यदि जानना हो तो कोई भी इस लेख के लिंक में जाकर इस पढ़ सकता है, जिसे हम यहां दे रहे हैं।

http://www.globalresearch.ca/a-well-kept-open-secret-washington-is-behind-indias-brutal-demonetization-project/5566167

भारत में नोटबंदी पूँजीपतियों द्वारा देश के प्रत्येक नागरिक की जमा संपत्ति पर डाका डालने का एक बड़ा प्रयोग रहा है । अब यह बात आईने की तरह साफ है।

विश्व पूँजीवाद का संकट 2008 में चरम रूप में सामने आया था जब मालों के उत्पादन की पूंजीवादी प्रक्रिया के साथ ही वित्तीय उत्पादों से मुनाफ़ा बंटोरने की संभावनाएँ संकट में पड़ गई थी । यह वित्तीय पूँजी के बंद गली के अंतिम मुहाने तक पहुँच जाने की तरह का संकट था । इंटरनेट के नये युग में अमेरिकी शोधकर्ताओं ने पूँजीपतियों की एक नई पौध को जरूर जन्म दिया है, लेकिन इससे वहाँ की जमा वित्तीय पूँजी के संकट का उन्मोचन नहीं हुआ है ।

वित्तीय पूँजी किस प्रकार सारी दुनिया में सामाजिक ग़ैर-बराबरी का एक प्रमुख स्रोत है, इसे थामस पिकेटी के इस एक आकलन से ही समझा जा सकता है । उन्होंने बताया है कि आगामी बीस साल में दुनिया के पाँच सौ बड़े पूँजीपति अपनी विरासत के तौर पर जितनी संपत्ति अपने वारिसों को सौंपेंगे, वह भारत के 130 करोड़ लोगों के सकल घरेलू उत्पाद के बराबर होगी ।

ऐसे में, वित्तीय पूँजीवाद को पूँजीवादी उत्पादन प्रक्रिया से पैदा होने वाले अतिरिक्त मूल्य के आत्मसातीकरण से कभी भी पूरी तरह से नहीं समझा जा सकता है । अब इसकी नज़र सारी दुनिया के आम लोगों के पास जमा धन-संपत्ति को हड़प कर अपना विस्तार करने की ओर है । आज नाना प्रकार की आकर्षक निवेश योजनाओं के नाम पर लोगों से उनके जमा धन, घर में पड़े सोने और दूसरी सम्पत्तियों को बेच कर नगदी में बदल कर ज्यादा लाभ करने के प्रलोभनों से यही काम साधा जा रहा है ।

मोदी जी ने नोटबंदी के चंद दिनों बाद विदेश से लौट कर गोवा में आंसू ढुलकाते हुए एक सभा में भारत के लोगों से जब सिर्फ पचास दिनों की मोहलत मांगी थी, तब यह भी कहा था कि यदि पचास दिनों के बाद आपको मेरे इस कदम के पीछे कोई दुर्भावना दिखाई दें तो आप मेरे साथ जैसा मन में आए, वैसा सलूक कर सकते हैं। आज यह साफ हो रहा है कि मोदी जी ने यह कदम अमेरिका के पूंजीपतियों के कहने पर किया था। और ये वे लोग है, जिनके बारे में हमने शुरू में ही कहा कि जो दुनिया के तमाम देशों के आम लोगों के पास जमा धन-संपत्ति पर डाका डाल कर अपनी संपदा को बढ़ाने की फिराक में हैं।

अब मोदी जी से यह सवाल किया जाना चाहिए कि इन तमाम तथ्यों के सामने आने, दुनिया के लुटेरे पूंजीपतियों के साथ मिल कर भारत के आम लोगों की संपदा पर डाका डालने की योजना में उनके शामिल होने के इन तथ्यों के सामने आने के बाद उनके साथ क्या सलूक किया जाना चाहिए ? क्या उनके साथ वही सलूक नहीं होना चाहिए जो देश के सबसे बड़े दुश्मनों के साथ किया जा सकता है ?



रविवार, 5 फ़रवरी 2017

अमित शाह के रोमियो-विरोधी स्क्वायड

-अरुण माहेश्वरी

भाजपा के अध्यक्ष अमित शाह ने आज यूपी में हर जगह 'रोमियो-विरोधी' स्क्वायड तैयार करने की बात कही है ।

सब जानते हैं, रोमियो और जूलियट शेक्सपियर का प्रेम का एक दुखांत नाटक है जिसमें रोमियो ने अपनी प्रेमिका को मरा जान कर अपनी जान दे दी थी और जूलियट ने रोमियो को मरा देख कर अपने को मार लिया था ।

शेक्सपियर का यह नाटक उनके 'हैमलेट' से कम लोकप्रिय नहीं है । इसमें प्रेम के इतने सुंदर भाव आए हैं कि निहायत रुच्छ आदमी ही रोमियो के प्रति किसी प्रकार की नफरत का भाव जाहिर कर सकता है । इसका एक प्रसंग देखिये जहाँ शेक्सपियर लिखते हैं :

"JULIET appears in a window above
But soft! What light through yonder window breaks?
It is the east, and Juliet is the sun.
Arise, fair sun, and kill the envious moon,"

(जूलियट ऊपर एक खिड़की में आती है/ बिल्कुल सहज ! सामने की खिड़की से ये कैसी रोशनी आ रही है?
यह पूरब है और जूलिएट सूरज।
उठो, निष्पक्ष सूर्य, और ईर्ष्यालु चाँद को हटा दो)

रोमियो के लिये जूलियट पूरब से उगते सूरज की रोशनी है !

हमारे रवीन्द्रनाथ ने लिखा है - "संबंध पूर्णता पाता है प्रेम द्वारा ही । प्रेम में भेद-भाव नहीं रहता और उस पूर्णता को पाकर मानव आत्मा अपना चरम लक्ष्य पा लेती है ; तब वह अपनी सीमाओं को पार करके असीम को स्पर्श करने लगती है । प्रेम ही मनुष्य को यह ज्ञान देता है कि वह अपनी सीमाओं से बाहर भी है और यह कि वह विश्व की आत्मा का ही भाग है ।"

और, भाजपा के अध्यक्ष अमित शाह यूपी में हर जगह 'रोमियो-विरोधी' स्क्वायड तैयार करने की बात कह रहे है ! उनके ये स्क्वायड कैसे होंगे, हम समझ सकते हैं । ये वैलेंटाइन डे पर या अन्य दिनों भी बाग़ों-सड़कों पर प्रेमी युगलों को पीटने वाले बजरंग दल के गुंडों के सेल होंगे ।

गुरुवार, 2 फ़रवरी 2017

यूपी चुनाव मोदी जी पर एक जनमत-संग्रह भी होगा


-अरुण माहेश्वरी



वैसे तो उत्तर प्रदेश की राजनीति दूसरे राज्यों से ज्यादा भिन्न नहीं है। अन्य राज्यों की तरह ही जात-पात-धर्म-क्षेत्र के सारे विषय यहां भी मौजूद है। भ्रष्टाचार और विकास के विषय, व्यवस्था-विरोध के प्रश्न भी हैं। लेकिन इन सारी समानताओं के बावजूद एक बात में यूपी बिल्कुल अलग और निराला है, वह है इसकी आबादी की विशालता। भारत में कुल 42 करोड़ हिंदी भाषी लोगों में से 21 करोड़ लोगों का प्रदेश। अर्थात, भारत के वैविध्य में एकता के एक सबसे बड़े सूत्र की बागडोर इसी राज्य के हाथ में है। यही वजह है कि उत्तर प्रदेश की राजनीति की प्रादेशिकता के साथ ही इसके राष्ट्रीय आयामों से कभी इंकार नहीं किया जा सकता है। इसे भारत को प्रधानमंत्री प्रदान करने वाले राज्य के तौर पर माना भी जाता रहा है।

अभी यूपी में समाजवादी पार्टी की अखिलेश सरकार है। लेकिन मात्र तीन साल पहले 2014 के लोकसभा चुनाव में यहां की 80 लोकसभा सीटों में से 72 पर (इनमें अपना दल को मिली दोनों सीटें भी शामिल है) भाजपा की जीत हुई और उसी के बल पर उसे लोकसभा में बहुमत हासिल हुआ था। इस बार भी भाजपा का चुनाव प्रचार किसी स्थानीय नेता को सामने रख कर नहीं, अकेले मोदी जी को सामने रख कर किया जा रहा है। भाजपा राष्ट्रीय राजनीति में यूपी की महत्ता को जानती है और इसीलिये उसने बिल्कुल सही इन चुनावों को महज प्रदेश का चुनाव मानने की गलती नहीं की है। भाजपा के सारे पोस्टर मोदी-शाह की तस्वीरों से सजे हुए हैं। यूपी के जरिये वे अपनी केंद्र की सरकार के बारे में ही लोगों से राय मांग रहे हैं।

यूपी के चुनावों के बारे में अब तक के जो भी रिपोर्ट-सर्वेक्षण आए हैं, उनमें से एक ने भी, भूल से भी यूपी में भाजपा के पूर्ण बहुमत की बात नहीं कही है। आम तौर पर तो सभी कोनों से समाजवादी-कांग्रेस गठबंधन के काफी आगे होने की बात आ रही है, मायावती को डार्क हौर्स के रूप में याद किया जा रहा है। लेकिन ‘आजतक-नियल्शन’ के सर्वेक्षण में जरूर त्रिशंकु विधानसभा का अनुमान देते हुए उसमें भाजपा को पहले स्थान पर रखा गया है। सचमुच, ‘आजतक-नियल्शन’ वालों का यह सर्वेक्षण अगर न आया होता, तो लोगों को संदेह होने लगता कि क्या अब न्यूज चैनलों की खरीद-फरोख्त का सिलसिला खत्म हो गया है !

बहरहाल, तीन साल पहले लोकसभा की 80 में से 72 सीटें ले जाने वाली भाजपा की यूपी में अभी से जो दशा दिखाई दे रही है, उससे इतना तो बिना किसी दुविधा के कहा जा सकता है कि मोदी की चमक पूरी तरह से खत्म हो चुकी है। आशंका इस बात की भी व्यक्त की जा रही है कि वहां इस बार भाजपा सपा, बसपा और कांग्रेस के बाद संभवत: चौथे स्थान पर रहेगी।

अगर यूपी में ऐसा ही कुछ होता है तो यह कहने में भी कोई दुविधा नहीं रहेगी कि मोदी जी ने देश की सत्ता पर बने रहने का नैतिक अधिकार पूरी तरह से गंवा दिया है। यूपी चुनाव को उन्होंने जिस प्रकार अपने लिये एक प्रकार के जनमत-संग्रह का रूप दिया है, उसके परिणामों को स्वीकारना उनका नैतिक दायित्व होगा। भारत में चुनाव सुधारों की यह एक बहुत पुरानी मांग है कि मतदाताओं को अपने निर्वाचित प्रतिनिधि को वापस बुलाने का अधिकार होना चाहिए। यूपी के इन चुनावों को कुछ इसी प्रकार लिया जाना चाहिए। यह सिर्फ एक प्रदेश की जनता की नहीं, बल्कि देश भर के बहुसंख्यक लोगों की राय होगी।

हमारा मानना है कि यूपी के चुनाव परिणामों में भाजपा की पराजय के बाद मोदी जी को सत्ता से हटने के लिये मजबूर करके ही यूपी के मतदाताओं की राय का पूरा सम्मान होगा।