बुधवार, 28 सितंबर 2022

‘राजस्थान प्रकरण’, कांग्रेस, व्यक्ति और संगठन के प्रश्न

 

—अरुण माहेश्वरी


यह कांग्रेस का जगत है । सचमुच, भारत की राजनीति के परम ऐश्वर्य का जगत । राजनेताओें के अच्छे-बुरे, सारे लक्षणों की लीला-भूमि का राजनीतिक जगत । आलाकमान की आत्म रति और क्षत्रपों की स्वतंत्र मति-गति । सब साथ-साथ । राजनीति के दुखांत और प्रहसन, अर्थात् उदात्तता और क्षुद्रता, सबके साथ-साथ प्रदर्शन का एक खुला रंगमंच । राजा, वज़ीर, घोड़ों, हाथियों, ऊँटों और प्यादों की अपनी-अपनी चालों और गतियों के शह और मात के अनोखे खेल वाला राजनीति की अनंत संभावनाओं का शतरंज ।

दक्षिण के एक छोर पर भारत के जन-मन को आलोड़ित करती ‘भारत जोड़ो यात्रा’ और उत्तर के पश्चिमी किनारे पर राजनीति में महलों की काली साज़िशों वाला ‘राजस्थान’ । राजनीति के ‘जन’ और ‘तंत्र’ के दोनों ही रूप साथ-साथ । जिस गहलोत को कल तक पूरी कांग्रेस की बागडोर थमाया जाना तय था, वही अचानक एक अनुशासनहीन बाग़ी कहलाने लगे । और जो पायलट चंद रोज पहले ही घोषित बाग़ी की शत्रु की भूमिका में दिखाई दिया था, उसे ही कांग्रेस में अपनी धुरी की धुन में खोया हुआ आलाकमान अपनी ऑंख का तारा बन कर बिना नींव के महल का राजा बनाने पर आमादा है । परिणाम सामने हैं । एक ओर जहां भारत जोड़ो यात्रा जारी है और दूसरी ओर कांग्रेस के अध्यक्ष की तलाश भी जारी है । लेकिन इस समग्र जनतांत्रिक और राजनीतिक चर्वणा के बीच जो तय हो चुका है वह यह कि आलाकमान और क्षत्रप, कांग्रेस में दोनों अपनी-अपनी जगह बदस्तूर कायम है और रहेंगे । पार्टी का आलाकमान होने का अर्थ है उसका परम तत्त्व, उसका परमेश्वर और उसके क्षत्रप देश-काल की सीमाओं में उस परमेश्वर की स्वतंत्रता के नाना रूप । कांग्रेस हमेशा से कमोबेस इसी प्रकार केंद्रीयता और संघवाद, स्थानीयतावाद के बीच के संतुलन को साधती रही है । गांधी जी भी कभी अपने को कांग्रेस का अधिनायक कह चुके हैं । 

अभी के कांग्रेस के नए अध्यक्ष के चुनाव और राजस्थान संकट के संदर्भ में निश्चय के साथ सिर्फ यह कहा जा सकता है कि कांग्रेस को जल्द ही अपना एक नया अध्यक्ष मिलेगा, और अगर यात्रा इसी प्रकार पांच महीनों के लंबे और कठिन रास्ते को तय करती हुई अपने गंतव्य तक पहुंचती है तो उसी के बीच से कांग्रेस ही नहीं, देश के लिए भी निश्चित तौर आगे के नए रास्ते खुलते दिखाई देंगे । 

और, जहां तक राजस्थान का सवाल है, देखने की बात होगी कि कांग्रेस के पुनरोदय के वर्तमान साफ संकेतों, उसके अंदर यात्रा के जरिए नए कार्यकर्ता-नेताओं के निर्माण की संघर्षशील धारा के बीच भी पार्टी के अंदर का संघवाद (क्षत्रपवाद) और अभी के विधायकों आदि का व्यक्तिवाद, उनके तथाकथित जातिवादी और स्थानीय समूहों के समीकरण आगे किस रूप और किस हद तक अपने को बनाए रख पायेंगे । यह सबक सिर्फ कांग्रेस नहीं, सभी राष्ट्रीय जनतांत्रिक राजनीतिक पार्टियों के लिए काफी उपयोगी साबित होगा । 

कांग्रेस में आज ‘यात्रा’ और ‘क्षत्रपवाद‘ को लेकर जो चर्वणा चल रही है, वह हमें गांधीजी की उस बात की याद दिलाता जो 12 मार्च 1930 के दिन साबरमती आश्रम से डांडी मार्च के लिए कूच करने के पूर्व कांग्रेस वर्किंग कमेटी के अपने साथियों से उन्होंने कही थी कि — “जब तक मैं शुरू न करूं, प्रतीक्षा कीजिए । मेरे प्रस्थान  के साथ ही इसके पीछे का विचार सामने आ जायेगा ।” (D.G.Tendulkar, Mahatma, Life of Mohandas Karamchand Gandhi, Vol.3, page, 20)

तब से अब की यात्रा में एक बुनियादी फर्क यह है कि वस्तुतः कांग्रेस का केंद्रीय नेतृत्व अभी यात्रा में, अर्थात् संघर्ष की जमीन पर है और उसके क्षत्रप जन-प्रतिनिधि अपनी सत्ताओं की चिंता में । लेकिन समानता यह है कि यात्रा के अंत तक आते-आते हर हाल में इन दोनों के बीच की दीवार यात्रा के राजनीतिक परिणामों से ही ढहेगी, जैसा सन् ’20 में खिलाफत के सवाल से शुरू हुए गांधी जी के असहयोग आंदोलन से लेकर डांडी मार्च के परिणाम के बीच से हुआ था । निस्संदेह, कांग्रेस भारत की राजनीति के जनतांत्रिक सवालों पर संघर्ष की एक सबसे पुरानी प्रमुख पार्टी की अपनी प्रतिष्ठा को फिर से हासिल करेगी ।

यात्रा अभी केरला से निकल कर कर्नाटक में प्रवेश करेगी, और फिर बीस दिनों बाद तेलंगाना, आंध्र होते हुए महाराष्ट्र, मध्यप्रदेश में जायेगी । और कहना न होगा, यह यात्रा ज्यों-ज्यों आगे बढ़ेगी, यात्रा का संदेश उतना ही अधिक, अपने अनेक आयामों के साथ प्रकट होता चला जायेगा, जैसा गांधीजी ने कहा था कि ‘मुझे प्रस्थान करने दीजिए, इस यात्रा के पीछे के विचार सामने आते जायेंगे’ ।

आजादी की लड़ाई के इतिहास से अवगत लोग जानते हैं कि सविनय अवज्ञा की डांडी यात्रा का बीज वास्तव में सन् ’20 के ‘असहयोग आंदोलन’ के समय पड़ गए थे । 1 अगस्त 2020 को गांधी जी ने वायसराय लार्ड चेम्सफोर्ड को एक पत्र लिख कर अपने उन सब ख़िताबों को लौटा देने की घोषणा की थी जो उन्हें अंग्रेजों ने मानवता की सेवा में दक्षिण अफ़्रीका में उनके कामों के लिए उन्हें दिए थे । अपने उस कदम को उन्होंने ‘ख़िलाफ़त’ के प्रति ब्रिटिश साम्राज्य की सरकार के ‘विवेकहीन, अनैतिक और अन्यायी रवैये और इस अनैतिकता के पक्ष में उसके एक के बाद एक ग़लत कामों के विरोध में अपने असहयोग का प्रारंभ कहा था’ । उन दिनों कांग्रेस के अंदर मालवीय जी जैसे पुराने लोगों ने गांधीजी के फैसले का विरोध किया था । उनके जवाब में गांधीजी ने लिखा कि “एक उच्चतर कर्त्तव्य का मुझसे तकाजा है कि असहयोग समिति (जिसका गठन मेसोपोटामिया पर ब्रिटेन के कब्जे की योजना की खिलाफत के प्रश्न को केंद्र में रख कर गठित किया गया था — अ.मा.) ने जो कार्यक्रम निश्चित कर दिया है, उससे मैं पीछे न हटूँ । जीवन में कुछ ऐसे क्षण आते हैं जब आपके लिए कोई ऐसा काम करना भी जरूरी हो जाता है जिसमें आपके अच्छे से अच्छे मित्र भी आपका साथ न दे सकें । जब कभी कर्त्तव्य को लेकर आपके मन में द्वंद्व पैदा हो जाये उस समय आपको अपने अन्तर की शान्त और क्षीण आवाज पर ही निर्णय छोड़ देना चाहिए ।” 

इसके अलावा इस लेख में उन्होंने दिलचस्प ढंग से व्यक्ति और संगठन के बीच के संबंध को व्याख्यायित करते हुए कांग्रेस और उसके सदस्यों के बीच संबंधों के बारे में लिखा था — “कांग्रेस तो आखिरकार राष्ट्र के विचारों को वाणी देने वाली संस्था है । और जब किसी के पास ऐसी कोई सुविचारित नीति या कार्यक्रम हो जिसे वह चाहे कि सब लोग स्वीकार करें या अपनायें, लेकिन साथ ही वह उसके पक्ष में जनमत भी तैयार करना चाहता हो, तो स्वभावतः वह कांग्रेस से उस पर विचार करने और उसके सम्बन्ध में अपना मत स्थिर करने को कहेगा । लेकिन जब किसी को किसी नीति विशेष या कार्य विशेष में अडिग विश्वास हो तब उस पर कांग्रेस के मत की प्रतीक्षा करना भूल होगा, ऐसे व्यक्ति को तो उस नीति या कार्यक्रम के अनुसार काम करके उसकी कार्य-साधकता सिद्ध कर देनी चाहिए ताकि सम्पूर्ण राष्ट्र उससे स्वीकार ले ।”

गांधीजी अपने स्वतंत्र मत के विषय को आगे और व्याख्यायित करते हुए कहते हैं कि “किसी भी संस्था में सदा तीन श्रेणियों के लोग आते हैं : एक तो वे जिनके विचार अमुक नीतिके पक्ष में हैं, दूसरे वे जिनकी राय उस नीति पर सुनिश्चित किन्तु विपक्ष में होती है और तीसरे वे जिनके इस सम्बन्ध में कोई निश्चित विचार ही नहीं है । कांग्रेस इसी तीसरी और बड़ी श्रेणी के लोगों के एवज में निर्णय लेती है । असहयोग के सम्बन्ध में मैं एक निश्चित विचार रखता हूँ ।”(सम्पूर्ण गांधी वांग्मय, खण्ड 18, ‘कांग्रेस और असहयोग’,  पृष्ठ-122-123)

यह है कांग्रेस संगठनात्मक सिद्धांत का एक मूलभूत सच । आजादी के पहले और बाद में भी कांग्रेस के इतिहास में व्यक्ति और व्यक्तियों के समूह और कांग्रेस नेतृत्व के बीच सीधी टकराहटों के अनेक उदाहरण मिलते हैं । इसमें आलाकमान भी होता है और क्षत्रप और व्यक्तिगत विचार रखने वाला सदस्य भी । बहुमत की अधीनता को मान कर चलने का ऐसा कोई अटल सिद्धांत नहीं है, जिसमें आलाकमान को चुनौती देने वाले का कोई स्थान नहीं होता है । संगठन में आलाकमान की हैसियत एक नैतिक शक्ति की तरह की ज्यादा होती है । 

यही कारण है कि कांग्रेस में बहुत कुछ ऐसा चलता है जो उस दल की आंतरिक संहति को संदेहास्पद बनाता है, पर शायद इसकी यही तरलता उसके सदस्यों की बीच और आमजन से कांग्रेस के संगठन के बीच अन्तर्क्रिया को ज्यादा आसान और व्यापक भी बनाता है । ‘भारत जोड़ो यात्रा’ का पूरा स्वरूप, जिसे डांडी मार्च की तरह ही स्थानीय लोगों के तमाम हिस्सों के साथ संवाद की एक प्रक्रिया के रूप में स्थिर किया गया है और जिसके साथ ही साथ देश के और भी कई हिस्सों में ऐसी ही यात्राओं के आयोजन की घोषणा की गई है, उन सबसे देश भर में शुरू होने वाले राजनीतिक जन-संवाद के सामने राजस्थान की तरह की घटना और कांग्रेस अध्यक्ष का चुनाव भी शायद बहुत ज्यादा मायने नहीं रखेगी । 

आज के समय में सांप्रदायिक फासीवाद की कठिन चुनौती के मुकाबले में सक्षम एक नई कांग्रेस का उदय जरूरी है और वह ‘भारत जोड़ो यात्रा’ की तरह के जन-संवाद के प्रभावशाली कार्यक्रमों के बीच से ही संभव हो सकता है ।     


रविवार, 25 सितंबर 2022

फतेहाबाद में विपक्ष की एकता भी ‘भारत जोड़ो’ का एक राजनीतिक प्रतिफलन है

 

—अरुण माहेश्वरी



कल (25 सितंबर) हरियाणा के फतेहाबाद में देवीलाल जी के 109वें जन्मदिवस के ‘सम्मान दिवस समारोह’ के मंच पर विपक्ष की ताक़तों की एकता का अनूठा प्रदर्शन बताता है कि आने वाले दिनों में भारत में सांप्रदायिक फासीवाद के खिलाफ भारत की जनता के एकजुट संघर्ष का जो अंतिम रूप सामने आने वाला है, उसका दायरा किस हद तक व्यापक और गहरा हो सकता है । 

इस मंच पर नीतीश कुमार, शरद पवार, सीताराम येचुरी, तेजस्वी यादव के अलावा शिव सेना के अरविंद सामंत और अकाली दल के सुखबीर सिंह बादल भी शामिल थे । और सबसे बड़ी बात यह थी कि जो कांग्रेस दल इस मंच पर उपस्थित नहीं था, वह अनुपस्थित रह कर भी यहाँ पूरी ताक़त के साथ मौजूद था । इस मंच के सब नेता इस बात पर एकमत थे कि विपक्ष के एकजुट संघर्ष के मंच में कांग्रेस और वामपंथियों की एक प्रमुख भूमिका होगी । इस बात की खुली ताईद की गई कि नीतीश आदि सोनिया गांधी के संपर्क में है । कांग्रेस के नए अध्यक्ष का चुनाव संपन्न हो जाने के बाद ही विपक्षी एकता की आगे की रणनीति की ठोस रूप-रेखा सामने आएगी । 

यही बात और भी कई ऐसे क्षेत्रीय दलों के बारे में भी कही जा सकती हैं, जो अपने-अपने राज्यों में सत्ता पर हैं । फासीवाद के प्रतिरोध के इस अखिल भारतीय प्रतिरोध मंच में वे आगे कैसे अपनी भूमिका अदा करेंगे, इसकी साझा रणनीति में उन सबका भी अपना योगदान होगा । 

कहना न होगा कि इस मंच के निर्माण का मुख्य आधार होगा - विभाजनकारी फासीवाद के खिलाफ एकजुट जनतांत्रिक भारत । 

नीतीश कुमार ने विपक्षी एकता के इस मंच के राजनीतिक आधार को स्पष्ट करते हुए यही कहा कि बीजेपी अपने राजनीतिक स्वार्थों के लिए हमारे समाज में हिंदू-मुस्लिम विद्वेष पैदा कर रही है, लेकिन यथार्थ में हमारे समाज में ऐसा कोई विरोध है नहीं । इस विद्वेष का जो शोर सुनाई देता है वह चंद उपद्रवी तत्वों की कारस्तानी भर है । 

का. सीताराम येचुरी ने भी कहा कि बीजेपी को भारत को, उसके मूलभूत मूल्यबोध को नष्ट करने की अनुमति नहीं दी जा सकती है । वह जनता के एक हिस्से को दूसरे से नफ़रत करना सिखा कर अपना लाभ करना चाहते हैं । उनकी यह योजना पराजित होगी । शरद पवार ने किसानों की समस्याओं के समाधान के लिए बीजेपी को परास्त करना ज़रूरी बताया, तो सुखबीर सिंह बादल ने देश के संघीय ढाँचे की रक्षा के लिए किसान-मज़दूर एकता की बात कही ।

हम सभी विपक्ष के दलों की अब तक की भूमिकाओं के इतिहास के कई नकारात्मक पहलुओं के साक्षी रहे हैं। इसके बावजूद फतेहाबाद से उठा व्यापकतम विपक्षी एकता का यह स्वर एक बिल्कुल भिन्न सच्चाई का द्योतक है । यह वही स्वर है, जो प्रगतिशील भारत के हृदय में हमेशा से रहा है और जो आज की नई चुनौती भरी परिस्थिति में राहुल गांधी की ‘भारत जोड़ो यात्रा’ से पैदा हो रहे आलोड़न के बीच से मूर्त रूप में सुनाई पड़ रहा है । भारत एक नहीं, अनेक फूलों को मिला कर बना हुआ एक सुंदर गुलदस्ता है, भारत का यही मूलभूत सत्य इस नये स्वर की शक्ति का मूल स्रोत है।

राहुल की इस ऐतिहासिक यात्रा का मुख्य नारा है — वे तोड़ेंगे, हम जोड़ेंगे । फतेहाबाद के मंच पर विपक्ष की अनोखी एकता का दृश्य क्या इसी नारे का एक सामयिक राजनीतिक प्रतिफलन नहीं है ? जैसे-जैसे यात्रा आगे बढ़ेगी, कर्नाटक में एक जन-ज्वार के रूप में प्रवेश करेगी, विपक्ष की एकता का मंच उसी अनुपात में और प्राणवान होता दिखाई देगा ।

विपक्ष की राजनीति के नाना स्तरों पर आज जो हो रहा है, वह सब एक राजनीतिक प्रक्रिया है, एक प्रगतिशील राजनीतिक चर्वणा । एकजुट भारत के स्थायी भाव के साथ जनतांत्रिक और धर्म-निरपेक्ष राजनीति के अनुभावों की चर्वणा । आरएसएस-मोदी-शाह के माफ़िया राज के खिलाफ विपक्ष की एकता की इसी चर्वणा का एक रूप स्वयं कांग्रेस दल के अंदर उसके राष्ट्रीय अध्यक्ष के चुनाव के लिए चल रही चर्वणा के रूप में भी दिखाई दे रहा है । यह एक ध्रुव सत्य है कि आज कोई भी विपक्षी दल अपने अस्तित्व की रक्षा मात्र के लिए ही इस प्रकार की चर्वणा से अछूता नहीं रह सकता है । अपने आंतरिक संकटों से मुक्ति के लिए ही फासीवाद -विरोधी संघर्ष की राजनीतिक गंगा में डुबकी लगाने के लिए ही उसे अपने अंदर के बहुत सारे कलुष को उलीच कर उनसे मुक्त होना होगा । समय बतायेगा कि जो दल जितना जल्द नई राजनीति के इस सत्य को अपनायेगा, वह उतना ही अपनी प्रासंगिकता को बनाए रखने में सक्षम होगा । अन्यथा उभर रहे एकजुट, जनतांत्रिक और स्वच्छ भारत की नई राजनीति में वह एक म्रियमाण शक्ति से अधिक कोई हैसियत नहीं रखेगा । 

हम जानते हैं कि यह वह समय है जब प्रचारतंत्र के सारे भोंपू फिर एक बार इस शोर से आसमान को सर पर उठायेंगे कि - ‘आयेगा तो मोदी ही’। चारों ओर आरएसएस के विराट रूप की शान में भजन-कीर्तन के व्यापक आयोजन शुरू हो गये हैं और आगे और होंगे ।  विपक्ष को तोड़-मरोड़ कर, कंगाल बना कर कुचल डालने के मोदी-शाह के गर्जन-तर्जन की माया के बेहद डरावने दृश्य रचे जायेंगे । और इन सबसे अनेक कमजोर दिल नेक लोगों की धुकधुकी बढ़ेगी, उनमें नई-नई आशंकाओं के बीज पड़ेंगे, उन्हें हिटलर की अपराजेयता के इतिहास-विरोधी डर का ताप भी सतायेगा ।

पर इन सबका एक ही उत्तर है —‘भारत जोड़ो यात्रा’ । अत्याचारों के खिलाफ नागरिकों के स्वातंत्र्य के सविनय अवज्ञा के भाव से प्रेरित एक ऐसी यात्रा जिसने कभी इसी ज़मीन पर दुनिया की सबसे प्रतापी साम्राज्यवादी शक्ति को घुटने टेकने के लिए मजबूर किया था । यह यात्रा कांग्रेस दल के नेतृत्व में चल रही यात्रा होने पर भी भारत के किसानों और मज़दूरों, बेरोज़गार नौजवानों और भारत के सबसे अधिक उत्पीड़ित अंश, स्त्रियों के उन सभी संघर्षों का ही ऐसा राजनीतिक मिलन-बिंदु है, जो अपने अंतर में एक नए भारत के उदय के परमार्थ से संचालित है । इस यात्रा के लक्ष्य में मोदी को पराजित करना तो जैसे एक निमित्त मात्र है । भारत की जनता की एकता ही इसका प्रमुख उपादान है । ‘मोदी तो हारेंगे ही’ । 

हम ‘भारत जोड़ो यात्रा’ के समानांतर सांप्रदायिक फासीवाद के खिलाफ भारत के विपक्ष की व्यापकतम एकता के कांग्रेस, वाम और नीतीश आदि के फतेहाबाद प्रयत्नों के आगे और सुफल की अधीर प्रतीक्षा करेंगे ।


रविवार, 18 सितंबर 2022

सारी दुनिया में फासीवाद के खिलाफ जनसंघर्ष का एक नायाब उदाहरण होगा - ‘भारत जोड़ो यात्रा’

 -अरुण माहेश्वरी



आज के दमघोंटू, डर और नफ़रत से भरे राजनीतिक वातावरण में कांग्रेस की ‘भारत जोड़ो यात्रा’ में भारी भीड़ के जोश और उत्साह के जो अभूतपूर्व नज़ारे दिखाई दे रहे हैं वे सारी दुनिया के सामने फासीवाद के खिलाफ एक व्यापक अहिंसक जन-संघर्ष का एक नायाब उदाहरण पेश करते हुए दिखाई पड़ते हैं।

राजनीतिक संघर्षों के पारंपरिक पश्चिमी अनुभवों के आधार पर जो यह आम धारणा है कि फासीवाद को सिर्फ़ आंतरिक संघर्षों के बल पर पराजित करना मुश्किल है, यह यात्रा उसकी अजेयता के इस मिथ को तोड़ती हुई प्रतीत होती है । मोदी-शाह की कुचक्री जोड़ी के आतंक को सड़कों पर चुनौती दी जा रही है । यह नफ़रत, हिंसा और षड़यंत्रों के पैशाचिक बल के विरुध्द जनता के तमाम वर्गों में मौजूद प्रेम, सद्भाव और सहजता पर टिके जनतंत्र की अकूत शक्ति को सड़कों पर उतारने का भारत का वही आज़माया हुआ रास्ता है जिसका प्रयोग यहाँ आज़ादी की लड़ाई में दुनिया की सबसे ताकतवर औपनिवेशिक शक्ति के विरुद्ध सफलता के साथ किया जा चुका है ।

भारत की जो राजनीतिक शक्तियाँ आरएसएस-भाजपा के सांप्रदायिक फासीवाद को समझते हुए इसके विरुध्द एकजुट संघर्ष को ही आज के काल का अपना प्राथमिक कर्तव्य मानती हैं, उनकी इसके प्रति नकारात्मकता अपने ही घोषित राजनीतिक लक्ष्य का विरोध और उससे दूरी बनाने जैसा होगा। इसकी उन्हें निश्चित तौर पर दूरगामी राजनीतिक क़ीमत भी चुकानी पड़ेगी । उनके लिए ज़रूरी है कि वे इस यात्रा के प्रति संघर्ष और एकता के एक सकारात्मक आलोचनात्मक दृष्टिकोण को अपनाए और इसकी सफलता में अपना भी यथासंभव योगदान करें ।

इसमें कोई शक नहीं है कि इस यात्रा का नेतृत्व कांग्रेस दल, अर्थात् संसदीय राजनीति का एक प्रतिद्वंद्वी दल कर रहा है । सीमित अर्थ में, यह उसकी खुद की स्थिति को सुधारने की जैसे एक अंतिम कोशिश भी है । लेकिन परिस्थितियों के चलते इस यात्रा के उद्देश्यों का वास्तविक परिसर सीमित दलीय दायरे से बहुत परे, यहाँ तक कि संसदीय राजनीति की सीमा से भी बहुत बाहर, पूरे देश के अस्तित्व की रक्षा की लड़ाई तक फैल चुका है । यह समय इस मुग़ालते में रहने का नहीं है कि सांप्रदायिक फासीवाद को महज़ संसदीय राजनीति की सीमाओं में, चुनावी जोड़-तोड़ की राजनीति से पराजित किया जा सकता है।

कांग्रेस की इस यात्रा के प्रभाव से ही विचित्र ढंग से यह साफ निकल कर आ रहा है कि भारत में जनतंत्र, संविधान और देश की एकता और अखंडता की रक्षा के सवाल किस हद तक कांग्रेस दल के अस्तित्व और उसकी शक्ति के सवाल के साथ जुड़े हुए हैं । उलट कर कहें तो, फासीवाद की सफलता कांग्रेस की विफलताओं के अनुपात से ही जुड़ी हुई है । यह कुछ वैसा ही है जैसे कहा जाता है — समाजवाद नहीं तो फासीवाद !

भारत में वामपंथी ताक़तों के कमजोर होने की देश जो क़ीमत चुका रहा है, उसे कोई भी समझ सकता है । यह समाजवाद के पराभव से सारी दुनिया के स्तर पर चुकाई जा रही क़ीमत की तरह ही है । इसने मेहनतकश जनता के सभी हिस्सों की संघर्ष और सौदेबाज़ी की शक्ति को कमजोर किया है । जिस पश्चिम बंगाल को हम कभी जनतंत्र की रक्षा के संघर्ष की एक अग्रिम चौकी के रूप में देखते थे, उस पर आज भाजपा से अवैध संबंध रखने वाली के तृणमूल कांग्रेस की जकड़बंदी बनी हुई है ।

इसी प्रकार अन्य प्रदेशों की क्षेत्रीय शक्तियाँ भी फासीवाद के खिलाफ लड़ाई के मामले में इतनी स्वच्छ नहीं है कि उनके ज़रिये भारत की जनतांत्रिक और धर्म-निरपेक्ष आत्मा पूरी तरह से प्रतिबिंबित हो सके ।

ऐसे में कांग्रेस ही अकेला ऐसा मंच रह गया है जिससे फासीवाद-विरोध की लड़ाई का रास्ता निर्णायक रूप में तय होना है । अर्थात्, कांग्रेस ही आज जनतंत्र की रक्षा की लड़ाई की अंतिम चौकी है । उसकी शक्ति और गोलबंदी ही फासीवाद-विरोधी संघर्ष का भविष्य तय करेगी ।

इसीलिए ‘भारत जोड़ो यात्रा’ कांग्रेस को मज़बूत करने के साथ ही जनतंत्र मात्र को बचाने की भी यात्रा है । यह प्रकृत अर्थ में भारत में जनतंत्र के लिए संघर्ष के एक ‘लाँग मार्च’ का प्रारंभ है । दुनिया के इतिहास की सबसे लंबी, 3570 किलोमीटर की शांतिपूर्ण, एक व्यापक जन-आलोड़न पैदा करने वाली पैदल यात्रा ।

जब तक इस यात्रा के महत्व को इस रूप में आत्मसात् नहीं किया जाता है, हमारा मानना है कि इसके प्रति कोई सही दृष्टिकोण विकसित नहीं किया जा सकता है । संकीर्ण जोड़-तोड़ के राजनीतिक स्वार्थों के मानदंडों पर इसका आकलन तमाम आकलनकर्ता के ही उथलेपन और क्षुद्रता के अलावा और किसी चीज़ का परिचय नहीं देगा ।

इस यात्रा को अभी सिर्फ़ 12 दिन हुए हैं । अभी यह तमिलनाडु के बाद दूसरे राज्य केरला से गुजर रही है । इसका तीसरा राज्य होगा — कर्नाटक । कर्नाटक में चंद महीनों बाद ही चुनाव होने वाले हैं और कांग्रेस दल उस चुनाव में जीत का एक प्रमुख दावेदार दल है । केरला में दिखाई दिए आलोड़न से ही यह अंदाज़ा लगाया जा सकता है कि कर्नाटक में इस यात्रा का क्या स्वरूप होगा । इसमें निस्संदेह राज्य से बीजेपी के शासन को तिनकों की तरह बहा ले जाने वाली बाढ़ की प्रबल शक्ति के लक्षण दिखाई देंगे। और, कहना न होगा, वहीं से इस यात्रा का आगे का स्वरूप स्पष्ट होता जाएगा ।

आगे यह यात्रा आंध्रप्रदेश, तेलंगाना, महाराष्ट्र होते हुए जैसे-जैसे आगे बढ़ेगी, उसी बीच गुजरात और हिमाचल प्रदेश के चुनाव हो जायेंगे । यात्रा की गूंज अनिवार्य रूप से उन चुनावों में भी सुनाई देगी, जो इसके आगे के पथ के स्वरूप को तय करेगी । इसी बीच कांग्रेस दल पूरब और मध्य के राज्यों में भी ऐसी कई यात्राओं के कार्यक्रम की घोषणा करने वाला है ।

इस प्रकार, इस ‘भारत जोड़ो यात्रा’ से लेकर कांग्रेस की अन्य सभी यात्राओं के बीच से सांप्रदायिक फासीवाद के खिलाफ एक सर्वतोमुखी जनतांत्रिक संघर्ष का जो एक नक़्शा उभरता हुआ दिखाई देता है, वह इसे दुनिया में फासीवाद के खिलाफ जनता की लड़ाई के एक नायाब प्रयोग का रूप दे सकता है । इसके प्रति कोई भी जनतंत्रप्रेमी धर्मनिरपेक्ष व्यक्ति और शक्ति उदासीन नहीं रह सकते हैं ।


रविवार, 4 सितंबर 2022

केरल की नेत्री शैलजा को मैगसेसे प्रसंग पर एक नज़र


 

अरुण माहेश्वरी 

 


मार्क्सएंगेल्स और लेनिन के विचारों में समाजवादी समाज और समाजवादी राज्य के अंगों की जो कटी-छँटी छवियाँ थीउन्हें रूस मेंनवंबर क्रांति और सोवियत संघ के विकास के साथ पहली बार एक समग्रएकजुट छवि की पहचान मिली थी  शरीर के अलग-अलगअंगों की अनुभूति के परे एक अन्य छवि में अपने शरीर की एकजुट छवि को देखना ही मनोविश्लेषण की भाषा में प्रमाता (subject) केविकास का प्रतिबिंब चरण कहलाता है  यह छवि ही उसकी जैविक सत्ता से विच्छिन्न उसकी वह पहचान है जिसमें प्रमाता के अहम्के बीज पड़ते हैं  मानव समाज के प्रतीकात्मक जगत में कुछ निश्चित अर्थ प्रदान करने वाले संकेतक के रूप में उसका स्थान बनता है  

 

परप्रमाता जितना अपनी इस एकान्वित छवि की क़ैद में होता हैउतना ही वह अपनी प्राणीसत्ता से भी जुड़ा होता है  यह छविइसीलिए कोई जड़फोटो वाली छवि नहीं होती है क्योंकि यथार्थ और प्रतीकात्मक जगत के अन्य संकेतकों के स्पंदन से इस एकान्वितिमें जो दरारें पड़ती हैंउनके अंदर से प्रमाता की प्राणीसत्ता के सत्य के नए आयाम सामने आते हैं  उसकी छवि एक विकासमान यथार्थकी छवि का रूप ले लेती है  

 

यही वजह है कि सोवियत संघ के रूप में समाजवाद की जो एक एकजुट छवि बनी थीवह कभी भी एक स्थिर छवि नहीं रही  खुद रूसमें ही समाजवादी विकास के चरणों के अनुरूप इसके कई नामकरण हुए  लेनिन ने तो एक समय में बिजली को ही समाजवाद कहा था परवर्तीयुद्ध के दिनों में समाजवादी राज्य की एक दूसरे प्रकार की सख़्त कमांड व्यवस्था विकसित हुई  ‘कम्युनिस्ट अन्तर्राष्ट्रीय’ कीपूरी अवधारणा इसीलिए ढह गई क्योंकि सोवियत संघ के राज्य के ढाँचे और उसकी नीतियों को ही पूरी तरह से स्वीकारने के लिए चीनतैयार नहीं था  बाद में तो सभी देशों की ठोस परिस्थितियों के अनुसार समाजवादी क्रांति का रास्ता और समाजवादी राज्य कीअवधारणा दुनिया के कम्युनिस्ट आंदोलन की एक सर्व-स्वीकृत नीति बन चुकी है  

 

अर्थात्समाजवाद की प्राणीसत्ता नई-नई परिस्थितियों में नए-नए अर्थों के साथ सामने आती रही है  समाजवादी शिविर की एकान्वितछवि बहुत पहले ही ध्वस्त हो गई थी  सोवियत संघ के बिखराव के साथ तो समाजवादी शिविर एक अतीत की वस्तु नज़र आने लगा  

 

समाजवादी शिविर और विश्व कम्युनिस्ट आंदोलन के इस संक्षिप्त ब्यौरे का तात्पर्य सिर्फ़ यह है कि समाजवाद अथवा किसी भी प्रमाताकी कोई एक स्थिर छवि नहीं हुआ करती है  उसका तात्त्विक सत्य नई परिस्थितियों के संकेतों के स्पंदन से उसकी नई-नई छवियों कोव्यक्त करता है  भारत में इसकी एक बड़ी मिसाल यह है कि यहाँ के कम्युनिस्ट आंदोलन की प्रमुख शक्ति सीपीआई(एमने बहुदलीयसंसदीय व्यवस्था को अपने रणनीतिक लक्ष्य के रूप में अपने कार्यक्रम में अपनाया है  

 

अर्थात् समाजवाद की किसी एक छवि में अटकना कोई बुद्धिमत्ता नहींएक शुतुरमुर्गी रुग्ण प्रवृति हैजो किसी भी प्रमाता में नयेपन औरबदलाव से डर को दर्शाती है  

 

यहाँ गौर करने की बात है कि विश्व कम्युनिस्ट आंदोलन की अनेक धारणाएँ आज भी शीतयुद्धकाल की परिस्थितियों में विकसित हुईधारणाएँ हैंजिस काल में सोवियत संघ के दायरे के बाहर की हर चीज को गहरे संदेह की नज़र से देखा जाता था  यहाँ तक कि ज्ञानचर्चा के मामले में भीजो ज्ञान सोवियत संघ के विद्वानों के बीच से पैदा नहीं हुआ थाउसे समाजवादी विचारों का विरोधी अथवा उसकेविकल्प की तलाश की कोशिश के रूप में शक के दायरे में डाल दिया जाता था  दुनिया में इसके अनेक प्रकार के उदाहरण मौजूद है इसने अंततः और किसी का नहींसोवियत समाजवाद का ही सबसे अधिक नुक़सान किया ; अपनी कमियों को देखने की उसकी शक्तिको कम किया  सोवियत समाजवाद के पतन का यह एक सबसे बड़ा कारण माना जाता है  

 

मसलन्नोबेल पुरस्कार को ही लिया जाए  1975 में जब आन्द्रें सखारोव को नोबेल की घोषणा की गई तो सोवियत सरकार ने उसेसोवियत संघ के खिलाफ एक ग़ैर-दोस्ताना प्रतिक्रियावादी कदम बताया था  इस पुरस्कार को इसके प्रणेता आल्फ्रेड नोबेल केव्यवसाय की छाया में दर्शाने की एक प्रवृति एक तबके में हमेशा से देखी जा सकती है  

 

कमोबेशवही स्थिति मैगसेसे पुरस्कारों के बारे में भी है  पिछले दिनों जब यह पुरस्कार रवीश कुमार को मिला थाहम सब ने उन्हें ढेरसारी बधाइयाँ दी थी  लेकिन अब अचानक ही केरल की सीपीएम की नेता के के शैलजा को मैगसेसे पुरस्कार के सिलसिले में पार्टी केनेता फ़िलीपीन्स के राष्ट्रपति रेमोन मैगसेसे के पुराने इतिहास को दोहरा रहे हैं !

 

जिन पुरस्कारों को विश्व स्तर पर श्रेष्ठता की स्वीकृति के प्रतीक के रूप में अपनाया गया हैउन्हें उनसे जुड़े नामों के इतिहास की अपनीसमझ के आधार पर हमले का लक्ष्य बनाना क्या दर्शाता है ? हमारा सवाल है कि क्या यह आक्रामकता शुद्ध आत्मरति (narcissism) का मामला नहीं है ? खुद के लिए तैयार किया गया सांस्कृतिक सुरक्षा कवच का मामला जिसमें सिर्फ नकार के ज़रिए खुद कोपरिभाषित करने की कोशिश की जाती है  क्या यह एक ऐसी सामुदायिक घेराबंदी को नहीं दर्शाती है जो समुदाय के सदस्यों को एकसांस्कृतिक अधीनता को स्वीकारने के लिए मजबूर किया करती है ? 

 

शीतयुद्ध के काल में कम्युनिस्ट आंदोलन की जो एकान्वित छवि तैयार हुई थीउससे उत्पन्न आत्मरति और उसकी आक्रामकता यदिआज भी ज़िंदा रहने की ज़रूरत बनी हुई है तो यही मानना पड़ता है कि भारत का कम्युनिस्ट आंदोलन आज भी सोवियत समाजवाद केकाल में अटका हुआ है  

 

1989 के बाद से दुनिया का नक़्शा काफ़ी बदल गया है  समाजवाद ने भी अनेक नए अर्थों को हासिल किया है  मार्क्सवादी विमर्श केअनेक नए आयाम विकसित हो चुके हैं  समाजवाद की प्राणीसत्ता बंधनों से मुक्ति का संदेश देती है  उसे किसी भी राजसत्ता के बंधनोंसे बांधा नहीं जा सकता हैवह भले सोवियत संघ की राजसत्ता ही क्यों  हो  इसीलिए ज़रूरी है कि आज के युग के संकेतों के बीच सेसमाजवाद की प्राणीसत्ता को आयत्त किया जाएऔर वैसी तमाम बद्धमूल धारणाओं से मुक्त हुआ जाएजो मनुष्य की श्रेष्ठउपलब्धियों को अपनाने के रास्ते में अनायास ही बाधा बन जाती है  

 

समानता के साथ मुक्ति के आदर्शों को अपना कर ही अपने बने रहने और अपने प्रभुत्व को क़ायम करने के लिए ज़रूरी किसी भीआक्रामकता को सही साबित किया जा सकता है